अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती / ज्योति चावला

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यह कहानी कई वर्ष पुरानी है और आज जब मैं इस कहानी को लिख रही हूँ, तो मेरी उम्र 38-39 के आसपास है। कुछ था जो सालों से मेरे भीतर उथल-पुथल मचाए हुए था और चूंकि किसी से कह नहीं सकती थी तो यह पीड़ा और सालती थी मुझे। सोचा किसी जंगल में पेड़ के कान में या फिर किसी घोड़े के कान में अपनी कथा कहने से बेहतर है आपसे कहूँ।

कहानी 31 अक्तूबर 1984 के कुछ दिन पहले से शुरू होती है। नंदनगरी के एक मोहल्ले में हमारा घर था। बड़ा-सा आंगन और आंगन में एकदम किनारे ठीक पिछले दरवाज़े के पास अमरूद का पेड़। हमारा अमरूद का पेड़ इतना घना था कि उसका फैलाव बाहर गली तक जाता था। घर में हम कुल पांच सदस्य थे। पापा जी, मम्मी, बड़ा भाई बंटी उर्फ सुखदीप और उससे छोटा टोनी उर्फ मंदीप सिंह और सबसे छोटी मैं यानी हरप्रीत यानी प्रीतो। प्रीतो सिर्फ़ नाम से नहीं, सबकी लाडली भी थी मैं। हम तीन भाई-बहन बड़ी शैतानियाँ करते। पेड़ पर कच्चे-कच्चे अमरूद फलते ही तोड़ लेते और मम्मी के लाख डांटने पर भी भरी दुपहरी में पेड़ से अमरूद तोड़कर कच्चे ही खा लेते थे। अमरूद खाने से ज़्यादा लालच दूसरे के हाथ में पड़ने से बचाने का था। डाली क्योंकि बाहर तक थी, तो पड़ोस के रिंकी, मन्नू, राजू और राहगीरों की भी नज़र उस पर टिकी रहती थी। इसलिए उनसे बचाने के लालच में चाहे पेट दर्द ही क्यों न हो जाए, लेकिन हम तीनों उसे छोड़ते नहीं थे और फिर अमरूद खाने के बाद पेट दर्द होता, तो माँ कभी अजवाइन खिलाती, तो कभी पिटाई।

स्कूल जाते हुए भी हमारी शरारतें यूं ही चलती रहती थीं। बंटी वीर जी की पगड़ी की पूनी पापा जी करवाते और टोनी वीर जी की मम्मी और मैं खुद ही अपनी दोनों चोटियाँ गूंथ लेती थी, बस रिबन लगाने का काम मम्मी के जिम्मे रहता था। हम तीनों को स्कूल विदा करके ही दोनों को कुछ आराम मिलता और फिर मम्मी पापा जी के काम पर जाने की तैयारी करने लगती। पापा जी की अपनी तीन टेक्सियाँ थीं। पापा जी को दिल्ली में बसे अभी सोलह साल ही हुए थे। इन सोलह सालों में पंजाब से दिल्ली आए पापा जी ने अपनी लगन और मेहनत से ठीक-ठाक कमा लिया था। मम्मी-पापा जी जब दिल्ली आए तो उनकी गोद में छः-सात महीने का सुखदीप यानी बंटी वीर जी थे। पापा जी ने यहाँ आकर मजदूरी की, किराए के मकान में रहे, टेम्पो-टेक्सी चलाई और धीरे-धीरे पापा जी की मेहनत और मम्मी की समझ से दोनों ने अपनी पहली टेक्सी डाली और आज वाहेगुरू की कृपा से तीन टेक्सियाँ, नंद नगरी में बड़े से आंगन वाला अपना एक घर और तीन-तीन बच्चों वाली सुखी गृहस्थी थी उनकी।

हमारा बड़े से आंगन और बड़े से अमरूद के पेड़ वाला वह घर छोटी-छोटी खुशियों से भरा था। बंटी वीर जी ग्यारहवीं, टोनी वीर जी नौवंीं और मैं सातवंीं कक्षा में पढ़ रहे थे तब। पापा जी अक्सर कहते कि घर की मजबूरियों के चलते मैं तो कभी पढ़ नहीं पाया, लेकिन मेरे तीनों बच्चे ज़रूर पढ़ेंगे-लिखेंगे। पुरखों का नाम रोशन करेंगे।

मैं अपने पापा जी की बहुत लाडली थी। स्कूल में मेरा नाम हरप्रीत, पड़ोस की सहेलियों के लिए प्रीतो, भाइयों के लिए प्रीतो माई और पापा जी के लिए लाडो पुतर था। पापा जी ने मुझे कभी हरप्रीत या प्रीतो कहकर पुकारा हो, मुझे याद नहीं आता। बंटी और टोनी वीर जी जब मुझे 'प्रीतो माई बड़ी सयाणी, लगदी पूरी बुड्डी नानी' कहकर चिढ़ाते, तो पापा जी उन्हें बहुत डांटते।

हमारा पूरा मोहल्ला पंजाबियों और हिन्दुओं का था, जिसमें कुछ घर सिक्खों के थे। पंजाबी यानी पंजाब के हिन्दू परिवार। लोहड़ी-दीवाली पर हमारी गली में खूब रौनक लगती। गली के कई परिवारों ने मिलकर, जिसमें सिक्ख, हिंदू और पंजाबी परिवार थे, एक सांझा चूल्हा बना रखा था। सांझा चूल्हा यानी सांझा तंदूर, जो गली के सभी परिवारों के सहयोग से बना था। शाम ढलते ही चूल्हे पर औरतों की भीड़ लग जाती। अपनी-अपनी परातों में गंुथा आटा लेकर वे इकट््ठी होतीं और रोटी बनाने के बहाने न जाने कितना कुछ आपस में बांटतीं। सांझे चूल्हे की इन शामों को कभी औरतों के ठहाके गूंजते तो कभी चूल्हे से उठते धुंए में वे अपने आंसू छिपातीं और बहातीं अपने दुख-सुख सांझे करतीं।

पापा जी की टेक्सी कई लोगों के काम आती। कभी कोई बीमार पड़ गया, तो उसे लेकर अस्पताल भागने में और कभी किसी को आने में देर हो जाए, तो उसे ढूँढने को निकलती यह टेक्सी वहाँ नफे-नुकसान की सोच से परे पूरी तरह उस गली, उस मोहल्ले की सांझी हो जाती, ठीक उस सांझे चूल्हे की तरह। सांझे चूल्हे से निकलती गरम-गरम रोटी पर महकते घी की तरह खुशियों से महकता था हमारा वह मोहल्ला और मोहल्ले में हमारा घर। हर इतवार को मम्मी-पापा जी के साथ हम सब भाई-बहन बंगला साहब गुरुद्वारे जाते और हर सक्रांति पर पापा जी की तीनों टेक्सियों में हमारा मोहल्ला सवार होता दमदमा साहब गुरुद्वारे जाने के लिए। गुरुद्वारे में मत्था टेकते मम्मी-पापा जी उस वाहेगुरू का बार-बार शुक्रिया अदा करते और हम बच्चों पर अपनी रहमत बनाए रखने की उससे गुजा़रिश करते। मोहल्ले के और बच्चों के साथ हमें खेलने को मिल जाता और गुरुद्वारे के बड़े से आंगन में हम खूब शरारतें करते। लाइन में बार-बार लगकर कड़ाह प्रसाद खाते और छक कर लंगर खाते। फिर बड़े-बुज़ुर्ग गुरुद्वारे की सेवा में अपना दिन सार्थक समझते और हम सब धमा चैकड़ी में।

31 अक्तूबर 1984 से पहले तक यह मोहल्ला ठीक ऐसा ही था। हिंदू और सिक्ख के भेदभाव से परे। लेकिन उस एक मनहूस घड़ी ने देखते ही देखते वहाँ की आबो-हवा को बदल कर रख दिया। उस मनहूस दिन को कुछ सिख पहरेदारों ने इंदिरा गांधी की हत्या कर दी और यह पता चलते ही पूरा शहर का शहर सिक्खों का विरोधी हो गया। जैसे सब सिक्खों ने मिलकर इस साजिश को अंजाम दिया हो। पापा जी टेक्सी स्टैण्ड पर थे, जब उन्हें खबर मिली। शाम के चार बज रहे थे। गुस्साये लोगों का हुजूम सिक्खों को ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें मार रहा था। दंगा फैलने वाला था। पापा जी के साथियों ने कहा-सरदार जी माहौल ठीक नहीं है। आपका घर जाना ही ठीक है। पापा जी को उनके एक साथी ने यह सलाह दी, तो पापा जी बिना कुछ और सोचे सीधा घर की ओर चल दिए। ठीक 4ः20 पर दरवाज़ा खटका। हम तीनों के स्कूल से लौटने पर खिला-पिला और मुंह-हाथ धुला हमें डांट-डपटकर सुलाते-सुलाते मम्मी की भी आँख लग गई थी। अचानक दरवाजा खटकने से उनकी नींद तो टूटी ही, वे घबरा भी गईं। उन्होंने दौड़ कर दरवाज़ा खोला तो देखा सरदार जी दरवाज़े पर खड़े हैं। मम्मी को चिंता हो गई कि कहीं सरदार जी की तबीयत तो खराब नहीं। माँ को और पूरे मोहल्ले को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी। पापा जी ने जब माँ को बताया, तो वे यह तो समझ गए थे कि भीड़ सिक्खों पर गुस्साई है, लेकिन आने वाले दो दिनों मेें क्या अनहोनी घटने वाली है, इसका पापा जी और माँ को भी कोई अंदाज़ा नहीं था।

