अंतिम पंक्ति का इंसान / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
पहले से ही हमारे शहर के निवासियों को देवार्चन के आगमन की खबर ज्ञात थी। उस दिन वह न केवल हमारी बस्ती के नवयुवक-संघ के वार्षिकोत्सव में मुख्य-अतिथि के रुप में भाग लेने आ रहे थे, वरन उन्हें कई जगहों पर संबोधन और उदघाटन-कार्यक्रमों में योगदान भी करना था।
मेरे सामने अनभिज्ञ बनकर पिताजी ने मेरी धर्मपत्नी अनुपमा तथा मेरी बहिन रीना को कहा था, "जानती हो, मंत्री महोदय अपने चन्दर के दोस्त है। तुम दोनों चन्दर से कहो कि वह उन्हें अपने घर बुलाए।"
जब मैं कॉलेज में पढता था, देवार्चन मेरा जिगरी दोस्त था. आजकल वह उडीसा में एक जानी-मानी हस्ती थीं। हर दिन अखबारों में उनकी खबर छपना एक सामान्य घटना हो गई थी। यह बात बिल्कुल अलग थी, देवार्चन और मैने पूरे चार साल तक कॉलेज के ही छात्रावास में, एक ही कमरे में, एक ही छत के नीचे व्यतीत किए थे. ऐसी बात नहीं थी कि देवार्चन आजकल मुझे भूल गए होंगे, परंतु इस बात पर संदेह हो रहा था कि क्या वह हमारे पूर्ववत् बंधुत्व के गुरुत्वाकर्षण को अनुभव कर पाएँगे?
उनको घर बुलाने की बात को मैंने हँसते हुए यह कहकर टाल दिया था, "मंत्री लोग बड़े धूर्त होते हैं। वे लोग आश्वासन जरुर देते हैं, मगर सही में वे कुछ भी काम नहीं करते। जितनी भी गहरी दोस्ती हो, वे लोग कुछ काम नहीं करेंगे।"
कॉलेज छोडे हुए अर्सों बीत गए थे, लेकिन देवार्चन से मेरी कभी मुलाकात नहीं हो पाई थी। केवल एक बार अल्प समय के लिए मुलाकात हुई थी, किसी निर्वाचन सभा में। उस समय देवार्चन ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया था। उनकी आत्मीयता से भरी बातों ने मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया था, इतना होने के बाद भी मुझे इस बात पर संदेह हो रहा था कि कहीं ये मीठी-मीठी बातें महज एक ढोंग तो नहीं है। वोट पाने के लिए चतुराई भरी साजिश तो नहीं है।
कॉलेज जमाने के पुराने मित्रों में अक्सर देवार्चन के विषय में बात-चीत होती थी। देवार्चन के मंत्रीपद पाने से पुराने कोई भी मित्र खुश नहीं थे। हो सकता है उनको देवार्चन की उपलब्धियों से ईष्र्या हो रही हो। दोस्तों के ईष्र्यायुक्त मंतव्यों पर पता नहीं क्यों उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था, क्योंकि मैं उसको काफी करीबी से जानता था। पूरे चार साल तक वह छात्रावास के एक ही कमरे में मेरे साथ रहा था, इसलिए मैं उसकी नस-नस से वाकिफ था। सही अर्थों में वह दिल से निष्कपट तथा मन से अत्यंत सरल था।
कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होना मेरे लिए अब संभव नहीं था. मैं तो केवल इतना ही कर सका, जैसे ही मैने कॉलेज छोडा, वैसे ही मैने केंद्र सरकार के एक उपक्रम में तृतीय श्रेणी के कर्मचारी के रुप में नौकरी प्राप्त कर ली। उसके अलावा मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। उसके बाद मेरी शादी हो गई, फिर बाल-बच्चे पैदा हो गए। मैने अपने आपको इस छोटी-सी दुनिया में सीमित कर लिया था। यद्यपि मैं अपने वंश में इतना सफल व्यक्ति नहीं था, मगर हमारे वंश के अन्य सदस्य जैसे ताऊजी और चाचाजी के बेटे, कोई इंजिनियर, कोई डॉक्टर, कोई बडा व्यापारी बन गए थे, इस वजह से सारे शहर में हमारे परिवार को प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था। उनमें से कई भाई रोटरी या लायन्स क्लब जैसे प्रतिष्ठित संस्थाओं से जुड चुके थे, तो कई भाईयों ने अपने सुंदर बंगलें बनाकर तथा नई-नई कारें खरीदकर समाज में एक सम्मानजनक दर्जा हासिल कर लिया था। उन सभी के सामने मेरी नौकरी इतनी तुच्छ थी कि मेरे शिक्षक पिताजी उसे अपने जीवन की चरम विफलता के साथ-साथ अपने भाग्य को दोष देते थे।
मेरे घरवाले सभी मुझे दोष देते थे कि मैं एक निकम्मा, कामचोर, आलसी तथा तेज-तर्रार नहीं था। वे कहते थे कि अगर कोई सबसे बड़ा मेरा दुर्गुण है तो वह है मैं हर बात का उत्तर 'ना' से प्रारंभ करता हूँ। मैं किसी भी बात के सकारात्मक पहलुओं की तरफ ध्यान नहीं देकर नकारात्मक पहलुओं को विशेष महत्व देता हूँ। यह सारा विश्लेषण मेरी छोटी बहिन रीना के दिमाग की उपज थी और घर के सारे परिजन उसकी इसी बात का समर्थन करते थे।
हर बार रीना बातों-बातों में 'नव' का उदाहरण देती थी। नव मेरा चचेरा भाई था मुझसे उम्र में छ महीने छोटा। तीन बार फेल होने के बाद उसने वाणिज्य विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। फिर उसने कहीं से पचीस हजार का ऋण लेकर 'थ्री एम' नामक एक एजेंसी खोली। थ्री एम का मतलब था मास मीडिया मार्केटिंग ( मार्केटिंग प्रमोटर्स ऑर्गेनाइजेशन प्राइवेट लिमिटेड).
