अंधेरे का गणित / पंकज सुबीर
मुँबई जैसे महानगर में जहाँ लोकल ट्रेनें सुबह, दोपहर, शामें अपनी पीठ पर ढोती हैं। वह भला क्या कर रहा है? आइना उससे झूठ बोलता है या सच, कुछ पता नहीं पर आइना प्यास को बुझा नहीं पाता है। गोरे गाँव पश्चिम में शास्त्री नगर के जिस फ़्लैट में वह अपनी प्यास की चिंगारियों के साथ रात गुज़ारता है, वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं है जो ख़ालीपन के अँधेरे में समा जाए। मुंबई में काम करने वालों के लिए सुबह से शाम तक तो कुछ भी अपना नहीं है, बस एक रात होती है जब कुछ गणित सुलझाए जाते हैं। पर अकेलेपन के भी भला कोई गणित होते हैं। न कुछ जोड़ सको न कुछ घटा सको। दफ्तर से सी.एस.टी और सी.एस.टी से अँधेरी, अंधेरी से ट्रेन बदलकर गोरेगाँव और गोरेगाँव में वही फ़्लैट, वही आग, वही सन्नाटा। जब बिस्तर पर पहुँचता तो सामने आईने में नज़र आती अपनी निर्वस्त्र देह के किनारे उसे सुलगते हुए नज़र आते। वह सोचता कि प्रतिबिम्बों को परिभाषा से परे नहीं किया जा सकता क्या? वह जो वहाँ आइने के उस तरफ़ दूसरा 'मैं' , सो रहा है वह यहाँ आकर मेरे गणित को पूरा नहीं कर सकता क्या? आइने के उस तरफ़ की देह को देखता तो उस अंधेरे पर नज़र अटक जाती, जहाँ एक गणित रखा हुआ हल होने की प्रतिक्षा करता नज़र आता था। फिर दूसरा दिन और कपड़ों में उसी गणित को छुपाए लोकल ट्रेन पर सवार हो जाता।
बचपन और जवानी, हालाँकि फ़ासला ज़्यादा नहीं होता पर परिभाषाओं में ग़ज़ब का परिर्वतन आ जाता है और फिर वह तो मुंबई जैसा महानगर भी नहीं था एक छोटा-सा क़स्बा था, जहाँ उसका सबसे पहले अँधेरे के इस गणित से परिचय हुआ था। किसी दोस्त के भाई की बारात में गया था वो। रात को शादी के कार्यक्रम से निपट कर जब सोने वाली जगह पर पहुँचा तो देखा दूल्हे के चार-पाँच दोस्त बैठकर कुछ पी रहे हैं, उसे देखकर उनमें से एक बोला 'ऐ छोटू आज थोड़ी तू भी ले ले'। शराब समझकर वह थोड़ा झिझका मगर इतनी देर में ही दूसरा बोला था 'अरे ये शराब थोड़े ही है ये तो बीयर है।' उफ़्फ़ कितना तीखा स्वाद था उस मटमैले पानी का। कितनी पी थी ये तो याद नहीं पर हाँ इतना याद है वह बेसुध होकर बिस्तर पर गिर गया था। रात को अचानक लगा कि उसकी देह अनावरित हो गई है, फिर एक दम यूँ लगा कि पसलियाँ टूटने लगी हैं, सांसें उखड़ने लगी हैं। ऐसा लग रहा था मानो बर्फ़ीली चिंगारियाँ उसके बदन में समाती जा रही हैं। फिर अचानक सब कुछ शांत हो गया, कुछ देर बाद फिर वही, फिर वही, रात भर ये सिलसिला चलता रहा। कुछ नशा था और कुछ अँधेरे के इस गणित से अनभिज्ञता, वह समझ नहीं पा रहा था कि उसके साथ हो क्या रहा है। हर एक दौर के बाद एक और दौर, वही पसलियों के चटखने की आवाज़, वही सांसों का उबलना और फिर वही ज्वालामुखी-सा कुछ फट पड़ना। हर बार वह क्या पिघल रहा है, क्या ज़्यादा शराब के कारण ये हो रहा है?
सुबह उठा तो वही अनावरित अवस्था थी, रात के नशे और उस झंझावत ने सब कुछ तो तोड़कर रख दिया था। क्षितिज के उस पार दर्द इस तरह से चीत्कार कर रहा था मानो मृत्यु से साक्षात्कार कर लिया हो। सामने वही पँाच साए खड़े मुस्कुरा रहे थे, पर वह मुस्कुरा क्यों रहे थे? उसकी अनावृत अवस्था पर? आख़िर किस तरह का अनावरण था ये? लौटते समय बस में उसने दोस्त को रात की बातें बताई तो दोस्त भी मुस्कुरा दिया कहने लगा 'ये कोई बड़ी बात नहीं है घर चल फिर कभी आराम से समझा दूंगा।'
बहुत दिनों तक फिर वह उसी उलझन में रहा, क्या था वह सब? अचानक एक दिन दोस्त आया कहने लगा 'चल घर, तुझे उस रोज़ की बात समझाऊँ।' माँ से उस रात दोस्त के यहाँ रात रुककर पढ़ाई करने की बात कहकर वह चला गया। उस रात दो अनावरण हुए, पर आज ना तो पसलियाँ चटख रहीं थीं, न ही सांसें उखड़ रहीं थीं, एक भार हीनता थी जो वस्त्रों के जंगल से बाहर आने पर महसूस हो रही थी, उसका दोस्त कोहरे की तरह छाया हुआ था। उसके अंदर भी कुछ उगने लगा था, कुछ ऐसा जो उसे कोहरे में धुंऐ की तरह बिखेरने लगा था। एक कोहरा और धुँआ इस तरह गुंथे हुए थे मानो भौतिक शास्त्र के उस सिद्घांत को आज ही निरर्थक साबित करना है, जिसमें कहा जाता है कि 'विपरीत ध्रुवों में ही सदा आकर्षण होता है'। अचानक कोहरे के इशारे पर धुंऐ के मौसम बदले और एकाएक फिर वही हुआ। वही अछूत अँधेरा फिर चिन्गारियों से सुलगने लगा, शादी वाली घटना में आग में प्रचंडता थी पर यहाँ की आग ठंडी थी बर्फ़ की तरह। जलते-जलते अचानक