अंधेरे में / निर्मल वर्मा
बीच की तीन पगडंडियों को पार करके बानो आती थी। आते ही पूछती थी, “कुछ पता चला?" मेरा मन झूठ बोलने के लिए मचल उठता। सोचता, कह दूँ — “हाँ, पता चल गया...हम दिल्ली जा रहे हैं।” लेकिन बानो झूठ ताड़ जाएगी, इसलिए आँखें मूंदे रहता।
बानो मेरे माथे पर हाथ रखती। जब उसका हाथ ठंडा लगता, मैं जान जाता कि अभी बुखार है, जब गरम लगता तो मन उल्लसित हो उठता आँखें खोलकर पूछता — “कैसा लगता है बानो?" और बानो निराशा-भरे स्वर में कहती, “अभी तो कम है, लेकिन शाम तक जरूर चढ़ जाएगा।” बानो समझती थी कि जब तक बुखार रहेगा, हम उसके संग शिमले में ही रहेंगे — बुखार उतरने लगता, तो उसे निराशा होती । जब कभी बानो की आहट मिल जाती, मैं जान-बूझकर पास रखे ठंडे पानी से अपना माथा रगड़ लेता। जब वह आती तो उसका हाथ अपने माथे पर रखकर पूछता, “देख तो बानो, कितना ठंडा है !” बानो गुमसुम-सी खिड़की के बाहर देखती रहती।
खिड़की के बाहर नीले जंगल हैं, ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हैं, पेड़ों के घने झुरमुट हैं। जब हवा का झोंका परदे को डुलाता हुआ भीतर आता है, दूर-दिगन्त की एक स्वप्निल-सी खुशबू कमरे में बिखर जाती है।
“इन पहाड़ों के पीछे दिल्ली है, है न बानो?" मैं पूछता हूँ। बानो ने चुपचाप सिर हिला दिया — उसे दिल्ली की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। कभी-कभी मुझे उस पर काफी तरस आता — उस बेचारी ने अब तक दिल्ली नहीं देखी थी। उसके अब्बा का दफ्तर बारहों महीने शिमले में रहता था।
मैं आज गई थी अपने घर,” बानो ने कहा। जिस 'अपने घर' का नाम सुनकर मैं सब कुछ भूल जाता था, आज उसके प्रति मेरे मन में कोई उत्सुकता नहीं जगी।
"मेरे अलूचे तुम ले लेना...बानो,” मैं आँखें मूंदे लेटा रहा। "तुम्हारे गले-सड़े अलूचे कौन खाएगा, जब दिल्ली जाओगे, अपनी पोटली में बाँधकर ले जाना।” बानो खीजकर बाहर बरामदे में भाग गई।
मुझे गुस्सा लगा। लेकिन बीमारी में गुस्सा भी टूटा-टूटा आता है, कोई भी भाव अन्त तक नहीं पहुँच पाता, बीच रास्ते में ही सूख जाता है। जब रोने को जी करता है, तो रोना नहीं आता, आँखें ही बिफरी-सी रह जाती हैं । जब खुशी होती है, तो दिल तेज़ी से नहीं धड़कता, केवल होंठ काँपकर रह जाते हैं।
इन दिनों मेरे कमरे में आने से पहले बानो की तलाशी ली जाती थी कि कहीं वह खट्टे अलूचे और कच्ची खूबानियाँ लुक-छिपकर भीतर न ले आए। उसके दुपट्टे के सिरे में नमक-मिर्च की पुड़िया बँधी रहती बीमारी से पहले अलूचों को उनमें भिगोकर हम चटनी बनाया करते थे।
बानो ने जिसे अभी ‘अपने घर' कहा था, वह पड़ोस में एक भुतहा मकान था, जो बारहों महीने खाली-उजाड़ पड़ा रहता था। कहते थे, वहाँ एक मेम ने अपने हाथों से अपने को जान से मार लिया था। उस मकान का एक कमरा गुसलखाने में खुलता था। वहीं मैं और बानो अपनी कच्ची-पक्की खूबानियों और अलूचों का खज़ाना छिपाकर रखते थे। यह एक गुप्त व्यापार था, जिसकी खबर अभी तक किसी तीसरे व्यक्ति के कान में नहीं पड़ी थी।
बानो बाहर बरामदे में देर तक झूला झूलती रही । जब वह झोंटा लेकर झूला ऊपर लाती है, उसकी शलवार गुब्बारे-सी फूल जाती है। झूले को ऊपर-नीचे घूमता देखते हुए मेरी आँखें झपकने लगीं। कब आँख लग गई, याद नहीं आता। सपना आया था। दुपहर को सोते हुए जो सपना आता है, वह मुझे हमेशा याद रहता है। दफ्तर से बाबू का टिफिन लेने के लिए चपरासी आया है। उसने हँसते हुए बताया है कि हम दिल्ली जा रहे हैं। भुतहा मकान के कमरे की खिड़की से बानो मेरे अलूचों को बाहर फेंक रही है और दूर पहाड़ियों में कालका-शिमला की रेल में वही मेम बैठी है, जिसने आत्महत्या की थी। बानो जो अलूचे बाहर फेंकती है, रेल के डिब्बे से वही मेम खिड़की से हाथ बाहर निकालकर उन्हें पकड़ती जा रही है।
जब मेरी आँख खुली तो बानो कब की जा चुकी थी।
शाम को माँ चाय लेकर आई, तो मैंने पूछा — “चपरासी आया था?" माँ ने हैरान होकर कहा — “हाँ आया था, क्यों?" "कुछ कहता था?” मैंने पूछा। माँ ने कहा, “नहीं क्यों, क्या बात है?” मैं कुछ नहीं बोला, और तकिये के सहारे अधलेटा-सा चाय पीने लगा।
माँ ने थर्मामीटर लगाकर देखा, फिर झटक दिया। पहले मैं अपना बुखार पूछ लिया करता था, किन्तु जब देखा कि माँ झूठ बताती है, तो पूछना छोड़कर केवल उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश किया करता था। कभी-कभी माँ मेरे गम्भीर चेहरे को देखकर कहतीं — 'जल्दी ठीक हो जाओ, फिर दिल्ली चलेंगे।' वह इस निश्छल, हल्के ढंग से कहती, मानो ठीक होना मेरे बस की बात है, जैसे मैं जान-बूझकर ज़िद किए हुए बीमार पड़ा हूँ और वह मुझे ठीक होने के लिए फुसला-मना रही है। इससे मुझे गुस्सा आता और मैं करवट बदलकर खिड़की की ओर मुँह मोड़ लेता। किन्तु उन्हें काफी देर तक पता नहीं चलता कि मैं गुस्सा किए हुए हूँ। मैं अपने पाँव ऐंठ लेता, दोनों हाथों की मुट्ठियाँ बन्द कर लेता और दाँतों को भींचता हुआ ज़ोर-ज़ोर से साँस लेने लगता । माँ, जो खिड़की से बाहर देख रही होतीं, एकदम घबरा उठतीं । मेरे चेहरे को देखतीं, फिर एक ठंडी साँस लेकर मेरे सिरहाने बैठ जातीं। न जाने मैं कैसे जान लेता कि वह मेरे अभिनय को भाँप गई हैं। किन्तु ऊपर से वह कुछ नहीं जतलाती...धीरे से अलमारी से कैडबरी चॉकलेट निकालकर तेरे तकिये के नीचे रख देतीं । “बाबू को मत बताना," उन्होंने मेरे बालों को अपनी अंगुलियों से सहलाते हुए कहा । दूसरे क्षण वह मुझे भूल गईं। उनकी अंगुलियों के अनिश्चित, अर्ध-सोए स्पर्श से मुझे पता चल जाता कि वह स्वयं मुझसे कोसों दूर खो गई हैं। चॉकलेट जो मुझे दी है, वह मुझे रिझाने नहीं, बल्कि मुझसे छुटकारा पाने के लिए, जिससे वह बिना किसी विघ्न-बाधा के अपने में सिमटी रह सकें। ऐसे क्षणों में मैं चुपचाप उनकी ओर देखता रहता। वह नहीं जानतीं कि मैं उनकी ओर देख रहा हूँ। उनके चेहरे के बल ढीले पड़ जाते, सब उतार-चढ़ाव मिट जाते और एक शून्य-सी समतलता बिछ जाती। मुझे लगता जैसे उनकी आँखों में सूखी तपिश की गरमाई-सी फैल गई है, किन्तु दूसरे क्षण ही भ्रम होता है कि उनमें धुंधला-सा गीलापन है जो चमक रहा है। मुझे अक्सर यह खुशफहमी होती कि वह मेरी बीमारी के सम्बन्ध में सोच रही हैं हालाँकि भीतर-ही-भीतर मुझे मालूम था कि ऐसे क्षणों में उनके खयालों से मेरा दूर का भी वास्ता नहीं है।
तब मैंने धीरे से उनके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। वह एकदम हड़बड़ाकर चौंक गईं। मुझे लगा, जैसे मैं उन्हें ज़बर्दस्ती कहीं बहुत दूर से खींच लाया हूँ। वह मुझे कुछ देर तक घूरती रहीं। फिर अचानक मेरे होंठों को चूम लिया। मैंने कमीज़ की बाँह से अपने होंठों को पोंछा, वह मुस्कराने लगीं।
“बच्ची...एक बात पूछु?"
"क्या?"
“अगर मैं कहीं चली जाऊँ, तो क्या तुम मुझे समझोगे?"