उड़ीसा के एक छोटे-से कस्बे में इस तरह की मार्केटिंग प्रमोटर्स संस्था चल पाएगी, यह बात सभी के लिए संदेहास्पद थी। सभी लोग तो यही सोच रहे थे कि उसका व्यवसाय पूर्णरूपेण डूब जाएगा क्योंकि हमारे परिवार में किसी को भी व्यापार का अनुभव नहीं था, उस पर उसका नए तरीके का व्यापार। उसके व्यापार का अर्थ समझना भी साधारण लोगों के ज्ञान से परे था। किसी को भी इस बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था, शौकीन मिजाज वाले नव के हाथ में यह नए तरीके का व्यवसाय सुरक्षित रह पाएगा। लेकिन देखते-देखते नव का व्यापार खूब फला-फूला। धीरे-धीरे उसने अपनी दूकान को एक अच्छे ऑफिस में परिवर्तित कर दिया। धीरे-धीरे कर उसने अपने ऑफिस में फोन, सुंदर कारपेट तथा टाइप मशीन लगाकर सुसज्जित कर दिया, साथ ही साथ ऑफिस में एक चपरासी व कामकाज करने के लिए बाबू को नियुक्त कर दिया। प्रतिदिन वह नया कोट, नया सूट और नई टाई पहनकर ऑफिस जाने लगा था। मेरे दूसरे चचेरे भाई, जो पहले कभी नव को हीन दृष्टि से देखा करते थे, आजकल वे सभी उसे अपने सिर-आँखों पर बिठाकर रखते थे।
नव की दिन दूनी रात चौगुनी व्यापारिक सफलता मेरे रास्ते का कांटा बन रही थी। नव की सफलता मेरी असफलता को सभी के सामने स्पष्ट कर रही थी। जहाँ नव पुराना स्कूटर बेचकर नई कार खरीदने की बात करता था, वहाँ मैं अपनी साईकिल छोडकर नया स्कूटर खरीदने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। एक तरफ जहाँ नव अपने लिए दुमंजिला मकान तैयार करवा रहा था, वहीं दूसरी तरफ मैं साल में एकबार अपने घर में चूना पोतवाने में असक्षम था. दूसरे लोग मेरी दुखती रग पर हाथ रखकर मुझसे कहते थे, "नव ने अच्छी प्रगति की है। है ना?"
नवयुवक संघ के वार्षिकोत्सव के उपलक्ष में सरपंच ने हमारे कुटुम्ब के सभी सदस्यों को एक सभा में आमंत्रित किया था। उस आयोजन की सफलता के लिए तन-मन-धन से सहयोग व सहायता प्रदान करने के लिए अनुरोध किया था। इस बात का जितना दुख मुझे नहीं लग रहा था। उससे ज्यादा दुख मुझे पिताजी की उस बात का लग रहा था, मैं पिताजी की आशाओं पर खरा नहीं उतरा और ना ही ऐसा कोई कार्य कर सका जिससे उनका सिर सारे शहर में गर्व से उपर उठता। यही सोचकर मैं मन ही मन बहुत दुखी हो रहा था। यह देखकर रीना उत्क्षिप्त हो रही थी।
मंत्रीजी का हमारे घर आतिथ्य स्वीकार करने से हमारे मोहल्ले वाले सचेत हो जाते और आगे से हमारी अवहेलना नहीं करते। देवार्चन को घर बुलाना न केवल रीना की आंतरिक इच्छा थी, बल्कि पिताजी भी यही चाहते थे। भले ही, उन्होंने मुझे सीधे शब्दों में नहीं कहकर अनुपमा और रीना के सामने अपनी इच्छा प्रकट की थी यह कहते हुए "चन्दर को कहो, वह मंत्रीजी को हमारे घर आमंत्रित करे।"
देवार्चन मेरे दोस्त थे. उनके साथ मेरी चार सालों की स्मृतियाँ जुड़ी हुई थी। पहली बार जब मैने कॉलेज में दाखिला लिया तो रेवेंसा कॉलेज के नाम से डर लग रहा था। गड़जात अंचल का रहने वाला एक दम सीधा-साधा देहाती लडका था मैं। रेवंसा कॉलेज का लाल रंग का विशाल भव्य भवन, छात्रावास की किले की तरह दुमंजिली इमारतें तथा उसमें अध्ययनरत तेज-तर्रार एवं प्रखर- बुद्धिमान छात्रों के बीच में अपने आपको पाकर विचलित हो जाता था। येन-केन-प्रकारेण वहाँ से मैं खिसक जाता था। मेरे लिए सबसे दुष्कर कार्य होता था, कॉलेज में रुम नम्बर देखकर अपनी कक्षा की खोज करना। मैं तो इतना शर्मीला था कि हॉस्टल में एक साथ रहने वाले तीन साथियों से एक महीने तक कुछ बातचीत भी नहीं कर पाया था।
देवार्चन ने पहली बार मुझे बुलाया था, "कैसे हो भाई? क्या बात है एक महीना हो गया, तुमने हमारे साथ एक बार भी बातचीत नहीं की?"