साढे पांच बजे बंटी और टोनी वीर जी का ट्यूशन का समय था। लेकिन पापा जी ने दोनों को आज घर पर ही रोक लिया। वे हम बच्चों को कुछ बताना भी नहीं चाह रहे थे, लेकिन छिपाना भी उतना ही मुश्किल था। उन्होंने बस इतना कहा कि बाहर का माहौल कुछ ठीक नहीं है और उन्हंे कमरे में जाने की ओर इशारा किया। दोनों भाई बिना कुछ कहे चुपचाप कमरे में चल दिए। माँ ने मुझे भी अंदर जाकर पढ़ने के लिए कहा और खिड़की से बाहर देखने लगी।

उन दिनों हमने नया-नया टी.वी. लिया था और टी.वी. पर दूरदर्शन के अलावा कुछ नहीं आया करता था। पापा जी स्थिति का पूरा जायज़ा लेना चाहते थे। इंदिरा गांधी की मौत से वे बहुत दुखी थे, लेकिन सरदारों के खिलाफ पनपे गुस्से की वजह को वे पूरी तरह समझ नहीं पा रहे थे। पापा जी ने टेलीविजन चलाया। तस्वीर कुछ साफ नहीं आ पा रही थी। छत पर जाकर एंटीना को थोड़ा इधर-उधर घुमाने पर तस्वीर साफ होने लगती थी। पापा जी ने टोनी वीर जी को आवाज़ लगाई और ऊपर जाकर एंटीना ठीक करने को कहा।

बाहर बेशक तनाव का माहौल था और मम्मी-पापा जी भी घबराए हुए थे, लेकिन अंदर के कमरे में हम तीनों को शरारतें सूझ रहीं थीं। हम धीरे-धीरे मुंह पर हाथ रखकर बातें करते और फिर हंसी आने पर आवाज़ को लगभग दबा कर हंसते। लेकिन बंटी वीर जी खेल में हमारे साथ होकर भी हमारे साथ नहीं थे। खैर, पापा जी के बुलाने पर टोनी वीर जी को तो जैसे मन की मुराद मिल गई। वे दौड़ कर छत पर चढ़े और एंटीना को इधर-उधर घुमाने के साथ-साथ उनकी नज़रें भी चारों ओर का मुआयना करने लगीं। आखिर बात क्या है जो पापा जी ने हमें आज बाहर नहीं जाने दिया। बाहर का माहौल तो ठीक ही है। नीचे टी.वी. पर तस्वीर ठीक आने पर पापा जी और मम्मी तो टी.वी. देखने में मशगूल हो गए और ऊपर टोनी वीर जी चुपके-चुपके छतें फांदते हुए उस पहले मकाने की छत पर पंहुच गए। दूर से एक हुजूम चला आ रहा था। लाठी-डंडे हाथ में पकड़े लोग इस तरफ ही चले आ रहे थे। टोनी वीर जी यह तो नहीं समझ पाए कि इस भीड़ के इकट्ठे होने का कारण क्या है। लेकिन पापा जी की कही बात से इसे जोड़ते ही वे बुरी तरह घबरा गए और डर कर वापस घर की ओर दौड़ने लगे। वे चिल्लाते जा रहे थे, "पापा जी, पापा जी ओ लोग आ गए।" सीढ़ियों से उतरते हुए वे बुरी तरह घबराए हुए थे। पापा जी ने उन्हें देखा तो वे बुरी तरह डर गए। मम्मी ने टोनी वीर जी को गले से लगाया और पानी पिलाया। टोनी वीर जी के चेहरे पर पसीना छलछला आया था और आंखें जैसे फटी की फटी रह गईं थीं। वे बुरी तरफ हांफ रहे थे।

एक ही पल में डर के साये ने पूरी तरह से हमारे घर को अपनी जकड़ में ले लिया था। पापा जी, मम्मी और खासकर टोनी वीर जीे के चेहरे की दहशत को देख मैं भीतर तक कांप गई थी। घर वालों की आंखों में डर की यह खौफनाक छाया मैं पहली बार देख रही थी। अब पापा जी भी छत पर जाकर स्थिति का जायज़ा लेना चाह रहे थे। लेकिन मम्मी ने किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर उन्हें रोक लिया।

माहौल सचमुच खराब होता जा रहा था। थोड़ी ही देर में भीड़ हमारे मोहल्ले तक पंहुच गई। ज़ोर-ज़ोर से हो-हल्ले की आवाज़ आ रही थी। 'जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा।' पगलायी भीड़ नारे लगाते हुए लोगों के घरों के दरवाज़ों को भी जोर-जोर से पीट रही थी। डर के मारे मैंने रोना शुरू कर दिया था। मम्मी वाहेगुरू-वाहेगुरू का जाप करने लगी। लेकिन अभी तक हम अपने को अकेला नहीं समझ पा रहे थे। मम्मी-पापा जी को अपने पड़ोस और पड़ोस में अपनी साख पर पूरा भरोसा था। जैसे ही कोई दंगाई हमारे घर की तरफ बढ़ेगा, पड़ोस वाले मिश्रा जी और शर्मा जी और सब लोग मिलकर इस आतंक को रोक लेंगे। आखिर हमारा कुसूर ही क्या था! लेकिन यह हमारा भ्रम था।

हमारे घर के दरवाजे बंद थे और दिल जोरों से धड़क रहे थे। वाहेगुरू हमारी रक्षा कर। इन बेअक्लों को सद्बुद्धि दे। मेरे बच्चे-मेरे परिवार की लाज रख मेेरे वाहेगुरू! मंा बार-बार यही बुदबुदा रही थी। हमें मिलाकर कुल चार घर सिक्ख परिवारों के थे। अगर पड़ोसी चाहें तो इन चार घरों को अपनी समझ-बूझ से छिपा भी सकते हैं। आटे में नमक की तरह मिले-छिपे ये चार घर दंगाइयों से छिपा ले जाना कोई बड़ी बात तो नहीं। आखिर उन्होंने भी तो वक्त-वेवक्त इस मोहल्ले के सभी लोगों का साथ दिया है। पापा जी सोच ही रहे थे कि हमारे घर के बाहरी दरवाजे को कोई जोर-जोर से धकेलने लगा। धीरे-धीरे हाथों की संख्या बढ़ती चली गई। दरवाजा लकड़ी का था और पुराने स्टाइल का बना हुआ था। उसमें एक जंजीर थी जो ऊपर की तरफ थी। पापा जी ने बाद में इसमें एक लोहे की हैण्डल भी लगवा दी थी, जो बीच में थी।

माँ ने हम तीनों बच्चों को गुसलखाने में बंद कर बाहर से कुंडी लगा दी। अब पापा जी हिम्मत करके दरवाजे की तरफ बढ़े इस उम्मीद के साथ कि शायद वे गुस्साई भीड़ को कुछ समझा सकें और पड़ोसियों से मदद की गुहार कर सकें। लेकिन जैसे ही दरवाजा खुला, भीड़ दनदनाती हुई घर के भीतर घुस गई। शायद उन्हें खबर थी कि इस घर में पांच सदस्य हैं। मम्मी चिल्लाती रही कि घर में और कोई नहीं है और दंगाई घर के दरवाजे तोड़-तोड़ कर अपनी तसल्ली करते रहे।

हमारा घर दो कमरों का था। मुख्य दरवाजे से अन्दर घुसते ही जो थोड़ी-सी जगह थी उसके पीछे दो कमरे थे और उन कमरों के बीच से जो रास्ता पीछे की ओर जाता था वहीं गुसलखाना था। उसी गुसलखाने में हम तीनों बन्द थे। बाहर की सारी चिल्लाहट की आवाज हमें अंदर सुनाई पड़ रही थी और इस कारण अंदर हम तीनों की जान हलक में उतर आई थी। बंटी वीर जी ने हम दोनों को कस कर गले से लगा लिया था और अब दरवाजे पर एक लात पड़ते ही हम अपनी आने वाली मौत के सामने खड़े थे। हम तीनों को वहाँ देखकर उनकी आंखों मंे चमक आ गई। एक ने दौड़कर मुझे दोनों भाइयों से जबरदस्ती खींच कर अलग कर लिया और गोद में उठा कर ले चला। दोनों भाई भी उनकी गिरफ्त में थे। बाहर निकलते ही उनमेें से एक ने सीधा पापा जी के केशों को खींचते हुए कहा, 'क्यों बे सरदार, कहता था-घर में कोई नहीं है। यह माल अंदर छिपा रखा था।' 'माल' कहकर उसने मेरी ओर एक भद्दा इशारा किया। अभी तक हरप्रीत, प्रीतो, प्रीतो माई, लाडो पुतर सुनने वाले मेरे कान अपने लिए यह नया शब्द सुनकर हैरत में थे। मैं तब तक उस शब्द का अर्थ भी नहीं समझती थी।

अब तक हम सब बाहर लाए जा चुके थे। पापा जी और हम सबने देखा-सिक्ख परिवारों के घर के आगे जैसे होली जल रही हो। उनके घर फंूके जा चुके थे और कुछ दंगाइयों की एक टुकड़ी उन घरों के लोगों को भी इसी तरह बाहर खींच कर आग में ंिजंदा जला रही थी। हमारे पड़ोसी और गली के अन्य लोग अपने-अपने घरों के आगे खड़े हो तमाशा देख रहे थे। मम्मी और पापा जी तो जैसे अपनी सुध-बुध खो चुके थे। मम्मी अपनी चुन्नी लोगों के सामने फैलाती हम सबकी जान की भीख मांग रही थी। वे कभी उन आततायियों के सामने गिड़गिड़ाती तो कभी आस-पड़ोस के अपने सगे से भी ज़्यादा प्यारे पड़ोसियों के सामने। सब जैसे दम साधे हमारे घर के तमाशे में होने वाली बाकी घटनाओं का इंतज़ार कर रहे थे।