माँ अपलक, एकटक मुझे देख रही हैं।
"क्या मैं भी तुम्हारे संग चलूँगा ?"
"न।”-- उन्होंने सिर हिलाया।
"बाबू के संग जाओगी ?"
"न।"
"फिर..?”
मैं विस्मित-सा उनकी ओर देखता रहा। वह हँसने लगीं और संग पलंग पर लेट गईं।
मैंने अपने गाल उनके गालों से सटा लिये। माँ बहुत खूबसूरत हैं। घर में सब उनसे डरते हैं; मुझे कभी-कभी काफी आश्चर्य होता है कि उनमें कौन-सी ऐसी बात है जो सबको आतंकित किए रहती है। वैसे डर मुझे भी लगता है उनकी आँखों से, जब वह मेरे पास बैठकर मुझे देखती हैं।
मैं बहुत दिन पहले बाबू के संग उनके एक मित्र के घर गया था। वापस आते हुए हमें पहाड़ी नाले के संग-संग ऊपर चढ़ना पड़ा था। ऊपर आकर हम पेड़ों के घने अँधेरे झुरमुट के बीच कुछ देर के लिए सुस्ताने खड़े हो गए थे। मैं उस जगह की वीरान चुप्पी से डर गया था।
आज जब कभी मैं माँ की आँखों को देखता हूँ तो न जाने क्यों मुझे उस रात जंगल के झुरमुट का घना-घना-सा अँधेरा याद आ जाता है।
संगमरमर-सी चिकनी सफेद उनकी बाँहें हैं, जिन्हें मैं शरमाते-शरमाते छूता हूँ। वह अपने बालों को बहुत कसकर बाँधती हैं, इसलिए उनका माथा इतना चौड़ा दिखाई देता है। बालों के बीचों-बीच सीधी माँग है जिसे देखकर अक्सर मैं उदास हो जाता हूँ । उनके कान बहुत छोटे-छोटे हैं, गुड़िया के कानों से जिन्हें वे अपने बालों के भीतर छिपाए रखती हैं। जब कभी वे मुझसे सटकर लेटती हैं, तो मैं उनके कानों को बालों के भीतर से निकाल लेता हूँ। मुझे बानो की बात याद आती है और मेरे सारे शरीर में एक हल्की-सी झुरझुरी फैलने लगती है। “जिनके कान छोटे होते हैं,” बानो ने एक दिन कहा था, “वे लोग बहुत जल्दी मर जाते हैं।” मैंने यह बात माँ को नहीं बताई है, सोचता हूँ, जब वह मरने लगेंगी तो कह दूँगा कि वह अपने छोटे-छोटे कानों की वजह से ही मर रही हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि उन्हें मेरी बीमारी की विशेष चिन्ता नहीं है। मुझे लगता है कि वह यह भी भूल जाती हैं कि मैं बीमार हूँ। एक दिन जब मैंने केक खाने की इच्छा प्रकट की, तो उन्होंने बुआ अथवा बाबा की तरह मेरी नाजायज़ माँग का कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप आलमारी से केक का एक टुकड़ा तश्तरी में रखकर मेरे सामने धर दिया और खुद आँखें मूंदकर कुर्सी पर लेटी रहीं। मुझे कुछ बुरा लगा और केक खाने की मेरी इच्छा उसी क्षण मर गई । मुझे भय था कि कुछ भी खा लेने से बीमारी लम्बी हो जाएगी, और तब दिल्ली जाने का दिन और भी टल जाएगा।
मुझे मालूम है — माँ दिल्ली नहीं जाना चाहतीं। इसका कारण मुझे आज भी समझ में नहीं आता, किन्तु एक बार उन्होंने यह बात बीरेन चाचा से कही थी।
कभी-कभी चोरी-चुपके से मैं माँ के कमरे में जाता हूँ। पिछले कुछ महीनों से माँ और बाबू अलग-अलग, अपने-अपने कमरे में सोते हैं। पहले मुझे यह बात कुछ अजीब-सी लगी थी — किन्तु कुछ चीजें हैं, जिन्हें मैं किसी से नहीं पूछता। मन का एक कोना है, जिसमें सबकी आँखों से छिपाकर उन्हें दबा देता हूँ।
माँ का कमरा छज्जे के अन्तिम सिरे पर है। मुझे अपने कमरे से उनके कमरे की दो खिड़कियाँ दिखाई देती हैं — खिड़कियों के बीच दीवार का छोटा-सा टुकड़ा है, जिस पर पत्तों की जालीदार छाया हर शाम सिमट आती है। कभी-कभी खिड़की का नीला परदा उड़कर दीवार से चिपक जाता है, तब पत्तों की जाली दीवार से उठकर परदे पर मँडराने लगती है। खुली खिड़की से माँ का सिर दिखाई देता है। जब वह सिर ज़रा ऊपर उठाती हैं, तो धूप में उनका जूड़ा सुनहरा-सा होकर चमक उठता है। मैं समझ जाता हूँ, माँ खिड़की के पास कुर्सी पर बैठी पढ़ रही हैं।
मैं कई बार माँ के कमरे में गया हूँ सोफे पर, उनके पलंग पर, तकिये के पास, पलंग के नीचे किताबें बिखरी रहती हैं। माँ को शायद बहुत कम नींद आती है — रात को अनेक बार मैंने उनके कमरे में बत्ती का प्रकाश देखा है। सोचता हूँ, वह इन्हीं किताबों को पढ़ती रहती होंगी।
एक बार मैंने कोई किताब खोली थी, उस पर छोटे-छोटे, टेढ़े-नीले अक्षरों में बीरेन चाचा का नाम लिखा था — मैं मन्त्र-मुग्ध-सा उन अक्षरों में खो गया था। बाद में वह नाम मैंने माँ के कमरे में रखी अनेक किताबों पर देखा था।
मुझे बीरेन चाचा की छोटी-सी कॉटेज याद आती है, जहाँ एक दिन मैं माँ के संग गया था। एक बड़े कमरे में छत तक किताबें चुनी रखी थीं। हर शेल्फ के नीचे छोटी-छोटी सीढ़ियाँ खड़ी थीं, जिन पर चढ़कर किताबों को उतारना पड़ता था। दूसरे कमरे में टेढ़ी-मेढ़ी बेडौल शक्लों के अजीब-से चित्र टँगे थे, जिन्हें देखकर मैं स्तम्भित-सा खड़ा रह गया था। बाबू बताते हैं कि लड़ाई से पहले बीरेन चाचा ने इन चित्रों को यूरोप में खरीदा था। मुझे बीरेन चाचा पर कभी अचम्भा होता, कभी दया आती — वह बारहों महीने सर्दी, गर्मी में इस निर्जन, अकेले मकान में कैसे रह पाते होंगे?