अँधेरों में एक सन्नाटा टूट कर गिरा और वही मौन वही निःस्तब्धता। कुछ देर तक शांति रही उसे सब कुछ अच्छा तो लगा था पर फिर भी कहीं कुछ अधूरापन-सा लग रहा था, थोड़ी देर को आँख लगी तो यूं लगा कोहरा फिर छाने लगा है, धुँऐ की बारिशों की परछाइयाँ फिर से जागने लगीं इस बार कोहरा कुछ बोझिल-सा था। अचानक उसके दोस्त ने हाथ पकड़ कर उसे अँधेरे की एक देहरी दिखलाई, उसे यूँ लगा कि शायद इस देहरी के उस पार ही 'वो' है जिसकी तलाश उसे है। उसके शरीर के रोंऐ खड़े हो गए थे गला सूखने लगा था, क्या है भला इस देहरी में? और कोहरा आंखे मूंदकर निर्लिप्त भाव से किसकी प्रतीक्षा कर रहा है? उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस अँधेरी देहरी का वह क्या करे? अचानक कोहरे ने फिर उसके बर्फ़ीले साए को छुआ और अपनी देहरी पर रख दिया, अँधेरे फिर सुलगने लगे पर इस बार अँधेरे उसके नहीं थे उसकी केवल चिंगारियाँ थीं। जाने कैसी आंधी थी, धुंऐ को कोहरे में इस तरह उड़ाए लिए जा रही थी कि पता ही नहीं चल रहा था कहाँ धुआँ है और कहाँ कोहरा। एकाएक धुँऐ ने उठकर आसमान को छुआ और रेत की तरह कोहरे की ज़मीन पर बिखर गया, उसका बर्फ़ीला साया जब अँधेरे की दहलीज़ से लौटा तो अँधेरे का नया गणित सीख चुका था।
उसके बाद उसने कई बार अपने दोस्त के साथ अँधेरे के इस गणित को हल किया, एक सरल और सीधी प्रक्रिया। न कोई रोक टोक न कोई बंदिशें। जब चाहो अपने क्षितिज बना डालो। अपने दोस्त के साथ मिलकर उसने अँधेरे की कितनी ही पहेलियों को हल किया, उफ़्फ़ कितनी भूल भुलय्याऐं हैं अँधेरे के इस गणित में। बर्फ़ीली चिंगारियों के इस ख़ामोश सफ़र को उन्होंने कितनी बार तय किया? कुछ याद नहीं, पर कितनी अलग-अलग राहें थीं जो अंधेरे की दहलीज़ से शुरू होती थी और यहीं ख़त्म हो जाती थीं। अपनी प्यास के टूटे हुए टुकड़ों को इस देहरी का रास्ता दिखा देना कितना आसान हो गया था, उसके अँधेरे भी अब चिंगारियों की प्रतीक्षा में रहते थे, लाल सुनहरी, गुलमोहर के फूलों-सी चिंगारियाँ जब उसके अँधेरों को छूतीं तो लगता कि उसकी दहलीज़ भी सुनहरी हो गई है। उधर जीवन भी अपनी रफ़्तार से दौड़ रहा था, वही ढर्रा, स्कूल, कॉलेज, नौकरी वही सब। नौकरी के लिए क़स्बा छोड़ कर मुंबई जाने तक उसका साथी वही था जिसने उसे अँधेरों का गणित हल करना सिखाया था। पर मुंबई जाकर उसके अँधेरों का क्या होगा, यह एक प्रश्न चिह्न ही था।
गोरे गाँव मुंबई का एक ख़ूबसूरत उपनगर है, जहाँ प्रदूषण कुछ कम है, नारियल के बड़े-बड़े पेड़ और रिहायशी कॉलोनियों के बीच खेल के मैदान बने हुए हैं। रविवार के दिन जब वो, अपने फ़्लैट की खिड़की से मैदान में खेल रहे लड़कों को देखता तो सोचता इनमें से किसी से भी अपने गणित को हल करवा लिया जाए। पर वह जानता था कि ये गणित सभी को हल करना नहीं आता है और यदि कोई आकर इस गणित के चक्कर में उलझ गया तो उसके लिए और मुश्किल खड़ी हो जाएगी। कितने अकेले रह गए थे उसके अँधेरे, इन दो सालों में उसके अंधेरे तभी आँखें खोलते थे जब वह अपने क़स्बे जाता, जाते ही सबसे पहले अपने अंधेरे को उस साए के हवाले कर देता और आँखें बंद करके रुह में समाती हुई शबनम की आँच को महसूस करता।
पर आख़िर को वापस मुंबई आना पड़ता। वही मुंबई, वही गोरेगाँव, जहाँ ना कोई अँधेरा था ना ही कोई साया, बस एक छटपटाहट थी, वह चाहता था कोई आवाज़ हो जो उसकी निःशब्दता में गूँज जाए, पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं था जो अपनी छुअन से चांदनी को अंधेरे की पलकों पर लाकर रख दे। एक साया जो बिना आहट चुपचाप आकर उसके अंधेरों में समा जाए और रेत की तरह बिखर जाए... । पर यहाँ ऐसा कुछ भी तो दिखाई नहीं देता। आईने के उस तरफ़ वही एक 'मैं' ं था, निर्वस्त्र, दिशाहीन-सा लेटा हुआ और जिस्म के किनारे-किनारे थक कर ऊंघते हुए वही अंधेरे थे, जिस्म की पगडंडियाँ देखने में कितनी सहज होती हैं पर चलने में कितनी मुश्किल। शायद ये रात भी इसी गुज़र जाएगी।
