अंधकार का सिनेमा और कविता की उजास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 अप्रैल 2013
७ अप्रैल को मित्र को बधाई देने के लिए किए गए फोन के जवाब में कहा गया, 'मैं रामगोपाल वर्मा का भूत बोल रहा हूं, कल रात उनका निधन हो गया और दूसरे जन्म में आपसे बात करूंगा'। अपने ५१वें जन्मदिन पर यह बात वर्मा ने की। उस दिन वे 'सत्या दो' की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया, दावत नहीं दी और मंदिर भी प्रार्थना के लिए नहीं गए, क्योंकि वे नास्तिक हैं। उनका कहना है कि मृत्यु के एक वर्ष और निकट आने को शुभ दिन कैसे कहा जा सकता है और बधाई देने का अर्थ है कि आपको खुशी है कि मैं अपनी मृत्यु के निकट पहुंच रहा हूं। वे जन्मदिन के समय काम करना पसंद करते हैं। उन्होंने भूत-प्रेत और पुनर्जन्म की कहानियों पर फिल्में बनाई हैं। अपराध पर फिल्में बनाई हैं और नीरज ग्रोव्हर हत्याकांड पर भी फिल्म बनाई है, गोया कि वे भारत के नोए फिल्मकार हैं।
अमेरिका में विश्वयुद्ध के पश्चात सामाजिक पश्चाताप को अभिव्यक्त करने वाले सिनेमा को नोए अर्थात अंधकार का सिनेमा माना गया और इसके समानांतर धारा किसी और देश के सिनेमा इतिहास में उपलब्ध नहीं है। यह सिनेमा मनुष्य के अवचेतन में छुपे हुए सायों का सिनेमा है। यह मनुष्य मन के उस कोरे कागज की तरह है, जिस पर सामाजिक बुराइयों की अदृश्य लिखावट मौजूद है और इस तरह का पश्चाताप अपराधबोध से मुक्ति दिलाने की प्रक्रिया भी माना जाता है। यह युद्ध के पश्चात फ्रांस के फिल्म समालोचकों ने युद्ध के दरमियान अमेरिका में बनी अपराध फिल्मों के अध्ययन से खोजा था। अंग्रेजी के ब्लैक को फ्रेंच में नोए कहते हैं।
अमेरिका और फ्रांस तक यह तथ्य सीमित नहीं है कि मनुष्य के अवचेतन में अनेक परछाइयां डोलती रहती हैं, जिनको परिभाषित करना आसान नहीं है। इस्लामिक साहित्य में हमजाद अवधारणा है कि जन्म के साथ ही शैतान भी मनुष्य मन में आ बैठता है और ताउम्र अच्छाई बनाम बुराई की जंग मनुष्य हृदय में चलती है। वेदव्यास भी कहते हैं कि भीतरी कुरुक्षेत्र का संघर्ष स्वयं को जानने में सहायक होता है और सारा ज्ञान-मोक्ष स्वयं को पहचानने के ही चरण हैं। विश्वयुद्ध के समय कम बजट में उत्तेजक फिल्में बनाने की आर्थिक मजबूरी भी निर्माताओं के सामने थी। फिल्म, इतिहासकार जानते हैं कि इस 'अंधेरे के सिनेमा' की कोख से ही इटली का नवयथार्थवादी सिनेमा जन्मा है, जिसके पुरोधा रहे विटोरी डी सिका जिनकी 'शूशाइन' और 'बायसिकल थीफ' ने अनगिन फिल्मकारों को प्रेरित किया है और भारत में भी इस प्रभाव में बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन', राज कपूर की 'बूट पॉलिश', 'गर्म कोट', 'आवाज', 'हम लोग' इत्यादि फिल्में बनी हैं। सत्यजीत रॉय पर इटली के नवयथार्थवाद का प्रभाव रहा है।