बाबू के मित्रों में शायद बीरेन चाचा का स्थान सबसे अलग है। बाबू केवल उनके संग मेरे कमरे में चाय पीते हैं उनके अन्य मित्र बाहर बैठक में बैठते हैं। जब वह आते हैं, उस शाम मुझे जल्दी सोने के लिए मजबूर नहीं किया जाता — देर तक मेरे कमरे में ही बातचीत होती है। मेरे लिए ये रातें बहुत सुखद होती हैं।
एक शाम बीरेन चाचा जब हमारे घर आए, तो उनकी वेश-भूषा देखकर उन्हें एकदम नहीं पहचान सका । घुटनों तक लम्बे बूट, एक कन्धे पर खाकी थैला, दूसरे पर कैमरा और सिर पर सोला हैट — इस पोशाक में उनकी छोटी-सी दाढ़ी बड़ी बेमेल और कृत्रिम-सी लग रही थी। पैंट की दोनों जेबों में किताबें ठूस रखी थीं।
वह मेरे पलंग के पास आए और मुझ से हाथ मिलाया। वह मुझ से ऐसे पेश आते हैं — जैसे मैं बीमार हूँ ही नहीं और न कभी मेरी तबीयत ही पूछते हैं।
माँ पास की कुर्सी पर बैठी बुन रही थीं — एक बार उन्होंने बीरेन चाचा को देखा और फिर सिर झुका लिया।
उन्होंने बताया कि वह एक रात के लिए कुफ्री जा रहे हैं, रेस्ट हाउस में ही ठहरेंगे और अगले दिन शाम तक वापस लौट आएँगे।
“कहते हैं रेस्ट हाउस का चौकीदार बड़ा काबिल आदमी है। वह पिछले तीन साल से कुफ्री में रह रहा है उससे शायद कुफ्री के बारे में बहुत-सी बातें मालूम होंगी ।” वीरेन चाचा ने कहा।
माँ के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान सिमट आई, मानो उनकी आँखों में बीरेन चाचा की बात रत्ती-भर मूल्य नहीं रखती।
"इस तरह के इंटरव्यू तुम कितने बरसों से ले रहे हो ।” माँ ने आँखें झुकाए, बुनते हुए कहा।
“ओह, तुम्हें विश्वास नहीं होता लेकिन तुम्हें मेरे नोट्स देखने चाहिए।” बीरेन चाचा की नीली आँखें चमक उठीं। वह जब कभी अपनी किताब 'शिमला का इतिहास' का ज़िक्र छेड़ते हैं, माँ ऐसे ही हँसती हैं।
"कभी-कभी इस किताब के सिलसिले में खोज करते हुए अजीब चीजें मिल जाती हैं।”
“कैसी चीजें, बीरेन चाचा?” मैं बीरेन चाचा की किताब के बारे में काफी उत्सुकता दिखलाता हूँ। मुझे मालूम है, इससे उन्हें काफी प्रसन्नता होती है।
“एक बहुत पुरानी फोटो मिली थी — किसी अंग्रेज़ ने ली होगी।"
“क्या था फोटो में?” एक बार माँ की आँखें सलाइयों से ऊपर उठ जाती हैं।
"रेस-कोर्स की भीड़ दिखाई गई है...बहुत-से लोग भीड़ में खो गए हैं, लेकिन एक अंग्रेज़ लड़की का चेहरा बिल्कुल साफ दिखता है — वह पवेलियन के पास छाता लिये खड़ी है जबकि और सब लोगों की आँखें भागते हुए घोड़ों पर जमी हैं, वह गहरी उत्सुक आँखों से पीछे की ओर देख रही है उसका इस तरह पीछे मुड़कर देखना मुझे काफी अजीब-सा लगा।” ।
बीरेन चाचा अचानक चुप हो गए — माँ के हाथों में सलाइयाँ चलती-चलती ठहर गईं।
“फोटो के नीचे लिखा था- 'ऐननडेल, शिमला, 1903'...पचास साल गुज़र गए और वह वैसे ही छाता लिये पीछे मुड़कर देख रही है...।"
बीरेन चाचा धीरे से हँसने लगे, मानो उन्हें अपनी बात काफी बेतुकी-सी जान पड़ी है। माँ गुमसुम-सी उनकी ओर देख रही हैं और मुझे आश्चर्य होता है कि बीरेन चाचा कभी-कभी इस प्रकार की अर्थहीन-सी बातें क्यों करते हैं।
“कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि लोगों की अपेक्षा शहरों की कहानी लिखना बहुत कठिन है मेरे पास शिमला के बारे में इतने पुराने फोटो, नोट्स, किताबें, टूरिस्टों के यात्रा-लेख जमा हैं, किन्तु मुझे लगता है कि मैं किताब कभी नहीं लिख पाऊँगा।"
"क्यों?" माँ ने पूछा।
"शहर...हर शहर — अपने में हमेशा इतना चुप जो रहता है।” बीरेन चाचा उठ खड़े हुए धीरे से उन्होंने मेरा माथा छुआ।
"रास्ते में डॉक्टर मिले थे, कहते थे दो-चार दिनों में तुम घूमने-फिरने लगोगे," उन्होंने तनिक झुककर मुझसे कहा।
“ज़रा बैठ जाओ देखूँ, तुम्हारा फोटो कैसा आता है?" उन्होंने अपने कन्धे से कैमरा उतार लिया। मेरा फोटो लेने के बाद वह अपनी छड़ी उठाकर जाने लगे।
“कब वापस लौटोगे!” माँ ने पहली बार सीधे उनकी ओर देखा।
"शायद कल शाम तक — कुछ देर के लिए आऊँगा,” बीरेन चाचा जब माँ की ओर देखते हैं, तो उनकी आँखें चौंधिया-सी जाती हैं और वह अपना मुँह दूसरी ओर मोड़ लेते हैं।
"बीरेन चाचा...” मैं बुरी तरह शरमा रहा हूँ।
"क्या बच्ची?" उन्होंने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।
“एक फोटो मैं खीचूँगा।”
बीरेन चाचा ने मुस्कराकर कैमरा मेरे हाथों में थमा दिया।
माँ की ओर देखता हूँ...”
"नहीं बच्ची, मेरी नहीं...” माँ एकदम झुंझला-सी उठती हैं।
"सिर्फ तुम नहीं...बीरेन चाचा भी रहेंगे।” मैंने कहा । बीरेन चाचा का चेहरा क्षण-भर के लिए म्लान-सा हो उठा — वह माँ की ओर देखते हैं। माँ ने इस बार विरोध नहीं किया, वह कुर्सी से उठ खड़ी हुईं — 'बच्ची, तुम बहुत ज़िद्दी हो”--उन्होंने कहा।
"बीरेन चाचा, तुम जंगले के पास खड़े हो जाओ, वहाँ धूप आ रही है, और माँ, तुम इधर दाईं तरफ,” मैं पलंग से उतरकर दीवार के सहारे खड़ा हो गया हूँ। मेरा सिर चकरा रहा है, लेकिन फोटो ठीक आता है। आज भी वह फोटो मेरे पास है...
कमरे में शाम का धुंधलका कब चुपके से घिर आया, पता नहीं चला। बीरेन चाचा बहुत पहले जा चुके थे। माँ मेरे पलंग के पास कुर्सी पर बैठी हैं जब से बीरेन चाचा गए हैं, तब से वह वैसे ही चुपचाप बिना हिले-डुले उस कुर्सी पर अधलेटी-सी पड़ी हैं। मैं बत्ती नहीं जलाता, मुझे कमरे में अँधेरे का धीरे-धीरे आना अच्छा लगता है।
मेरी आँखों के सामने बहुत दिन पहले की एक शाम घूम जाती है — तब मैं बीमार नहीं पड़ा था। माँ उस समय मुझे बीरेन चाचा के घर ले गई थीं।
हमें देखकर बीरेन चाचा हैरान-से हो गए थे। फाटक खोलकर वह माँ के सामने ठिठक गए।
“पोनो तुम...” एक क्षण के लिए वह खोए से खड़े रहे। पहली बार उन्होंने मेरे सामने माँ को उनके नाम से पुकारा था। उनके मुँह से माँ का नाम सुनकर मुझे बहुत अजीब-सा लगा था। माँ हँसने लगी और न जाने क्यों मुझे माँ की वह हँसी अच्छी नहीं लगी — एक घुटा-घुटा-सा डर मेरे मन में समा गया।
“यूँ ही सैर को निकले थे, सोचा तुमसे मिलते चलें ।” माँ ने कहा । पहली बार मैंने माँ को झूठ बोलते देखा था।
बीरेन चाचा की नीली आँखों में हल्का-सा विस्मय घिर आया। उन्होंने मेरी अंगुली पकड़ी और चुपचाप कॉटेज के भीतर चले आए।
वहीं मैंने पहली बार उनकी लायब्रेरी देखी थी। उन्होंने मुझे अपनी एल्बमों में शिमले की पहाड़ियों, घाटियों और झरनों के फोटो दिखलाए, जो उन्होंने अपनी किताब के लिए जमा किए थे। मेज़ पर ढेर-सी किताबों के पास हल्के रंग के शेड से ढका टेबल-लैम्प जल रहा था। उन्होंने जब दो चॉकलेटें मुझे दी, तो मैं कुछ हैरान-सा हो गया। उन्होंने हँसते हुए कहा — “मेरे पास बहुत-सी रखी हैं, बर्फ के दिनों में बाहर जाना नहीं होता, इसलिए जमा कर रखता हूँ।” मैं क्षण-भर उन्हें देखता रह जाता हूँ। बीरेन चाचा बाबू से कितने अलग हैं उनमें वह तनाव, बोझिल गम्भीरता अथवा भारीपन नहीं है, जो मैं बाबू में देखता हूँ। हर चीज़ पर उनका स्पर्श एक स्निग्ध कोमलता लिये रहता है। उनकी छोटी-सी दाढ़ी के ऊपर जो आँखें हैं, उन्हें देखकर मुझे हमेशा लगता है, जैसे वह धीमे-धीमे कुछ कह रही हों, मानो जिस वस्तु पर वे टिक जाएँगी, वह अपने-आप सँवर-निखर जाएगी।
"तुमने कभी बहुत पास से किसी पहाड़ी की चोटी पर बर्फ देखी है ?" उन्होंने मुझसे पूछा। मैंने सिर हिला दिया।
“वहाँ से बर्फ का रंग बिल्कुल नीला दीखता है। मैंने एक कलर्ड फोटो लिया है..." वह उस फोटो को लाने के लिए दूसरे कमरे में चले गए। मैं मेज़ पर रखे एल्बमों को उलटने-पलटने लगा। हर फोटो में शिमले का कोई-न-कोई दृश्य था : ग्लैन, जाखू, चैटविक फॉल । मैंने इन सब स्थानों को आसानी से पहचान लिया। कुछ देर बाद जब बीरेन चाचा नहीं आए, तो मैं ऊब गया। पास ही किताबों के शेल्फ पर छोटा-सा एल्बम कोने में रखा था, मैंने उसे खोला और खोलते ही एक क्षण के लिए मुझे लगा...यह चेहरा मैंने कहीं देखा है, किन्तु दूसरे ही क्षण मेरी आंखें स्तब्ध-सी थिर हो गईं। फोटो मां का था।
क्या मां कभी ऐसी थीं? मेरे भीतर कहीं एक गहरा-सा सांस उखड़ आया। वही चौड़ा-सा माथा, किन्तु उसपर छोटी-सी बिन्दी लगी थी, जो मां अब नहीं लगातीं, दोनों चोटियां कन्धे के नीचे लटक रही थीं, पूरे स्लीव का स्वेटर पहन रखा था और बालों के भीतर वही छोटे-छोटे कान छिपे थे। सहसा मुझे आभास हुआ कि इस चेहरे में कुछ ऐसा है, जिसका मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं, बाबू से कोई सम्बन्ध नहीं।
फोटो माँ का था, लेकिन उसमें माँ कहाँ थीं?