जिस्म के उस पार मेज़ पर नीला क़ाग़ज़ फड़-फड़ा रहा था, हमेशा कि तरह वही माँ का पत्र था शादी के लिए, ...शादी? क्यों हाँ कर दे उस काम के लिए जो उसके लिए असंभव है, अभी तक जीवन में केवल अँधेरे का गणित ही हल किया है फिर कैसे सुलझा सकेगा उजाले की पहेली को, उसे तो कुछ भी नहीं आता और यदि फिर उजाले आ गए तो फिर उसके अंधेरों का क्या होगा? नहीं, कभी नहीं, वह उजालों के इस खेल में शामिल नहीं हो सकता। मगर अँधेरे का ये गणित तो अब अनसुलझा ही रहता है, कौन है इसे सुलझाने वाला? शादी कर ली और अँधेरों में रहने की आदत नहीं गई तो फिर क्या होगा? फिर न तो अँधेरे उसके रहेंगे और उजाले तो उसके हो ही नहीं सकते, ऐसे में कहाँ जाएगा वो? नहीं शादी तो वह कर ही नहीं सकता क्योंकि तब उसके अँधेरे अपने सन्नाटों के साथ कहीं भटक जाऐंगे और आने वाले उजाले अपनी प्यास की उदासियाँ लेकर ख़ामोशियों की चादर के सिरहाने बैठे सिसकते नज़र आऐंगे। घबरा कर वह बिस्तर पर बैठ गया। आइने के उस तरफ़ का 'मैं' ग़ौर से उसके जिस्म से उतरते रास्तों पर नज़र डाल रहा था।
कुछ दिनों से वह महसूस कर रहा था कि जब वह सी.एस.टी. से अंधेरी उतर कर ट्रेन बदलता तो इस रोज़ के घटनाक्रम में ऐसा कुछ और भी जुड़ गया था, जो इसी तरह रोज़ होता था यह एक संयोग था या जान बूझकर किया जा रहा था। जब भी किशोरावस्था में भीगे उस चेहरे को वह देखता तो उसमें ना चाहते हुए भी उसे अपने अँधेरे नज़र आने लगे। अँधेरी से गोरेगाँव स्टेशन तक वह तथाकथित अँधेरा उसके साथ चलता। गोरगाँव पर वह उतर जाता और दूसरा साया ट्रेन पर ही सवार जाने कहाँ चला जाता? कभी-कभी वह उस साए के आवरण के पीछे अपने अँधेरों का हल खोजता, कहीं कुछ तो निशान मिले कि रास्ता कहाँ से है? जब बहुत खोज हो जाती तो किसी भी टॉकीज़ में लगी शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म देखने बैठ जाता, ख़ान की रोमरहित देह देखकर जाने क्यों उसके अंधेरे संतुष्ट हो जाते थे, वह ख़ुद ही ख़ान के साथ ख़ुद को जोड़ लेता और अपने अंधेरे के गणित को हल कर लेता। हालांकि ख़ान भी उसके आइने के 'मैं' की तरह हमेशा उस तरफ़ ही खड़ा रहता था, पर जाने क्यों अंधेरे ख़ुद ही भर जाते थे। फ़िल्म में जब ख़ान की रोमरहित देह अनावरित होती तो उसे लगता कि ख़ान उसके अँधेरों से उलझ गया है, खान का साया उसके अँधेरों में समाता जा रहा है, अँधेरे बर्फ़ की चिंगारियों से दहकने लगे हैं, वही तूफ़ान, वही बवंडर, फिर अचानक ख़ान का साया उसके अँधेरों में पिघल जाता। उस रोज़ जब घर लौटता तो आइने के उस तरफ़ का 'मैं' अपने अंधेरों की कोई शिकायत नहीं करता। उसके दोस्त के अलावा केवल ख़ान ही था जिससे उसके अंधेरे संतुष्ट होते थे।
गोरगाँव स्टेशन से निकलते ही जो टॉकीज़ है अक्सर वहीं वह ख़ान की फ़िल्में देखता था, फ़िल्म देखने के बाद जब स्टेशन से शास्त्री नगर तक पैदल आता तो सड़क वही होती जो फ़िल्मसिटी को शहर से जोड़ती है। शाम को फ़िल्मसिटी से शूटिंग करके घर लौट रहे फ़िल्म स्टार्स की गाड़ियाँ घर की तरफ़ दौड़ती हैं। उसे ऐसा लगता अभी कोई गाड़ी उसे पहचान कर रुकेगी, उसमें से ख़ान उतरेगा और पूछेगा 'तुम वही हो न अँधेरे के गणित वाले, जिसके साथ मैंने वह गणित हल किया था।' और फिर ख़ान उसके साथ शास्त्री नगर के फ़्लैट में आएगा और फ़िर, आईने के उस तरफ़ दो अनावरण होंगे, ख़ान की रोमरहित देह उसके अँधेरों में समा जाएगी। आईने के उस पार अपने अँधेरे को वह अपनी आँखों से सुलगता हुआ देखेगा। शायद पहली बार वह आईने के उस पार के 'मैं' को मुस्कुराता हुआ देखेगा। पूर्णतः अनावरित ख़ान की चकाचौंध शायद उसके अँधेरों को हमेशा के लिए बुझा दे। घर लौटता तो आइने के उस तरफ़ का 'मैं' उस पर हँसता।
ख़ान कब उसके अँधेरों से जुड़ गया था उसे भी नहीं पता। टॉकीज़ में ख़ान से मिलकर आने के बाद अक्सर वह आइने के उस तरफ़ अनावरित भी नहीं होता था, जैसा आता वैसा ही चादर की सलवटों में समा जाता। सुबह उठकर हैरानी होती आज देह आवरित कैसे है? दरअसल उसके अँधेरों का गणित केवल तीन लोग ही जानते थे, टॉकीज़ वाला ख़ान, उसका दोस्त और आईने के उस तरफ़ का 'मैं' वह भी जब वह अनावरित हो। हाँ किशोरवस्था से भीगा वह चेहरा जो अँधेरी से गोरेगाँव तक उसके साथ जाता था, वह भी तो उसे अपने गणित में शामिल लगता था।