भीड़ में से कुछ लोग अब बंटी और टोनी वीर जी की ओर लपके और उन्होंने दोनों भाइयों को सीधे उनकी दस्तार और बालों से पकड़ कर ज़मीन पर पटक दिया। दरवाज़े-दरवाज़े अपने परिवार की ज़िन्दगी की भीख मांगती माँ अचानक हमारी चीखें सुनकर लौट आई और अपने दोनों जान से प्यारे पुतरोें के ऊपर औंधी लेट गई। मुझे अब तक उस आदमी ने अपनी गोद से उतरने नहीं दिया था। पापा जी इस पूरे दृश्य से अलग सिर्फ़ मुझ पर अपनी नज़रें टिकाए हुए थे। वे बार-बार उस आदमी से गुहार लगाते कि मेरी बेटी को छोड़ दो और वह आदमी बार-बार पापा जी को लात मारकर नीचे गिरा देता। अब भीड़ ने ज़मीन पर गिरी माँ को दोनों भाइयों से अलग किया और उनकी चुन्नी खींच ली। माँ के कपड़े फाड़े जा रहे थे। तेरह बरस की मैं इतनी बुरी तरह घबराई और उस आदमी के हाथ से एक झटके से कूद गई। माँ को नंगा कर दिया गया। पापा जी गुहारें लगा रहे थे। दोनों भाइयों को भीड़ तलवारों से कोंच रही थी और हंसी के ठहाकोें और रोने का एक अजीब-सा मिश्रण वहाँ खड़े तमाशबीनों के कानों का मनोरंजन कर रहा था।

और अगले ही पल हमारा घर आग के हवाले था। मिट्टी का तेल, पेट्रोल डालकर बचे हिस्सों को भी वे लोग आग के हवाले करते जा रहे थे। पापा जी की पिछले सोलह बरसों की मेहनत को उन्होंने एक ही पल में फूंक कर रख दिया। पापा जी उस वक्त क्या सोच रहे थे, यह तो मैं नहीं जान सकी, लेकिन उनके आंसुओं और चीत्कार के लिए दो आंखें और एक गला ज़रूर कम पड़ रहा था। हमारी आंखों के सामने हमारा एक-एक सपना धंू-धंू करके जल रहा था।

...लेकिन अभी भी बहुत कुछ होना बाकी था।

दंगाई अपने साथ एक सफेद-सा पाउडर लेकर आए थे। पता नहीं उस पाउडर में ऐसा क्या था कि आग दिखाते ही वह बड़ी-बड़ी लपटों में धधकने लगता था। पगलाई भीड़ ने सड़क पर पड़े दोनों भाइयों के ऊपर वह सफेद-सा पाउडर छिड़क दिया। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, आग की एक लपट उन पर भी फेंकी जा चुकी थी। दोनों भाई हमारी आंखों के सामने ज़िंदा जला दिए गए और अब तक दो हाथों से अपनी इज्जत ढंकती माँ के दोनों हाथ छाती पीट रहे थे। हाहाकार मचा हुआ था। यह एक भयानक सपना था या खौफनाक हकीकत...समझना मुश्किल था।

"फूंक दो साले को भी। कोई सरदार न बचने पाए। ढूँढ-ढूँढ कर निकालो। साले बहुत गरमी है न तुम्हारी जात में।" कहते-कहते उन्होंने पापा जी पर भी तेल छिड़का और आग लगा दी। अब तक छाती पीटती माँ ने भी आव देखा न ताव, पापा जी के ऊपर ही कूद गई। माँ बार-बार चिल्ला रही थी, "मैं वी जिंदा रहके की करांगी। रब्बा (ईश्वर) तेरा कि विगाड़या-सी मेरे परिवार ने।" माँ शायद यह भूल ही गई थी कि उनकी प्रीतो अभी दंगाइयों की गिरफ्त में ही है।

मेरी आंखों के सामने मेरा पूरा परिवार जल कर राख हो गया। जलती लाशों का नंगा नाच देखा मेरी आंखों ने। मेरे परिवार को बचाने वाला, उन हैवानों को रोकने वाला कोई नहीं था उस दिन उस गली में। उस गली में, जहाँ शाम को सांझा चूल्हा जलता था, जहाँ हिन्दू, पंजाबी और सिक्खों की औरतें हंसी-ठट्ठों के बीच तो कभी एक-दूसरे के आंसू पोंछती साथ-साथ रोटियाँ सेंका करतीं थीं। जहाँ एक आवाज़ लगाने पर पापा जी की टेक्सी दूसरे की सेवा में हाजिर होती थी। जहाँ हर दीवाली-लोहड़ी में गजब की रौनक हुआ करती थी। आज सड़क के ठीक बीचों-बीच रखा वह सांझा चूल्हा ठण्डा पड़ा था। आज शाम की आग में मेरी माँ की चुन्नी और पापा जी व भाइयों की पगड़ियों की आहुति दी जानी थी...

आज होली जलनी थी इसी आग में मेरी आबरू की भी।

छत पर खड़ी होकर जब भी मैं आसमान से गुजरते हवाई जहाज को देखती, तो उछल कर हाथ हिला-हिला कर 'बाय-बाय' कहती। 'बाय-बाय एरोप्लेन, बाय-बाय एरोप्लेन'। मम्मी बताती कि इस हवाई जहाज में इंदिरा गांधी बैठती है। उन्हें जब एक जगह से दूसरी जगह जाना होता हैं, वे इसी या ऐसे ही किसी हवाईजहाज से जाती हैं। इंदिरा गांधी हमारे देश की प्रधानमंत्री है। हमारा और हमारी ज़रूरतों-हर चीज़ का ख्याल रहता हैं उन्हें और यह कहते-कहते माँ अक्सर एक बात दुहराती-बेटा प्रीतो, खूब पढ़ा कर। तुझे भी बड़े होकर इंदिरा गांधी जैसा बनना है। बहादुर और बेहद समझदार और फिर मैैंने हवाई जहाज को देखते हुए धीरे-धीरे 'बाय-बाय एरोप्लेन' की जगह 'बाय-बाय इंदिरा गांधी' कहना शुरू कर दिया था।

आदर्श क्या होता हैं, इतनी छोटी-सी उम्र में मैं न तो जानती थी और न समझती थी। लेकिन मुझे इंदिरा गांधी जैसा बनना है, यह सपना मैं ज़रूर देखने लगी थी। अखबार में इंदिरा गांधी की तस्वीर देखकर मैं खुद को उनसे जोड़ने लगती थी। मंच पर बोलती इंदिरा गांधी, हजा़रों-लाखों की भीड़ में इंदिरा गांधी। इंदिरा गांधी मेरे लिए एक विशाल मूर्ति बन चुकी थी, जिसे छूने की तमन्ना मैं पालने लगी थी।

लेकिन मैं नहीं जानती थी कि मेरा सपना बन चुकी इंदिरा गांधी एक दिन यूं मेेरे और मेरे परिवार की बर्बादी का कारण बन जाएगी।

31 अक्तूबर 1984 की शाम हमारी ज़िंदगी में एक ज़लज़ले की तरह आई, जिसने एक ही पल में हमारा सब कुछ राख करके रख दिया।

पूरा परिवार धूं-धूं करके जल रहा था। जलती लाशें इधर से उधर दौड़तीं और हार कर गिर जातीं। दंगाइयों की गोद में जकड़ी मैं बस खुली आंखों से यह तमाशा देख रही थी और मेरे साथ तमाशा देखने वालों में शामिल था हमारे मोहल्ले का एक-एक आदमी। मौत का नंगा नाच आंखों के सामने था और भीड़ दम साधे सब कुछ देख रही थी।

"इसे ले चलते हैं..." सुनते ही मेरी इंद्रियाँ जो पूरे परिवार से जुड़ी हुईं थीं, अचानक मुझ पर केंद्रित हो गईं। मेरे कानों ने कुछ और शायद कुछ और ज़्यादा भयावह सुन लिया था। तेरह साल की छोटी-सी उम्र में इस ऊपर कहे गए अधूरे वाक्य का क्या अर्थ हो सकता है, वह तो उस समय मैं नहीं समझ पाई थी, लेकिन कुछ बेहद भयावह होने वाला है, इसका अंदाज़ा मुझे ज़रूर हो गया था।

अब मेरी बारी थी। नहीं-नहीं वे मुझे ज़िंदा नहीं जलाने वाले थे। मुझेे गोद में उठाया गया और फिर जत्था न जाने किस पड़ाव की ओर बढ़ता गया। मेरा रोना और चीखना जारी था। लेकिन उनमें से किसी को भी मुझ पर कोई गुस्सा नहीं आ रहा था। ... और फिर एक अधजले घर के एक तहखाना नुमा कमरे में मुझे ले जाया गया।

वह अधजला घर भी कुछ समय पहले घटे हादसे की गवाही दे रहा था। घर में जलती लाशों की सड़ांध भरी हुई थी। कमरे में उतना अँधेरा नहीं था। लेकिन जले हुए सपनों के धुंए ने उसे ज़्यादा अंधकारमय बना दिया था। यहाँ भी कुछ देर पहले तक एक परिवार बसता होगा। उसमें भी मेरे घर जैसे कुछ लोग रहते होंगे और कुछ देर पहले यहाँ भी जिंदा लाशों की होली जली होगी। कमरे का अँधेरा और यह भयावह माहौल...मैं एकदम सहम गई थी। उस कमरे में उस वक्त कितने लोग थे, मेरे लिए गिन पाना मुश्किल था। एक समवेत् हंसी। एक गूंज, एक ठहाका और एक मैं। सिमटी, घबराई, लगभग एक लाश।