अचानक मुझे बीरेन चाचा के पैरों की आहट सुनाई दी। न जाने मेरे भीतर क्या चोर छिपा था कि मैंने झटपट वह एल्बम किताबों में छिपा दिया।
जब हम वापस लॉन में आए तो हल्का, फीका-फीका-सा अँधेरा छाने लगा था। माँ शाल में दुबकी हुई पत्थर की बेंच पर बैठी थीं।
“इतनी देर कहाँ लगा दी?" उन्होंने मुझे खींचकर अपने से सटा लिया। बीरेन चाचा माँ के पैरों के निकट घास पर बैठ गए। मेरी आँखें माँ के चेहरे पर टिकी रहीं, मानो मैं कुछ खोज रहा हूँ। माँ की आँखें, मुँह, माथा हर चीज़ अलग-अलग देखो तो वैसी ही थीं, किन्तु आपस में मिलकर जो भाव बनता था, वह उस चेहरे से बिल्कुल अलग था, जो मैंने अभी कुछ देर पहले बीरेन चाचा के एल्बम में देखा था।
जो अन्तर है — उसे समझ नहीं सकता, उस पर अँगुली नहीं रख पाता...वह कैसा भाव था जो किसी लम्बी दूरी को हमारे पास ले आता है, लेकिन अपने को दूर ही रहने देता है।
“बच्ची, क्या बात है...?” माँ मेरे बालों को धीरे-धीरे अपनी अंगुलियों में उलझाने लगीं।
मैंने सिटपिटाकर मुँह फेर लिया।
माँ ने आगे कुछ नहीं पूछा। हम तीनों इसी तरह अपने-अपने में सिमटे चुपचाप बैठे रहे। जब से हम आए थे, बीरेन चाचा ने माँ से कोई बात नहीं की थी। मुझे शुरूशुरू में कुछ आश्चर्य-सा हुआ था, किन्तु मैंने उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया।
लॉन पर नीला-नीला-सा अँधेरा घिर आया। दूर पहाड़ियों के बीच छोटे-छोटे जुगनुओं-सी बत्तियाँ बिखरी थीं — और अँधेरे में पहाड़ियों के छिप जाने से लगता था कि आकाश बहुत नीचे सरक आया है, कभी-कभी तो पता भी नहीं चलता कि तारों और बत्तियों में कौन-सी बत्तियाँ और कौन-से तारे हैं।
बीमारी के दिनों में मुझे अक्सर यह शाम याद आ जाती है — हालाँकि उस शाम कोई भी ऐसी बात नहीं हुई थी, जिसे याद रखा जाता । जब हम वापस लौटने लगे, तो बीरेन चाचा कुछ दूर हमारे संग आए थे। माँ के कहने पर कि हम खुद चले जाएँगे, वापस मुड़ गए थे। मैं और माँ कुछ दूर ऊपर की सड़क पर चुपचाप चढ़ते रहे । मैं तेज़ कदमों से माँ के आगे-आगे चल रहा था। कुछ दूर चलने के बाद सहसा मेरे पाँव ठिठक गए। मुझे लगा, माँ मेरे पीछे नहीं आ रही है। मैं वापस मुड़कर पीछे की ओर चलने लगा। अँधेरे में मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था।
कुछ दूर नीचे उतरकर अचानक मेरे पाँव रुक गए — मैं अँधेरे में आँखें फाड़ता हुआ हत-बुद्धि-सा खड़ा रहा। माँ सड़क के मोड़ पर खड़ी थीं, किनारे पर लगी तार पर झुकी हुईं उनकी साड़ी का आँचल हवा से उड़कर कन्धे पर आ गिरा था...अपने में बिल्कुल खोई-सी वह अपलक नीचे देख रही थीं...
उतराई के नीचे थी — वीरेन चाचा की काटेज, जो शाम के धुंधलके में बिल्कुल सूनी और निर्जन दिखाई दे रही थी। लायब्रेरी की खिड़की से आती हुई मद्धिम-सी प्रकाश-रेखा में लॉन की घास झिलमिला रही थी।
कुछ देर तक शाम के झुटपुटे में हम बिल्कुल खामोश खड़े रहे, फिर माँ अचानक आगे मुड़कर चलने लगीं उनकी चाल इतनी धीमी थी कि एक क्षण मुझे लगा, मानो वह सोते हुए चल रही हों।
वह मेरे पास आ गईं — आँखें ऊपर उठाकर एक लम्बे क्षण तक अपनी आकुल, विवश निगाहों से मुझे निहारती रहीं, फिर झपटकर उन्होंने मुझे अपने पास घसीट लिया और बार-बार अपने ठंडे, सूखे होंठों से मुझे चूमने लगीं।
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कुछ दिनों बाद एक सुबह मुझे अपने मुँह का स्वाद अच्छा-सा लगा। अंगों में एक हल्की-सी स्फूर्ति का आभास हुआ। पहले मैं धूप से बचने के लिए खिड़की बन्द किए रहता था, अँधेरे कमरे में आँखें मूंदकर लेटना भला लगता था। अब मैंने खिड़की खोलकर परदों को उठा दिया। बाहर की गर्म, ऊनी धूप मेरे पलंग को चारों ओर से घेर लेती है। मैं बिस्तर से उतरकर मेज़ के सहारे खड़ा हो जाता हूँ। सिर पहले की तरह नहीं चकराता, मैं पायदान की ओर कदम बढ़ाता हूँ और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने ज़िन्दगी में पहली बार अपने-आप चलना सीखा हो।
मैं चुपके से बाहर बरामदे में आ जाता हूँ। कुछ दूर पर बुआ गीली धोती काठ के जंगले पर सुखा रही हैं — मैं उनकी आँख बचाकर बाबू के कमरे के पीछे वाले छज्जे पर चला जाता हूँ। कमरे के दरवाज़े और खिड़कियाँ बन्द हैं, भीतर के लाल परदे नीचे गिरे हुए हैं। जब माँ मौसी के घर चली जाती हैं, तो बाबू उस कमरे को बन्द कर देते हैं। अपनी सारी चीज़े ऊपर छत पर 'स्टडी' में ले जाते हैं और रात को वहीं सोते हैं।
छज्जा निपट सूना है! नीचे ‘आउट-हाउस' के क्वार्टरों की छतों के चौड़े नीले टिन के पटरों पर बड़ियाँ चमक रही हैं, जो पहाड़ी खानसामा की औरत हीरा ने सुखाने रख छोड़ी हैं। सामने मदरसे के छोटे-से मैदान में लड़के बस्ता घुमाते हुए चार-चार की पाँत में खड़े नकियाते, अलसाए स्वर में प्रार्थना कर रहे हैं — "लब पे आई है दुआ, बन के तमन्ना तेरी।"
उनकी तीखी-रूखी आवाज़ को सुनकर जब मैं ऊब जाता हूँ तो मेरी आँखें खड़ के ऊपर मेम के उस रहस्यमय बंगले पर टिक जाती हैं, जहाँ हम कच्चे अलूचे छिपाकर रखते थे। उससे ज़रा दूर पेड़ों और झाड़ियों से घिरी हुई एक पगडंडी साँप की तरह बल खाती हुई बानो के मकान के ऊबड़-खाबड़ अहाते में जाकर गुम हो गई है। मैं अपने कमरे से बाबू की पुरानी छड़ी ले आया हूँ जिसके सिरे पर मैंने माँ की लाल साड़ी का चीथड़ा बाँध रखा है। मैं जंगले से बाहर गर्दन निकालकर छड़ी को हवा में दाएँ-बाएँ घुमाता हूँ — लाल रेशम की झण्डी हवा में फरफराती है। बानो ने मेरी लाल झण्डी को देख लिया है — उसने हाथ उठाकर कुछ कहा है, जिसे मैं कुछ भी सुन-समझ नहीं पाता। यह मेरा और बानो का पुराना और प्रिय खेल है। हमारे और उसके मकान के बीच ढलान पर कई कोठियाँ और दुकानें हैं, किन्तु ऊँचाई पर होने के कारण हम एक-दूसरे को छज्जे से देख पाते हैं हालाँकि हम चाहे कितना भी चिल्लाकर क्यों न बोलें, एक-दूसरे की बात नहीं सुन पाते । इसीलिए इशारों से बात करने के लिए मैं बाबू की छड़ी से सिगनल का उपयोग करता हूँ।
बानो अपनी अम्मी को भीतर से बरामदे में खींच लाई है — अम्मी ने हाथ उठाकर मुझे बुलाया है। अम्मी मुझे इतनी दूर से नहीं देख पाती, फिर भी मैं शरमा जाता हूँ और छड़ी को बरामदे में फेंककर अपने कमरे में भाग आता हूँ।
कमरे की देहरी पर सहसा मेरे पाँव ठिठक गए — बाबू का स्वर सुनाई दिया । नौकर ने आकर बताया कि बाबू अपने कमरे में मुझे बुलाते हैं।
मेरे दिल में खुशी की लहर-सी दौड़ गई। ऐसा बहुत कम होता है कि बाबू मुझे अपने कमरे में बुलाकर मुझसे बातें करें — अक्सर वह हालचाल पूछने मेरे कमरे में ही आ जाते हैं। मैं झटपट अपने नाखून दाँतों से काट लेता हूँ क्योंकि बाबू हमेशा सबसे पहले मेरे दोनों हाथों को देखते हैं। आँखों को गीले तौलिये से पोंछ लेता हूँ और हाथों को मुँह पर रखकर फूंक मारता हूँ और फिर उन्हें सूंघता हूँ — यह देखने के लिए कि मुँह साफ है या नहीं। फिर शीशे में मुँह देखकर कंघी करता हूँ (माँ के न होने से पिछले कुछ दिनों से मुझे ये सब काम खुद करने पड़ते हैं) और जब कन्धे से अपने बालों को झरता हुआ देखता हूँ तो न जाने क्यों मुझे अपने ऊपर गहरी-सी दया आने लगती है, और मेरी आँखों में आँसू, भर आते हैं।
