अंतिम संस्कार / जयप्रकाश मानस

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बस्तर के उस गाँव में जहाँ पहाड़ और आसमान के बीच सिर्फ़ महुआ या साजा के पेड़ ही खड़े होते हैं, मंगलू ने अपने बाप की मौत पर पहली बार ईसाई पादरी को देखा था।

"हमारे रीति-रिवाज़ से अंतिम संस्कार होगा," मंगलू ने कहा, उसकी आँखों में वह ज़िद थी जो पीढ़ियों से उसके रक्त में थी।

पादरी ने क्रॉस उठाया, "लेकिन तुम्हारे पिता ने बपतिस्मा ले लिया था।"

गाँव वालों ने देखा कि कैसे मंगलू ने अपने मृत पिता के शरीर को सरई वृक्ष के नीचे रखा, जहाँ उसके दादा और परदादा जलाए गए थे। उसने चंदन की लकड़ियाँ जमाईं, पर पादरी ने बीच में ही बाईबल रख दी।

"यहाँ अब कोई हिंदू संस्कार नहीं," पादरी ने कहा।

मंगलू ने धीरे से बाईबल हटाई, "मेरे बाप ने जीते जी अपने देवता छोड़ दिए, मरने के बाद नहीं।"

फिर वह क्षण आया—जब चिता की लपटों और चर्च की मोमबत्तियों की रोशनी एक साथ जल उठी। गाँव वालों ने देखा कि कैसे मंगलू ने अपने पिता की अस्थियाँ संग्रह करते हुए एक मुट्ठी चर्च के पानी में और एक मुट्ठी नदी में प्रवाहित की।

उस रात गाँव की हवा में सरई के फूलों की ख़ुशबू थी और कहीं दूर चर्च की घंटियाँ बज रही थीं। मंगलू जानता था कि उसके पिता अब न तो पूरी तरह उनके हैं, न हमारे। वे कहीं बीच में, दो नदियों के संगम पर अटके हुए थे—जहाँ से न तो वापसी का रास्ता था, न आगे जाने का।

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