स्साले ये सिक्ख क्या खा कर काम पर लगते हैं कि बला-सी खूबसूरत लड़कियाँ पैदा होती हैं इनके यहाँ। साली माल है माल! ए तेरी उम्र क्या है री! वे मुझे उंगलियों से कोंच रहे थे। उनके हाथ न जाने कहाँ-कहाँ छू रहे थे मुझे। अरी बोल ना, बोल दे मेरी लाल परी! मेरे मुंह से किसी तरह निकल पाया था: तेरह बरस और फिर एक भयानक हंसी। तेरह साल च्च्च-च्च्च बस! फिर तो अभी तुझे...! लेकिन हट्टी कट्टी तो ऐसी है कि जैसे सोलहवें में लगी हो। कोई बात नहीं, हमें उम्र से क्या लेना-देना! चीज़ तूं कमाल की है।

और फिर उसके बाद मुझे कुछ कहने का मौका नहीं दिया गया। मेरे विरोध करने पर मेरे हाथ-पैर बाँध दिए गए थे और फिर पूरी देह मुक्त थी। उस कमरे में कुछ पुरुष थे और एक लड़की की देह। यहाँ मेरा तेरह बरस का होना कोई महत्त्व नहीं रखता था। यहाँ इतना ही काफी था कि मैं एक लड़की हूँ और मेरे पास एक शरीर है। एक देह...अनछुई। मुझे कितनी बार रौंदा गया, मुझे कुछ याद नहीं। मैं कब बेहोश हो गई, यह भी याद नहीं। मैं बहुत रोई थी, चीखी थी, बहुत चिल्लाई थी। हर स्पर्श पर मेरे भीतर कुछ उधड़ रहा था, उधड़ता जा रहा था।

जब मुझे होश आया, उस कमरे में कोई नहीं था। कोई नहीं। सिर्फ़ मैं और मेरा बिखरा शरीर और उस घर के खौफनाक इतिहास में जुड़ चुकी एक और खौफनाक घटना। खून और उन दरिंदों की हैवानियत के उस रात छोड़े हुए सबूतों से लथपथ। बेहोशी से सिर्फ़ मेरी आंखें जगीं थीं, शरीर अब भी वैसा ही निस्पंद और बेबस था। मैंने उठने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार। उस अंधेरी कोठरी में मैं न जाने कितने घण्टे यूं ही बेबस और भूखी-प्यासी पड़ी रही और मेरी आंखों के आगे घूमता रहा पिछली रात का एक-एक दृश्य। बेबस और लाचार चीखें।

एक नवम्बर की सुबह। मेरे चारों ओर एक सन्नाटा पसरा था। खौफनाक सन्नाटा। उस तहखाना नुमा कमरे में मैं थी...अधढंकी, अनढंकी, मर चुकी... या ज़िंदा, कुछ नहीं कहा जा सकता था। मेरी तेरह बरस की देह पिछली रात न जाने कितना कुछ सह चुकी थी। मेरी कच्ची कोमल देह पिछली रात फौलादों सेे टकराकर चूर-चूर हो चुकी थी। दिन ढला, रात आई। मुझे कुछ याद नहीं। होश में थी या बेहोशी में। यह भी याद नहीं। दो दिन मैं यू ही बेसुध पड़ी रही। दो दिन बाद एक भारी उबकाई के साथ मेरी तंद्रा टूटी। मेरे शरीर में बिल्कुल जान नहीं बची थी। पिछले दो दिनों से पेट में अन्न का दाना नहीं गया था। मैंने किसी तरह अपने शरीर को हिलाया। ज़मीन पर पैर रखते ही शरीर में भारीपन महसूस हुआ। मैं ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। किसी तरह दीवार का सहारा लेेते-लेते मैं बाहर तक आई। आंखों पर अचानक सूरज की तेज़ रोशनी पड़ी। चक्कर खाकर गिरते-गिरते किसी तरह बची मैं। बाहर जैसे मौत का साया-सा पसरा हुआ था। मैं शायद अपने घर से बहुत दूर नहीं थी। जैसे ही मैंने बढ़ने के लिए बाहर पैर रखा, लोगों की घूरती नज़रों से मेरा सामना हुआ। मेरे कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे और उनमें से झांकता मेरा शरीर उस रात की सारी कहानी बयाँ कर रहा था। अपने शरीर के प्रति पहली बार मैं इतनी चैकस हुई थी। मैंने अपनी चुन्नी से तार-तार हुई अपनी अस्मत को ढंकने की कोशिश की और लड़खड़ाती लेकिन लगभग भागती-सी अपने घर की ओर बढ़ने लगी। उस रात की एक-एक घटना मुझे याद थी और मैं जानती थी कि घर अब जला हुआ खंडहर रह चुका हैं और उस घर में रहने वाले केवल जली हुई लाशें। लेकिन फिर भी मेरे पैरों की रफ्तार कम नहीं हुई थी।

रास्ते भर लोगों की सवालिया नज़रें मेरी पीठ से चिपकी रहीं। अब मैं अपने मोहल्ले में पंहुच चुकी थी। मोहल्ले में रहने वाले सब लोग वही थे, लेकिन सबकी नज़र बदल गई थी। मैं सीधा घर पंहुची और जले हुए दरवाज़े को धकेल कर अंदर दाखिल हुई। अंदर कुछ नहीं था सिवाय दो-चार सड़क के कुत्तों के जो लावारिस घर को देखकर उसका एक कोना दबाए बैठे थे। मेरे परिवार के साथ-साथ गली में उस रात की होली में जले सभी परिवारों की लाशों को वहाँ से उठा लिया गया था। पता चला कि अगले ही दिन म्युनिसिपलिटी की वैन आई और उन जली-अधजली और लावारिस लाशों को अपने साथ उठा कर ले गई थी। मेरे हाथ कुछ नहीं आया था, न किसी का कंधा और न परिवार की लाशें। कुछ बचा था तो सिर्फ़ यह जला हुआ घर और अपने परिवार की यादें। इस घर के अब मेरे लिए कोई मायने नहीं रह गए थे। बस अपनों की यादंें समेटे मैं एक कोने में सुबकती रही। किसी ने तरस खाकर दो कौर रोटी खिला दी और अगली सुबह किसी तरह बचते-बचते पंजाब से आए नाना-नानी मुझे अपने साथ ले गए। अपने घर से मेरी यह अंतिम विदाई थी। मेरी विदाई के सपने तो मम्मी और पापा जी ने भी देखे होंगें, लेकिन यह विदाई ऐसी होगी, किसे पता था...!

नानी मेरे गले लगकर खूब रोई। अब मैं ही उनकी इकलौती बेटी और बेटी के परिवार की आखिरी निशानी थी। धीरे-धीरे दिन बीतते गए। दिल्ली से शरीर और आत्मा पर गहरी चोटें खाकर आई मैं अब नाना-नानी, मामा-मामी के लाड़-प्यार में पलने लगी। जो कुछ हुआ, वह इतना भयावह था कि उसे चाह कर भी भुलाया नहीं जा सकता था। लेकिन इन सबने मिलकर उन घावों को भरने की हर भरसक कोशिशा की। नानी मुझे एक पल भी अपने से जुदा नहीं होने देती थी। दिल्ली के नाम से ही उनके भीतर खौफ़ ने इतनी गहरी जगह बना ली थी कि वे लोग भूलकर भी दिल्ली का नाम तक नहीं लेते थे। दिल्ली जाने की सोचना तो बहुत दूर की बात थी...और यूं भी दिल्ली में उनका अब था भी कौन?

जिला पटियाला के एक छोटे से गाँव कोहड़ा के हाई स्कूल में मेरा दाखिला करवा दिया गया। दिल्ली जैसे बड़े शहर से पंजाब के एक जिले के गाँव के किसी स्कूल में जाकर मेरा दाखिला होगा, मैंने कभी सोचा भी न था। दिल्ली से गाँव आई मैं एक बिल्कुल अलग अनुभव से गुजर रही थी। दिल्ली के स्कूल में लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते थे, लड़कियों की यूनिफाॅर्म स्कर्ट और टी-शर्ट थी, जबकि गाँव में मुझे सिर्फ़ लड़कियों की कक्षा में पढ़ना था। नीली कमीज़, सफेद सलवार और सीने पर कस कर लपेटा दुपट्टा-अजीब घुटन-सी होती थी। लेकिन यह घुटन मुझ पर कभी इतनी हावी नहीं हो पाई कि मेरे दिल में वापस दिल्ली लौटने का ख्याल आए।

नानी की इकलौती बेटी की मैं आखिरी निशानी थी और शायद इसीलिए नानी ने जितना प्यार मेरी माँ को दिया होगा, उससे ज़्यादा मुझे देने लगी थी। मुझे स्कूल लाना-ले जाना, गाँव में कहीं भी जाना मुझे साथ ले जाना-यहाँ तक कि उन्होंने वेहड़े की खुली-ठंडी हवा में सोने का अपना इकलौता मोह भी छोड़ दिया था और मेरे साथ अंदर कमरे में सोने लग गई थी। नानी मुझे लेकर हमेशा चैकस रहती थी। ठीक ऐसे जैसे अपने घोंसले से बेघर और टूट चुके अण्डों को देखकर कौआ चैकस हो जाता है और कई दिन तक उन अण्डों की निगरानी में बैठा रहता हैं कि कहीं से कोई आकर उसके बच्चों को नुकसान न पंहुचा सके।