ड्राइंग रूम (जिसे उन दिनों हम हॉल कहते थे क्योंकि वह हमारे घर का सबसे बड़ा कमरा था) के कालीन पर पैरों की आहट नहीं होती, फिर भी मैं बहुत हौले-हौले दबे पाँवों से बाबू के कमरे की ओर जाता हूँ। सुबह मैं ठीक था, किन्तु अब सिर चकराता है, मानो कनपटियों से धुएँ की दो लकीरें ऊपर उठती हुई सिर के बीचों-बीच मिलने की चेष्टा कर रही हों और बीच में रूई का एक घुटा-घुटा-सा बादल इन दोनों के बीच में आकर अड़ गया हो।
मैं उनके कमरे की देहरी पर खड़ा हूँ परदों के रिंग हाथ लगाने से धीरे-धीरे बजते हैं। वह बिना मेरी ओर देखे मुझे भीतर बुलाते हैं। मैं और आगे खिसक आता हूँ। बाबू के कमरे को पहचानना कितना आसान है — सिगार के धुएँ की गर्म-गर्म-सी गन्ध, चारों ओर फैली गहरी, बोझिल-सी चुप्पी, एक अजीब धुंधली-सी रोशनी, जो दिन और रात दोनों समय एक-सी रहती है। और एक खट्टी और भीनी-सी बू, जो मेरी दवा की बू से मिलती हुई भी कहीं दूर जाकर उससे अलग हो जाती है। उसके बारे में मैं कभी तय नहीं कर पाता कि वह मुझे अच्छी लगती है या बुरी — लगता है, वह बू नहीं है, महज़ एक हल्का-सा रंग है जो बाबा के कमरे की हवा में तिरता रहता है।
“बाहर क्या कर रहे थे?" मैं उनकी आवाज़ पहचानता हूँ उसमें गुस्सा नहीं है।
"बानो को देख रहा था...” और मैं सकुचाकर चुप हो जाता हूँ।
"बाबू...” उनकी आँखें ऊपर उठ आईं।
“आज मैं ठीक हूँ...बुखार नहीं है।"
बाबू ने मेरे दोनों हाथों को अपनी गोद में रख लिया ।
“अभी कुछ दिन तुम्हें बिस्तर पर लेटना होगा...” उन्होंने मेरे हाथ को एक-दूसरे के ऊपर रख दिया, और उन्हें अपने खुरदरे, बालों से भरे हाथों में समेट लिया।
“बाबू हम दिल्ली कब जा रहे हैं?" जब कभी मुझे उनसे बात करने का मौका मिलता है, मैं हर बार उनसे यह प्रश्न करता हूँ।
उन्होंने सिगार को मुँह से निकालकर अँगुलियों में थाम लिया। वह कुछ देर तक चुपचाप दीवार के बेल-बूटों वाले कागज़ को देखते रहे, मानो उस पर कुछ लिखा है, जिसे वह बड़े गौर से पड़ रहे हों।
"बच्ची, तुम्हें डर तो नहीं लगता?"
"डर?" मैं विस्मित-सा होकर उनकी ओर देखने लगा। उनकी आँखें दीवार से उतरकर मुझ पर टिक गईं।
"माँ घर में नहीं हैं...शायद इसलिए...”
“लेकिन वह तो कुछ दिनों में आ जाएँगी?” मैं चाहता था कि बाबू मेरी बात का समर्थन करें, किन्तु वह चुपचाप मेरी ओर देखते रहे।
"हाँ, वह आएँगी,” बाबू का स्वर इतना धीमा, इतना सोया-सा था मानो वह यह बात मुझसे न कहकर अपने से कह रहे हों।
"बच्ची ...”
“क्या बाबू?”
"तुम क्या उन्हें देखना चाहोगे ?"
बाबू का स्वर एकदम भारी-सा हो आया। उनका यह प्रश्न मुझे काफी विचित्र और निरर्थक-सा लगा था — सोचा, कह दूँ, हाँ...उनके पास जाऊँगा; और दूसरे ही क्षण मुझे लगा कि बाबू मुझसे इस उत्तर की आशा नहीं कर रहे हैं, जैसे वह सच जानते हुए भी जान-बूझकर मुझसे झूठ कहलवाना चाह रहे हों।
मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया। हैरत-भरी दृष्टि से वह मुझे देखते रहे। फिर धीरे से उन्होंने मेरे हाथों को अपनी गोद से हटा दिया।
“अच्छा, अब अपने कमरे में जाओ-अभी दो-तीन दिन तक बाहर खेलने मत जाना।”
वह कुर्सी से उठ खड़े हुए और मेरी ओर से मुँह मोड़कर खिड़की से बाहर देखने लगे।
कुछ देर तक मैं वहाँ चुपचाप खड़ा रहा। मेरे मन में अचानक बाबू के प्रति भीगीभीगी-सी सहानुभूति उमड़ने लगी। माँ के संग मेरा सम्बन्ध अधिक सहज और सीधा था । बाबू के संग जो संकोच और तनाव रहता है, वह माँ के संग बिल्कुल नहीं है। वह कोई भी प्रतिवाद किए बिना मेरी हर फरमाइश को चुपचाप मान लेती हैं किन्तु इतना सब करने पर भी वह मुझसे हमेशा दूर रहती हैं, कभी न मिटने वाला एक अलगाव बनाए रखती हैं। उनके सामने मुझे लगता है कि मैं एक बहुत ही छोटा, बेडौल और निरर्थक-सा प्राणी बन गया हूँ। किन्तु बाबू की बात दूसरी है । मैं उनसे डरता हूँ, कोई भी फरमाइश करते समय मेरा दिल धड़कने लगता है, कभी खुलकर उनसे मैंने अपने मन की बात नहीं की — इसके बावजूद वह मुझे अपने अधिक निकट और जाने-पहचाने लगते हैं। कुछ ऐसा है, जो हम दोनों को माँ से अलग कर देता है, इसीलिए माँ को चाहते हुए भी उन पर कभी सहानुभूति नहीं होती और बाबू से डरते हुए भी उन्हें देखकर कभीकभी मेरे भीतर कुछ रुआँसा हो जाता है।
बाबू ने पीछे मुड़कर मुझे देखा और एकटक देखते रहे। मुझे लगा जैसे वह कुछ देर के लिए मेरी उपस्थिति बिल्कुल भूल गए थे और अब सहसा मुझे अपने सम्मुख देखकर समझ न पा रहे हों कि मैं कौन हूँ, उनके कमरे में कैसे खड़ा हूँ?
मैं कमरे से बाहर चला आया। कुछ देर तक बड़े कमरे की दीवार से सटकर बाबू के कमरे की देहरी पर खड़ा रहा। सोचा था, बाबू बाहर आकर मुझसे कुछ कहेंगे, किन्तु यह मेरा भ्रम था। उनके कमरे में सिर्फ सन्नाटा था — एक घना गहरा-सा सन्नाटा, जो हमारे सारे घर पर घिर आया था।
और तब उस क्षण मुझे लगा कि मैं बहुत अकेला हूँ, बाबू भी अपने में बहुत अकेले हैं। माँ के बिना हर कमरा साँय-साँय-सा करता प्रतीत होता है।
मैं दीवार से सटकर आँखें मूंद लेता हूँ।
जिस दिन माँ मौसी के घर मुझसे मिले बिना चली गईं, उससे एक दिन पहले आधी रात को मेरी आँख खुल गई थी।
कमरे में अँधेरा था हवा से खिड़की का परदा मेरे तकिये के ऊपर ज़ोर-ज़ोर से फड़फड़ा उठता था। कुछ देर तक मेरे मन में एक अजीब-सा भ्रम मँडराता रहा । मुझे लगा कि इस कमरे में जहाँ मैं लेटा हूँ हर चीज़ अपने पुराने स्थान को छोड़कर नए कोनों में उठ आई है। मुझे लगा कि जो खिड़की मेरे बाईं ओर होती थी, वह अँधेरे में चुपचाप खिसककर बिल्कुल मेरे सामने आ गई है। मेरे पलंग से दो गज़ की दूरी पर जहाँ पहले दीवार थी, वहाँ दरवाजा सिमट आया है। दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। उसके भीतर से बाबू के कमरे की रोशनी थर्मामीटर की चमकती हुई पारे की रेखा-सी फर्श पर खिंच आई थी — इतनी महीन, इतनी म्लान मानो हाथ से छूते ही टूट जाएगी, चारों ओर पानी-सी बिखर जाएगी।
अचानक वह दरवाज़ा दो बड़े-बड़े काले पंखों-सा फड़फड़ाता हुआ खुल गया, प्रकाश की पतली-सी रेखा फर्श पर तेज़ी से लपकती हुई सामने की दीवार पर चढ़ गई। दरवाज़े के पीछे छोटे-से गलियारे में कोई ज़ोर-ज़ोर से हाँफ रहा था। पहले क्षण मुझे लगा था कि दरवाज़ा हवा के झोंके से खुल गया है और माँ उसे बन्द करने आई हैं, किन्तु कुछ देर तक कोई भीतर नहीं आया। दरवाज़े के पीछे गलियारे में उखड़ी हई साँसों का एक हल्का-सा बवंडर उठता था और फिर दब जाता था। कुछ सहमे हुए शब्द सुनाई देते थे — कभी दूर से — इतनी दूर से कि शब्दों के बजाय आहट ही मुझ तक पहुँच पाती थी, कभी पास से, इतने पास से, इतने पास से मानो कोई मेरे कानों में फुसफुसा रहा हो।
“नहीं, तुम भीतर नहीं जाओगी,” मैंने बाबू का स्वर पहचान लिया।
एक पतली-सी चीख चमकीले काँच के टुकड़े-सी अँधेरे को छील गई। माँ को क्या हो गया है? वह इस अजीब ढंग से चीख क्यों रही हैं?