देवार्चन एक वाकपटु मिलनसार लड़का था। यद्यपि वह भी गडजात अंचल का रहने वाला था, परन्तु वह स्मार्ट था। गड़जात अंचल का होने की वजह से वह सरल ह्मदय का इंसान था। कॉलेज की हर गतिविधियों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। कविता लिखना, छात्र-राजनीति में भाग लेना, नाटको में हिस्सा लेना यहाँ तक कि आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में वह अपनी सराहनीय भूमिका अदा करता था।
देवार्चन ही मुझे पहली बार आकाशवाणी के कार्यालय में लेकर गया था। आकाशवाणी के स्टूडियों में बैटकर हमने दहेज प्रथा के विषय पर हो रही बहस में हिस्सा लिया था। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वहाँ से निकलकर सामने वाली पान की दूकान पर आकाशवाणी से मिले चेक को भुनाकर आपस में पैसों का बँटवारा कर लिया था। जिस दिन हमारा वह कार्यक्रम आकाशवाणी से प्रसारित हुआ था, उस दिन कॉलेज चौक के पास एक होटल में खड़े होकर रेडियों पर वह कार्यक्रम हमने सुना था।
देवार्चन कभी अकेले नहीं रहता था। हमेशा कोई न कोई उसके साथ घूमता -फिरता मिलता था। उसका सबसे नजदीकी दोस्त मनोज हुआ करता था। मनोज एक आशिक-मिजाज लड़का था। जिस गाँव से वह आया था, उस गाँव में उसकी चार-पाँच प्रेमिकाएँ थी। इसके अलावा उडीसा के कई अंचलों से बहुत सारी लड़कियाँ उसकी पत्र-मित्र थीं, जिनसे वह भेंट नहीं कर पाता था, उनसे पत्र-व्यवहार द्वारा सीधे-संपर्क में रहता था। ऐसा भी हुआ, एक बार मनोज के प्रेम-जाल में फँसकर एक लडकी ने आत्म-हत्या तक कर ली। जब-जब उसकी याद आती थी, मनोज अति भावुक हो उठता था।
देवार्चन अक्सर मनोज को उसके आशिक-मिजाजी व्यवहार पर चिढ़ाया करता था। मनोज के लिए वह/एक नए शब्द का प्रयोग करता था, जिससे मनोज प्रतिक्रियावादी बन जाता था। मनोज ने भी देवार्चन के लिए एक नया शब्द ढूँढ निकाला था। वह शब्द था- "नादान!"
उसका नादान से मतलब प्रेम-प्रसंग में विरक्ति। ऐसी बात नहीं थी कि देवार्चन की कोई प्रेम कहानी नहीं थी. उसको भी चाहने वाली एक-दो प्रेमिकाएँ थी गाँव में, मगर देवार्चन उनको बिल्कुल प्रेम नहीं करता था। उसके मन में स्त्रियों के प्रति कोई स्थान नहीं था। उसको प्रेम करने वाली लडकियाँ एक तरफा प्यार करती थीं।
दूसरे शब्दों में देवार्चन भोला था। एक बार तौलिया पहनकर वह बाथरुम में गया। नहाने के बाद शरीर को पौंछकर तौलिए को अपने कंधे पर रखकर गलियारे में निर्विकार भाव से वह सबके सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर लोग हँसने लगे, पर उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसके आश्चर्य की सीमा तब नहीं रही, जब उसे अपने रुम के भीतर घुसते ही पता चला कि तौलिया तो उसके कंधे पर रखा हुआ था। इतने सरल और भोले स्वभाव का था देवार्चन! उसके पिताजी बड़े धनाढ्य थे और उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा एक डॉक्टर बने। मगर उसने यह कहकर मना कर दिया था कि वह कभी डॉक्टर नहीं बनेगा। देवार्चन इस तरह के कई ऊट-पटांग काम करता था, जिससे उसके वृद्ध पिताजी दुःखी हो जाते थे। कई बार तो वह अपने गाँव को भी नहीं जाता था। प्रथमाष्टमी के समय उसने अपने घर के नाम पत्र लिख दिया था, उसके लिए कोई पीठा वगैरह न भेंजें। उसके वृद्ध पिताजी ने चिट्ठी भेजी थी उसके नाम, "तुम्हारी माँ की तबीयत बहुत खराब है, जल्दी घर आओ। तुम्हें देखने के लिए मन बेचैन हो रहा है।"
देवार्चन ने उत्तर दिया था, "मुझे देखने की अपेक्षा डॉक्टर को दिखाना ज्यादा जरुरी है। डॉक्टर को दिखाइए। नहीं तो, आप उन्हें कटक ले आइए, मैं मेडिकल कॉलेज में दिखा दूँगा। मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले कई लड़के मेरे दोस्त हैं, इसलिए बड़े से बड़े प्रोफेसर को दिखाने में भी किसी तरह की दिक्कत नहीं आएगी।"