शाम को सी.एस.टी.से लौटती ट्रैनों में इतनी भीड़ होती है कि अपने आप को संभालना ही मुश्किल होता है, दो तीन दिनों में उसे अपने क़स्बे जाना था, इसलिए कुछ ख़रीददारी करने चर्च गेट की फ़ैशन स्ट्रीट गया था, शाम गहरा गई थी स्टेशन पहुँचा तो अँधेरी की ट्रेन जाने में पंद्रह मिनट थे, अचानक वही नज़र आया, शायद ट्रेन की प्रतीक्षा में था। ट्रेन में सवार हुआ तो डब्बा पूरा खाली था, सन्डे को शाम की डाउन ट्रेन में वैसे भी ज़्यादा भीड़ नहीं होती, वह चेहरा भी उसी डब्बे में बैठा हुआ था। जाकर वह उसी के पास बैठ गया, सी.एस.टी.से अंधेरी लगभग आधे घंटे का सफ़र है, उसे लगा कि इतनी देर में वह अपने अँधेरे का हल ढूँढ़ ही लेगा। मस्ज़िद से ट्रेन बढ़ी तो भी पूरे डब्बे में वह दोनों ही थे। वह चेहरा कुछ परेशानी से खिड़की के बाहर देख रहा था। एक सन्नाटा डब्बे में पसरा हुआ था, जब भी वह इधर-उधर देखता तो लगता वह चेहरा कनखियों से उसे ही देख रहा है, उसे यूं लगा कि उस तरफ़ भी अँधेरे का कोई गणित अवश्य है जो उस चेहरे को यूं परेशान किए हुए है। खिड़कियों के बाहर रात भाँय-भाँय करके जल रही थी, उसे लगा कि यदि आज भी यूँ ही घर पहुँच गया तो आइने के उस तरफ़ वाला 'मैं' उसे रात भर सोने नहीं देगा। परिचय की छोटी-सी कील ठोंकते ही उधर का बाँध इस तरह भरभरा के गिर पड़ा मानो इसी की प्रतीक्षा में हो। पता चला उसका नाम तन्मय है, बिहार के किसी शहर से यहाँ काम की तलाश में आया है, गोरेगाँव से आगे किसी चाल में अपनी मौसी के साथ रहता था। काम तो कुछ ख़ास मिला नहीं हाँ मौसाजी ने कहीं और व्यवस्था करने का अल्टीमेटम दे दिया था, इसीलिए सी.एस.टी. गया था वापस घर जाने की व्यवस्था करने के लिए, अभी अँधेरी में जहाँ काम करता है वहाँ से उतना नहीं मिलता कि अपने रहने का बंदोबस्त कर सके। तन्मय उसे रोज़ रात को अंधेरी स्टेशन पर देखता था, बात करने की इच्छा भी होती थी पर स्टेशन की भीड़ भाड़ में मौका नहीं मिल पाता था।
आज पहली बार उसने तन्मय को ग़ौर से देखा, हल्के साँवले चेहरे पर मूछें अभी रोंए की तरह उगना ही शुरू हुईं थीं। किशोरावस्था कि छरहरी देह जिस पर साधारण से कपड़े चढ़े हुए थे, पैरों में स्लीपर थी। उसे लगा कि मुंबई के चिपचिपे और भारी वातावरण ने शायद इस चेहरे को थोड़ा छुपा दिया है, इसके पीछे बहुत कुछ है जिसे ज़िया जा सकता है। तन्मय ने बताया कि वहाँ बिहार में उसका जमा हुआ परिवार है, परन्तु वहाँ उसे अच्छा नहीं लगता था इसीलिए यहाँ चला आया था। उसकी मौसी जब भी बिहार पहुँचती थी, तो मुम्बई के बारे में जिस तरह से बताती थीं, बस उसी से प्रभावित होकर वह यहाँ चला आया था। उसे लगता था मुम्बई में हरेक के लिए कुछ न कुछ अवश्य है। उसने तन्मय से पूछा 'वहाँ बिहार में तुम्हारा कोई ख़ास दोस्त है?' एक क्षण के लिए उसे लगा कि तन्मय की आँखों में भी एक अँधेरा ऊग आया है, परन्तु शीघ्र ही बुझ गया वह बोला 'हाँ वहांँ तो मेरे बहुत से दोस्त हैं, पर यहाँ तो ...?' उसके अँधेरे अचानक सर पटकने लगे, यूं लगा कि अब ये अँधेरे काबू से बाहर हो रहे हैं। गाड़ी पूरी रफ़्तार से अँधेरी की ओर भागे जा रही थी, खिड़की से बाहर देखता तो उसे लगता भीड़ में कितने ही तन्मय हैं।
आज गाड़ी कुछ ज़्यादा ही तेज़ भाग रही थी, नहीं तो रोज़ सी.एस.टी.से अँधेरी पहुँचने में कितना समय लगा देती थी? अँधेरी पर जब वह उतरे तो तन्मय की आँखों में कई प्रश्नचिह्न तैर रहे थे। प्लेट फॉर्म पर गोरेगाँव की गाड़ी लगी हुई मिली, पाँच दस मिनट का और साथ बाक़ी था, अँधेरे उस पर जल्द से कोई निर्णय लेने के लिए दबाव डाल रहे थे। थोड़ी देर का सफ़र और था अतः दोनों दरवाज़े पर स्टैंड पकड़ कर खड़े हो गए, एक स्टेशन बीच में आएगा और फिर गोरे गाँव आ जाएगा, जब हम समय से उम्मीद करते हैं कि वह धीरे चले, तभी वह सबसे तेज़ चलता है। वह तन्मय का जायजा ले रहा था, क्या वह उसके अँधेरे का गणित हर कर पाएगा? मान भी लिया जाए कि ये हल कर देगा, मगर कौन कहेगा उससे कि ये गणित हल करो? क्या ये अँधेरे के गणित के बारे में जानता भी है? इसकी ही उम्र का तो था वो, जब वह शादी वाली घटना हुई थी, वह तो कुछ भी नहीं जानता था। समय ट्रेन के साथ फिसलता जा रहा था, बस कुछ मिनट और अगर फ़ैसला नहीं किया तो यहाँ मुंबई में उसके अँधेरे शायद हमेशा के लिए अनसुलझे रह जायेंगे।
गोरे गाँव स्टेशन की लाइटें नज़र आने लगी थीं उसने तन्मय से कहा 'अभी वापस बिहार मत जाओ, मैं यहाँ गोरे गाँव वाले फ़्लैट में अकेला रहता हूँ, तुमको केवल रहने की ही तो समस्या है, तुम मेरे साथ रह लेना, तीन दिन बाद पंद्रह अगस्त की छुट्टी है, तुम अपना सामान लेकर मेरे घर आ जाना।' इसी बीच वह मन ही मन क़स्बे की अपनी प्रस्तावित यात्रा रद्द कर चुका था। स्टेशन पर उतरते-उतरते उसने तन्मय को अपना कॉर्ड दे दिया।
