अंधेरी गुफ़ा / रूप सिंह चंदेल

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सायरन के चिंघाड़ने के साथ ही फ़ैक्ट्री के तीनों गेट खुल गए और दिन भर की थकान चेहरे पर ओढ़े कर्मचारियों की साइकिलें सड़कों पर दौड़ने लगीं। फ़ैक्ट्री के मेन गेट के सामने तीन ढाबे हैं, जिनके पीछे शाम के समय सब्ज़ी और फलवालों का छोटा-सा साम्राज्य फैल जाता है। वहीं कुछ दिनों से बिसातियों और कपड़ेवालों की दुकानें भी सजने लगी हैं। वर्षों से जहाँ चेतू चपार अपनी दुकान जमाता आ रहा था अब वहाँ अनिल बाली के लड़कों की अंडों और डबल रोटी की दुकान दिखाई देती है। अनिल बाली की दादागिरी से लड़ सकने में असमर्थ चेतू सड़क के उस पार पीपल के पेड़ तले बैठने लगा है। फ़ैक्ट्री छूटने के बाद वहाँ भीड़ का रेलमपेल देखते ही बनता है। सब्ज़ी, फल और अन्य सामान बेचनेवालों और खरीददरों के मिले-जुले स्वर वातावरण में लहराने लग गए हैं। दिन भर घरों में अलसाई पड़ी रहने वाली गृहणियों के समूह भी उसी समय वहाँ कुछ खरीदने के बहाने अपनी बोरियत मिटाने आ जाते हैं। लगभग आधा घंटे के शोरगुल के बाद बाज़ार शान्त हो जाता है। सोमदत्त को तभी कुछ खरीदना अच्छा लगता है। भीड़ उसे कभी अच्छी नहीं लगी, इसीलिए वह फ़ैक्ट्री के आधा घंटा बाद भी वर्कशाप के अपने केबिन में बैठा रहता है और जब बाहर आता है, तब बाज़ार खाली हो चुका होताहै। उस दिन सब्ज़ी खरीदकर जब वह घर पहुँचा रेनू और रिंकू की शिकायती आवाज़ें एक साथ सुनाई पड़ीं, "पापा कितनी देर कर देते हैं आप! देखो न... वो अंकल तो न जाने कब आ गए।" दोनों सामने सड़क के उस पार मकान में रहने वाले शर्मा जी के बारे में हाथ से इशारा करके बता रहे थे।

"अच्छा कल से ऎसा नहीं होगा। मैं भी जल्दी आ जाया करूंगा।"

"जाइए, हम आपसे नहीं बोलते। आप रोज़ाना यही कहते हैं और फिर भी देर से आते हैं। हमें देर नहीं हो जाती घूमने में...।" रेनू ने मुँह बनाकर कहा तो मुस्कराकर उसने उसे प्यार किया और अंदर चला गया। दोनों उसके पीछे-पीछे चले आए। उसके सोफ़े पर बैठने के साथ ही आपा चाय ले आई।

"पापा तो अभी चाय पिएगें। दीदी, आओ हम-तुम चलें घूमने।" रिंकू कुछ तुतलाकर बोला तो उसने उसे खींचकर सोफ़े पर बैठा लिया। "बस चाय पीकर चलते हैं रिंकू... रेनू बस एक मिनट।"

दोनों बच्चों की नजरें कप में चाय को देखने लगीं कि कब ख़तम होगी और वह इधर-उधर देख रहा था सुनीता को। "तो आज भी अभी तक नहीं आई। उसका मन खिन्न हो गया। उसने जल्दी से कप खाली किया और बच्चों को लेकर पार्क की ओर चल पड़ा।