“छोड़ो...मेरा हाथ छोड़ दो।"
“पोनो...तुम भीतर नहीं जाओगी।"
"कौन हो तुम मुझे रोकने वाले -- छिः, शर्म नहीं आती?"
“पोनो...वह सो रहा है...इस तरह मत चिल्लाओ।"
“मैं चिल्लाऊँगी नहीं, मुझे भीतर जाने दो।"
"नहीं...इस वक्त नहीं।”
"तुम समझते हो, मैं पागल हूँ...उसे सब कुछ बता दूँगी?"
“पोनो, अपने कमरे में चलो ! यहाँ मैं कुछ नहीं सुनूँगा। इस वक्त तुम होश में नहीं हो”
किन्तु बाबू अपनी बात पूरी नहीं कह पाए — बीच में ही किसी ने झपटकर परदा हटा दिया गलियारे की रोशनी में मेरा बिस्तर चमक उठा, पलंग और खिड़की के बीच की दीवार अँधेरे से बाहर निकल आई।
मैंने देखा — संगमरमर-सी सफेद दो बाँहें परदे के बाहर हवा में फैली हैं। पीछे एक छाया है, भूखी, फटी-फटी-सी दो आँखें हैं...परदे को नोचती हुई लम्बी-पतली काँपती अँगुलियाँ हैं और बिजली में चमचमाती नाक की लौंग, जो बार-बार फड़फड़ाते होंठों के ऊपर तारे-सी टिकी है...यह सब कुछ मैंने एक छोटे-से क्षण में देखा था — दूसरे क्षण मुझे लगा मानो परदा अपनी जगह वापस खींच लिया गया है। सिर्फ एक भर्राई-सी आवाज़ सुनाई दे जाती है, जो ऊपर उठने से पहले ही दबा दी जाती है, मानी किसी ने अपने हाथ से उसे भींच रखा हो।
तब जो मैंने सुना, उस पर एकाएक विश्वास नहीं हो पाया। मुझे लगा परदे के पीछे कोई धीरे-धीरे हँस रहा है। नहीं, यह माँ नहीं हो सकतीं। माँ को जब कभी फिट आता है, तब केवल उनके दाँत कटकटाते हैं। मैंने उन्हें इतने विचित्र ढंग से हँसते हुए कभी नहीं सुना। फिर भी मैं जानता था कि यह माँ की ही आवाज़ है — मैं आगे कुछ भी नहीं सुन पाता — लगता है, मानो कमरे का अँधेरा कमरे से अलग होकर एक मैले चीथड़े की तरह मेरी आँखों के चारों ओर घूम रहा है। संगमरमर-सी सफेद दो बाँहें काली झील से ऊपर उठी हैं — कातर-सी होकर मुझे बुलाती हैं — बार-बार अपनी ओर खींचती हैं।
उस रात देर तक में बिस्तर पर बैठा-बैठा काँपता रहा। एक अजीब-सी आवाज़ हवा के संग खिड़की से भीतर आती थी और मेरे चेहरे को छूती-सहलाती धीरे-धीरे हँसने लगती थी।
बानो टैरेस के नीचे गिरी हुई खूबानियाँ बीन रही है।
बानो...
मैं हौले से कहता हूँ — बानो।
शिमले की एक दुपहर — जब मैं टैरेस पर लेटा हूँ — बीमारी के बाद के दिन हैं, अब हमें कोई नहीं पूछता। सब निश्चिन्त-से हो गए हैं, बाबू अब मेरे कमरे में हर शाम नहीं आते, बीरेन चाचा एक लम्बे अर्से से दिखाई नहीं दिए। मेरे ठीक होने पर अगर दु:ख है तो शायद बानी को — मैं अगर बीमार बना रहता, तो दिल्ली जाने के दिन टलते रहते।
टैरेस के पीछे दो छोटी-छोटी पहाड़ियाँ खुली हुई कैंची की तरह आकाश की ओर उठी हैं उनके बीच पेड़ों की लम्बी श्रृंखला दूर तक चली गई है। जब कभी कालका जाने वाली ट्रेन वहाँ से गुज़रती है, तो धुएँ की एक लट आकाश के चेहरे पर उड़ जाती
बानो...हम दिल्ली जा रहे हैं।
दिल्ली! इस एक शब्द में कितनी स्मृतियाँ छिपी हैं — शिमला-कालका की साँप-सी बलखाती टेढ़ी-मेढ़ी लाइन, लम्बी-लम्बी अँधेरी सुरंगें और रेल के डिब्बे की खिड़की से बाहर हवा में फिसलती तारें...शाम हो जाती और मैं ऊँघ जाता। माँ कन्धा झिंझोड़कर जगातीं -- “बच्ची, उठो!” मैं हड़बड़ाकर उठ बैठता। बाहर अँधेरे मैदान में दूर-दूर तक कालका की झिलमिल-झिलमिल-सी रोशनियों को देखकर लगता मानो देर-से तारे आकाश से उतरकर ज़मीन पर बिखर गए हों..
बानो सीढ़ियाँ चढ़कर कब टेरेस पर आ गई, मुझे पता नहीं लगा। उसने अपनी फ्राक को ऊपर उठाकर झोला बना लिया है, जिसमें ठसाठस खूबानियाँ भरी हैं। नंगे पेट के चारों ओर जाँघिए के नेफे के निशान जहाँ-तहाँ छोटी-छोटी मछलियों-से उभर आए हैं।
वह फ्राक नीची करके खूबानियाँ बिखेर देती है — कच्ची, पक्की खूबानियाँ हैं, हरी, पीली, कुछ-कुछ लाल...
"लो खाओ।” वह एक पकी हुई पीले रंग की खूबानी मेरे आगे कर देती है।
मैंने सिर हिला दिया। बाबू ने बाहर की कोई भी चीज़ खाने से मना किया है।
“यह कच्ची नहीं है, इससे कुछ नहीं होगा,” किन्तु उसने मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा नहीं की और जो खूबानी वह मुझे दे रही थी, उसे निश्चिन्त होकर खुद खाने लगी।।
खाने को खूबानी खा लेता, बाबू का तो बहाना है। असली कारण दूसरा है, जो कोई नहीं जानता, बानो बेचारी तो बिल्कुल नहीं जानती। जब से बुखार उतरा है, मुझे लगता है, जैसे मैं सब लोगों से भिन्न हूँ अलग हूँ। कमज़ोरी के कारण जब कभी सिर चकराता है, पाँव काँपते हैं, तो अच्छा लगता है, मन में अजीब-सी खुशी होती है, अपने पर गर्व होता है। लगता है मुझमें एक अद्भुत परिवर्तन हो गया है और मैं असाधारण हूँ। पहले बीमारी से पहले, माँ के मौसी के घर जाने से पहले मेरा अपना घेरा था, जिसमें बानो और माँ, बीरेन चाचा और बाबू सब कोई थे। न मालूम, बीमारी के इस लम्बे अर्से में कौन-सा क्षण आया था जब यह घेरा टूट गया। पिछले कुछ दिनों से मैं जिस चीज़ को जैसे देखता हूँ, वैसे शायद कोई नहीं देखता। पहले मैं हर चीज़ को दूसरों की आँखों से देखता था और निश्चिन्तता थी। अब उनके पीछे एक रहस्य हैं, डर है जो मेरा अपना है, और जिसे कोई नहीं जानता।
टैरेस के पास पवेलियन की छत पर खटखटाहट होती है। लगता है जैसे टपाटप बँदे गिर रही हों। मैं जंगले के बाहर हाथ निकालकर देखता हूँ बारिश नहीं है, केवल कुछ पहाड़ी चिड़ियाँ हैं जो छत पर एक कोने से दूसरे कोने तक फुदक-फुदककर उड़ती हैं।
बानो खूबानी को गाल के भीतर लटू की तरह घुमाती है उसका कहना है कि इस तरह मुँह का सारा थूक खूबानी के भीतर जाकर रस बन जाता है।
दिल्ली जाना पक्का हो गया ?"
"माँ आ जाएँ, तब!”
“कहाँ गई हैं तुम्हारी माँ?"
"मौसी के घर।”
“तुम्हें पक्का मालूम है कि वह मौसी के घर गई हैं?" बानो ने रहस्य-भरी आँखों से मेरी और देखा।
मैं विस्मय से बानो की ओर देखता हूँ_-- "क्या बात है बानो?"
