अंतिम बार / महेश कुमार केशरी
"बाबू, ई प्योर शीशम के लकड़ी हौ l चमक नहीं देखत हौ और हल्का कितना हौ लईकन सब पचासों साल बैठी तबो कुछ ना होईl" सीताराम बढ़ई की कही ये बातें जैसे लगती हैं कल की ही बात हो , लेकिन, इस बात को सुने अवधेश को सालों हो गये l
अवधेश ने कमरे को एक बार फिर निहारा l करीने से सजे हुए बेंच और टेबल, जिस पर जगह - जगह धूल जम गई थी l सामने लगी ट्यूबलाइट उसको जैसे मुँह चिढ़ा रही थी l वह अपने अवचेतन में कहीं गहरा धंँसता चला गया l आज से दस साल पहले जब उसने ये कोचिंग इंस्टीटयूट शुरू किया था l ये सोचकर की जो तकलीफ उसे गाँव में उठानी पड़ी है l वह तकलीफ आसपास के लोगों को नहीं उठानी पड़े l वो, शिक्षक ही बनेगा l कितना अच्छा तो पेशा है l समाज में लोग कितना सम्मान देते हैं l सब लोग प्रणाम सर... प्रणाम सर कहते नहीं थकते और उसे शुरू से किताबों से कितना लगाव रहा है l ख़ुद भी पढ़ो और दूसरे लोगों को भी शिक्षित करो , लेकिन, इधर कोरोना के कारण पिछले एक - सवा साल से कोचिंग बंद था l सरकार सब कुछ खोलने की अनुमति देती है, लेकिन कोचिंग इंस्टीटयूट पर जैसे उसे पाला मार जाता है l जिम, रेडिमेड, शाॅपिंग माॅल, बस, ट्रेन, हवाई जहाज़ सब खुल गये हैं , लेकिन, सरकार को पढाई से ही चिढ़ है l कोचिंग वाले टैक्स नहीं देते ना! इसलिए भी सरकार इन लोगों को कोचिंग इंस्टीटयूट खोलने की अनुमति नहीं देती l अगर वह भी कोई जिम या शाॅपिंग माॅल चलाता तो क्या सरकार उसको रोक लेती ? नहीं बिल्कुल नहीं !
वो बहुत कोशिश करता रहा कि वह अपना कोचिंग इंस्टीटयूट बंद ना करे, लेकिन, घर में छोट- छोटे बच्चे हैं l उनके खाने पीने के लाले पड़ गये हैं l पिताजी को डाॅक्टर को दिखाना है l दिसम्बर आधा गुजर गया है l माँ का स्वेटर भी लेना है l ठंढ़ से काँपती रहती है l आख़िर बूढ़ी काया में ताकत ही कितनी होती है l
स्वेटर जगह-जगह से फट गया है और स्वेटर के कुछ हिस्से तो छीजकर आर- पार भी दिखने लगे हैं l कई दिनों से माँ कह रही है l घर के अंदर तो पहन सकती हूँ, लेकिन, बाहर निकलते मुझे शर्म आती है l आखिर, लोग क्या कहेंगे l एक शिक्षक की माँ फटा हुआ स्वेटर पहने हुए है ! रमा ने भी कई बार शाॅल के लिए तगादा कर दिया है l कहती है आँगनबाड़ी जाते हुए ठंढ़ लगती है l अब रमा को शाॅल भी एक दो दिन में खरीदकर देता हूँ l आख़िर रमा की आँगनबाड़ी वाली नौकरी ना होती तो आज वे लोग कहीं भीख माँग रहे होते l उसको मिलने वाले छह हज़ार रूपये से ही तो घर अब तक चल रहा है l नहीं तो इस आपदा काल में कौन किसकी मदद करता है ? सबसे ज़रूरी काम है पिताजी को डाॅक्टर को दिखाना l उनकी खाँसी रुकती ही नहीं l आखिर, कितने दिनों तक मेडिकल से लेकर सिरप पिलाई जाये l सारी कंपनियों के सिरप एक- एक करके देख लिए l जितने रूपये सिरप और गोलियों पर ख़र्च किये l उतने में तो किसी अच्छे डाॅक्टर को दिखला देते, लेकिन, डाॅक्टर भी पाँच सौ से कम में नहीं मानेगा l कोरोना के समय में एक तो डाॅक्टर सामने से देखते नहीं l आॅनलाइन दिखलाना है तो दिखलाओ नहीं तो जै राम जी की l
उसने बेंच को छुआ तो धूल के साथ - साथ जैसे उसके हाथ में अतीत के खुरचन भी आ गये l टीचर्स डे और वसंत पंचमी पर कितना सजाते थे छात्र इस इंस्टीटयूट को l कैसा लकदक करता था यही इंस्टीटयूट छात्र - छात्राओं के हँसी ठहाकों से l
अवधेश को कमरे के एक- एक चीज से प्रेम था l उसने इंटीरियर डिजाइनर से अपने इंस्टीटयूट को सजवाया था l गुलाबी पेंट, बढ़ियाँ कार्पेट, अच्छी कुर्सी और मेज l शानदार ब्लैकबोर्ड, टेबल के ऊपर सजे भाँति- भाँति के पेन l कैसे वह सफेद कमीज और काली पैंट पहन कर नियम से सुबह छह बजे ही नाश्ता- पानी करके चल देता था l फिर, देर रात गये ही घर लौटता l उसने नीचे ऊपर सब मिलाकर तीन - चार कमरे ले रखे थे l दो तीन और लड़को को भी रख लिया था l पहले काम के घंटे बढ़ते गये l उसके अंदर एक जूनून-सा छाने लगा l फिर, छात्रों की बढ़ती