०००

पार्क दूधिया प्रकाश में नहाया पड़ा था। पार्क के बीच में स्थित गांधी जी की सफ़ेद संगमरमर की मूर्ति के ऊपर भी एक दूधिया लट्टू लटक रहा था, जिससे टकराकर हज़ारों पतंगे अपनी आहुति दे चुके थे। और कितने ही अभी भी मंडरा रहे थे। कस्बेनुमा उस छोटी-सी बस्ती में, जहाँ केवल फ़ैक्ट्री कर्मचारी ही रहते हैं वही एकमात्र पार्क है, जहाँ शाम होते ही लोग सिमटने लगते हैं। अक्टूबर के महीने में अच्छी-खासी चहल-पहल रहती है, क्योंकि इन दिनों यहाँ मौसम भी काफ़ी अच्छा रहता है। कुछ दम्पति घंटा-आध घंटा आकर बैठते हैं और कुछ थोड़ी देर चहलकदमी कर चले जाते हैं । लेकिन बच्चे तब तक उछल -कूद करते रहते हैं जब तक चौकीदार उन्हें निकलने के लिए नहीं कहता। चौकीदार प्रायः रात दस बजे के आस-पास आकर सभी को भगा देता है। कुछ दिन पहले तक ऎसा नहीं था,लेकिन जब से एक दिन आधी रात के बाद पार्क की दीवार और गुलाब के पौधों के बीच दो युवा आत्माओं को अंधेरे का लाभ उठाते दो चौकीदारों ने रंगे हाथॊं पकड़ा, तब से ’सेक्योरिटी अफ़सर’ का सख़्त आदेश हो गया कि कोई भी रात दस बजे के बाद पार्क में न रहने पाए।


सोमदत्त एक बेंच पर बैठ गया । दोनों बच्चे लॉन में खेलने लगे। पास में ही बच्चों का झुंड खेल रहा था और कुछ दूरी पर तीन जोड़े बातों में मशगूल थे। थोड़ी देर बाद उनमें से एक जोड़ा उठा और हंसते हुए हाथ मेम हाथ डाले गेट की ओर बढ़्ने लगा। सोम उन्हें बाहर जाता देखतारहा। उसे लगा कि जैसे जाने वाला जोड़ा उसका और सुनीता का है ऎसे ही तो उन दोनों ने प्रारंभिक दिनों में कितनी शामें मेरठ के पार्कों में गुजारी थीं। वह अतीत में खोने लगा और इससे उसके खिन्न मन को सुकून भी मिल रहा था। उसने एक दृष्टि बच्चों पर डाली । वे खेलने में मस्त थे।


सुनीता से उसका परिचय एक विचित्र संयोग था।उस कस्बेनुमा छोती-सि जगह एकमात्र सरकारी फैक्ट्री में सुपरवाइजर बनकर आए उसे केवल चार माह ही बीते थे कि अकस्मात वह बीमार पड़ गया। चार दिनत क फैक्ट्री अस्पताल में उसका इलाज होता रहा। लेकिन वहां ठीक होने की संभावना न देख मेडिकल आफिसर ने उसे मेरठ के प्यारेलाल अस्पताल भेज दिया। देखभाल के लिए उसने गांव से मां को बुला लिया था।


प्यारेलाल अस्पताल में वह तेरह दिन पड़ा रहा। यहीं उसकी मुलाकात किस सुनीतागुप्ता से हुइ थि। सुनीता वहां नर्स थी और दिन मेम उसकि देखभालवहिकरति थी। सूणीता की तीक्ष्णग ोल बड़ी आंखें, सलोना गोल चेहरा, सुडौल देह यष्ति और मधुर स्नेहिल व्यवहार ने सोम के भावुक मन कोइ स प्रकार बाम्धा किअस्पतालसे जा न े औरपु रि तरहस्वस्थहो ने के बाद वह प्रायः प्रति रविवार को मेरठ जाकर सुनीता से मिलने लगा। रविवार को सुनीता की ड्यूटी होती,इसलिए उसे उससे मिलने में कभी कठिनाई न होती। सुनीता के अस्पताल से छूटने के बाद दोनों पार्कों में घूमते , पिक्चर देखते, कैंट की साफ सूनी सड़कों पर चहलकदमी करते। कभी-कभी सुनिता उसे स्टेशन छोड़ने चली जाती। जल्दी ही सोम सुनीता के साथ गृहस्थी बसाने के स्वप्न देखने लगा। उसने एक दिन सुनीता के सामने प्रस्ताव रखा तो वह तुरन्त ही तैयार हो गयी।

