अंतिम बिल / जयप्रकाश मानस

Gadya Kosh से
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उस दिन अस्पताल के गेट पर जो हुआ, वह कोई नई बात नहीं थी। प्राइवेट वार्ड नंबर 5 के बाहर खड़े डॉक्टर ने फाइल खोली-"तीन लाख बीस हज़ार रुपये बकाया हैं।" परिवार वाले एक-दूसरे का चेहरा देखते रहे, जैसे उनकी आँखों में ही कोई जवाब छिपा हो।

मृतक का बेटा अपनी जेब टटोल रहा था-वहाँ सिर्फ़ एक पुराना रुमाल और दो सिक्के थे। उसकी बहन ने अपने गले से चेन उतारी, पर नर्स ने नाक सिकोड़कर कहा-"यह तो नकली है।"

तभी अस्पताल के गार्ड ने शव को ले जाने से मना कर दिया। "बिना पेमेंट रसीद के लाश भी नहीं जाएगी," उन्होंने कहा, जैसे कोई नियम पढ़ रहे हों। मृतक की पत्नी ने दीवार से सिर टकराया-उसके सिर से खून बह रहा था, पर कोई डॉक्टर नहीं आया।

अगले दिन सुबह जब अस्पताल का सफाईकर्मी वार्ड साफ़ करने आया, तो उसने देखा-शव अभी भी वहीं पड़ा था और परिवार वाले फ़र्श पर सोए हुए थे। उनके हाथों में एक ख़ाली थैला था-शायद किसी से उधार माँगने जाने की तैयारी में।

जब अख़बार वालों ने पूछा कि शव क्यों नहीं उठाया गया, तो अस्पताल प्रबंधन ने बयान दिया-"हमारी नीति है कि बकाया बिना शव नहीं दिया जाएगा। मृत्यु के बाद भी मरीज हमारी जिम्मेदारी है।"

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