संख्या को देखकर उसने रूम बढ़ा दिये l फिर, टीचर भी बढ़ाने पड़े l मिला जुलाकर साठ सत्तर हज़ार रूपये महीने में वह कमा ही लेता था l फिर, धीरे - धीरे नई तकनीक आने से उसने कुछ कम्प्यूटर भी खरीद लिये और भी कई कमरे किराये पर ले लिये थे l और स्टाफ़ बढ़ाया l ख़ूब मेहनत करने लगा l वह अपने साथ- साथ और लोगों को भी रोजगार दे सकता है l ये सोचकर ही उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था और हमेशा उसे इस बात की ख़ुशी रही l सब लोग हँसी ख़ुशी से जी रहे थें l तभी कोरोना ने दस्तक दी और सबकुछ जहाँ का तहाँ जमकर रह गया l रोज़ सड़कों पर दौड़ने वाली उसकी स्कुटी घर में एक किनारे खड़ी हो गई l कभी - कभार कोई सामान लाने जाना होता तो, स्कुटी के भाग खुलते और वह रोड पर दौड़ती l नियमित आनेवाले टीचर्स अब दिखने बंद हो गये l पहले उसने औने - पौने दाम में कम्प्यूटर बेचे l शुरूआती दौर में तो तीन - चार महीने का लंबा लाॅकडाउन लगा l अचानक से आने वाले पैसे आने बंद हो गये l ख़र्च ज्यों- का -त्यों l बहुत बचत करने की आदत शुरू से नहीं रही l पैसा आता था तो पता नहीं चलता था l कितना भी ख़र्च कर लो l कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था , लेकिन, अचानक से पैसे आने बंद होने से दिमाग़ जैसे सुन्न पड़ने लगा l ज़रूरी चीजों को तो नहीं टाला जा सकता था , लेकिन, गैर ज़रूरी चीजों पर सख्त पाबंदी लगा दी गई l चाऊमिन, पिज़्ज़ा मोमोज़ सब बंद l
फिर, इंस्टीटयूट के मकान मालिक का तगादा बढ़ने लगा l नीचे के अतिरिक्त लिए गये कमरे को गैर ज़रूरी समझकर छोड़ दिया गया l ये सोचकर कि पता नहीं कितना लंबा लाॅकडाउन चलेगा और हर महीने का किराया भी चढ़ता जायेगा l सारे - के सारे कम्प्यूटर पहले ही बिक चुके थें l कमरे वैसे भी खाली ही थे l सारे फर्नीचर को दो कमरों में समेटा गया और कमरों की चाभी साल भर पहले ही मकान मालिक को सौंप दी गई l ये सोचकर कि आज नहीं तो कल जब सब कुछ ठीक - ठाक हो जायेगा तो फिर, से कमरे को किराये पर ले लिया जायेगा l लेकिन, जब दूसरी लहर आयी और फिर, डेढ़ दो महीने का लाॅकडाउन लगा , तो रमा जैसे बिफरती हुई बोली - "क्या, कोचिंग इंस्टीटयूट के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है ? पेपर बेचो, सब्जी बेचो, फल बेचो कुछ भी करो l लेकिन, अब घर की हालत मुझसे देखी नहीं जाती और मेरी आँगनबाड़ी की कमाई से कुछ होने जाने वाला नहीं है l वह ऊँट के मुँह में जीरा का फोरन जैसा साबित हो रहा है l तुम जल्दी कुछ करो l नहीं तो मैं बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाऊँगी l" और यही सोचकर अवधेश ने ये फ़ैसला किया था कि अब और इंतज़ार करना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है l हो सकता है सालों कोरोना ख़त्म ना हो l तब तो सालों उसका इंस्टीटयूट बंद रहेगा l रमा ठीक कहती है l मुझे अपना इंस्टीटयूट बंद करके कोई और काम करना चाहिए l नहीं तो घर कैसे चलेगा ? और यही सोचकर उसने एक ज़रूरत मंद संस्था को बहुत कम क़ीमत पर अपना फर्नीचर बेचने का फ़ैसला किया था l
"भैया, आॅटो वाला आ गया है , सामान लेने l" रघुवीर ने टोका तो अवधेश अतीत के नर्म बिस्तर से हक़ीक़त की ठोस ज़मीन पर गिरा l
"हुँ... हाँ... कौन रघुवीर अच्छा आॅटो वाला आ गया l चलो अच्छा है l"
अवधेश के भीतर कुछ पिघला, कार्पेट, दीवार, टेबल या छत या कि दस साल का सुहाना सफ़र और उसकी आँखे भींगनें लगी l उसने आखिरी बार कमरे को ग़ौर से निहारा l लगा जैसे सब कुछ छूटा जा रहा है और वह किसी भी क़ीमत पर उसे नहीं छोड़ना चाहता l
रघुवीर ने पूछा - "क्या हुआ भईया...?"
लेकिन, अवधेश, रघुवीर की बातों का कोई जबाब नहीं दे सका l
बस भर्राये गले से बोला - "कुछ नहीं रघुवीर... l"
शाम का धुँधलका गहराने लगा था l उसे लगा कमरे को पलटकर अंतिम बार देख ले l लेकिन, उसकी हिम्मत नहीं पड़ी l धीरे - धीरे नीम अंधेरे में वह सीढ़ियों से नीचे उतर गया l