मेरी हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी थी। शरीर पर आई चोटें भी लगभग भर गईं थीं। लेकिन निशान अभी बाकी थे। त्वचा पर छूटे ये बाहरी निशान भी चोटों की तरह एक न एक दिन चले जाएंगे-नानी को पूरा भरोसा था। ... लेकिन मुझमें से कहीं कुछ घट गया था, कहीं कुछ कम हो गया था, जिसकी पूर्ति नहीं की जा सकती थी। नाना-नानी मेरी शारीरिक और मानसिक हालत में सुधार देखकर कुछ संतुष्ट थे। लेकिन मैं। अक्सर सुबह नहाने के बाद स्कूल की वर्दी पहनने से पहले मैं शीशे के आगे खड़ी होकर खुद को देखा करती थी। एक बारीक नज़र मेरे शरीर के एक-एक अंग को टटोलती रहती थी। आखिर क्या था ऐसा जो अधूरा छूट गया था, मैं ढूँढने की कोशिश करती। शायद कोई बेहद गहरा ज़ख्म जिसका इलाज मुमकिन नहीं था। ज़ख्म शरीर पर तो नहीं दिखता था लेकिन कहीं भीतर अपनी टीस के साथ उतना ही हरा था।

लेकिन नाना-नानी के घर मिलने वाला यह प्यार अधूरा नहीं था। मामा-मामी भी मुझे उतना ही प्यार करते और मेरी ज़रूरत का ख्याल रखते। मामा उम्र में माँ से बारह साल छोटे थे और मुझसे चैदह साल बड़े। मामा-मामी का एक छोटा-सा बेटा था डेढ़ साल का-बबलू। एकदम गोल-मटोल और प्यारा सा। नानी अक्सर कहती कि जब मैं बबलू जितनी थी तो ऐसी ही गोल-मटोल थी और मोटी इतनी कि मुझे आसानी से कोई गोद में उठाता ही नहीं था। बस माँ मुझे तैयार करके मंजे पर बैठा देती। लोग आते-जाते मुझे प्यार करते, खिलाते लेकिन गोद में कोई नहीं उठाता था। सबके बीच और बबलू के साथ दिन अच्छे गुज़रने लगे थे। बबलू अब मेरी जिम्मेदारी हो गया। वह मेरे साथ बेहद घुल-मिल गया था। मामा जी शाम को खेत से लौटते, तो मेरे और बबलू दोनों के लिए कुछ न कुछ ज़रूर लेकर आते और मुझे अपने पास बैठाकर खिलाते।

धीरे-धीरे मैं बड़ी होने लगी थी। हाल ही में मेरे जीवन में घटी दो घटनाओं ने मुझे अचानक बड़ी और ज़्यादा लड़की बना दिया था। मेरे कच्चे शरीर ने बेहद छोटी उम्र में बहुत बड़े अनुभव को झेल लिया था और दूसरी घटना थी मेरा लड़कियों के स्कूल में जाना। क्लास में सभी लड़कियाँ लगभग मेरी ही उम्र की थीं और इस उम्र में होने वाले नए अनुभव को बड़े अजीब और बड़ी हैरत से महसूस कर रहीं थीं। यह लड़कियों का स्कूल होने के कारण था, या फिर मेरी क्लास में पढ़ने वाली लड़कियों की उम्र का... लेकिन सभी लड़कियाँ एक-दूसरे के कान में न जाने क्या-क्या फुसफुसाती रहतीं, फिर किसी का चेहरा शर्म से लाल हो जाता, तो कोई खिलखिलाकर हंस पड़ती। सब का ध्यान पढ़ाई में कम और क्लास रूम का दरवाज़ा बंद कर बातें करने और हंसने में ज़्यादा लगता था।

मुझे भीड़ को देखकर अजीब-सी घबराहट होने लगती थी। वह घबराहट डर की वजह से थी या नफ़रत की वजह से...ठीक-ठीक कहना मुश्किल है। लेकिन भीड़ में मेरी ज़्यादा सहेलियाँ नहीं थीं। कुल मिलाकर एक ही लड़की थी, जो मुझे अच्छी लगी थी-हरसिमरन। हरसिमरन मेरे अतीत के बारे में तो कुछ नहीं जानती थी लेकिन मेरे अकेलेपन को समझने की कोशिश ज़रूर करती। मैंने ही उसे अपने अतीत के बारे में बताया, लेकिन उतना ही जितना उसके लिए जानना ज़रूरी था। दिल्ली के 84 के दंगों में मेरा अपने पूरे परिवार को खोना और अब नाना-नानी के साथ पटियाला आकर मेरा रहना-बस मेरा इतना ही अतीत वह जानती थी और मेरे साथ सहानुभूति महसूस करने लगी थी।

हरसिमरन औरों से अलग थी। कद में छोटी, गोरी और हमेशा मुस्कुराती रहती। उसकी आंखों मेें और लड़कियों की तरह कोई रहस्य नहीं था। बेहद धुली-धुली और अपनी उम्र के बोध से परे बिल्कुल बच्ची सी। लेकिन साथ ही उतनी गंभीर और समझदार भी। वह अपने घर से अक्सर मेरे लिए कुछ न कुछ लाती रहती थी और बहुत कम समय में मेरी बेहद अपनी हो गई थी हरसिमरन। हरसिमरन और मैं साथ-साथ छत की मुंडेर पर बैठे घण्टों बातें करते। हरसिमरन खुल कर मुझसे बातें करती और अपने और अपने घर के सारे राज़ मेरे सामने खोलकर रख देती। लेकिन मेरे भीतर शायद कोई चोर था, जो सिमरन से इतना प्यार करते, इतना भरोसा करते हुए भी मैं उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे कड़वा अनुभव कभी बता ही नहीं पाई। मैं अब उसे सिमरन पुकारने लगी थी। ं

हरसिमरन ही मेरी राज़दार थी और हरसिमरन से ही मैं अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा राज़ छिपाए हुए थी। लेकिन मैं नहीं जानती थी कि ऊपर से चंचल, मासूम और अनजान दिखने वाली सिमरन मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे बड़ा राज़ भी जानती थी। ...

दिल्ली से जब मैं पंजाब पंहुची थी तो अपने साथ बहुत सारे ज़ख्म और घाव लिए मैं उस हिंसक घटना कि गवाह भी हो गई थी। दिल्ली में हुए इस नरसंहार की खबर पंजाब और मेरे गाँव तक तो पंहुच ही गई थी, लेकिन उनके हाथ कोई आंखों देखी बयाँ करने वाला नहीं आ पाया था। दिल्ली में सिक्खों का कत्ले आम और उनकी बहू-बेटियों की अस्मत लूटने की खबरें उनके पास थीं ही और इस सारे घटनाक्रम से उन्होंने मुझे जोड़ भी लिया था। मेरे घावों और मेरी मनहूस खामोशी से उन्हें यह शक भी हो गया था कि हो न हो मेरे साथ भी वह सब घटा है, जो ऐसी परिस्थितियों में एक स्त्री के साथ घट सकता है। नानी के पास सहानुभूति जताने आते लोग कुरेद-कुरेद कर इस सच को भी जानने की भरपूर कोशिश करते। लेकिन नानी ने तो जैसे अपनी ज़ुबान-सी ली थी। घर में भी इस बारे में बात करते वे चारों ओर चैकस निगाहों से देख लेती थी। नानी जानती थी एक बार अगर उनके मुंह से यह बात खुल गई कि बस इस फूल-सी बच्ची की ज़िन्दगी तबाह हो जायेगी। फिर कौन ब्याह करेगा इससे।

घर से यह बात बाहर गई हो, ऐसा तो नहीं था। लेकिन लोग अनुमान के आधार पर बहुत कुछ कहते थे। सिमरन ने इन झूठी-सच्ची अफवाहों से नहीं, बल्कि मेरी खामोशी, अपनी जवान होती देह के प्रति मेरे मन में पल रही गहरी वितृष्णा और बात-बेबात मेरे अक्सर खोए रहने से इन सब स्थितियों का अंदाज़ा लगा लिया था। शायद मैं अकेली ही ऐसी लड़की थी, जिसे अपनी जवान और खूबसूरत देह और उसमें पुरुषों के आकर्षण के प्रति कोई लगाव नहीं था।

देखते-देखते लगभग पांच साल बीत गए। इन पांच सालों में हम सातवीं से बारहवीं क्लास में आ गए थे और लड़कियों की वयःसन्धि वाली कानाफूसी बंद होकर जवानी के उल्लास में कहीं खो गई थी। अब लड़की होने का रहस्य उनके लिए उतना रहस्य नहीं रह गया था। इन पांच सालों में सिमरन खिलकर 18-19 साल की पंजाबी मुटियार हो गई थी और उसके लिए कनाडा में रहने वाले रिश्तेदारों की ओर से रिश्ते भी आने लगे थे।

बारहवंीं क्लास से विदाई के दिन लड़कियों ने खूब जश्न मनाया। सिमरन खुल कर नाची और जुदा होते हुए सब एक-दूसरे के गले लगकर खूब रोईं भी। सब अपनी एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत करने जा रहीं थीं।

और उसी दिन मुझे भी एक नई ज़िन्दगी मिली...

घर लौटते वक्त मैं और सिमरन साथ-साथ थे। सिमरन उदास थी। मैं इस उदासी को स्कूल से विदाई से जोड़ कर ही देखती रहती अगर सिमरन ने मुझे हाथ खींचकर खेत की एक मुंडेर पर बैठा न लिया होता।

"तैनू की लगदा है ऐस तरह ही निभ जाएगी?" उसकी आंखों में सवाल थे। मैं चुप बैठी रही।

"कद तक ऐस तरह ही रहेंगी, चुपचाप?"

