अंतिम बातचीत / सुकेश साहनी
22 अगस्त की सुबह कुछ अलग-सी थी। सोकर उठा, तो ताज़गी महसूस नहीं हो रही थी, रात में नींद भी कई बार खुलती रही थी। कुल मिलाकर मन अनमना-सा था। मुझे आकाशवाणी के स्टूडियो में 'आमने-सामने' कार्यक्रम में साक्षात्कार के लिए जाना था। मन में कोई उत्साह नहीं था। पत्नी रीता से इस पर चर्चा भी हुई. पत्नी ने इस अनमनेपन पर आपत्ति जताते हुए कहा भी कि यह तो आपके मन का काम है, इसमें तो आपको उत्साह से भाग लेना चाहिए.
रिकॉडिंग के बाद बदायूँ रोड से घर के लिए लौट रहा था तो ज्योत्स्ना 'कपिल' का फोन आया। उन्होंने लघुकथा डॉट कॉम के लिए प्रेषित लेख की प्राप्ति के बारे में पूछा और अवगत कराया कि 'हिन्दी चेतना' का विशेषांक उन्हें प्राप्त नहीं हुआ है। मैंने डाक से भेजने के लिए कहा ' तो ज्योत्स्ना ने मना करते हुए कहा कि आठ सितम्बर को सूद साहब वाले कार्यक्रम में लेते आइएगा। सूद साहब अपने पुत्र मनु की स्मृति में प्रति वर्ष हिन्दी भवन में साहित्य-पर्व का आयोजन करते थे। उसमे हमें जाना ही था। बात समाप्त हो गई.
घर पहुँचा ही था कि ज्योत्स्ना का पुनः फोन आया। मुझे लगा कोई बात अधूरी रह गई होगी, उसी बारे में होगा।
फोन उठाते ही उधर से रोने की आवाज सुनाई दी, तो सहसा कानों पर विश्वास नहीं हुआ।
"सर! आपको कुछ पता चला?"-रोने के कारण उसके शब्द स्पष्ट नहीं थे।
"नहीं, क्या हुआ है? साफ़-साफ़ बताओ." किसी बुरी ख़बर का आभास मुझे हो गया था।
"सूद साहब नहीं रहे!"-विलाप के बीच उसने बताया, तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। कुछ बोलते भी नहीं बना। दूसरी तरफ से रोने के अस्फुट स्वर सुनाई देते रहे।
"क्या कह रही हो? भूपाल सूद भाईसाहब नहीं रहे? ऐसा कैसे हो सकता है! खबर सही है न?" मैं बोले जा रहा था। ज्योत्स्ना खुद को सँभाल नहीं पा रही थी। मुझे पता था सूद दंपती उसे बेटी की तरह मानते थे।
मैं जहाँ था, वहीँ बैठा रह गया। बहुत देर तक, शायद खबर झूठी हो।
सूद साहब हमें छोड़ गए थे, इस सच्चाई का सामना हमें करना ही था।
खबर की तसदीक़ के लिए मित्रो के फोन मेरे पास आने लगे। मैं इस समाचार को फेसबुक पर डालने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। तभी भाई तेजिंदर शर्मा ने पहली पोस्ट डाली। मैंने भी भारी मन से पोस्ट शेयर कर दी।
खबर पढ़ते ही हाहाकार मच गया। सूद साहब से मेरी मित्रता तीस वर्ष पुरानी है, लेकिन उनके जाने के बाद जान सका की उनके प्रशंसकों कि संख्या कितनी है। प्रकाशन जगत् के कार्य में आर्थिक पहलू भी जुड़ा होता है। सभी लेखकों की मार्किट वेल्यू एक-सी नहीं होती। यह देखकर हैरानी हुई कि वह उन सभी नए-पुराने लेखकों के चहेते थे, और उन सबके भी जो प्रकाशन के कारण उनसे जुड़े हुए नहीं थे।
सूद साहब से जुड़ी यादों ने मुझे घेर लिया था। मन गहरी उदासी में डूब गया था। इस बेचैनी में अपना दुःख साझा करने के लिए काम्बोज जी ही थे, पर वे कैनेडा में थे और इस समय वहाँ रात थी। सूद साहब से मेरा और काम्बोज जी का रिश्ता लेखक और प्रकाशक का कभी नहीं रहा। वह हमें अपनी टीम का सदस्य ही मानते थे। तीन दिन पहले मेरी उनसे बातचीत हुई थी, मुझे क्या पता था कि यही मेरी उनसे 'अंतिम बातचीत' होगी-
"नमस्ते जी, कैसे हैं?" सूद साहब का जाना पहचाना अंदाज, यह पंक्तियाँ टाइप करते हुए वही आवाज़ दिमाग़ में सुन पा रहा हूँ।
"जी, एकदम बढ़िया, आप सुनाइए॥"
"आपसे काम था॥"
"अरे, कमाल है! हम पर तो आपका आदेश चलता है॥"
"बेटे (मनु) की याद में पिछले दो साल से हम लोग जो सम्मान देते आ हैं, उसके लिए इस बार आपका चयन किया गया है, उसके लिए आपकी सहमति चाहिए." कहते हुए सूद साहब कुछ भावुक हो गए थे।
सूद साहब का परिवार भी हमसे भली भाँति परिचित था। बच्चों को बड़े होते हमने देखा था। मनु स्मृति सम्मान के लिए मेरे चयन ने मुझे भी भावुक कर दिया।
"मनु बेटे से जुड़े सम्मान को आप किसी सुपात्र को ही देना चाहेंगे, इसके लिए आपने मुझे चुना, ये मेरे लिए भी गर्व की बात है, आभारी हूँ आपका, मैं कार्यक्रम में उपस्थित रहूँगा।"
