अंधकार सिनेमा का गर्भस्थ प्रकाश / जयप्रकाश चौकसे

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अंधकार सिनेमा का गर्भस्थ प्रकाश
प्रकाशन तिथि :25 मार्च 2015


मनुष्य अवचेतन के अंधकार के नोए सिनेमा की श्रेष्ठ उदाहरण है 'बियॉन्ड ए रीजनेबल डाउट' फिल्म, जिसका कथा सार कुछ इस प्रकार है कि एक महत्वाकांक्षी लेखक और प्रयोग करने का इच्छुक एक प्रकाशक न्याय में हुई चूक का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए स्वांग रचते हैं कि लेखक एक खोजी पत्रकार की तरह काम करते हुए एक कत्ल में फंस जाएगा और जब अदालत निर्णय सुनाएगी तब उसकी बेगुनाही का सबूत प्रकाशक अदालत में प्रस्तुत करेगा। प्रकाशक की बेटी से लेखक प्यार करता है और वह भी उसे चाहती है तथा उसके प्रकाशक पिता को इस रिश्ते पर एतराज नहीं है। घटनाक्रम उनकी पटकथा के अनुसार चलता हैं परंतु फांसी के दंड दिए जाने के समय प्रकाशक अदालत नहीं पहुंच पाता, क्योंकि एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है। अब प्रेमिका उसके बेगुनाह होने का सबूत खोजती है और सबूत हाथ आने पर अदालत से पुन: सुनवाई की प्रार्थना करती है। अदालत के तय किए दिन कैदी लेखक से अनजाने एक चूक हो जाती है और उसकी प्रेयसी को तथ्य मालूम पड़ता है कि उसके प्रेमी ने उसकी भूतपूर्व पत्नी का कत्ल सचमुच किया है ताकि प्रकाशक की बेटी से उसका विवाह हो जाए, क्योंकि वह उसे सचमुच ही प्यार करता है और उसकी भूतपूर्व पत्नी उसकी राह में रोड़ा बनना चाहती है।

अदालत प्रेमिका द्वारा पहले से प्रस्तुत साक्ष्य का अध्ययन करके अपना फैसला बदलती है परंतु प्रेमिका का जमीर जाग जाता है और वह अदालत को हत्या का तथ्य और वाजिब कारण भी बताती है ताकि फांसी कि सजा कायम रहे और न्याय की विजय हो सके। यह एक सच्ची नोए अर्थात मनुष्य अवचेतन के अंधकार की कथा है। यह न्याय प्रक्रिया के सामने भी सवाल की तरह प्रस्तुत फिल्म है कि साक्ष्य का एकमात्र आधार कितना भ्रामक हो सकता है। दरअसल, अपराध और दंड विधान मानवीय करुणा की दृष्टि से नहीं रचे गए हैं, उसका आधार तर्क है परंतु तर्क किस प्रकार भ्रामक रूप में रचे जा सकते हैं - ये हम आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर देख रहे हैं। सत्य तो कई बार भ्रामक बादलों की आड़ में छुप भी जाता है - माया क्या-क्या खेल दिखा सकती है। मोह कैसे भ्रम रच सकता है। काला बाज़ार के लिए शैलेंद्र कि पंक्तियां गौरतलब हैं - 'थम गया पानी, जम गई काई, बहती नदियां ही साफ कहलाई, न मैं धन चाहूं, ना रतन चाहूं, तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो मैं तर जाऊं, मोह मोहे भरमाए, कैसे ये नाग लहराए।'

बहरहाल, न्याय और दंडविधान पर दोस्तोवस्की की 'क्राइम एंड पनिशमेंट' एक अजर अमर कृति है। संजीव बक्षी का उपन्यास 'भूलन-कांदा' माननीय करुणा से देखी अपराध और दंड की कथा है और उपन्यास का कमाल यह है कि एक उलझे हुए मसले पर सीधा सरल उपाय एक अनपढ़ गांव की पंचायत करती है। गांव के सरल लोग सहज व्यावहारिकता के तकाजे दंड को नए ढंग से परिभाषित करते हैं। इस उपन्यास पर फिल्म बनाने की योजना है। ओमपुरी को पटकथा पसंद है और नसीरुद्दीन शाह पहले उपन्यास पढ़ेंगे फिर पटकथा का आकलन करेंगे। बहरहाल, 'बियॉन्ड ए रीजनेबल डाउट' की कथा में एक मोड़ यह भी संभव था कि प्रकाशक अपनी पुत्री की शादी उस गरीब लेखक से नहीं करना चाहता तथा इस गहरी साजिश के तहत लेखक को फंसाकर स्वयं सबूत नष्ट कर देता है। अब बेटी तथ्य की तलाश में पहले अपने पिता से टकराए। मजे की बात यह है कि 'अंधकार के सिनेमा' की सारी कथाओं के अंत कई प्रकार से किए जा सकते हैं। इन फिल्मों के अंशों का प्रयोग कई लेखकों ने किया है जैसे सलीम जावेद ने 'डॉन' में प्रमाण-पत्र रखने वाले इंस्पेक्टर की मृत्यु से मामले को बहुत पेचीदा बनाया था। साक्ष्य में शंका के आधार पर कई लोगों को दंड नहीं दिया जाता। एक अजीम फैसले में जज का यह लिखना कि लोकप्रिय समवेत भावना के तहत मुजरिम को मृत्यु दंड दिया जाता है। अब समवेत भावना को साक्ष्य कैसे माना जा सकता है। लोकप्रियता एक गढ़ी हुई अवधारणा है।