"कुछ नहीं, ऐसे ही पूछा था,” बानो ने थुक में भीगी खूबानी को होंठों पर रगड़ते हुए कहा।
“अम्मी ने मना किया है — कहा है तुमसे कुछ न कहूँ।”
मैं चुपचाप लापरवाही से मुस्कराता हूँ। बानो पर मुझे बेहद गुस्सा है। मुझे जब बहुत गुस्सा आता है, तो मैं हमेशा मुस्कराता हूँ ताकि कोई यह न समझे कि मेरा मन इतना कच्चा और छोटा है।
सुरमई रंग के बादल नीचे झुके आ रहे हैं। टैरेस के पीछे पहाड़ियाँ काली, भूरी-सी हो गई हैं। जब कभी बादलों की ओट से सूरज का मुँह बाहर निकलता है, तो पतली दुबली छायाएँ पूर्व से पश्चिम की ओर भागने लगती हैं।
टैरेस पर चारों ओर आसपास अब सन्नाटा है। बरसों पहले एक मेम यहां रहती थी। उसके मर जाने के बाद अब यहां कोई नहीं रहता। बारहों महीने — गर्मी, सर्दी कमरे बन्द रहते हैं, बरामदा और उसके आगे लम्बा गलियारा सूना पड़ा रहता है। हम गेस्ट हाउस के पिछवाड़े की सीढ़ियाँ चढ़कर पवेलियन पर चोरी-चुपके चले जाते हैं और वहीं एक कोने में अपने अलूचे और खूबानियों का खज़ाना जमा करते हैं।
कौन-सी बात है, जो बानो मुझसे छिपा रही है, क्या सचमुच उसकी अम्मी ने मना किया है, या वह सिर्फ मुझे चिढ़ाने के लिए बहका रही है।
मैं टैरेस पर लेटे-लेटे अधमुँदी आँखों से अपने घर की छत देखता हूँ। दाईं ओर छज्जे के सिरे पर माँ के कमरे की खिड़की दिखाई देती है माँ जब घर में नहीं होतीं, तो वह हमेशा बन्द रहती है। वह अभी तक वापस क्यों नहीं लौटीं? मौसी के घर वह इतने दिन कभी नहीं रही थीं? क्या वह जानती हैं कि मैं अब चल-फिर लेता हूँ और बाबू ने मुझे अब यहाँ--मेम के भुतहे मकान तक आने की अनुमति दे दी है?
उस रात से मैंने उन्हें नहीं देखा जब वह चीखती हुई मेरे दरवाज़े तक आई थीं और बाबू ने उन्हें भीतर आने से रोक दिया था। मैं निश्चय नहीं कर पाता कि क्या ऐसा सचमुच हुआ था, या मैंने सिर्फ कोई सपना देखा है?
"दिल्ली पहाड़ों के ऊपर है या नीचे?" बानो ने पूछा।
"दिल्ली मैदान में है — वहाँ जाने के लिए नीचे उतरना पड़ता है"_मैंने सुनीसुनाई बात बड़े गर्व से कह दी।
बानो ने अविश्वास-भरी दृष्टि से मुझे देखा।
“नीचे तो ऐननडेल का मैदान है और उसके नीचे खड्ड है — दिल्ली क्या खड्ड के नीचे है?"
बानो कभी दिल्ली नहीं गई, मुझे उस पर हमेशा तरस आता है। मैं उसकी जिज्ञासा को शान्त करने का कोई प्रयत्न नहीं करता और लापरवाही से सिर फेर लेता हूँ।
बानो ने खूबानियों की गुठलियाँ पवेलियन के पीछे गेस्ट-रूम में फेंक दी और वहीं कुछ देर तक दरवाज़े से सटकर खड़ी रही।
हवा से खूबानी के पेड़ की शाखाएँ छतों पर झुकती हैं। खूबानियाँ झरती हैं — कुछ ज़मीन पर, कुछ पवेलियन की छत पर खट-खट...
दुपहर और शाम के बीच सारा शिमला चुप हो जाता है, बस केवल खूबानियों की खट-खट आवाज़ पहाड़ी हवा में गूंजती है...
बानो ने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया है। गेस्ट-रूम के दरवाज़े का एक शीशा टूटा हुआ था, उसी में अपना सिर डालकर वह कमरे के भीतर झाँक रही थी। उसके सिर के ऊपर जो ज़रा-सी खाली जगह बच गई थी, वहीं मैंने खींचतान करके अपना सिर अड़ा दिया।
कमरा बिल्कुल खाली था। दीवार के बेल-बूटेदार कागज़ों का रंग फीका पड़ गया था। छत के एक कोने में मकड़ी का जाला धीरे-धीरे झूल रहा था। बासी हवा की गन्ध चारों ओर फैली थी। फर्श के बीचों-बीच मैली-सी रोशनी जम गई थी, जो कभी पीली हो जाती थी, कभी फीकी-फीकी-सी सफेद! कमरे के धुंधलके में यह सफेद धब्बा बड़ा अजीब और भयावह-सा लग रहा था।
"वह मेम यहाँ रहती होगी।” बानो ने धीमे स्वर में कहा।
“और शायद यहीं मरी होगी।” मैंने कहा, और मेरे सारे शरीर में एक हल्की-सी झुरझुरी फैल गई। मुझे लगा, सामने दीवार के कटे-फटे, उखड़े पलस्तर पर एक बेडौल-सा चेहरा उभर आया है जिसके जबड़े खुले हैं, फटी-फटी-सी आँखें हैं और जो मेरी ओर देखता हुआ हँस रहा है। मुझे लगता है कि वह चेहरा उस मेम का रहा होगा जो बरसों पहले उस कमरे में न जाने क्यों अपने-आप मर गई थी...और वह हँसी, उस रात जैसे दरवाज़े के पीछे माँ हँस रही थीं...
टूटे हुए शीशे के भीतर झाँकता हुआ मेरा चेहरा बानो के सिर पर टिका है। मेरे मुँह के ज़रा नीचे बानो के अखरोटी रंग के बाल हैं, उन बालों की गन्ध पानी में भीगी मिट्टी की गन्ध से मिलती है। बालों के बीच छोटी-सी माँग है — माँ की माँग जैसी, किन्तु माँ की माँग ज़रा लम्बी थी और हमेशा बहुत उदास दीखती थी।
"बानो...” मेरे होंठों पर सफेद काग़ज़-सा थूक जम गया।
"क्या?"
"अम्मी ने क्या तुमसे माँ के बारे में कुछ कहा था?"
"तुमसे क्या ?" बानो ने ढीठ बनकर कहा।
हवा चलने से सूने, खाली मकान के दरवाज़े खड़खड़ा उठते हैं। फर्श पर सिमटा हुआ सफेद धब्बा धीरे-धीरे सरक रहा है।
"बानो...जब मैं बीमार था, तो कभी-कभी बड़ा अजीब-सा लगता था...” ।
"कैसा...बच्ची?"
“लगता था जैसे मैं भी माँ की तरह हूँ — जैसे उनकी कोई बात मुझमें भी है।"
"कैसी बात?"
"जिसे सब छिपाते हैं।"
बानो का सिर सिहर जाता है।
“एक सफेद छाया है बानो -- जैसे बर्फ से लिपटी हो। वह अँधेरे में भी चमकती है और संगमरमर-से सफेद उसके हाथ हैं, जो हमेशा हवा में खुले रहते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि पीछे से चुपचाप आकर उसने मुझे अपने में ओढ़ लिया है और मैं अपने से ही अलग हो गया हूँ — सच बानो-- लगता है जैसे मैं अपने से ही अलग हो गया हूँ...”
मुझे लगा कि बानो पत्ते-सी कॉप रही है, भय से उसकी आँखें फैल गई हैं।
मैं हँसने लगता हूँ।
"डर गई बानो...?"
बानो चुप है, उसकी गर्म साँस मेरे सूखे होंठों को छूती है।
“बानो, सच--मैं तुम्हें बहका रहा था — जो मैंने कहा वह बिल्कुल झूठ है।” बानो कुछ नहीं कहती, वह दरवाजे को छोड़कर तेज़ी से टैरेस की सीढ़ियाँ उतरने लगती है।
“बानो..” मैंने एक-दो बार उसे बुलाया, किन्तु उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
बूंदें आती हैं, पवेलियन की छत टप-टप करती है...और मैं समझ नहीं पाता कि मेरे गालों पर जो बूंदें हैं, वे बादलों से आई हैं — या पहले से ही वहाँ थीं...
