अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को दे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :11 फरवरी 2016
हेमा मालिनी सुर्खियों में हैं, क्योंकि उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कौड़ियों के दाम सरकारी जमीन दी है अौर इस पर बवाल मचा है। हेमा मालिनी को भारतीय जनता पार्टी की चुनाव सभाओं में शिरकत करने का यह पुरस्कार दिया गया है। दरअसल, सारे राजनीतिक दल अपनों के बीच रेवड़ियां बांटते रहे हैं और यह खेल सभी दलों ने खेला है। आज किसी भी दल के नेताओं में भीड़ जुटाने की पात्रता नहीं है और उन्हें फिल्म सितारों का उपयोग करना पड़ता है। अब इस तरह की अफवाहें भी उड़ाई जा रही हैं कि हिंदुत्व की इस प्रतीक ने धर्मेंद्र से विवाह के लिए इस्लाम कबूल किया था और इस मसले पर बहुत कुछ लिखा गया है। इंदौर के किसी वकील ने मुकदमा भी कायम किया था परंतु उस प्रकरण पर भी समय की धूल पड़ चुकी है। कहते हैं कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ उचित है। इस प्रकरण में कभी कुछ सिद्ध नहीं हुआ और हेमा मालिनी इस काजल की कोठरी से भी बेदाग निकली हैं।
दशकों पूर्व किसी निर्माता ने, संभवत: उनका नाम स्वामी था, हेमामालिनी को प्रमोट किया था। महेश कौल ने उन्हें राज कपूर के साथ 'सपनों का सौदागर' में प्रस्तुत किया था। उस समय उनके मेहनताने का कुछ प्रतिशत उन्हें प्रमोट करने वाले महोदय को मिलना तय हुआ था परंतु बाला साहेब ठाकरे ने इस शोषण से हेमा मालिनी को मुक्त कराया था। संभवत: तभी से हेमा मालिनी का रूझान हिंदुत्व प्रेरित राजनीतिक दलों के प्रति रहा है और समय-समय पर कुछ बीजेपी शासित प्रांतीय सरकारों ने भी हेमा मालिनी को तरह-तरह से नवाज़ा है। यह केवल भारतीय राजनीति में नहीं होता वरन दुनिया के तमाम डेमोक्रेटिक देशों में चुनाव में सहायता देने वालों को पुरस्कृत किया जाता है। यह गणतांत्रिक देशों में जायज प्रथा मानी जाती है और अनेक छुटभैया नेताओं की कोहनी में भी गुड़ लगाया जाता है, जिसे सूंघा तो जा सकता है परंतु खाया नहीं जा सकता। कमाल यह है कि इस मुआवजे को रिश्वत भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इस व्यवस्था से लाभान्वित होने की कला को जानते हैं अौर जो इस तरह का मुआवजा वसूल नहीं पाते, वे मन ही मन किसी न किसी को कोसते रहते हैं। दरअसल, जीवन के हाट में सभी का माल बिक नहीं पाता। दुकानों पर भीड़ कैसे इकट्ठी करनी यह एक कला है और यह उस समय से प्रचलित है, जब व्यापार प्रबंधन विषय के रूप में पढ़ाया नहीं जाता था।
इस व्यापार की व्यावहारिक शिक्षा हमेशा दी जाती रही है और इस क्षेत्र में चुटकुलेबाजी भी बहुत हुई है। मसलन, एक दुकानदार अपने से पैसे मांगने वालों को टालने में माहिर था। एक दिन उसका युवा बेटा दुकान पर बैठा था और धन वसूलने वाले को उसने एक पौधे की ओर इशारा करके कहा कि जब यह वृक्ष में बदलेगा तब उधारी चुकाई जाएगी। दुकानदार के लौटने पर सुपुत्र ने बड़े गर्व से लेनदार को टालने वाली बात बताई। उसे पिता से प्रशंसा की उम्मीद थी परंतु उसने उसे थप्पड़ मारकर कहा, 'कमबख्त आखिर तुने उसे वापसी का समय दे ही दिया।'
व्यापार के लिए धन जुटाना भी कला के रूप में विकसित हुआ है। आज लगभग तमाम भारतीय अौद्योगिक घरानों की सारी संदिग्ध सफलता का आधार बैंक से लिया कर्ज है और उसे न लौटाने की कला भी विकसित हुई। मसलन, वापसी की गारंटी के नाम पर वे चीजें गिरवी रखी जाती हैं, जिसका कोई मूल्य ही नहीं है। इस खेल में बैंक, सरकारें और श्रेष्ठि वर्ग शामिल हैं। हमारे औद्योगिक घराने कोई अार्थिक जोखिम नहीं उठाते परंतु लाभांश उनके खाते में जाता है। अब तो वे सांस्कृतिक क्षेत्र में भी नकली माल बेच रहे हैं। भ्रष्टाचार कम या ज्यादा मात्रा में सब जगह है परंतु हमारे यहां खोमचे पर रखकर गली-मोहल्लों में खेरची में प्रचलित हो चुका है और आम आदमी भी इसमें अपनी भूमिका निभाता है। कुछ आम आदमी इस दारूण दशा में नकली छाती-कूट भी करते हैं। मुजरिम ही अपराध की जांच पड़ताल कर रहा है। सत्य का लोप हो रहा है।