मां उन दिनों उसके साथ ही थीं. उसने मां से बात की . सुनकरमां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया. खरी खॊटी सुनाती हुई वह बोलीं, "कुलच्छी यहै दिन द्याखै खातिर तोहका जनमा रहै. कहां वो बनियाइन और कहां हम खरे ब्राम्हण. याद रख सोम अगर ऊ कलमुंही का तू बियाह कै घर लाई तो मैं सम्झिहौं कि तोहका जनमे नहीं, कांकरपाधर नजमा रही. " मां का चेहरा आंसुओं से भीग गया, शब्द लड़खड़ाने लगे तो आंचल मुंह पर रख वे फूट-फूटकर रोने लगीं. सोम घबड़ा उठा. उसे यह उम्मीद तो थी कि मां विरोध अवश्य करेगी, लेकिन यह आशा भी थी कि समझाने से मान जाएगी. मां के आंसू थमने पर उसने उन्हें फिर समझाना चाहा, लेकिन उन्होंने उसकी एक न सुनी. चीखकर फिरल बोली, "तू कल ही हमरे जांय की तैयारी कर दे अब हम हिंयां एक दिन न रहब. और कान खोलि कै सुनि ले अगर तू ओहिसे बियाह कीन्हेव तो घर मा कदम रखै कै हिम्मत न कीन्हेव." उस दिन मां ने खाना भी नहीं खाया और दूसरे दिन बिना कुछ खाये-पिए गांव चली गयीं. जाते समय वह इतना अवश्य कह गयीं कि यदि सोम उस लड़की से शादी करेगा तो घर वाले फूटी कौड़ी भी लेना पसन्द न करेंगे. सोम के लिए यह सबसे बड़ी सजा थी. जिन मां-बाप ने उसे पेट काटकर पढ़ाया, वे उससे कुछ न लेगें और बुढ़ापे में कष्टकर जीवन बितायेंगे. मां के जाने के बाद वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा कितनी ही देर तक बैठे मां-पिता छोटे भाई और सुनीता के बारे में सोचता रहा था. अन्ततः उसने निर्णय किया कि वह सुनीता से मिलने कभी नहीं जाएगा. दो रविवार वह गया भी नहीं लेकिन तीसरा रविवार आने से पहले ही उसे सुनीता का पत्र मिला, जिसने उसे निर्णय बदलने के लिए विवश कर दिया. वह सुनीत से मिला तो उसके कुम्हलाये चेहरे को देखकर विचलित हो उठा और सोचने लगा, "जो सुख वह सुनीता के साथ रहकर पा सकता है क्या वह घरवालों द्वारा थोपी गई किसी ग्रामीण पत्नी के साथ रहकर उसे मिल सकेगा? और उस क्शण उसने निर्णय कर लिया कि वह सुनीता के सथ ही विवाह करेगा. देखेगा कब तक घरवाले उससे खर्च न लेगें. उससे न लेंगे तो किससे लेगें?

जुलाई के अंतिम सप्ताह में उसने कोर्ट मैरिज कर ली. इस बात की सूचना भी उसने घरवालों को दे दी. लेकिन उन लोगों की कोई प्रतिक्रिया उसे नहीं मिली. उसने भी मेरठ शिफ्ट कर लिया और साकेत में किराये पर दो कमरे लेकर रहने लगा. फैक्ट्री अहुंचने के लिए उसे दैनिक यात्री बनना पड़ा. सुबह की गाड़ी से जाकर मेरठ शटल से रत देर तक घर पहुंचता था. फिर भी वह सुनिता को पाकर प्रसन्न था. लेकिन उसकी प्रसन्नता को पहला आघात तब लगा जब पिताजी के नाम भेजा मनी!ऑर्डर वापस लौट आया. पीछे से उनका एक पोस्टकार्ड भी आया, जिसमें कुछ शब्द पिताजी ने टांक दिये थे, "भविष्य में धनादेश न भेजा जाय. स्वीकार न होगा . हमारे बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा."

सोम छटपटा कर रह गया. वह छटपटाहट शान्त भी न हुई थी कि उसे एक और आघात लगा. शादी को महीना भी न बीता था कि उसे एक दिन ज्ञात हुआ कि सुनीता गर्भवती है. ढाई महीने का गर्भ है उसे. जोर देकर पूछने पर सुबकते हुए सुनीता ने बताया, "सोम मैं मजबूर थी उस भेड़िये डॉक्टर के सामने जिसने अकेले में पाकर मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया था. उस दिन पहली बार मैं 'नाइट ड्यूटी' में थी."

"तुमने यह सब छुपाया क्यों?" उत्तेजित स्वर में वह बोला.