"धन्यवाद!"-उनका स्वर कुछ भीगा हुआ था, "बहुत बधाई आपको, फिर बात होती है।"
पता नहीं क्यों मुझे लगा था, वे जल्दी में हैं। हो सकता है चार लोगों के बीच बैठे हों।
मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अब उनसे कभी संवाद नहीं हो पाएगा।
कैनेडा के समय के अनुसार बहुत सवेरे ही काम्बोज जी का फोन आ गया। हमारा हाल एक जैसा था, उनके अचानक जाने के समाचार ने हिलाकर रख दिया था। उन्होंने भी बताया कि उनका किसी काम में मन नहीं लग रहा था, महसूस हो रहा था जैसे कुछ छिन गया हो। हम लोग बहुत देर तक उन्हीं की बातें करते रहे।
भूपाल सूद जी को प्रोडक्शन की जैसी समझ थी, वैसी समझ नामी-गिरामी प्रकाशकों भी नहीं है। मेरा दूसरा लघुकथा संग्रह 'ठंडी रज़ाई' जितने मनोयोग से उन्होंने छापा कि प्रोडक्शन के लिहाज़ से उसे 'मास्टर पीस' कहा जा सकता है। पिछले दो साल से मेरे तीसरे संग्रह के लिए मुझे बार-बार कहते रहे, पर मैं उन्हें नहीं भेज पाया। चलते-चलते मेरे लेखों की किताब " लघुकथा: सृजन और रचना-कौशल' का तोहफ़ा मुझे दे गए. लघुकथा की सबसे अधिक किताबें छापने का श्रेय उन्हीं को जाता है।
सूद साहब को साहित्य की अच्छी समझ थी। अच्छी रचनाओं पर लेखकों को प्रतिक्रिया भी देते थे। प्रकाशन की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करते थे। 'लघुकथा अनवरत' के दो खंड मेरे और काम्बोज जी के सम्पादन में निकल चुके थे। 'अनवरत' के तीसरे खंड की तैयारी चल रही थी। हमने उन्हें अवगत कराया था कि तीसरे खंड हेतु प्राप्त लघुकथाएँ कमज़ोर हैं। उन्होंने हमारी संस्तुति पर तत्काल अपना लाभ-हानि न देखते हुए इस योजना को स्थगित कर दिया था।
ईमानदारी और विनम्रता उनके चरित्र की विशेषताएँ थीं, जिसके आगे सब नत मस्तक हो जाते थे। बुरा वक़्त किसके जीवन में नहीं आता, उनके जीवन में भी आया, पर अपनी इच्छा शक्ति के बल पर वह उन परिस्थियों से बाहर निकल आए. बरेली की एक घटना याद आ रही है। बरेली के एक वकील साहित्यकार राम प्रकाश गोयल ने अपनी किसी किताब के प्रकाशन की गुणवत्ता को लेकर सूद साहब पर उपभोक्ता फोरम में मुकदमा कर दिया था और अयन प्रकाशन के विरुद्ध ज़ुर्माना और क्षतिपूर्ति के आदेश लेने में सफल हो गए थे। सूद साहब बरेली आए और मेरे साथ गोयल जी से मिलने उनके घर गए. गोयल साहब से मुझे सूद साहब की सिफारिश करने की नौबत ही नहीं आई, गोयल साहब सूद साहब की बातचीत से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उपभोक्ता फोरम के सामने जाकर सुलहनामा कर लिया।
विभिन्न लघुकथा सम्मेलनों में सूद साहब की सक्रिय भागेदारी रहती थी। उनका स्टाल कोई दूसरा देखता था और विमर्श और लघुकथा पाठ का आनंद लेते थे। मुझे याद है बरेली सम्मलेन 2000 में उन्होंने स्टाल लगाया था। इस अवसर पर जनसुलभ पेपरबैक्स की पहली पुस्तक 'बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ' प्रकाशित हुई थी, जिसकी बिक्री उनके स्टाल से ही हुई थी। कोई दूसरा प्रकाशक इसमें कतई सहयोग नहीं करता। सूद साहब मित्रता को व्यापारिक रिश्तों से कहीं ऊपर रखते थे।
उनके असमय जाने से साहित्य और प्रकाशन जगत् को अपूरणीय क्षति पहुँची है। मुझे और काम्बोज जी को तो लगता है कि हमारे कार्य करने की क्षमता ही कम हो गई है। हम यही चाहते है कि उनका अयन प्रकाशन अपनी पहचान कायम रक्खे।
24 अगस्त को सूद साहब का 'उठाला' महरौली गुरुद्वारे में था। मैं बरेली से सुबह चला था, रास्ते भर सूद साहब की बातें, यादें साथ रहीं। गुरुद्वारे के सभागार के बाहर सूद साहब का मुस्कुराता चित्र पुष्पांजलि के लिए रखा हुआ था। पुष्प अर्पण करते हुए सभी की आँखें नम हो रही थीं, मेरी भी हुईं। और इतनी अधिक हुईं कि गुरुद्वारे में सब धुँधला दिखने लगा। आदरणीया भाभी जी और पीयूष को वहाँ देखकर दुःख और भी बढ़ गया था। भूपाल सूद जी जैसा व्यक्ति संसार से जाने के बाद भी सभी के दिलों में विराजमान रहता है। उनकी स्मृति को शत-शत नमन!
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