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घर का सामान बाँधा जा चुका है। सन्दूकों, थैलों और बिस्तरों पर लेबल चिपकाए जा रहे हैं जिन पर मोटी-मोटी सुखियों में शिमला-दिल्ली और उसके नीचे बाबू का नाम लिखा है। घर में बड़ी चहल-पहल मची है — नौकर, जमादार, कुली और बाबू के दफ्तर के चपरासी सब इधर-से-उधर भागते हुए दिखाई देते हैं।
माँ ऊपर वाले कमरे में हैं। वह इस बार कुछ काम नहीं कर रहीं उनकी तबीयत शायद ठीक नहीं है, बाबू ने मुझे उनके पास जाने से मना किया है। जब से वह मौसी के घर से आई हैं, मैंने उन्हें नहीं देखा, वह शायद रात को आई थीं, जब में सो रहा था।
सब अपने काम में जुटे थे। मैं ही अकेला एक ऐसा था जिसे कोई काम नहीं था। कभी छज्जे में जाता था, कभी बरामदे में, किन्तु हर जगह अपनी व्यर्थता महसूस होती थी। खाली-खाली-से कमरे, नंगी दीवारें, कोनों में कूड़े के ढेर...मेरा दम घुटने-सा लगा और मैं बाबू की आँख बचाकर बाहर चला आया।
पगडंडी से उतरकर मैं खडु के ऊपर नाले के किनारे-किनारे चलने लगा। कभी-कभी खड्डु के भीतर कोई बड़ा, मोटा-सा गेला मिल जाता तो उसे उठाकर जेब में रख लेता। रेल की खिड़की से मैं इन गेलों को छोटे-छोटे तालाबों में फेंका करता था। जब दोनों जेबें भर चुकीं, तो देखा कि मैं घर से काफी दूर निकल आया हूँ। सूरज ढलने लगा था, हालाँकि दूर की पहाड़ियों पर धूप अब भी थकी-माँदी-सी रेंग रही थी। मैं बीच रास्ते में मुड़ गया और एक छोटी-सी पगडंडी से घर की ओर चलने लगा।
कुछ दूर चला होऊँगा कि अचानक पाँव ठिठक गए। दाईं ओर नीचे की तरफ बीरेन चाचा की काटेज दिखाई दे रही थी। पेड़ों के झुरमुट में चारों ओर झाड़-झंखाड़ से घिरे उस घर को देखकर मुझे सहसा वह शाम याद आ गई जब मैं माँ के संग यहाँ आया था। माँ भूली-सी, खोई-सी नीचे देख रही थीं और मैं चुपचाप उनके पीछे खड़ा था। जब से माँ मौसी के घर गई थीं, बीरेन चाचा हमारे घर नहीं आए थे। एक बार उनके बारे में बाबू से पूछा था, किन्तु बाबू का चेहरा इतना कठोर, इतना भावहीन-सा हो आया था कि आगे उनसे कुछ भी पूछने का साहस नहीं हुआ।
ढलती धूप में काटेज की ढलुआँ लाल छत चमक रही थी। मैं धीरे-धीरे सड़क के किनारे लगी तार के संग नीचे उतरने लगा।
फाटक खुला है। मैं दबे कदमों से भीतर चला आया हूँ। हवा आती है तो लॉन की घास पर छोटी-बड़ी सलवटें पड़ जाती हैं, झाड़ियों की सरसराहट आस-पास की नीरवता को और भी अधिक घनी बना जाती है। लॉन के किनारे वही पत्थर की बेंच है, जहाँ उस दिन माँ बैठी थीं।
सोचता हूँ वापस लौट जाऊँ, लेकिन पाँव बजरी की सड़क पर बँधे-से खड़े रह जाते हैं।
दरवाज़ा खटखटाता हूँ धीरे-धीरे। “बीरेन चाचा...बीरेन चाचा”--मुझे अपनी आवाज़ उस अकेली, निस्तब्ध काटेज में गूंजती-सी सुनाई देती है। लगता है यह कोई अजनबी आवाज़ है, जो मेरी आवाज़ के पीछे-पीछे दौड़ रही है।
"बच्ची...भीतर आ जाओ, दरवाज़ा खुला है।” बीरेन चाचा का स्वर सुनाई दिया।
मेरे पाँव देहरी के भीतर जाते ही एक क्षण के लिए रुक गए हैं। टेबल लैम्प का मद्धिम प्रकाश मेज़ पर बिखरे कागज़ों, किताबों पर गिर रहा है। एक-दो मिनट तक मैं बेवकूफ-सा देहरी पर खड़ा रहा — और तब सहसा आभास हुआ कि कमरा खाली नहीं है, कोने में ईज़ी चेयर पर बीरेन चाचा बैठे थे। जहाँ वह बैठे थे, वहाँ अँधेरा था इसलिए कमरे में घुसते ही वह मुझे एकदम दिखाई नहीं पड़े थे।
उन्होंने मुझे अपने पलंग पर बैठने के लिए कहा और अपनी कुर्सी मेरे नज़दीक खींच ली।
“इतनी दूर अकेले आए हो?” उन्होंने मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लिया और मुस्कराने लगे। - मेरी आँखें अनायास अपने निकर की फूली हुई जेबों पर टिक गई। संकोच से मेरा मुँह लाल हो गया।
"क्या भर रखा हैं। इनमें — गेले हैं?" मैंने चुपचाप सिर हिला दिया। "क्या करोगे इनका ?" "रेल के लिए रखे हैं।” मैंने अटपटा-सा उत्तर दिया।
"रेल के लिए?” बीरेन चाचा की प्रश्न-भरी दृष्टि मुझ पर टिक गई। और तब सहसा मुझे ख्याल आया कि बीरेन चाचा को कुछ भी नहीं मालूम है। मुझे भीतर-ही-भीतर बहुत खुशी हुई कि में पहला व्यक्ति हूँ जिससे उन्हें यह खबर मिलेगी।
“बीरेन चाचा, आज रात हम दिल्ली जा रहे हैं।” ।
वह कुछ देर तक अपलक मेरी ओर देखते रहे, मानो उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। फिर वह कुर्सी से उठे और मेरी ओर कोई ध्यान दिए बिना खिड़की से बाहर देखने लगे।
कुछ देर तक कमरे में घुटा-घुटा-सा सन्नाटा छाया रहा। मुझे लगा मानो बीरेन चाचा को यह बात पहले से ही मालूम थी, तभी शायद उन्होंने कोई कौतूहल नहीं दिखाया।
तभी वह खिड़की से मुड़े। भूरी दाढ़ी के ऊपर उनकी नीली आँखें चमक रही थीं। "तुमने उस दिन जो फोटो लिया था वह धुल गया है...देखोगे?"
उन्होंने अलमारी से एक छोटा-सा लिफाफा निकालकर मेरे हाथ में रख दिया।
"तुम्हारा हाथ बहुत सधा हुआ है, फोटो बिल्कुल साफ आया है।"
मैंने फोटो निकाला और मुझे लगा, मानो बहुत अर्से पहले की एक घड़ी — जिसे मैं बिल्कुल भूल चुका था — मेरी आँखों के सामने हू-ब-हू वैसी ही वापस लौट आई है।
छज्जे के पीछे जंगले पर माँ की साड़ी सूख रही है -- उसके पीछे पहाड़ियों की धुंधली-सी रेखा है, बिजली के तार हैं, कोने में सिमटा आकाश का एक टुकड़ा है। आगे के हिस्से में बीरेन चाचा जंगले से सटे खड़े हैं। उनकी एक बाँह माँ की साड़ी से छू भर गई है और माँ...न जाने क्यों उनकी आँखें मूंद-सी गई हैं, दोनों होंठ मरी हुई तितली के परों के समान अधखुले-से रह गए हैं, मानो वे कुछ कहते-कहते अचानक रुक गए हों।
मैं न जाने कितनी देर तक फोटो निहारता रहा।
अचानक ध्यान आया कि मुझे बहुत देर हो गई है। स्टेशन जाने का समय पास सरक आया था। बाबू देर से मेरी प्रतीक्षा करते होंगे।
मैं झटपट पलंग से उतर आया। "अच्छा बीरेन चाचा...” मुझसे आगे और कुछ नहीं कहा गया।
बीरेन चाचा ने मुझे देखा — एकटक देखते रहे, फिर धीरे से मेरे पास आए, अपने हाथों से मेरे बालों को छुआ और धीरे से मेरे माथे को चूम लिया — बिल्कुल वैसे ही जैसे उस रात माँ ने मुझे चूमा था।
उन्होंने दरवाज़ा खोला और हम बाहर बरामदे में आ गए। "मैं तुम्हारे संग चलूँ तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?" मैंने सिर हिलाकर मना कर दिया, मुझे घर का रास्ता मालूम था। कुछ देर तक हम बरामदे में चुपचाप खड़े रहे।
"बच्ची...” बीरेन चाचा का स्वर सुनकर मैं चौंक-सा गया। मैंने उनकी ओर देखा।
"माँ ने एक किताब माँगी थी — मुझे याद नहीं रहा...” वह झिझकते हुए चुप हो गए।
"आप मुझे दे दीजिए — मैं दे दूँगा।"
किताब देते हुए मुझे लगा मानो वह कुछ कहना चाह रहे हैं, किन्तु वह चुप रहे और मैं तेज़ी से फाटक की ओर चल पड़ा।
काटेज बहुत पीछे छूट गई है। मैं एक सँकरी-सी सुनसान सड़क पर चल रहा हूँ। सामने पहाड़ी के ऊपर पेड़ों की एक लम्बी कतार चली गई है। उसके पीछे डूबते सूरज की पीली, गुलाबी, सोनाली छायाएँ आकाश पर खिंच आई हैं। चारों ओर एक हल्की, हरी-सी धुन्ध फैल गई है। घर से कुछ दूर मैं लैम्प पोस्ट के नीचे खड़ा हो गया और किताब खोलकर देखने लगा।
मैंने देखा — पन्नों के बीच में वही फोटो वाला लिफाफा रखा था।
किताब बहुत पुरानी थी — आज भी उसके ज़र्द, भुरभुरे पन्ने याद आते हैं -- "फ्लाबेज़ लेटर्स टु जार्ज सां।" उन दिनों न मैं फ्लाबे को जानता था, न जार्ज सां को। बरसों बाद जब मैंने उसे पढ़ा तो माँ नहीं थीं और बीरेन चाचा एक लम्बे अर्से से इटली में जाकर बस गए थे।
किन्तु उस दिन मेरे लिए उस पुस्तक का कोई महत्व नहीं था। उसे हाथ में लिये देर तक अँधेरे में खड़ा रहा — अपने घर से ऊपर वाले कमरे की ओर देखता रहा।
माँ के कमरे की खिड़की बन्द थी, सफेद-पीली रोशनी खिड़की के शीशे पर बुझीबुझी-सी झिलमिला रही थी।
वह शिमला में हमारी आखिरी शाम थी।