अंधकार बनाम प्रकाश में ‘पिंक’ का महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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अंधकार बनाम प्रकाश में ‘पिंक’ का महत्व
प्रकाशन तिथि :21 सितम्बर 2016


शुजीत सरकार की 'कहानी' और 'पीकू' प्रशंसित एवं बॉक्स ऑफिस पर भी सफल फिल्में हैं। ताज़ा फिल्म 'पिंक' में अमिताभ बच्चन वकील की भूमिका में हैं और फिल्म के घटनाक्रम के दरमियान वकील की बीमार पत्नी का देहांत हो जाता है। इसके पूर्व वे जिस लड़की का केस लड़ रहे हैं, उसे भी अस्पताल ले जाकर अपनी पत्नी से मिलाते हैं, जो लड़की को एक उपहार भी देती है। पूरी फिल्म में उनके अवचेतन में अपनी बीमार पत्नी और अपनी निर्दोष मुवक्किल छाई हुई हैं, जो उनकी अजन्मी कन्या की तरह उनके लिए महत्वपूर्ण है। सामान्य जीवन में भी कुछ कन्याओं को देखने पर जाने कैसे उनके लिए अपनी अजन्मी पुत्री-सा भाव मन में पैदा होता है। सभी स्त्रियों को वासना से नहीं जोड़ा जा सकता। काल खंड भी अवचेतन में कुछ रंगों से जुड़ जाता हैं। मसलन गुलामी के दिन काले थे और मौजूदा कालखंड रंगहीन और स्वादरहित भी लगता है। कानों में यह उन बादलों-सा गरज़ता-सा लगत है, जो कभी बरसते नहीं। पूरी फिल्म में नायक वकील की बीमार पत्नी देश के बीमार होने की प्रतीक भी है। उस बीमार पात्र का फिल्म के घटनाक्रम से कोई सीधा संबंध नहीं है फिर भी उसका होना ही उसकी प्रतीकात्मकता का सबूत है। ये शुजीत सरकार के सिनेमा की भीतरी बुनावट का हिस्सा है जैसे उनकी 'कहानी' की नायिका क्लाइमैक्स में मां दुर्गा से एकाकार हो जाती है और 'पीकू' में वह इमारत है, जिसे बेचने आई नायिका बेचने से इनकार कर देती है। यह शब्द इनकार भी शुजीत सिनेमा का हिस्सा है। इस फिल्म के क्लाइमैक्स में वकील अमिताभ बच्चन कहते हैं कि इनकार या नहीं कहना मात्र शब्द नहीं है वरन् पूरा बयान है- एक सशक्त स्टेटमेंट है।

हंसमुख होना और मिलनसारिता को युवकों का गुण और युवतियों का दोष बना दिया गया है स्त्री और पुरुष को लेकर हमारे समाज का दोगलापन फिल्म में जमकर उभरा है। फिल्म की युवा नायिका से अंतरंगता का प्रश्न पूछे जाने पर जज नायिका से कहते हैं कि अगर वह चाहे तो इसका उत्तर एकांत मंे जज को दे सकती है परंतु साहसी नायिका अपना पक्ष बड़े साहस के साथ भरी अदालत में बाआवाज़ बुलंद ढंग से देती है। यह उसके चरित्र की ताकत है। वेदव्यास ने महाभारत में भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण का दृश्य रचा है और उस सभा के महावीर मात्र चश्मदीद गवाह बने रहते हैं। यहां तक कि भीष्म पितामह भी मूक दर्शक हैं। अत: भरी सभा में बयान भारतीय दोगलेपन का चीरहरण है। फिल्म की नायिका भी यही करती है। वह जज के प्रस्ताव को अस्वीकृत करती है। इस प्रकरण की गंभीरता महसूस करने के लिए आप कबीर का स्मरण करें, 'घूंघट के पट खोल तोहे पीव मिलेंगे, झूठ वचन मत बोल तोहे पीव मिलेंगे।' सत्य पर कोई अावरण नहीं है, सारे अावरण मनुष्य की आंख पर पड़े हैं। फिल्म की नायिका अंतरंगता से जुड़े प्रश्न का उत्तर भरी अदालत में बाआवाज़ बुलंदी से देती है।

वह आज के भारत की पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़की है। इस साहसी कन्या से सारे खाप भयभीत हैं। भारतीय समाज का आचरण भी खाप पंचायत की तरह है। हमारे महान अख्यानों से आधुनिक संविधान तक नारी महिमा का यशोगान किया गया है परंतु यथार्थ जीवन में हमारा व्यवहार शर्मनाक है। 'निर्भया' एक साहसी लड़की का कमाया गया नाम है परंतु पुत्री को कभी पुत्र की तरह हाथ में तलवार नहीं मानते हुए सिर पर लटका हुआ खंजर ही माना जाता है। इसी को उजागर करती है यह साहसी फिल्म। 'पिंक' की नायिका कूपमंडूकता, दोगलेपन पर गहरा प्रहार करती है। हमारे जन-जीवन में रंग भी प्रतीक हैं। पिंक अर्थात हल्का गुलाबी स्त्री के साथ जुड़ा रंग है। सांवला रंग हमारे श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा है। गोरा रंग आर्यों के साथ आया, द्रविड़ रंग श्याम-सलोना है। वैष्णव स्वभाव के फिल्मकार बिमल राय की 'बंदीनी' के लिए गुलज़ार ने लिखा, 'मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे।' इस फिल्म के अन्य गीत सर्वकालीन महान शैलेंद्र के लिखे हैं। क्या कमाल की पंक्ति है, 'मुझको तेरी बिदा का मरकर भी रहता इंतजार, मेरे साजन है उस पार।' सचिनदेव बर्मन की आवाज आज भी मन के सूखे कुंए से आती ध्वनि की तरह सुनाई देती है। स्त्री के साथ जुड़ा पिंक फिल्म का नाम भी है र फिल्म में अमीरजादे एक लड़की के साथ जोर-जबर्दस्ती करते हैं, तो वह नेता के भतीजे को घायल कर देती है अर्थात फिल्म पिंक बनाम अंधकार है और नायिका अलसभोर है। ज्ञातव्य है कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने दफ्तरों में काम करने वाली मध्यम वर्ग की साहसी कन्याओं पर फिल्म बनाई थी, 'ग्यारह हजार लड़कियां' और पिंक ग्यारह करोड़ दंबग लड़कियों की कथा है।