देवार्चन का दुनियादारी से कोई लेना-देना नहीं था। कठोर हृदय का होने के बावजूद भी वह मुझे अच्छा लगता था। देवार्चन कॉलेज के छात्र-संघ की राजनीति में हमेशा भाग लेता था। यही वजह है कि आज वह मंत्री पद को सुशोभित कर रहा था। मंत्री बनने के बाद एक लंबी छलांग लगाकर वह बड़ा आदमी बन गया। देखते-देखते वह बहुचर्चित हस्ती बन गया। रातों रात वह स्टार बन गया। छोटे-बड़े कई पुरस्कारों से उसको नवाजा गया। यहाँ तक कि उसके उत्कृष्ट सामाजिक क्रिया-कलापों को देखते हुए एक विश्वविद्यालय ने उसको डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की। उसके बाद हर दिन अखबारों में उसके नाम के कहानी-किस्से छपने लगे।
उसके दोस्तों में भी कई ईर्ष्या करने वाले थे। धीरे-धीरे वह सभी को झूठे आश्वासन देने लगा और किसी का भी कोई काम नहीं करता था। वह दो-तीन भाड़े के युवा कवियों से अपने नाम की कविताएँ लिखवाता था। यहाँ तक कि किसी अधिकारी की सुंदर स्त्री के साथ उसके प्रेम-प्रसंग की आश्चर्यजनक खबरें भी सुनने को मिल रही थी। पहले पहल मै इन सभी बातों पर कतई विश्वास नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मैं जिस देवार्चन को जनता था, उस देवार्चन की न तो किसी स्त्री के प्रति और न ही किसी संसार के प्रति आसक्ति थी। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद पिताजी के दबाव में उसने शादी कर ली। पिताजी की जोर-जबरदस्ती से विवश होकर यद्यपि वह विवाह-मंडप में बैठने के लिए राजी हो गया, मगर उसने पिताजी के समक्ष कुछ ऐसी शर्ते रखी थी। जिसको मानने में उन्हें अत्यंत कष्ट हो रहा था। देवार्चन की ये शर्तें इस प्रकार थी, वह विवाह-वेदी पर पगड़ी नहीं पहनेगा, घोडे पर नहीं चढेगा, नाई उसके पैर नहीं धोएगा, पंडित विवाह के समय उन संस्कृत-मंत्रों का उच्चारण नहीं करेगा जिसका अर्थ समझ से परे हो। साथ ही साथ, कन्या के पिता से एक भी पैसा वह दहेज के रुप में वह स्वीकार नहीं करेगा, इत्यादि।
देवार्चन ने अपनी सुहाग-रात के दिन एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया था। उस सम्मलेन में मनोज ने उसके नाम एक लंबी कविता समर्पित की थी। उसमें मनोज ने परिजनों बिछोह के दुःख को जिस भावुकता से लिखा था। उस कविता को सुनकर हम सभी भाव-विह्वल हो उठे। उस समय तक मनोज और देवार्चन घनिष्ठ दोस्त थे। साथ-साथ घूमना, साथ-साथ खाना, साथ-साथ सोना यहाँ तक कि कॉलेज की छात्र-संघ की राजनीति में एक साथ मिलकर निर्णय लेना आदि।
देवार्चन को जिस राजनैतिक दल से शुरु से नफरत थी, उसी दल से एम.एल.ए का टिकट पाकर वह चुनाव जीत गया था। जबकि मनोज को किसी भी राजनैतिक दल से टिकट नहीं मिलने के कारण वह चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में खड़ा हुआ था, जिसमें उसकी जमानत भी जब्त हो गई थी। तब तक हम लोगों ने कॉलेज छोड़ दिया था। देखते-देखते देवार्चन बहुत बडा आदमी बन गया, जबकि मनोज अंधेरे के गर्त में समा गया।
मनोज की तरह हम लोग भी उपेक्षित हो गए थे। मगर हम में से कोई डॉक्टर, कोई अध्यापक तो कोई बाबू बन चुके थे। जब भी हमारी आपस में कभी मेल-मुलाकातें होती थी तो देवार्चन के बारे में एक-दूसरे से पूछा करते थे। देवार्चन के विषय में जैसी-जैसी खबरें मिलती थी, मुझे उन पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं हो पा रहा था। मेरा ऐसा मानना था कि ये सब बातें ईर्ष्यालु लोगों द्वारा उडाई हुई हैं। ऐसे भी, मैं देवार्चन के पास कभी भी अपनी कोई समस्या लेकर नहीं गया। पहला तो इस कारण से वह अपना समय इतनी भीड़ में रहकर गुजारता था, उतनी भीड़ में उसके पास पहुंचना नामुनकिन था। दूसरा इस कारण से, पता नहीं मुझे मन ही मन ऐसा लगता था कि अगर उसने कभी किसी कार्य के लिए आश्वासन दे भी दिया तो शायद उसका आश्वासन फलीभूत नहीं होगा। वह भी अन्य मंत्रियों की भाँति अपनी बातों से मुकर जाने में देर नहीं लगाएगा। इसलिए देवार्चन को अपने घर में आमंत्रित करने की बात सुनकर मैं असहज हो गया था। मैने अपने पिताजी से यहाँ तक कह दिया था कि कोई जमाना था वह मेरा दोस्त हुआ करता था। अब वह जमाना नहीं है। कोई जरुरी नहीं है कि वह अपने दोस्ती-धर्म को निभाएगा।