इस अवचेतन के अंधेरे के सिनेमा के पात्रों में दो विशेषताएं होती हैं- एक अपने से अजनबी होना, स्वयं से दूर छिटका हुआ होना या सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ जाना और इसे हम उदयप्रकाश की कथा मोहनदास में देखते हैं। दूसरी विशेषता है मनुष्य का ऑब्सेशन अर्थात किसी एक व्यक्ति या भाव के प्रति जुनून पैदा होना। अमेरिका की नोए फिल्म में इन दो बातों से ग्रसित नायक कहता है 'मैं स्वयं के भीतर अपने को एक मुर्दा-सा महसूस करता हूं, मैं स्वयं को एक अंधेरे कोने में धकेल दिए गए व्यक्ति की तरह महसूस करता हूं, जिसे कोई अदृश्य व्यक्ति या शक्ति पीट रही है। मैं दर्द महसूस करता हूं, परंतु पीटने वाले को देख नहीं पाता'। 'डार्क कॉर्नर' नामक फिल्म के पात्र की बात के एक अंश को हम पांचवें दशक की 'फुटपाथ' नामक फिल्म के नायक (दिलीप कुमार) में भी सुनते हैं, 'मुझे अपनी सांसों में अनगिनत मुर्दों की बदबू महसूस होती है'।
बहरहाल, रामू का सिनेमा या अमेरिका के अंधेरे वाले सिनेमा का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि आज भारत में आम आदमी स्वयं को एक अंधेरे कोने में धकेल दिया गया महसूस करता है। वह अपने मारने वाले को देख नहीं पा रहा है, परंतु उसके शरीर की ऐंठन और दर्द सत्य है। मारने वाले को आज पहचान पाना इसलिए भी कठिन है कि बचाने का दावा करने वाला भी अपनी नेकी के मुखौटे के पीछे छुपा एक हत्यारा है। यह दोहरी मार का जमाना है, आक्रामक भी मार रहा है और बचाने वाला आत्मा तक को लहूलुहान करने के भीतरी एजेंडे के साथ आपसे मुखातिब है। आज से अधिक सच को देख पाना कभी इतना कठिन नहीं रहा।
बहरहाल, रामू के जन्म के भी पहले गुरुदत्त, विजय आनंद, राज खोसला इत्यादि देव आनंद की नवकेतन संस्था के लिए नोए सिनेमा रच चुके हैं, परंतु भारतीय 'अंधकार के सिनेमा' में गीत-संगीत की उजास इतनी अधिक रही है कि वह कभी हमें डराता नहीं था। इटली के नवयथार्थवाद के प्रभाव में बनी फिल्मों को भी आशावादी गीत-संगीत ने खूब संवारा है, जैसे 'बूट पॉलिश' का गीत 'तू बढ़ता चल, तारों के हाथ पकड़ता चल, यह रात गई वो सुबह नई...', क्या रामगोपाल वर्मा सचमुच अंधकार के सिनेमा को पसंद करते हैं? क्या वे सचमुच में नास्तिक हैं या उनका नास्तिक होना एकता कपूर के धार्मिक होने की तरह ही सतही मामला है? यह संभव है कि रामू ने अपनी इस तरह की छवि गढ़ी हो, जैसे खुशवंत सिंह ने स्वयं को शराबी या लंपट होने की लोकप्रिय छवि गढ़ी है, जबकि वे अत्यंत धार्मिक और सात्विक रहे हैं। आम आदमी भी अपने लिए एक लोकप्रिय छवि गढ़ता है। वह जानता है कि मित्र मंडली में उसने जो अपनी छवि गढ़ी है, वह वैसा नहीं है। दरअसल, हर आम आदमी सृजक है, वह यथार्थ जीवन में छवियां गढ़ता है। वह लिखता नहीं है, इसलिए कवि या लेखक नहीं है। हम सबके अवचेतन में एक अपराधी और एक कवि छुपा बैठा है, यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे छुपाएं और किसे उजागर करें?