अंतिम संस्कार / बलराम अग्रवाल
पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।