"सोम मैं तुम्हें इतना चाहती हूं कि बताकर तुम्हें खोना नहीं चाहती थी."

"बताकर मेरे ह्रदय में गुम्हारा महत्व और अधिक बढ़ जाता सुनीता, न बताकर तुमने अच्छा नहीं किया." सोम कहीं खो गया था. नहीं समझ पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए. उसे केवल इस बात का दुख था कि सुनीत ने इस बारे मेम उसे बताया नहीं. वह जब भी सोचता, "जिस सुनीता के लिए मां-पिता भाई छूते , उसने ही-----" उसका सिर चकराने लगता. वह चुप-सा रहने लगा. सुनीता उसकी स्थिति भांप गई थी शायद. इस्लिए वह भी चप रहने लगी थी.

एक सप्ताह चुप्पी में व्यतीत हो गया. एक दिन जब वह रात घर पहुंचा, सुनीता पलंग पर लेटी कराह रही थी. उसे देखते ही बोली, "उस पाप से आज मुक्त हो गई हूं सोम. अब तो मुझे माफ कर दो." सुनीता के भीगे स्वर ने उसे विगलित कर दिया. उसके सिरहाने बैठकर उसके सिर को सहलाते हुए वह बोला, "सुनीता गलती इंसान से ही होती है, किन्तु उसे छुपाकर मनुष्य उस गलती को सन्देहास्पद और अनुचित बना देता है. विगत में जो कुछ हुआ वह उस डॉक्टर की हिंस-पशु-प्रवृत्ति या तुम्हारी अनजान त्रुटि का परिणाम था, मैं उसे भुलाने का प्रयत्न करूंगा. लेकिन मैं चाहता हूं कि तुम इस नौकरी से भी म्क्त हो जाओ."

क्षणभर तक सोचने के बाद सुनीता बोली, "इस बारे में सोचूंगी."

०००

शादी के बाद सोम न केवल अपने परिवार से कट गया था, बल्कि रेस्तेदारों ने भी उससे संबन्ध काट लिए थे. सामाजिक गतिविधियां समाप्त प्रयः हो गयी थीं. मेरथ में वह किसी से मित्रता न कर पाया था. फैक्ट्री के ही कुछ लोग थे जिनके यहां कभी आना-जाना हो जाता था. फिर सुनीता के घर वाले और उसके अस्पताल के कुछ लोग थे, लेकिन वह बहुत कम इन लोगों के यहां जाता. छुट्टियों आदि में वह प्रायः घर में ही पड़ा रहता. और सुनीता के बारे में सोचता रहता, लेकिन वह कभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया किक्या वास्तव में डॉक्टर द्वाअरा बलात हवस का शिकार सुनीता बनी थी या----. वह इस विषय में जितना ही सोचता उतना ही परेशान होता. धीरे-धीरे उसने इस बरे में सोचना बन्द कर दिया, लेकिन एक बत अवश्य सोच ली कि अब वह सुनीता को यह नौकरी नहीं करने देगा. लेकिन इस विषय में उसने जब-जब बात चलानी चाही, सुनीता प्रसंग बदलकर दूसरी बातें करने लगती. यह स्थिति उसके लिए बेहद तकलीफदेह होती. आखिर एक दिन उसने कह दिया, "सुनीता तुम अब नौकरी छोड़ दो. मैं और अधिक डेली पैसेंजरी----."

उसकी बात बीच में ही काटकर सुनीता बोली, "सोचो डियर, आजकल महंगाई के समय में नौकरी छोड़ना क्या बुद्धिमानी होगी. और डेली पैसेजरी----. तुम फैक्ट्री अस्पताल में मेरे लिए जुगाद़्अ बनाओ, मैं यहां से छोड़ दूंगी ---- तुम्हारी समस्या भी हल हो जायेगी." फिर कुछ रुककर वह बोली, "सच बात तो यह है कि डियर मुझे मरीजों की सेवा करने में आनन्द भी आता है और सुकून भी मिलता है."