स्टेशन के बाहर पोस्टर पर ख़ान अर्ध अनावरित खड़ा था, पर आज वह वहाँ नहीं रुका। उस रात आइने के उस तरफ़ का 'मैं' जब धागों के ताने बाने से बाहर आया तो देह की देहरी पर किनारे-किनारे कुछ जगमगाता-सा नज़र आ रहा था। मौसम जिस्म की पगडंडियों पर बंजारों की तरह फिर रहा था। पैर गीली रेत पर निशान बनाने लगे थे, आज जब आइने के उस तरफ़ अँधेरों को छुआ तो लगा बहुत ज़ुल्म हो चुका है इन पर, कितने दिनों से ये सन्नाटे की चादर ओढ़े ख़ामोश खड़े हैं, जो उसने आज किया वह कभी भी कर सकता था, ये अँधेरे अगर सदा के लिए ख़ामोश हो जाते तो क्या होता? एक चिंगारी प्यास के काँटों के लिए बहुत है। शायद छः महीने पहले वह क़स्बे गया था, जब अँधेरों ने बरसाती पानी के सोंधेपन को महसूस किया था, तब से फिर वही बिखराव था। आईने के उस तरफ़ का 'मैं' आज शायद बहुत उत्कंठित था बार-बार होंठो पर ज़बान फेरता था शायद उसका गला सूख रहा था। उतरते हुए रास्तों के मोड़ पर जाने क्या था जो चादर की सलवटों की छुअन से पानी-पानी हो रहा था। आज वह चाह रहा था कि या उसका दोस्त या ख़ान कोई भी आईने के उस पार आ जाए, बहुत कोशिश की पर कोई नहीं आ रहा था, आज अँधेरे भी ज़्यादा चीख नहीं रहे थे, ये ख़ामोशी कैसी है? कुछ समझ नहीं आ रहा। घबरा कर उसने आईने के तरफ़ वाले 'मैं' की तरफ़ पीठ कर ली, उसकी चुप्पी उससे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। सामने दीवार पर एक मकड़ी अपने ही जाल में फँसी हुई थी, पर वह जानता था कि मकड़ी की मानसिकता ही फँसे रहने की है, इसीलिए वह फंसी हुई है, नहीं तो अपने ही बनाए जाल को तोड़ना उसके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है, उफ़्फ़ ये क्या सोच डाला उसने।
सुबह उठा तो कुछ अच्छा लग रहा था, हालाँकि अँधेरे सुलगे तो नहीं थे, मगर राख भी नहीं हुए थे। मुंम्बई की सुबह इतनी तेज़ गति की होती है कि अगर आप ज़रा भी सुस्त हुए तो अपने को दोपहर की बांहों में पड़ा पाओगे। आज तो कुछ देर भी हो गई थी, बस से स्टेशन जाना और देर कर सकता था, चौराहे से आटो पकड़ कर स्टेशन पहुँचा और समा गया उस रेले में जो जाने कब से, किस कारण जाने किस दिशा में बहा चला जा रहा है। वही बुझे-बुझे चेहरे, मछली की टोकरियाँ, सड़ी हुई गर्मी...उफ़्फ़ ये लोग इतने बुझे से क्यों हैं? क्या उसकी तरह इनके भी कोई गणित हैं? जो अनसुलझे हैं। लोकल ट्रेन में सुबह की यात्रा का सबसे बड़ा कष्ट ये होता है कि भीड़ के कारण आप अंदर तो देख नहीं सकते और सुबह-सुबह ट्रेन के बाहर पटरियों के किनारे जो होता है वह देखने लायक नहीं होता। रोज़ वह भीड़ में से किसी को भी छाँटकर मन ही मन अपने अँधेरे का हिस्सेदार बना लेता था और फिर सी.एस.टी.तक उसी से उलझा रहता, स्टेशन पर उतरकर उस हिस्सेदार को भुलाकर चल देता, पर आज उसने ऐसा कुछ नहीं किया, क्या ऐसा तन्मय के कारण हुआ था? तन्मय को लेकर वह भ्रम ही पाल रहा था क्योंकि जब उसने तन्मय के सामने वह प्रस्ताव रखा था, तब तन्मय ने कोई जवाब नहीं दिया था और फिर तन्मय तो घर वापसी की व्यवस्था करने सी.एस.टी गया था, मात्र रहने का ठिकाना मिल जाने से क्या वह अपना इरादा बदल लेगा? हो सकता है वह वापस बिहार चला भी गया हो।
दफ़्तर से लौटते में जब अँधेरी स्टेशन पर उतरा तो तन्मय कहीं नज़र नहीं आया, वह बुक स्टॅाल के पास जाकर खड़ा हो गया, सामने गोरेगाँव की लोकल ट्रेन धीरे-धीरे सरक रही थी, तन्मय उसमें भी नज़र नहीं आ रहा था। जब आप किसी के आने की उम्मीद करते हैं, तो आपका अन्दर ख़ुद ही दो हिस्सों में बट जाता है, एक इधर उधर उम्मीद से देखता है दूसरा कहता है व्यर्थ है वह नहीं आएगा। तीन लोकल ट्रेनें निकल चुकी थीं, अब और खड़ा रहना असंभव था। गोरेगाँव पर उतरा तो बाहर ख़ान उसी अवस्था में खड़ा था, आज वह ख़ान की रोमरहित देह में उलझता, पर आज तो वैसे ही देर हो चुकी थी। शास्त्री नगर की सड़क पर से सारे स्टार्स गुज़र चुके थे, आज तो ख़ान के भी यहाँ मिलने की उम्मीद नहीं थी।
घर पहुँचा तो पैरों से कुछ टकराया, उठाया तो वही माँ का पत्र था, खोलने की तो आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि अंदर तो वही सब कुछ होगा, माँ और उसके उजालों का गणित, क्या अँधेरों में रहने वाला उजालों के गणित को हल नहीं कर सकता? और वैसे भी, अब उसके अँधेरे तो यूं ही अनसुलझे पड़े रहते हैं। एक गिलास पानी पिया, खाना खाने या और कुछ करने की तो अब इच्छा भी नहीं थी। कमरे में आकर सबसे पहले लाइट बंद की आज आइने के उस पार के 'मैं' से नज़र मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। थोड़ी आँख लगी तो लगा माँ आकर सिरहाने बैठ गई है, उसके हाथों में एक उजाला है। निःशब्द उसे ही देख रही है, फिर चुपचाप उस उजाले को उसकी चादर में रखकर बोली 'कब तक भागता रहेगा इस अँधेरे में, देख कैसा उजाला लाई हूँ मैं तेरे लिए' वह उजाला उठा और उसके साए से लिपट गया और उसे लेकर आसमान पर उठता चला गया, ऊपर बहुत ऊपर और फिर एकदम से उसका साया टूटा और उल्का कि तरह गिरा, नीचे धरती पर टकराया और बिखर गया।