रीना ने पहले से योजना बना रखी थी कि कब क्या-क्या काम करने होंगे। वह बचपन से ही तुरंगी लडकी थी। पहले से पत्र देकर उनको आमंत्रित करना होगा या नहीं, नवयुवक संघ को इस बाबत कहा जाएगा अथवा नहीं, मंत्रीजी हमारे यहाँ जलपान ग्रहण करेंगे या नहीं तथा इसके लिए जिलाधीश तथा जिला पुलिस को सूचना देनी होगी या नहीं। रीना के इस तुरंग-मिजाज को शांत करने के लिए जब मैने उसको जोर से डाँटा, तब जाकर वह चुप हो गई।
हमारे मौहल्ले के नवयुवक-संग के सदस्यगण माइक सेट लगाकर देवार्चन के आगमन की तैयारी कर रहे थे. मंत्री जी के आने की खबर का जोर-शोर से प्रचार हो रहा था. टेन्ट हाऊस वाले पांडाल तैयार करने में लगे हुए थे। बीच-बीच में रीना खबर ले रही थी कि कहीं ऐसा तो नहीं इस कार्यक्रम के लिए मंत्रीजी ने अपनी सम्मति व्यक्त नहीं की हो और उनका दौरा रद्द हो जाए। तभी उसे पता चला कि नवयुवक-संघ के एक वरिष्ठ सदस्य उन्हें लेने गए हैं। कई अनुष्ठान उनके सम्मानार्थ स्मारक-पत्र तैयार करने में लगे हुए हैं, मगर नवयुवक-संघ वाले इस चीज के लिए राजी नहीं हो रहे हैं। उन लोगों का कहना है कि यह कोई राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है। यहाँ किसी की भी राजनीति नहीं चलेगी। मंत्रीजी के डिनर को लेकर जिलाधीश तथा नवयुवक-संघ के अध्यक्ष के बीच इस बात को लेकर वैचारिक मतभेद चल रहा था कि उनका डिनर नवयुवक-संघ के कार्यालय/में होगा अथवा सरकारी डाक-बंगले में।
शाम को ऑफिस से घर जाने के लिए सारे रास्ते बंद हो गए थे। कार्यकर्ता लोग टेन्ट हाऊस से कुर्सी लाकर वहां मीटिंग के लिए बिछा रहे थे। घर आने के बाद मुझे पता चला, नव ने अपनी तरफ से नवयुवक संघ की इस सभा के आयोजन के लिए विपुल मात्रा में वित्तीय सहयोग प्रदान किया था। उसने अपने ऑफिस का फोन उनके लिए ऐसे ही छोड़ दिया। उसके ऑफिस के सामने सभा-मंच तैयार होने की वजह से सारे कार्यकर्ता उसके ऑफिस में ऐसे जुट गए हैं मानो दुकान में ग्राहकों की भीड़ इकट्ठी हो गई हो।
धीरे-धीरे रात होने लगी। माइक से होने वाले प्रचार में कुछ कमी नजर आने लगी। दर्शक, श्रोतागण तथा अन्य अतिथियों की भीड़ जुटने लगी। हमारे घर के चारों तरफ कारों, स्कूटरों तथा साइकिलों का कतारबद्ध जमघट दिखाई देने लगा। तभी कहीं से यह खबर मिली, मंत्री महोदय का आगमन हो चुका है।अब सभी जोर से 'सर्वेषां नो जननी भात' का नारा मुखरित करेंगे।
देवार्चन आ गया था। मेरे भीतर उत्तेजना से एक खलबली पैदा हो गई। अगर मैं उसे आवाज देता हूं, तो निश्चय मेरे पास आ जाएगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह नहीं आएगा। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। वह अवश्य मेरे पास आएगा। उसके आने से आखिरकर पिताजी और रीना को थोड़ा गर्व महसूस होगा। मुहल्ले के नवयुवक-संघ वालों को भी इस बात की जानकारी होगी। यहाँ तक कि नव, जो मंत्रीजी के इर्द-गिर्द घूम रहा है, उसको भी हमारी गहरी दोस्ती के बारे में पता चलेगा। मैने रीना को मात्र यह बात बतलाई तो वह खुशी से सरोबार हो गई।
मैने जितना हो सकता था, उतने संक्षिप्त में देवार्चन के नाम एक चिट्ठी लिखी, "मैं अपने घर में तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। सभा समाप्त होने के बाद अगर समय मिलता है, घर आ जाते तो अच्छा लगता। " चिट्ठी लिखने के बाद मैं सभा -मंच के नजदीक गया। देवार्चन अन्य विशिष्ट अतिथियों के साथ सभामंच पर अपना आसन ग्रहण किए हुआ था तथा पास में मंच पर एक स्थानीय नेता अपना वक्तव्य दे रहे थे। मैं मंच के ऊपर चढ़ने के लिए गया था, पर संकोचवश चढ़ नहीं सका। कहीं अगर किसी स्वयं-सेवक ने ऊपर जाने नहीं दिया तो? मैं कुछ क्षण खड़ा होकर इंतजार करने लगा, कहीं देवार्चन मुझे बुला ले। मगर देवार्चन ने मेरी तरफ एक बार भी नहीं देखा। थक-हारकर मैने वह चिट्ठी नवयुवक संघ के सचिव को दे दी, यह कहते हुए उसे मंत्रीजी तक पहुँचा दे।
सचिव मेरे सामने बच्चा था। उसको मैने नंगे घूमते हुए देखा था। बिना कुछ प्रत्युत्तर दिए उसने उस चिट्ठी को अपनी जेब में डाल दिया तथा मंच पर जाकर अपना स्थान ग्रहण कर लिया। क्या मुझे उसे यह बता देना चाहिए था कि मंत्रीजी मेरे मित्र रह चुके हैं। उस लड़के को इस बात का कैसे पता चलेगा, मंत्रीजी से मेरा क्या काम है?