"तो सुनीता नौकरी नहीं ही छोडेगी." यह बात वह भलीभांति समझ गया. उसी क्षण से सुनीता के प्रति उसके मन में अनेक विचारों ने आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया. प्रकट रूप में तो वह कुछ कह नहीं सका, लेकिन अन्दर-ही अन्दर वह परेशान रहने लगा. और उसी परेशानी में तीन वर्ष बीत गये. वह एक बेटी और एक बेटे का बाप बन गया. बच्चों की देखभाल के लिए उसने एक आया रख ली. आया निराश्रिता थी, इसलिए उसी के यहां रहने लगी. बच्चों के लिए वह अधिक से अधिक समय देना चाहत, लेकिन दैनिक यात्रा के करण संभव न था. सुबह छः बजे घर से निकलकर वह रात साढ़े आठ बजे से पहले कभी घर नहीं पहुंच पाया. तब तक बच्चे सो चुके होते थे. वह सोचता यदि सुनीता नौकरी चोड़ दे तो वह फक्ट्री एस्टेत में जाकर रह सकता है. लेकिन वह सोचकर ही रह जाता, दोबारा कभी सुनीता से कह नहीं सका.

लेकिन फैक्ट्री एस्टेट में रहने की उसकी इच्छा सुनीता ने ही पूरी कर दी. उसे तो तब पता चला जब एक दिन सुनीता ने उसके सामने फक्ट्री अस्पताल से 'सीनियर नर्स' के पद के लिए आया 'इण्टरव्यू लेटर' उसे दिखाया. यह सब कैसे हुआ, वह समझ नहीं पया. केवल चेहरे पर जिज्ञासा के भाव लाकर रह गया. सुनीता शायद उसका आशय समझ गयी. बोली, "मैं तुम्हें बताना भूल गयी थी." वह कहना चाह रहा था, "यह तो तुम्हारी पुरानी आदत है." लेकिन चुप ही रहा. सुनीता आगे बोली, "तुम्हारे जनरल मैनेजर हैं न ---- क्या नाम है---- हां -- दत्ता साहब, पिछले महीने मेरे अस्पताल में पन्द्रह दिनों तक रहे थे. उन्हें हार्ट अटैक हुआ था. मेरी ड्यूटी उनके पास थी. एक दिन उनका मिजाज ठीक समझ मैंने तुम्हारा जिक्र कर फक्ट्री अस्पताल के लिए अपने बारे में बात की तो बोले, एप्लीकेशन दे दो-- देखूंगा. मैंने उसी समय ऑफिस में टाइप करवाकर एप्लीकेशन उन्हें दे दी थी." इण्टरव्य़ू लेटर सोम के हाथ से लेती हुई बोली, "मुझे उम्मीद है कि सेलेक्षन हो जायेगा."

सारा विवरण सुन सोम स्तब्ध रह गया. कुछ देर बाद सधे शब्दों में बोला, "सुनीता एक बार फिर सोच लो, अब तुम्हारा नौकरी करना--- तुम्हें बच्चों के लिए भी सोचना चाहिए."

"सोम तुम मुझे नौकरी छोड़ने के लिए विवश मत करो. इतने दिनों तक नौकरी कर लेने के बाद मैं अब घर मेम कैद होकर नहीं रह सकती---- और फिर इस 'अपार्चुनिटी' को छोड़ देने के लिए तुम कह रहे हो. यदि मुझे नौकरी मिल गई तो क्या तुम दैनिक यात्रा से मुक्ति न पा जाओगे."

सोम तिलमिलाकर रह गया. लेकिन फिर भी बोला, "सुनीताफैक्ट्री अस्पताल का वातावरन बेहद घृणास्पद है----और जनरल मैनेजर दत्ता बदमाश और धूर्त है---- तुम क्यों नहीं समझती!" आगे वह कुछ कहना चाहकर भी नहीं कह सका.

"क्या तुम्हें मुझ पर आज भी विश्वास नहीं--- भाड़ में जाय दत्ता-- मुझे तो इस नौकरी सेमतलब है. यदि मिल गई तो सारी समस्याएं हल हो जायेगीं."

इस बार सोम अपने क्रोध के ज्वार को रओक नहीम पाया और चीखकर बोला, "तुम इण्टर्व्यू देने नहीं जा सकती." और वह इण्टरव्य़ू लेटर लेने के लिए झपटा. लेकिन सुनीता शायद पहले से ही सतर्क थी. लेटर चोली के अंदर छुपाकर उसी प्रकार बोली, "तो सुन लो सोम, तुम मुझे रोक नहीं पाओगे."