वो सोच रहा था, उसने क़स्बे जाने का कार्यक्रम नाहक ही रद्द कर दिया, कम से कम वहाँ तो इन अँधेरों को मुक़ाम मिल ही जाता है। एक उम्मीद पर तन्मय के कारण बेकार ही ये सब किया, कभी-कभी वह सोचता है वहाँ क़स्बे में क्या वह उसका दोस्त भी अपने साए के साथ, उसकी तरह ही प्यास के सूखे-सूखे सावन लिए फिरता है? उसके दोस्त ने कभी नहीं बतलाया कि उसके मुंबई जाने के बाद वह चिंगारियों के बादल किस पर्वत पर रखता है? या फिर उसके बादल भी यूं ही आवारा फिरते हैं उसके मुंबई से लौटने तक? कभी-कभी उसे डर लगने लगता है, कहीं उसके दोस्त ने नए मरुस्थल ढूँढ लिए तो उसके अँधेरों का क्या होगा? यहाँ मुंबई में तो किसी को फ़ुरसत ही नहीं है, नहीं तो उसने भी अभी तक तो अपने अँधेरों के सवाल का कोई मुँहतोड़ जवाब तो ढूँढ ही लिया होता। फिर वहाँ क़स्बे में एक तो समय मेड़ पर ऊगी घांस की तरह होता है, जब चाहे जितनी चाहे काट लो और यदि समय हो तो ही दिमाग़ में योजनाऐं जन्म लेती हैं। दूसरा वहाँ क़स्बे में अधिकतर अँधेरे के इस गणित को जानते हैं और इसे हल करना भी जानते हैं फिर क्या वज़ह है इसकी कि उसका दोस्त उसके मुंबई से लौटने तक अपने अँधेरों को चांदनी से बचाता फिरे, आख़िर को यदि ख़ान उसे मिल जाए तो क्या वह अपने दोस्त को याद रख सकेगा? और फिर हर एक के अपने-अपने ख़ान होते हैं, क्या उसके दोस्त ने अभी तक अपने लिए कोई ख़ान नहीं ढूँढा होगा? उसका दोस्त उजालों के गणित में भी तो फँस सकता है, नहीं ऐसा नहीं हो सकता, अगर उसका दोस्त उजालों का गणित हल करने में लग गया तो फिर ये अँधेरे? उफ़्फ़... वह मुंबई आया ही क्यों?
आज फिर वह सी.एस.टी. की आरक्षण कतार में था, अभी दो रोज़ पहले ही तो उसने यहाँ आकर क़स्बे का रिज़र्वेशन रद्द करवाया था, पर तन्मय तो जा चुका था, यहाँ रुककर वह अपने अंधेरों का आख़री ठिकाना ख़त्म नहीं करना चाहता था, वह जल्दी से जल्दी भाग जाना चाहता था यहाँ से। दो दिन से रोज़ अँधेरी स्टेशन पर रातें बुझती देखीं थी उसने, पर तन्मय का कुछ पता नहीं चला था, शायद वह वापस जा चुका था। ग़लती भी तो उसी की थी, क्यों उसने सी.एस.टी से गोरेगाँव तक अपना प्रस्ताव नहीं रखा था, रखा भी, तो गोरगाँव स्टेशन पर कूदते कूदते, जिसका जवाब कुछ भी नहीं आया था। इस प्रस्ताव पर बहस हो जाती तो शायद कुछ परिणाम निकल आता, ये भी तो हो सकता है, तन्मय सोच रहा होगा कि फ़्लैट के साथ उसे किराया भी शेयर करना पड़े, शायद यही सोचा होगा उसने, नहीं तो मुंबई में रहने की व्यवस्था अगर हो जाए तो जीने की पचहत्तर प्रतिशत व्यवस्था तो हो ही जाती है। जाने क्यों ऐसा लगता था मानो तन्मय अँधेरे के इस गणित से भली-भाँति परिचित है, कहीं ऐसा तो नहीं कि तन्मय उसकी आँखों में अँधेरों का धुँआ देखकर डर गया हो और नहीं आया हो, उफ़्फ़ कहाँ छुपाए इन्हें हल भी ढूँढते हैं और फुंफकारते भी हैं।
पन्द्रह अगस्त का ही रिजर्वेशन मिला था उसे, चलो ठीक है, एक ही दिन की तो बात है कल बैठेंगे तो परसों अपने ठिकाने पहुँच जाऐंगे। अँधेरी की लोकल में बैठा वह सोच रहा था अगर आज तन्मय मिल गया तो? पर आज तो उसे रिजर्वेशन के चक्कर में बहुत रात हो गई है ये तो फ़िज़ूल की संभावना है। अँधेरी पर उतरा तो न चाहते हुए भी नज़र इधर उधर घूमने लगी, घर जाकर कौन खाना बनाएगा, यहीं कुछ खा ले, पर उसके अंदर कोई कह रहा था, खाने के बहाने इंतज़ार की फ़सल फिर काट रहे हो।