मुझे सभामंच से खाली लौटता देख रीना गुस्से से आग-बबूला हो उठी। मेरे तेज-तर्रार नहीं होने की वजह से वह मुझ पर चिल्लाने लगी और मुझसे कहने लगी कि वह सीधे सभामंच पर क्यों नहीं चढ़ा तथा स्वयं ने देवार्चन को वह चिट्ठी क्यों नही दी।
रीना की सलाह के अनुसार मैने एक और चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी को रीना ने मेरी आठ वर्षीय बेटी के हाथ में थमाकर मंत्रीजी तक पहुँचाने का कहकर वहाँ से चली गई। मैं उत्तेजित होकर ड्राइंग रुम में बैठे-बैठे उसका इंतजार करने लगा। तभी रीना भागकर आई और कहने लगी, "तुम्हारी लड़की काम में सफल हो गई है। वह सीधे मंच-स्थल पर गई, देवार्चन को प्रणाम किया तथा वह चिट्ठी उन्हें पकड़ाकर आ गई।" देवार्चन ने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा तथा पूछने लगा "बेटी, पढ़ाई कर रही हो?"
बाद में देवार्चन उस चिट्ठी को पकड़कर इधर-उधर देखने लगा, फिर नवयुवक संघ के अध्यक्ष से कुछ पूछने लगा। नवयुवक संघ के अध्यक्ष ने सभा-मंच के पीछे स्थित हमारे घर की तरफ इशारा किया।
इसका मतलब देवार्चन मेरी बात जरुर रखेगा, यह सोचकर मेरे सिर का बोझ हल्का हो गया। देवार्चन अवश्य मेरे घर आएगा। रीना और पिताजी खुश हो जाएँगे। नव की पत्नी के सामने अनुपमा अपना सिर गर्व से उँचा कर सकेगी। नव, जो पिताजी के सामने सिगेरट पीता था, कम से कम अब वह पिताजी के सामने सिगरेट नहीं पीएगा।
देखते-देखते मंच पर देवार्चन का भाषण आरंभ हो गया। एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की भाँति वह प्रभावशाली भाषण दे रहा था। कहीं-कहीं तो वह अटपटी बातें बोल रहा था, फिर भी लोग खुशी से ताली बजा रहे थे। कहीं-कहीं वह जगन्नाथ प्रभु को माँ कहकर संबोधित कर रहा था, तो कहीं-कहीं वह अमेरिका की भर्त्सना कर रहा था। कई बार उसने बालीद्वीप में फैली उड़िया संस्कृति के बारे में कहा, तो कई बार उसने श्रीलंका में मिले बुद्ध के दाँत को उड़िया संस्कृति के साथ खून के रिश्ते के रुप में जोड़ा। उसने केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकार की अवहेलना, प्रौढ़-शिक्षा तथा नारी-उत्पीड़न के बारे में भी प्रकाश डाला। मैं चुपचाप ड्राइंग-रुम में बैठकर उसका भाषण सुन रहा था तथा रेवेन्सा ईस्ट छात्रावास में रहने वाले मेरे रूममेट देवार्चन और मंत्री देवार्चन की तुलना कर रहा था। मुझे लग रहा था कि छात्र-जीवन के देवार्चन में आशा की एक किरण देखी जा सकती थी, जबकि मंत्री देवार्चन थोथे चने की तरह ज्यादा बजने वाला नजर आ रहा था। अचानक रीना यह खबर लाई, मंत्री जी हमारे घर आ रहे हैं। यह खबर सुनकर नव की पत्नी और बहिन ने कहा, "छोडिए, मंत्री आपके घर आएँगे?"
