अंत के बाद प्रदर्शित हो रही आरंभ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 जून 2017
'बाहुबली' के लेखक की लिखी 'आरंभ' प्रदर्शित होने वाली है। यह फिल्म संभवत: 'बाहुबली' के पहले बन चुकी थी परंतु 'बाहुबली' की सफलता का लाभ उठाने के लिए यह अब हिंदुस्तानी में डब करके प्रदर्शित की जा रही है। 'बाहुबली' अब ब्रैंड बन चुकी है और उसका दोहन जारी रहेगा। एसएस राजामौली की पहचान 'बाहुबली' में सिमट रही है, जबकि वे सलमान खान अभिनीत 'बजरंगी भाईजान' की पटकथा लेकर राकेश रोशन के पास गए थे, क्योंकि उन्हें ऋतिक में ही अपना 'बजरंगी' नज़र रहा था परंतु मुंहमांगे दाम उन्हें राकेश रोशन से नहीं मिले, अत: वे सलमान खान के पास पहुंचे जिन्होंने उन्हें सहर्ष मुंहमांगी राशि प्रदान की। कंजूसी की हद तक मितव्ययिता को खींचने की आदत के कारण राकेश रोशन के हाथ से एक खजाना निकल गया अौर उनके पुत्र की सितारा हैसियत को भी झटका लगा।
'अारंभ' की टेलीविजन पर दिखाई जा रही झलक से लगता है कि यह भी 'बाहुबली' की तरह तर्कहीनता के महंगे उत्सव की फिल्म है। इस तरह की फिल्मों की बॉक्स ऑफिस सफलता सामूहिक अवचेतन को समझने में सहायता कर सकती है। साधारण मितव्ययिता के साथ सहज सरल जीवन बिताना कठिन होता जा रहा है, इसलिए यथार्थ से पलायन करके इन फिल्मों को देखा जा रहा है। इस तरह की फिल्मों में पौराणिकता के साथ सामंतवादी व्यवस्था के तत्वों को मिलाकर अजीबोगरीब नशा बनाया जा रहा है।
सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि ये फिल्में प्रजातंत्र के आदर्श का विरोध करती है। इनमें राजा, रानी तथा कपटी मंत्री हैं राजमहल के गलियारों की कानाफूसी इनके संवाद बना रही है। यह 'क्लोक एंड डैगर' कथाएं हैं, जिनमें काला लबादा पहने रक्तरंजित तलवार हाथ में लिए पात्र घूम रहते हैं और रहस्यमयी सुरंगों से महल के भीतर-बाहर मनचाहे ढंग से आते-जाते हैं। अंग्रेजी साहित्य में इस तरह की घटनाओं वाले देश को प्राय: रूरीटेनिया कहा जाता है। बाबू देवकीनंन खत्री भूतनाथ, चंद्रकांता इत्यादि में ये सब प्रस्तुत कर चुके हैं। 'चंद्रकांता' इतनी रोचक लगी कि अनेक लोगों ने हिंदी भाषा सीखी। फूहड़ता का कुछ अपना रहस्यमय आकर्षण है कि व्यक्ति उस ओर खिंचा चला जाता है। यह बात भी गौरतलब है कि 'चंद्रकांता' रचे जाने के दशकों बाद इब्ने सफी ने जासूसी कथाएं रचीं, जिनमें बुद्धिमान कर्नल विनोद है और उनका हंसोड़ साथी कैप्टन हमीद है। हर नायक के साथ साइड किक पात्र रचा जाता है, जिसकी ऊटपटांग हरकतों से कई बार रहस्य खोलने का रास्ता मिल जाता है। यह इब्ने सफी की कल्पनाशीलता है कि उनके बुद्धु पात्र हमीद ने एक गधा पाला है। देखिए लेखक कितनी चतुराई से पात्र की मूर्खता को उसके गधे पालने द्वारा प्रस्तुत कर रहा है। महान साम्यवादी विचारधारा के लेखक कृश्न चंदर ने तो 'गधे की आत्मकथा' नामक उपन्यास ही रच दिया। यह भी आश्चर्य की बात है कि अत्यंत सरल सीधे मेहनतकश जानवर को 'गधा' कहा गया और रोजमर्रा के जीवन में मंदबुद्धि मनुष्य को प्राय: गधा कहा जाता है। बेचारे गधे के साथ हर स्तर पर नाइंसाफी की गई है और कहावत बनी 'धोबी का गधा घर का घाट का।' हिमालय की संकरी खतरनाक पगडंडियों पर गधा ही भारी वजन लेकर चलता है। जहां शक्ति का प्रतीक घोड़ा नहीं जा पाता, वहां बेचारा गधा चला जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने काले तथा गंदले से रंग के कारण बेचारे गधे को इतना सब सहना पड़ता है। रंग के प्रति हमारे आग्रह हमारे वैचारिक घटियापन को उजागर करते हैं।
एक पुरानी कथा इस तरह भी है कि एक स्वयंवर में राजकुमारी दूर-दूर से आए सुंदर, बलिष्ठ एवं धनाढ्य राजकुमारों की अवहेलना करके वरमाला घोड़े के गले में डाल देती है। तमाम विरोध के बावजूद स्वयंवर की परम्परा के अनुरूप राजकुमारी का विवाह घोड़े से कर दिया जाता है। मधुरात्रि में राजकुमारी के चुंबन लेते ही घोड़ा एक राजकुमार में बदल जाता है। दरअसल वह शापित राजकुमार था जो शाप के कारण घोड़ा बन गया था। राजकुमार के पिता की प्रार्थना और अच्छी-खासी दक्षिणा देने पर श्राप देने वाले ने यह घोषणा की कि मधुरात्रि को यह अपने मूल स्वरूप में लौट आएगा।
बारात में प्राय: घोड़े का इस्तेमाल होता है और कभी-कभी लगता है कि गधा घोड़े पर बैठकर जा रहा है। दूल्हे की कमर में कार होती है और सारा तामझाम ऐसा होता है मानो विजयी सेना जा रही है और वधु पराजित होने के स्वरूप उसे दी जा रही है। अपनी जड़ों की ओर जाने पर जहालत के बीच कहां पड़े हैं इसका आभास होता है।