दूध ब्रेड वाले ने आवाज़ लगाई तो सुबह का सन्नाटा टूटा, रात का अनावरण जल्दी से ख़त्म किया कभी-कभी उसे लगता है ये दूध वाला दरवाज़े की दरार से उसका अनावरण देखता तो नहीं है, रोज़ दूध देते समय अजीब तरह से मुस्कुराता है। बाहर देखा तो छोटे-छोटे बच्चे हाथों में तिरंगा लिए जा रहे हैं, उसे याद आया आज तो स्वतंत्रता कि स्वर्ण जयंती है। अंदर आकर लेट गया, आज तो दफ़्तर जाना नहीं है और फिर ट्रेन भी शाम की है, आराम से तैयारी कर लेगा। इस बार क़स्बे में माँ के उजालों के प्रस्ताव से निर्णायक सामना करना है, यह तो तय ही है, जाने क्यों उसे लगने लगा था कि अब सब कुछ ख़त्म होने वाला है, जिस परेशानी का सामना वह कर रहा है शायद वही उसके दोस्त के सामने भी आ रही होगी। उसे भी उजालों के प्रस्तावों से उलझना पड़ रहा होगा। इधर ख़ान भी पोस्टरों की दुनिया से बाहर आने को तैयार नहीं हो रहा था, तन्मय एक उम्मीद की तरह नज़र आया था तो वह भी जा चुका था। अब रह गए थे वह दोनों एक तो वह ख़ुद और दूसरा आइने के उस तरफ़ का 'मैं' , दोनों असंतृप्त क्षुधा के दो किनारों पर हैं जिनके एकाकार होने की कोई संभावना नहीं है और अगर एक ख़ामोशी में दूसरी ख़ामोशी समा भी जाए तो परिणाम तो ख़ामोशी ही होगी।
अगर क़स्बे में उसका दोस्त भी इस बार अँधेरों से भागता नज़र आया तो शायद फिर वह कभी वहाँ नहीं जाएगा, यहीं रह जाएगा मुंबई में, तोड़ देगा इस आईने को जिसके उस पार से ये अँधेरे उसे परेशान करते हैं। फिर न कोई अँधेरा होगा और ना कोई उजाला, छोड़ देगा ज़िन्दगी को महानगर में बहते इस इंसानी रैले में जो रोज़ उसे घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर तक बहाता रहेगा।
बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी, शोर से अनुमान हो रहा था कि काफ़ी तेज़ बारिश हो रही है, छुट्टी और बारिश केवल आलस को बढ़ाने के लिए ही मिलते हैं। बारिश की रफ़्तार बढ़ती जा रही थी, अचानक घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो लगा बरसात में चमकने वाली सौदामिनी कड़कड़ाते हुए उसके दरवाज़े पर आकर गिर गई है। बाहर तन्मय खड़ा था, सर से पांव तक तरबतर, हाथ में एक अटैची कंधे पर बैग और शरीर के कोने-कोने से बूंदें रिस रहीं थीं, स्तब्धता कि अवस्था बारिश के शोर को नगण्य करते हुए दोनों के बीच बह रही थी। उसने तन्मय का हाथ पकड़ कर अन्दर खींच लिया। सामान रखने के बाद तन्मय ने बताया कि उस दिन घर पहुँचा तो मौसाजी ने उसका सामान बाँध दिया था, आपने पन्द्रह अगस्त को आने को कहा था इसीलिए तीन दिन तक प्लेटफार्म पर ही ठिकाना बना लिया था। मुंबई में फ़्लैट एक कमरा, किचन व टॉयलेट को ही कहा जाता है, एक ही कमरा था, भीगा हुआ तन्मय असहज महसूस कर रहा था अतः उसने तन्मय को टॅावेल देते हुए कहा 'पूरे भीग गए हो, जाओ बाथरूम में जाकर नहा धो कर कपड़े बदल लो, मैं चाय बनाकर लाता हूँ।' चाय बनाते हुए वह सोच रहा था अब रिजर्वेशन का क्या करूं? चलो जाने दो फिर कैंसिल करते हैं क़स्बे जाने का प्रोग्राम। चाय लेकर कमरे में आया तो तन्मय नहा धोकर आ चुका था, तीन दिनों में प्लेटफॉर्म पर जो गर्द जम गई थी वह धुलने के बाद तन्मय का जो रूप सामने आया था वह शायद वह पहली बार देख रहा था।
उस दिन रात का इन्तज़ार बहुत भारी हो गया था, दिन भर बारिश होती रही, तन्मय ने अपने बारे में काफ़ी कुछ बता दिया था। रात गहराने लगी थी, खाने से निपटकर वह दोनों सारा काम निपटाते रहे, पता ही नहीं चला कब ग्यारह बज गए। बिस्तर पर पहुँचे तो लगा तन्मय कुछ तनाव में है, कुछ है जो वह कह नहीं पा रहा है। अर्ध अनावरित से लेटे-लेटे दोनों बहुत-सी बातें करते रहे, वो समझ नहीं पा रहा था कहाँ से शुरू करे? आईने के उस तरफ़ का 'मैं' कुछ क्रोधित नज़र आ रहा था शायद उसे डर था कि कुछ शुरूआत नहीं हो पाएगी। अँधेरे छटपटाने लग गए थे, तन्मय बातें करते-करते चुप हो गया था और आँखें बंद कर जाने क्या सोच रहा था। आईने के उस तरफ़ अब उसके लिए व्यंग्य और तिरस्कार का भाव छाया हुआ था, अचानक तन्मय उठा और कमरे में जल रहे बल्ब को बंद करके वापस अपनी जगह पर आकर सो गया, कमरे में अंधकार का साम्राज्य पसर गया इतना कि आईने के उस तरफ़ का 'मैं' भी ख़ामोश हो गया। अंधकार और सन्नाटे में कौन ज़्यादा गहरा था कुछ पता नहीं चल रहा था, वह जो शुरू होना था उसकी हिम्मत वह नहीं कर पा रहा था, पलकें धीरे-धीरे बोझिल हो रहीं थीं, शायद नींद अपना प्रभाव दिखाने लगी थी। आईने के उस तरफ़ का 'मैं' अगर अंधकार में नहीं खोता तो भी वह थोड़ी हिम्मत कर लेता, पर यहाँ तो उसकी हौसला अफ़ज़ाई के लिए कोई नहीं था।