"सिमरन, नहीं यार ऐसी कोई गल्ल नहीं।"

"तैनू की लगदा है मैंनू नहीं पता दिल्ली च तेरे नाल की होया सी। तूं दसया न होए, ऐ हो सकदा है लेकिन मैं वी कुड़ी याँ। मैं वी समझ सकनी याँ और तेरियाँ ऐ अक्खां, बिना बोले वी सब कुछ दस देंदियाँ ने प्रीतो।"

मैं जैसे एक गहरी नींद से जागी थी। "की मतलब?"

"प्रीतो, इक उमर आंदी ए जद सब कुछ बदल जांदा ए। तूने इस उम्र को भी क्या ऐसे ही काट लेना है।" फिर ठहरकर, "हुण बहुत हो गया। बस कर। इस शरीर ने क्या-क्या झेला है मैं जानती हूँ मेरी प्रीतो। तूं कहे न कहे। बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जिन्हे बिना कहे ही समझा जा सकता है।"

अब मैं अपना सब कुछ हार चुकी थी। सिमरन की गोद में मैं ऐसे गिर गई जैसे पेड़ से कोई डाल टूट कर ज़मीन पर जा गिरती है। उस दिन आंसुओं की नदी में हम दोनों साथ-साथ बहे। मैंने अपनी सारी गिरहें खोल दीं। सब कुछ कह दिया सिमरन से।

सचमुच उस दिन काफी हल्का महसूस किया था मैंने खुद को। ऐसे जैसे अचानक मनो वज़न मेरे सीने से खिसक गया हो। आज सिमरन सही मायनों में मेरी राज़दार हो गई थी।

सिमरन और मैंने एक साथ काॅलेज में दाखिला लिया। सिमरन का मन पढ़ाई में लगना कम हो गया था। उसकी शादी के लिए आ रहे रिश्ते उसे एक नई ही दुनिया दिखाने लगे थे। ख्वाबों की हसीन दुनिया और सच पूछा जाए तो शादी से ज़्यादा उसकी दिलचस्पी विदेश जाने में थी। लेकिन चूंकि शादी ही विदेश जाने का पासपोर्ट हो सकती थी, तो उसके इन सपनों ने भी शादी शब्द में अपना घरौंदा बना लिया था।

सिमरन के इस लम्बे साथ ने मुझे अपने उस काले इतिहास से निकलने में सहारा ज़रूर दिया था और खासकर पिछले एक साल में। सिमरन से अपनी सारी बात कह मैं कुछ सुकून महसूस करने लगी थी और पिछले इस समय में मुझमें काफी बदलाव भी आया था। अब मैं ज़्यादा खुलकर सांस लेती, ज़्यादा खुलकर बातें करती और ज़्यादा खुलकर हंसने भी लगी थी। मैं उन काले सायों को भी लगभग भूल-सी गई थी, जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी को अपनी मनहूसियत से ढंक-सा दिया था। मेरा परिवार-मेरी मां, मेरे पापा जी और मेरे दोनों भाई-बंटी वीर जी और टोनी वीर जी सिर्फ़ मेरी यादों का हिस्सा बन कर रह गए थे। बबलू अब सात साल का हो चला था और उसकी कलाई ही मेरे लिए राखी बाँधने की इकलौती जगह बच गई थी। लेकिन फिर भी मैं खुश थी। अपना बहुत कुछ गंवा कर, बहुत कुछ खोकर मैं खुश थी।

लेकिन शायद अभी कुछ और खोना, कुछ और होना बाकी था।

नाना जी पिछले डेढ़ साल से बीमार चल रहे थे। उनकी तबीयत सुधरने के बजाय दिन-दिन बिगड़ती ही जा रही थी। नानी को अब मेरी चिंता और गहरे से सताने लगी थी। दोनों बेहद बूढ़े हो चले थे और नाना जी की बिगड़ती हालत देखकर नानी भी भीतर से कांप-सी गई थी। वे अक्सर मामा जी से कहती रहतीं:

"साड्डा हुण कुछ नहीं पता पुत्तर। कद बुलावा आ जाए। अपणे पापा जी दी तबीयत ते तूं वेख ही रह्याँ ऐं।" फिर लम्बी सांस लेते हुए, "प्रीतो दा ब्याह हो जांदा, ओ अपणे घर चली जांदी, ओनू अपणे घर सुखी वेख लां, तां मैनू वी होर कोई चिंता नहीं।"

लेकिन मामा जी ने कभी हौंसला नहीं हारा। वे हमेशा नाना-नानी को हिम्मत बंधाते रहते थे। नाना-नानी के परिवार के माली हालात कभी भी बहुत अच्छे नहीं थे। लेकिन उनकी तंगी अब खुलकर सामने आने लगी थीा। बबलू की पढ़ाई और मेरी शादी का खर्च-सचमुच हालात अब ज़्यादा तंग हो गए थे।

घर के माली हालात चाहे जितने भी खराब रहे हों, लेकिन मेरी नानी ने कभी भी हिम्मत नहीं हारी। तब भी नहीं, जब कई साल पहले उन्हें खबर मिली कि 1984 के दंगा पीड़ितों को सरकार की तरफ से आर्थिक मदद दी जा रही है। इस दंगे में मैंने अपने पूरे परिवार को खोया था और सरकार की ओर से मुझे इसके एवज़ में अच्छा खासा मुआवज़ा मिल सकता था। लेकिन नाना-नानी की न तो न! अपने परिवार को खोने की एवज में मिलने वाले रुपए को लेना वे पाप समझते थे। न तो उन्हें पैसा लेने में कोई रुचि थी और न इससे जुड़ी खबर जानने में। दिल्ली से और दिल्ली के इस सियासी खेल से उनका जी खट्टा हो गया था। आए दिन कानों में खबर पड़ती रहती थी कि 1984 के दंगा पीड़ित सिक्ख मुआवज़े की मांग कर रहे हैं। तो कभी यह कि दंगा पीड़ितों को सरकार की तरफ से मुआवज़ा दिया जा रहा हैं। लेकिन मेरे परिवार का कोई भी सदस्य पैसे की इस चमक से नहीं चैंका।

लेकिन इस बार हालात अलग थे। इन छः-सात सालों में बहुत कुछ बदल गया था। नाना-नानी बूढ़े हो चले थे। नाना जी अब काम नहीं कर पाते थे। मामा जी के घर बेटी हुई थी और उसकी उम्र भी अब साढ़े तीन साल हो चली थी...और सबसे ज़्यादा यह कि मैं जवान हो गई थी। नाना-नानी के लिए मैं एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे सही तरह से निभाकर ही उन्हें चैन मिलना था और कुसूर उनका भी नहीं। इतने साल तक मुझे पाला, मेरी एक-एक ज़रूरत का ध्यान रखा। मुझे सीने से ऐसे लगाए रखा जैसे मैं उनकी ही औलाद हूँ। लेकिन यह भी सच था। मुझे वे किसी और के भरोसे छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। मामा जी के भी नहीं। वे जानते थे कि मामा जी की अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं और इन जिम्मेदारियों को निभाने में मेरी ज़रूरतें कहीं पीछे छूट गईं, तो उनकी आत्मा को भी तकलीफ होगी।

कुछ दिन बाद वही खबर सरगर्मियों में थी। सरकार दंगा पीड़ितों को फिर से मुआवज़ा दे रही है, यह खबर फिर चारों ओर फैल गई। फिर दिल्ली से विस्थापित लोग वापस दिल्ली पंहुचने लगे। लेकिन इस बार दंगों के मुआवज़े को पाने में मामा जी की भी दिलचस्पी बढ़ गई थी। वे इस बार इस मुआवज़े के लिए मेरी ओर से अर्जी डालना चाहते थे। लेकिन नाना-नानी को कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।

और फिर एक दिन मौका देखकर उन्होंने नाना जी से यह बात कह ही दी।

"पापा जी, सुण्या ए सरकार फेर चैरासी दे दंगा पीड़ितां नू पैसा दे रई ऐ" नाना जी ने बात को उतना ही अनदेखा करते हुए कहा, "हाँ सुण्या ते में वी ऐ। पर असी की करना ऐ। जेड़ी सरकार मेरे बच्चयाँ नू खा गई, हुण पैसा दे वी देगी ते की हो जाएगा? सानू नहीं चाहिदा पैसा।"

"पर पापा जी" , मामा जी ने हिम्मत जुटा कर कहा, "पहले दे ते हुण दे हालातां विच बहुत फर्क आ गया ऐ।"

नानी अंदर कहीं सुन रही थी। वहीं से चिल्लाती हुईं आई, "ओ काका! की फर्क पै गया ऐ। ऐने सालां विच सानू साड्डी औलाद वापस ते नहीं मिल गई ना!"

"माता जी तुसी समझण दी कोशिश करो!" फिर लगभग मुझसे बचाते हुए बोले, "प्रीतो हुण जवान हो गई ऐ। साल दो साल विच ओदा ब्याह करना ऐ। किदरों आएगा पैसा? तुसी दस्सो!"

ननाी जैसे अवाक् रह गईं। मामा जी कह तो ठीक ही रहे थे। "पर बेटा।" "पर-वर कुछ नहीं, अक्खां मीच के रक्खण नाल कुछ बदल ते नहीं जाएगा ना!"

मामा जी ठीक ही कह रहे थे। आखिर सच से कब तक आंखें चुराई जा सकती है!