धन्यवाद प्रस्ताव समाप्त होने से पूर्व रीना ने मुझे इस बात के लिए बाध्य किया, मैं देवार्चन को लेने के लिए सभा-मंच तक अगुवाई करुँ। जैसे ही सभा समाप्त हुई जनता ने देवार्चन को चारों तरफ से घेर लिया। वह मेरी चिट्ठी को अपने हाथ में लेकर चारों तरफ इधर-उधर देख रहा था। मैं अपने हाथ हिला-हिलाकर अपनी स्थिति बताना चाह रहा था, परन्तु वह मुझे देख नहीं पा रहा था। उसी समय नव मेरे पास आकर पूछने लगा, "मंत्रीजी को आवाज दे रहे हो क्या? मैं उनको लेकर आ रहा हूँ।"
यह कहकर वह भीड़ को चीरते हुए सीधे देवार्चन के पास चला गया। नव मंत्री के कान में कुछ फुसफुसाया तथा उनसे हाथ मिलाने लगा। नव ने मंत्री जी को मुझे दूर खड़ा हुआ दिखा दिया। मुझे देखकर देवार्चन मुस्कराया और भीड़ को हटाते हुए मेरे पास आ गया।
नव ने मंत्रीजी के हाथ को अपनी मुट्ठी में पकड़ लिया था। देवार्चन कदम-कदम पर जाते हुए जनता का अभिवादन स्वीकार करते हुए सभी से कुशल-क्षेम पूछ रहा था। इतनी भारी भरकम भीड़ में भी लोग अपनी-अपनी समस्याओं और असुविधाओं के बारे में बताने से नहीं चूक रहे थे। वह सभी को यह आश्वासन देते हुए आगे बड़ता जा रहा था, "भुवनेश्वर आइए, देखते हैं।"
नव देवार्चन का हाथ छोड़ नहीं रहा था। एक प्रकार से वह उन्हें खींच-खींचकर ला रहा था। नव की बहिन कविता ने देवार्चन के पास जाकर प्रणाम किया। इससे पहले कि नव उसका परिचय देता, वह कहने लगा, "बड़े सौभाग्य की बात है! बड़े सौभाग्य की बात है!लगरहा है तुम्हारे साथ मुलाकात हुई है।"
यह सुनकर कविता नर्वस हो गई तथा मन ही मन खुश भी। उसने देवार्चन को पहली बार देखा था। तभी नव ने उसका परिचय देते हुए कहा, "यह मेरी छोटी बहिन है।"
घर के भीतर प्रवेश करते ही देवार्चन ने कहा, "वाह! बहुत बड़ा घर है। आपकी ज्यांट फेमिली है क्या?"
नव ने निर्विकार भाव से हामी भरी। नव ने अगुआई करके मंत्रीजी को हमारे ड्राइंग रुम में बैठा लिया। देवार्चन के पीछे-पीछे सात-आठ और आदमी आकर हमारे ड्राइंग-रुम में बैठ गए। नव मंत्रीजी के नजदीक जाकर बैठ गया। मैं खड़ा का खड़ा रह गया। मैं पूछने लगा, "पिताजी कहाँ हैं? रीना और अनुपमा कहाँ हैं?" मगर मेरी बात का किसी ने भी जबाव नहीं दिया।
देवार्चन मुझसे पूछने लगा, "कैसा चल रहा है?"
मैने संक्षिप्त में उत्तर दिया "ठीक चल रहा है।"
वास्तव में उस समय देवार्चन के साथ बातचीत करने का सही माहौल नहीं था, वरन् पिताजी, रीना और अनुपमा आती तो उनका मंत्रीजी से केवल परिचय करवा देता।
भीड़ को ठेलते हुए बहुत कष्ट के बाद रीना वहाँ आई और उसने देवार्चन को प्रणाम किया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, नव कहने लगा, "यह मेरी एक और वहिन है। अभी समाज शास्त्र में एम.ए. कर रही है।"
"कहाँ पढ़ रही हो?"
"निश्वास में "
"बहुत अच्छा! बहुत अच्छा!"
डा. नायक मेरे जान-पहचान वाले हैं। उन्होंने निश्वास प्रतिष्ठान खोलकर बहुत अच्छा काम किया है। पढ़ाई पूरी होने के बाद क्या करने की सोच रही हो?"
"अभी तक इस विषय में सोचा नहीं है।"
तबी मैने रीना से पूछा, "रीना, पिताजी और अनुपमा कहाँ हैं?"
"पिताजी नाश्ता लेने गए हैं और भाभी चाय बना रही हैं।"
देवार्चन जिस किसी को देखता था, उसका अभिवादन स्वीकार करते हुए नमस्कार-मुद्रा में कहने लगता था "बड़े सौभाग्य की बात है! आपसे मुलाकात हो गई। सब ठीक-ठाक चल रहा है न?"
उसकी इस प्रकार कहने की अभिव्यक्ति उतनी झूठी और कृत्रिम लग रही थी कि अगर वह कभी मुझे अकेले में मिलता तो शायद मैं उससे कहता, ऐसा कपटपूर्ण जीवन जीने में कष्ट नहीं हो रहा है देवार्चन?
लेकिन ये सब बातें कहने के लिए यह जगह ठीक नहीं है। मैने केवल इतना ही पूछा,
"मनोज के साथ कभी-कभार भेंट होती है क्या?
"नहीं, वह कहाँ है? क्या कर रहा है?"
आजकल मनोज सचिवालय में क्लर्क है। एक ही भवन में देवार्चन और मनोज बैठते होंगे, लेकिन देवार्चन को मनोज के बारे में पता नहीं है। जान-बुझकर मैने यह बात नहीं की। केवल इतना ही कहा, "मेरी भी पिछले कई दिनों से उससे मुलाकात नहीं हुई है।"
रीना ने देवार्चन के ऑटोग्राफ लेने के लिए एक डायरी आगे बढ़ाई। ऑटोग्राफ देने से पूर्व देवार्चन ने रीना का नाम पूछा।डायरी आगे बढ़ाते हुए उनके पास बैठे एक आदमी ने कौतूहलवश रीना से पूछे लगा, "जानती हो, मैं कौन हूँ?"