सोम होंठ भींचकर आग्नेय दृष्टि से उसे देखत हुआ खड़ा रह गया. क्रोध से उसका शरीर कांप रहा था. और सुनीता धृष्टतापूर्वक बिना हिले-डुले वहीं खड़ी रही सोम को देखती हुइ. सोम मुड़कर दूसरे कमरे में चला गया और बिना कुछ खाये ही सो गया.

उस दिन के बाद लगभग प्रतिदिन रात मोहल्लेवालों के कान दोनों की तू-तड़ाक सुनने लगे थे. कई बार सोम सोचता, क्यों न वह सुनीता से निस्कृति पा ले, लेकिन दोनॊं बच्चों का विचारकर कुछ नहीं कर पाया.

सुनीत ने इण्टरव्यू दिया और च्न ली गई. एक दिन जब उसने फैक्ट्री अस्पताल ज्वाइन कर लिया, तब कई दिनों की कलह के बाद सोम को मेरठ से फैक्ट्री एस्टेटे में शिफ्ट होना पड़ा. लेकिन अब वह ऎसा महसूस करने लगा कि वहां पहूम्चकर सुनीता उसकी कुछ अधिक ही उपेक्षा करने लगी है. एक दिन जब अस्पताल से छूटने के डेढ़ घंटे बाद सुनीता घर पहुंची तब क्रोध में उफनते हुए उसने प्रश्नों की बौछार कर दी," क्यों देर से आयी---? --- कहां रहीं अब तक ? आदि आदि."

अस्पताल में काम अधिक था, कहकर सुनीता दूसरे कमरे में चली गई. लेकिन इससे वह संतुष्ट नहीं हुआ. पीछे-पीछे वहीं जा पहुंचा और कुरेदकर फिर पूछने लगा कि इतनी देर तक वह कहां रही? लेकिन सुनीता बिना उत्तर देये च्पचाप कपडे़ बदलने लगी. यह सब सोम के लिए बर्दाश्त से बाहर हो गया. उसका क्रोध सीमाएम लांघ चुका था. वह ताबड़तोंड़ थप्पड़-घूंसों से सुनीता को पीटने लगा. सुनीता पिटती रही, रोती रही, लेकिन बोली कुछ भी नहीं. आखिर हारकर उसने पीटना बन्द कर दिया. आया और बच्चे सहमे से उसे देखते रहे थे. मोहल्ले वालों की भीड़ इकट्ठा हो गयी थी,जिन्हें उसने चले जाने का अनुरोध किया था और खद रोशनी बन्दकर चारपाई पर ढ गया था.

रात बहुत देर तक वह सो न सका था. सोचता रहा था अपने पांच वर्षीय वैवाहिक जीवने के बारे में , जिसमें प्रारंभीक कुछ दिन ही अच्छी तरह बीते थे. लेकिन बाद में सुनीता से वह धीरे-धीरे कटता चला गया. पहले अप्रकट अरूप में, फिर प्रकट रूप में. उसने डॉक्टर के बारे में बतायी बात के प्रति सुनीता के सामने सहजता अवश्य प्रकट की थी और भूल जाने की बात भी कही थी, लेकिन उसके बाद वह कभी उसके प्रति सहज नहीं हो पाया. वह सदैव शंकाओं की अंधेरी गुफा में ही भटकता रहा. जब-जब निकलना चाया तब-तब नौकरी न छोड़ने का सुनीता के निर्णय ने उसे वहीं ढकेल दिया. और आज इसी कारण वह उस पर हाथ उठा बैठा. परन्तु अबवह महसूस कर रहा था कि उसका इस प्रकार क्रोध में पागल हो जाना ठीक न था. हो सकता है सुनीता को अस्पताल में काम रहा हो. लेकिन यदि काम अधिक था और वह देर से घर पहुंच रही थी तो उसे फोन कर बता तो सकती थी. उसने करवट बदली और सोचने लगा, "संभव है कोई सीरियस केस आ गया होऔर उसे फोने करने का मौका ही न मिला हो." यही सब सोचते- वह सो गया.