नींद की गलियों में वह कुछ दूर ही पहुँचा था कि लगा उसका अनावरण पूर्ण हो चुका है। सरगोशियाँ मरुस्थल में आँधी की तरह उड़ने लगीं, उसे आईने के उस तरफ़ के 'मैं' की फ़िक़्र थी, उसने हाथ बढ़ा कर लाइट चालू की तो, उसका सपना चादर पर रेत की तरह बिखरा पड़ा था, आज आईने के उस तरफ़ सचमुच दो अनावरण हो चुके थे। आईने के उस तरफ़ का 'मैं' विजयी भाव से मुस्कुरा रहा था। उसने आइने के 'मैं' को अलविदा कहा और लाइट को बंद कर दिया। एक छुअन आँधी की तरह आकर उसके साए से टकराई और उसे लगा उसका फ़्लैट छतविहीन हो गया है, बाहर की घनघोर बारिश यहाँ कमरे में भी बरसने लगी है, उसकी देह का कोना-कोना एक बादल में समाता जा रहा था, एक अंजान पल वक़्त के हाथों से फिसल कर भागने के लिए बैचेन हो रहा था। एकाएक सन्नाटा छा गया, वह बादल पर्वत के साए में पसरा मानो किसी आँधी की प्रतीक्षा करने लगा उसने बादल को हाथों में थामा और अपने साए को बादल की परछाइयों के हवाले कर दिया, उसका साया बादल के अँधेरों में दौड़ने लगा। शायद पृथ्वी रुक गई थी, बाहर बारिश भी बिल्कुल थमी-सी लग रही थी, सारी मुंबई निःशब्द लग रही थी, उसका साया बादल के अँधेरों में दौड़ता जा रहा था। मरुस्थल में रेत के टीले लेकर उड़ रहीं आँधियाँ अपनी रफ़्तार के कारण दीवानों-सी सनसना रहीं थीं। वस्त्र हीनता दौड़त दौड़ते अचानक भारहीनता में बदल गई और बादल के अँधेरों में समाती चली गई, फिर वही सन्नाटा छा गया, दोनों अनावरण ख़ामोश पड़े हुए थे।
तन्मय शायद सो चुका था, सिगरेट सुलगा कर वह सोचने लगा कि कुछ देर पहले जो भूकंप आया था, उसका परिणाम क्या हुआ, हाथ बढ़ाकर उसने लाइट को चालू कर दिया, आईने के उस तरफ़ दो अनावरण स्पष्ट नज़र आ रहे थे, उस तरफ़ का 'मैं' कुछ उलझन में था अचानक उसे लगा तन्मय में ख़ान ऊग आया था, पूर्ण अनावरित ख़ान उसकी तरफ़ हसरत से देख रहा था, उसने तन्मय में उगे हुए ख़ान को छुआ तो तन्मय ने आँखें खोली, उसने आंखें बंद कर ली। कुछ ही देर में उसे लगा कि वह मरीन ड्राइव के समुद्र किनारे की चट्टान बन गया है और समुद्र की लहरें पूरी गति से दौड़ती हुई उससे टकरा रही हैं उसने आँखें खोली तो देखा ख़ान कोहरे की तरह छाया हुआ है, उसे बहुत पुराने गीत की पंक्तियाँ याद आ रही थीं 'तुम प्रलय के देवता हो मैं समर्पित प्राण हूं'। तन्मय में ऊगा ख़ान साकार और निराकार के प्रश्न में उलझा हुआ था, उसने लाइट को फिर ऑफ़ कर दिया, अब ना वह था, ना ख़ान था, ना तन्मय, बस एक अँधेरा था, एक साहिल था और एक बंजारा जो साहिल की गीली रेत पर अपनी उँगलियों से कुछ लिख रहा थ। उसके अँधेरों में एकाएक आहट-सी हुई कोई उस अंधेरी देहरी में झांक रहा था, अँधेरों की सीलन सुलगने लगी थी, तन्मय में ऊगा ख़ान अपनी जलती देह लेकर उसके अँधेरों में समा गया, अंधेरे सुलगते जा रहे थे, अनावरित तन्मय समुद्र की लहरों में बदल गया था, एक लहर आँधी का सहारा लेकर उठी और उठती गई और मरीन ड्राइव की चट्टानों से टकराकर बिखर गई, उसे लगा कमरे में रखा आइना फूट गया है और उसकी किरचें उसके अंधेरों में बिखरती जा रही हैं। निःशब्दता में केवल तन्मय की सांसें गूँज रही थी, तन्मय में ऊगा ख़ान उसके अँधेरों में बिखर गया था।
रात भर एक धुँआ कोहरे के साए में लिपटा सोता रहा। मोबाइल की घंटी ने सुबह उसे उठाया देखा तन्मय सो रहा है उसी अनावरित अवस्था में। मोबाइल उठाया तो क़स्बे से उसके दोस्त का फ़ोन था, कह रहा था उसकी शादी तय हो गई है वह समय से आ जाए और भी जाने क्या-क्या बोलता रहा था वो, मगर उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। कुछ देर बात करने के बाद उसने मोबाइल बंद कर दिया और स्विच ऑफ़ भी। लौटा तो देखा तन्मय उसी प्रकार सो रहा है, चुपचाप, वह फिर बिस्तर पर बैठ गया, आईने के उस तरफ़ का 'मैं' नज़र नहीं आ रहा था, शायद अब वह भी अब उसके दोस्त की तरह नज़र नहीं आएगा। शरीर से लिपटे टॉवेल को उसने अलग किया और तन्मय के पास जाकर लेट गया, तन्मय ने आँखें खोलीं और उसके अनावरित अँधेरों की ओर देखा, तन्मय में फिर ख़ान ऊगने लगा, कोहरा फिर छाने लगा था वह फिर से एक नए सफ़र पर निकल पड़ा था, अपने दोस्त के साथ जो मंज़िलें उसने तय की थीं उससे भी आगे उसे जाना है, तन्मय के साथ। उसके दोस्त ने उसका साथ दस वषरें तक दिया था, तन्मय से भी इतनी ही उम्मीद करें तो अगले दस वषरें तक वह बेफ़िक्ऱ हो सकता था। ख़ान इतने गहरे कोहरे में बदल गया था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था, उसके अँधेरे फिर सुलग रहे थे, आइने के उस तरफ़ मरीन ड्राइव की चट्टानों से टकराता समुद्र साफ़ दिख रहा था। अब शायद वह क़स्बे कभी नहीं जाएगा उसे अँधेरों के गणित का एक और अस्थायी हल मिल गया था, अंधेरे बर्फ़ की आंच से सुलगते जा रहे थे, दूध वाला दरवाज़े की दरार पर आँखें लगाए समझने का प्रयास कर रहा था अंधेरे के गणित को।