रीना ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया, "आप जिलाधीश महोदय हैं।"
जिलाधीश के चेहरे का रंग फक पड़ गया। देवार्चन के सामने अपनी इस दयनीय अवस्था से उबरने के लिए कहने लगा, "सर, अब चलें। उधर कई अन्य प्रोग्राम बाकी है।"
लेकिन पिताजी और अनुपमा अभी तक नहीं आई थीं। रीना कहने लगी, "पिताजी नाश्ता लेने गए हैं। भाभी रसोई में चाय बना रही हैं।"
मगर देवार्चन उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, "अच्छा अब मैं चलता हूँ।उधर दूसरे कई प्रोग्राम बाकी है।"
तभी कोई जाकर अनुपमा को बुला लाया। बड़ी मुश्किल से भीड़ को फाड़ते हुए वह वहाँ पहुँची तथा आदरपूर्वक देवार्चन को नमस्कार कर कहने लगी, "मैंने चाय के लिए पानी रख दिया है। बस, तुरंत ही चाय तैयार हो जाएगी।"
मैने देवार्चन को उसका परिचय दिया "मेरी धर्मपत्नी अनुपमा।"
ना तो अनुपमा ज्यादा पढ़ी-लिखी औरत थी और ना ही वह किसी कॉलेज में पढ़ने गई। मगर देवार्चन अपना सिर हिलाते हुए कहने लगा "जानता हूँ जनाब, कॉलेज के दिनों से जानता हूँ।" अनुपमा भोली स्त्री थी। बिना सोचे समझे ही उसने देवार्चन के मुँह पर जबाव दे दिया "लेकिन मैं तो कभी कॉलेज गई ही नहीं।"
इस परिस्थिति को सँभालने के लिए जिलाधीश कहने लगे, "सर, उधर विलंब हो रहा है।"
सौभाग्य, सौभाग्य कहते हुए हाथ जोड़कर देवार्चन उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, "अच्छा हुआ, आज आप सभी से भेंट हो गई। इसके लिए नव बाबू को बहुत-बहुत धन्यवाद। उनकी अतिथिपरायणता देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ।"
इस बात के समर्थन में नव ने विनीत-भाव से सिर झुका लिया और देवार्चन से कहने लगा, "आपने तो कुछ भी नहीं खाया। ना ही चाय- काफी पी।"
मैं कोई बाहर का आदमी थोड़ा ही हूँ। कभी भी फिर से आ जाऊँगा। फिर भी नहीं तो आप जब कभी भुवने•ार आओगे तब खिला देना। ठीक है न?"
नव कहने लगा, "आइए, सर, आपको मैं बाहर तक छोड़ देता हूँ।"
मंत्री के साथ जब उनका दल बाहर निकल रहा था, उसी समयसामने से पिताजी आ रहे थे. उनके हाथ में नाश्ते का पैकेट तथा फलों के रसों के डिब्बें थे। जाती हुई भीड़ ने उनको एक तरफ कर दिया। नव ने मंत्रीजी को 'आइए, आइए' कहकर कार के पास ले जाकर उसमें बैटा बैठा दिया तथा झुककर उनके कान में कुछ फुसफुसाने लगा। बाजार के सारे लोग मंत्रीजी को घेरे हुए थे। मंत्रीजी को इतना नजदीक पाकर वे अपनी समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए उत्सुक हो रहे थे। अंत में देवार्चन कार में से अपना मुँह बाहर निकालकर कहने लगा "देखो, नव बाबू, मेरा दोस्त, मेरा आदमी, मेरा अपना है। उनके साथ भुवनेश्वर में मेरी अक्सर मुलाकातें होती रहती है। आप लोगों का अगर कोई काम हो तो बेहिचक नव बाबू को कह सहते हो। उनके बताने मात्र से मैं वह काम कर दूँगा। अच्छा, नमस्कार, चलता हूँ।"
भीड़ के एक कोने में पिताजी हाथ में नाश्ते के पैकेट तथा फलरसों के डिब्बें लेकर मूर्तिवत खड़े थे। उनको देखकर मैं विक्षुब्ध हो गया और कहने लगा, "कहाँ गए थे आप? मंत्रीजी के आने के समय आपको घर में रहना चाहिए था।"
पिताजी निरुत्तर रहे। दुखी मन से वह घर के भीतर चले गए। उनको देखकर मैं भी पीछे-पीछे घर के भीतर चला गया। कुछ समय पूर्व इस ड्राइंग रुम में बहुत भीड़ थी। अभी इस कमरे में एकदम शांति छाई हुई थी जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो। अनुपमा एकदम गंभीर हो गई थी। रीना के मुँह से कुछ भी बात नहीं निकल रही थी। पिताजी के नाश्ता लेने जाने पर मैं व्यर्थ में ही क्रोधित हो गया था। उनकी क्या गलती थी उसमें? मंत्रीजी के हमारे घर आने का प्रस्ताव तो पहले से मालूम था, मगर उनके साथ थोड़ी-सी भी बात नहीं कर पाएँगे, यह मालूम नहीं था।
ड्रांइंग रुम में सेन्ट्रल-टेबल के ऊपर नाश्ते के पैकेट ज्यों के त्यों रखे हुए थे। मैं सोफे के ऊपर बैठकर पंखे की तरफ देख रहा था। मुझे अपने शरीर में थकावट मह्सूस हो रही थी। बात करने की बिल्कुल इच्छा नहीं हो रही थी। छोडो, मुझे यह भीड़ अब कभी भी अच्छी नहीं लगेगी।