तय हुआ कि अगले महीनेें मैं और मामा जी दिल्ली जाएंगे। मुझे घरवालों का यह फैसला ठीक ही लगा। आखिर उनके पास और चारा ही क्या था! ल्ेकिन न जाने क्यूं इतने बरसों बाद भी दिल्ली के नाम पर मैं भीतर से कांप-सी जाती थी। आज मुझे सिमरन की ज़रूरत महसूस हो रही थी। सिमरन मुझे सहारा देने के लिए कंधा बने हमेशा खड़ी रही थी और आज फिर मुझे उसके कंधे की ज़रूरत थी।

शाम को सारा काम निपटाकर मैं सिमरन के घर गई। उसका घर हमारे घर के पास ही थाा। घर में खूब चहल-पहल नज़र आ रही थी। पीछे आंगन से होते हुए मैं उसके कमरे तक पंहुची। सिमरन पलंग पर बैठी थी। नया जोड़ा पहने वह बहुत अच्छी लग रही थी। उसका रूप तो हमेशा से आकर्षक था, लेकिन उसकी आंखों की शर्म, चमक और बेचैनी मिलकर आज उसे और निखार रहीं थीं। पता चला कि सिमरन का रिश्ता हो रहा है। कनाडा से मामा-मामी आए हुए हैं और मामी ने अपने सबसे छोटे भाई के लिए सिमरन के मां-पापा जी को मना लिया है और आज उसकी रस्म अदायगी है। पिछले दो-तीन दिनों में मेरी सिमरन से मुलाकात न होने के बीच कितना कुछ घट गया था। सिमरन शादी के बाद कनाडा जाने वाली थी।

मैंने इस माहौल में सिमरन से कुछ भी कहना ठीक नहीं समझा और उसे बधाई देकर वापस लौट आई। अगले दिन फुर्सत पाकर सिमरन मुझसे मिलने आई और मैंने उसे पिछले दिन की सारी कहानी कह दी। सिमरन कुछ देर मेरे साथ बैठी रही और फिर चल दी। जाते-जाते उसने बताया कि 14 अप्रैल वैसाखी के दिन की उसकी शादी तय हो गई है।

सिमरन के चले जाने के नाम से ही मैं सिहर गई थी। खैर, अगले महीने की दस तारीख यानी दस मार्च को हम दिल्ली के लिए रवाना होने वाले थे। इस बीच सिमरन से गिनी-चुनी मुलाकातें ही हो पाईं, जिनमें से ज़्यादातर का मुद्दा उसकी शादी और शादी की तैयारियों से जुड़ा था। हम उसकी शादी को लेकर खूब बातें करते। बाज़ार से खरीदारी होती और वक्त बचा-बचाकर या कहें चुरा-चुराकर वह खूब अपने होने वाले पति से बातें किया करती थी। अपना घर, अपना देश, अपना परिवार और मुझे छोड़कर चले जाने का उसे दुख भी था, लेकिन आने वाली खुशियाँ उसकी आंखों में इतनी चमकती थीं कि बाकी सारे दुख हल्के लगने लगते थे। सिमरन अपनी शादी में क्या पहनेगी यह तो तय ही था, लेकिन मैं उसकी शादी में क्या पहनूंगी, यह भी उसने तय कर लिया था। मैं भी अपनी इकलौती सहेली की हर खुशी में उतनी ही खुशी से शरीक होना चाहती थी। तिल्ले की कढ़ाई वाले सूट और मैंचिंग परांदे तक हम लोगों ने खरीद डाले थे।

देखते-देखते दिन बीत गए। दस मार्च की सुबह मैं और मामा जी अपने घर से निकलने वाले थे। सिमरन मुझसे मिलने आई थी और नानी ने उसे कहा था, "बेटा, जिस कम्म नाल दिल्ली जा रहे ने, ओ ठीक-ठाक निबट जाए, तां अगली वैसाखी तक प्रीतो दा वी ब्याह कर दांगे।" और हंसते हुए सिमरन की चुटकी ली थी, "तेरा कोई द्योर (देवर) होवे, तां दस्सीं, तेरी सहेली तैनू ही वापस करके सानू वी चैन मिल जाएगा। फेर बै के सारी ज़िन्दगी गल्लां करना।" नानी की इस बात से सब हंस पड़े थे और मैरी और सिमरन की नम आंखें भी मुस्कुरा दी थीं।

10 मार्च 1991को ट्रेन में बैठकर हम दिल्ली की ओर रवाना हो गए थे और पूरे रास्ते दिल्ली से जुड़ा मेरा अतीत मेरी आंखों में तैरता रहा था। कई सालों बाद मैं दिल्ली आ रही थी। जानने की उत्सुकता थी कि नंदनगरी के हमारे घर का क्या हुआ होगा। अमरूद के पेड़ पर अमरूद अब भी फलते होंगे या नहीं और मेरे बचपन के साथी राजू, रिंकी और मुन्नी कितने बड़े हो गए होंगे और अब भी क्या वे हमारे घर के अमरूद चुराकर खाते होंगे। मैं जान बूझकर अपने घर और घर के भीतर पापा जी की मुझे पुकारती 'लाडो पुतर' की आवाज़ याद नहीं करना चाहती थी। सुबह-सुबह मेरी गुुतों में रिबन बाँधती माँ और दौड़-दौड़कर हमारे बस्तों में खाने का डिब्बा रखती मां...मैं उन्हें भी याद करना नहीं चाहती थी। बंटी और टोनी वीर जी को तो बिल्कुल भी नहंीं, जो घर के एक कोने से दूसरे कोने तक 'प्रीतो राणी बड़ी सयाणी, लगदी पूरी बुड्डी नानी' कह कर चिढ़ाते हुए दौड़ाया करते थे। लेकिन न जाने क्यों, न चाहते हुए भी वह घर और घर वाले मेरी आंखों के सामने से हट नहीं पा रहे थे।

दिल्ली पंहुचते ही मामा जी ने अब अपने दोस्त का पता खोजना शुरू किया। पुरानी दिल्ली स्टेशन पर उतरकर हमें आजाद मार्किट की ओर जाना था। मामा जी की पंजाब से निकलने से पहले अपने दोस्त से बात हो चुकी थी। शाम के साढ़े पांच बजे का समय था। हम स्टेशन से रिक्शा पकड़े और दिल्ली की अपनी इस अस्थाई मंजिल की ओर चल दिए।

आज़ाद मार्किट एक बहुत पुरानी-सी काॅलोनी है, जिसके खंडहर मुगल काल की उजड़ी दास्तां बयाँ करते हैं। रिक्शा जाकर एक पतली-सी गली के मुहाने पर रुक गया और अपने-अपने कंधों पर अपना झोला लादे हम उस आठ फुट की सीलन भरी गली में धंसते चले गए। गली के दूसरे मुहाने की तीसरी मंजिल पर जाकर उनका घर था। हम एक संकरे से दरवाजे से बिल्डिंग के अंदर दाखिल हुए। इमारत को देखने से ऐसा लगता था, जैसे उसके चार पायों में से एक पाया उखड़ गया हो और उसका संतुलन बिगड़कर इमारत एक ओर झुक गई हो, जो ज़्यादा बोझ पड़ने से किसी भी दिन लड़खड़ा सकती है। ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ बेहद घुमावदार थीं। वह रात सात बजे के आसपास का समय था और सीढ़ियों में बिल्कुल अँधेरा था। कोनों पर पान के थूक से जैसे उसकी प्राचीनता का दस्तावेज़ लिखा हुआ था। इमारत को देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि यहाँ रहने वाले लोग ज़िंदा भी होंगे। पूरी इमारत पर मनहूसियत तारी थी। मुझे अंदर ही अंदर डर लग रहा था। लेकिन मामा जी का हाथ थामे मैं उनके साथ बढ़ती जा रही थी। दरवाज़ा खटखटाने पर कुछ देर तक सन्नाटा रहा, ऐसा लगा जैसे उस घर में रहने वाला इतिहास के किसी सुदूर कोने में जाकर बैठ गया है। हम कुछ देर तक दरवाजे पर हाथ मारते रहे तब फिर इतिहास के सुदूर कोने से एक मोटी आवाज आयी। 'आ रहा हूँ।' इस आवाज की मोटाई को बाहर खड़े होकर भी पहचाना जा सकती थी। एक फंसे गले की आवाज थी। दरवाजा खुला और फिर एक आदमी बाहर निकला जो हम दोनों को भीतर ले गया।

मैं थोड़ा सकुचाई हुई थी। नई जगह और नए माहौल में मुझे कुछ अजीब लग रहा था। थोड़ी देर इंतजार करने पर जब कोई नहीं आया तो मुझे कुछ अंदाज़ा तो हो ही गया। बाद में पता चला कि मामा जी के ये मित्र यहाँ अकेले ही रहते हैं और इनका परिवार पंजाब के अपने पुश्तैनी घर में। घर दो कमरे का था और दोनों कमरे बेहद सीलन भरे थे। एक कमरा बनिस्पत बड़ा था और उसी में एक किनारे एक तख्तनुमा मेज पर रसोई बनाई गई थी। रसोई बेतरतीब थी और रहने वाले के अकेलेपन और बेसुधेपन की दास्तां कह रही थी। हम लोग इसी कमरे में बैठे थे। दूसरे कमरे का दरवाज़ा इसी कमरे से होकर जाता था। यानी दोनों कमरों को अलग करने के लिए बीच में एक दरवाज़ा था। उस कमरे में फालतू सामान के अलावा एक मंजा बिछा हुआ था और आधी-अधूरी-सी रोशनी देता एक बल्ब दीवार पर लगा हुआ था। मामा जी और उनके दोस्त आपस में बातें करते रहे और मैं उतनी देर बैठी उस घर में अपने लिए किसी सुरक्षित जगह की तलाश करती रही। अभी काम के सिलसिले में हमें न जाने कितने दिन यहाँ रहना था।