उस दिन से सुनीता और उसके बिच संवाद चिल्कुल बन्द हो गया. वह केवल बच्चों से बोलता, उनके साथ खेलता और आवश्यकता की चीजें आया सेमांग लिया करता. दिन भर फैक्ट्री के काम में अपने को बेहद व्यस्त रखता , शाम को बच्चों को लेकर टहलने निकल जाता और लौटकर खाना खाकर सो जाता. बस यही दिनचर्या हो गयी है आजकल उसकी.लेकिन अब वह पहले की तरह परेशान नहीं रहता. सुनीता के बारे में सोचना उसने कम कर दिया है, और क्यों न कर देता. सुनीता भी तो उस दिन से तनी-तनी सी रहने लगी है अस्पताल से जब-तब देर से आने लगी है.उसने एक दिन वहां एक कर्मचारी से मालूम किया तो पत चला कि सुनीता ने जानबूझकर अपने जिम्मे अधिक काम ले लिया है. वह भलीभांति समझता है कि उसने ऎसा क्यों किया है. महज उसे च्ढ़ाने के लिए.वहभी देख रहा है कब तक उसका यह रंग-ढंग रहता है.

०००

"पापा चलिए घर चलें." रेनू की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ. घड़ी देखी नौ बज रहे थे. पार्क में भि इक्का-दुक्का लोग ही नजराअ रहे थे. "ओह बेता----." वह कहना चाह रहा था कि बहुत देर हो गयी, लेकिन बात बीच में ही रोक ली और बच्चोंण की उंगली पकड़कर चल पड़ा.

घर पहुंचने पर उसने आयाको परेशान पाया. समझ गया कि सुनीता अभी तक नहीं आई. यह कॊई पहली बार तो था नही. सुनीता प्रायः ही अब देर से आने लगी है.बस यह जानते हुए भी आया एसे ही परेशान होती है. कितना सरल ह्रदय पाया है इस बूढ़ी आत्मा ने. जितना इसे सुनीता से लगाव है उतना ही उससे और बच्चों से है. यही सोचता हुआ वह दूसरे कमरे की ओर बढ़आ, कपड़े बदलने के लिए. लेकिन वह दरवाजे तक ही पहुंचा था कि आया की दूबी आवाज सुनाई पद़्ई, "बाबु जी--- बीबी जी----."

वह मुड़ गया. उसने देखा आया का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ है. उसके कुछ पूछने से पहले ही आया फिर अस्फुट स्वर में बोली, "बाबू जी बीबी जी अस्पताल में----." आया की हिचकियां बंच गयीं. "क्या हुआ बीबी जी को ?" कुछ देर तक हिचकियां लेने के बाद आया बोली, "बाबूजी तीन जन आए रहे अस्पताल से. आपको खूब ढंढ़ा , फिर निराश वे लौट गये---."

"क्यों....?"

"बीबी जी को हार्टफेल----."

"क्या....? सुनीता को हार्ट अटैक----." वह चीख उठा.

"हां बाबू जी---- हालत ज्यादा खराब है. शायद दिल्ली ले जान है."

आया को रोता देख बच्चे सहमे से पास आ गए. बात के कुछ कतरे रेनू के कान में चले गए थे. कुछ उससे और कुछ आया को देखकर वह ममी----ममी--- कह जोर से रोती हुई सोम से चिपट गई. रिंकू भि चुप न रह सका, सुबकने लगा. वह जड़वत कुछ समझ नहीं पा रहा था, क्या करना चाहिए. तभी आया बोली, "बाबू जी आप अस्पताल जाइये---- जल्दी."

"हुं...हुं... वह चौंका। रेनू को चपकारता हुआ दूसरे कमरे में गया. " अलमारी से रुपये निकाले और आया से बोला, "बच्चों को संभालना..." वह कुछ और भी हिदायत देना चहता था, लेकिन गला रुंध-सा गया उसका. बिना कुछ बोले ही बच्चों की पीठ थपथपाकर वह बाहर निकल गया. उस समय सड़क सुनसान थी. गांधी पार्क तक धीरे-धीरे वह इस आशा से चलकर गया कि शायद कोई रिक्शावाला दिखाई पद़्अ जाय. कॊई नहीं दिखा. केवल पार्क का चौकीदार गेट के पास बैठा बीड़ी फूंक रहा था. सोम अस्पताल की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गया. उसने अपनी चाल तेज कर दी और कुछ देर बाद वह दौद़्अने लगा, जिससे जल्दी-से जल्दी अस्पताल पहुंच सके. उस समय उसके दिमाग मेम एक ही बात थी, "यदि सुनीता को कुछ हो गया तो...?"