चाय पीने और मुंह-हाथ धो लेने के बाद मैं खाना बनाने की तैयारी करने लगी और मामा जी और मामा जी के मित्र मंजे के आगे छोटा-सा टेबल लगाए न जाने किस चीज़ की तैयारी में लगे थे। मामा जी के कहने पर मैंने दो गिलास वहाँ ले जाकर रख दिए और फिर शुरू हुआ उनका जश्न का दौर। उबले अण्डों पर मसाला डालकर खाने के लिए मुझे देकर वे दोनों शराब की बोतल खोलकर बैठ गए थे। मेरा उस जगह पर दम घुटने लगा था। माहौल बड़ा अजीब-सा हो गया था। लेकिन फिर भी मामा जी का साथ मुझे हिम्मत बंधाए हुए था। मैंने मन को समझाने की कोशिश की कि आखिर इतने दिनों बाद दोनों दोस्त मिले हैं। थोड़ी-सी मस्ती कर भी ली तो इसमें क्या बुराई है और वैसे भी घर पर तो मामा जी घर की परेशानियों में दिन-रात घिरे रहते हैं। यही सोचकर मैं अपने काम में लग गई और धीरे-धीरे खाना बनाती रही।

रात देर तक दोनों बातें करते रहे। खाना खाकर मामा जी के दोस्त ने दूसरे कमरे में मेरा बिस्तर ठीक कर दिया। यानी अब मैं अपने कमरे में जाकर आराम करने के लिए आज़ाद थी। मैंने राहत की सांस ली और बीच का दरवाज़ा धीरे से भीड़ लिया। कमरे में अंदर चिटखनी नहीं थी लेकिन फिर भी मैं सुरक्षित थी। मुझे नींद नहीं आ रही थी। लेकिन मंुंह पर चादर ताने मैं चुपचाप लेटी हुई थी। मैंने कमरे की बत्ती बुझा ली थी और एक अजनबी जगह पर अपने इस निजी कोने में राहत महसूस कर रही थी। उनके हंसने-बातें करने की आवाज़ें देर तक आतीं रहीं औार दरवाज़े के नीचे और बीच से आ रही उनके कमरे की रोशनी भी मेरे कमरे की दीवार और बिस्तर पर एक रेखा बनाती रही। सफ़र की थकान में न जाने कब मेरी आँख लग गई, पता ही नहीं चला।

देर रात मुझे अपनी चादर के ऊपर कुछ हलचल-सी महसूस हुईं। गहरी नींद में होने के कारण चादर को एक बार झटक कर मैं दीवार की ओर करवट बदल कर सो गई। अब वही रेंगती हुई-सी चीज़ मेरी पीठ पर थी और मेरे कपड़ों के भीतर नीचे की ओर बढ़ रही थी। मैं एकदम से डर गई। जैसे ही मैंने उसे झटकना चाहा कि मेरी सांस थम-सी गई। वह कोई कीड़ा नहीं था, बल्कि एक हाथ था। मैंने जैसे ही उठने की कोशिश की कि उस हाथ ने मुझे कंधे से पकड़ कर वापस नीचे की ओर धकेल दिया। कमरे में गहरा अँधेरा था और वह हाथ अब मेरे शरीर से खेलने की कोशिश कर रहा था। अपने को असहाय पा मैं एकदम से चिल्लाई। दूसरे कमरे में सोए मामा जी को मैं जगाना चाहती थी। लेकिन उसके हाथ की तेज़ पकड़ ने मेरा मुंह बंद कर दिया। चिल्ला पाना अब नामुमकिन था। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। मुंह से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। लेकिन घों-घों की कराह मेरे गले से ज़रूर निकल रही थी। उसका हाथ अब मेरे जिस्म से खेल रहा था। हाथ का कसाव मुंह पर इतना अधिक था कि मैं समझ ही नहीं पाई कि उसके कौन से हाथ को पहले रोकना ज़रूरी है। हो न हो, यह मामा जी का दोस्त ही है। मामा जी को इसीलिए इसने शराब पिलाई थी ताकि वे नशे में बेसुध सो जाएँ और यह अपने गंदे इरादे को अंजाम दे सके।

दूसरे कमरे में सन्नाटा था। अँधेरा पसरा हुआ था और उस अंधेरे को चीरती मेरे गले से निकलती घों-घों की आवाज़ लगातार जारी थी। मैं मंजे पर अपने हाथ-पैर पटक रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि किसी तरह मामा जी की नींद टूट जाए।

उस विकट परिस्थिति में अचानक मुझे महसूस हुआ इस कमरे में दो लोग हैं। दो लोग जो दिखे नहीं लेकिन दो लोगों की उपस्थिति वहाँ थी। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। उनमें एक ने तब अपने जबरदस्त हाथों से मेरे पैरों को कसकर पकड़ लिया था।

धीरे-धीरे मेरी आंखें अंधेरे की अभ्यस्त हुईं और फिर सब साफ हो गया। मैं यह जान कर चकित रह गई कि वह पहला पुरुष जिसके हाथ मेरे जिस्म से खेल रहे थे, वह कोई और नहीं मेरे मामा ही थे और वह दूसरा पुरुष जिसने अपने जबरदस्त हाथों से मेरे पैरों को पकड़ रखा था वह मामा के दोस्त थे।

दूसरे कमरे में शायद कोई छोटा बल्ब जल रहा था जिससे आ रही रोशनी दोनों की पीठ से टकराते हुए सीधे मेरे चेहरे पर आ रही थी। मेरे चेहरे की बेबसी को साफ देखा जा सकता था और उन दोनों के घिनौने चेहरे और उन पर फैली हैवानियत भी मेरी आंखें साफ देख पा रहीं थीं। ये वही मामा जी थे जिनके साथ मैंने पिछले कई साल गुज़ारे थे, जिनमें मैं अपने रक्षक की छवि देखने लगी थी, जिनके साथ मैं पंजाब से इतनी दूर दिल्ली चली आई थी और जिनके संरक्षण में ही मैं इस अजनबी इलाके और अजनबी घर में खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी। मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं और गले से घों-घों की लाचार कराह भी निकलनी बंद हो गई। मैं सन्न थी। अचानक जैसे जड़ हो गई थी मैं। अब मेरे मुंह पर कसकर पट्टी बाँध दी गई थी। ऐसे कि अब घों-घों की आवाज़ निकलना भी संभव नहीं था...और यूं भी अब उस आवाज़ के कोई मायने भी नहीं रह गए थे। रात के गहरे सन्नाटे में मेरी गहरी चुप्पी भी शामिल हो गई थी और दो हैवान मुझ पर सवारी कर रहे थे। हारने से पहले मैंने दोनों हाथों से दोनों पर भरपूर वार किया। दोनों के चेहरों का मांस मेरे नाखूनों में भर चुका था। वहाँ से खून रिसने लगा था। मेरे गाल पर ज़ोरदार तमाचा पड़ा और फिर मेरे दोनों हाथ-पैर बाँध दिए गए... । पिछली बार की तरह इस बार भी मैं थक गई थी, लेकिन बेहोश नहीं हो पाई थी। मेरी खुली आंखें मेरी देह पर दंगे की एक और त्रासदी देख रहीं थीं। दोनों ने एक-एक कर अपनी भूख शांत की। मेरी आंखों के सामने पुरुष के भीतर का जानवर खुलकर आ गया था।

मुझे फिर से पूरी तरह रौंदा जा चुका था और दोनों शैतानों के ठण्डे पड़ चुके शरीर ज़मीन पर पस्त पड़े थे।

उसके बाद मेरा क्या हुआ, मैं वहाँ से कहाँ और कैसे भागी, नाना-नानी का क्या हुआ, यह सब इस कहानी का हिस्सा नहीं है और बताना ज़रूरी भी नहीं है। 14 अप्रैल को वैसाखी के दिन सिमरन की शादी हुई या नहीं, मुझे नहीं मालूम, आज सिमरन कहाँ है-पंजाब में या कनाडा में, यह भी मुझे नहीं पता। 10 मार्च 1991 को पंजाब से चली मैं कभी वापस नहीं लौटी और सिमरन से मेरी मुलाकात भी फिर कभी नहीं हो पाई। उन दोनों हैवानों का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती, लेकिन मेरी बेबसी के सुबूत आज भी उनके चेहरों पर होंगे, यह पता हैं मुझे। तेरह से बीस साल की होत-होते मेरे शरीर ने कितना झेला, आप जान तो गए होंगे, लेकिन शायद महसूस न कर पाएँ। आप से कहने की भी कोई खास वजह नहीं, सिर्फ़ इसके कि मैं इस सच को किसी से कहना चाहती थी और मैं सुरक्षित भी हूँ क्योंकि आप कभी नहीं जान पाएंगे कि मैं कौन हूँ। हो सकता है मैं आपके पड़ोस के किसी घर में रहती हूँ और आपको पता तक न चल पाए।

मेरे सारे राज़ों की राज़दार एक सिमरन थी। लेकिन मेरी ज़िंदगी का यह राज़ वह नहीं जानती। अगर यह कहानी किसी तरह उसके हाथ लग जाए तो वह मुझे ज़रूर पहचान जाएगी और इस तरह उससे एक राज़ छिपा ले जाने का पाप भी मेरे माथे नहीं रहेगा।

1984 के दंगों में या ऐसे ही दंगों में कितने लोग मारे जाते हैं, सत्ता कि इस लड़ाई में कितनी जानें चली जाती हैं, लेकिन कितने खुशकिस्मत होते हैं वे, जो दंगे की इस वीभत्सता को केवल एक ही बार भोग पाते हैं। उन औरतों, उन लड़कियों की तरह नहीं, जो बार-बार, हर बार दंगे की इस त्रासदी, इस आतंक, इस पीड़ा को झेलती हैं। सच पूछा जाए तो स्त्री की देह की इस आहुति के लिए किसी दंगे की ज़रूरत नहीं। उसके लिए तो चैरासी कभी खत्म ही नहीं हुई।