अंधेर खाता / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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एकाध नमूना सुनाता हूँ। न्यायवार्तिक की तात्पर्य टीका काशी के लाजरस प्रेस में छपी है। उसके प्रकाशन करानेवाले प्रसिद्ध काशी के विद्वान पं. गंगाधर शास्त्री जी हैं। उन्होंने उसके प्रूफ को ठीक किया है। उसके हेत्वाभास प्रकरण में एक स्थान पर 'कृतृरासदिवेत्यादि' आता है। उसका अर्थ न तो उन्हें मालूम हुआ और न किसी और पंडित को ही। उन्होंने उसके आरंभ में ही उक्त वाक्य के तीन अर्थ लिखे हैं, एक अपना किया हुआ, दूसरा पं. शिवकुमार शास्त्री का और तीसरा पं. सुधाकर द्विवेदी का। मगर तीनों ही गलत और जबर्दस्ती किए गए हैं। मैं उसे देख कर हैंरान था कि यह क्या बात है। आखिर श्री भोजराज रचित एक छोटा सा ग्रंथ राजमार्तंड पढ़ रहा था। उसमें भद्रा के भोग के समय के प्रकरण में 'कृतृरास दिवेदरभूत दिवा' इत्यादि श्लोक मिलता है। उसे देखते ही तात्पर्य टीका का वह वाक्य याद आया और अर्थ समझते देर न लगी। असल में भोज ने 'कृतृरास' श्लोक में संकेत के तौर पर 'कृ' कृष्ण के 'तृ' तृतीया के, 'रा' रात्रि के, 'स' सप्तमी के अर्थ में लिखा है। आगे भी इसी प्रकार के अर्थों में अक्षर या शब्द लिखे हैं। इस प्रकार अपना काम निकाला है। मगर तात्पर्य टीका में वाचस्पति का कहना है कि यदि कोई वह वाक्य किसी और स्थान पर बोले तो निरर्थक या अपार्थक ही होगा। उनका वह संकेत तो घरेलू है। मगर इस मोटी बात को महामहोपाध्याय लोग तक न समझ सके!!

इसी प्रकार मीमांसा दर्शन का शाबर भाष्य लीजिए। वह बहुत क्लिष्ट है। काशी में जो उसकी प्रति छपी है वह वैसी ही अशुद्ध है जैसी पहले की। मगर मैं एक-दो पंडितों से पढ़ने गया। क्योंकि सुना कि वे पढ़ाते हैं। मगर उनकी तो स्पेशल दौड़ती थी और मैं उनके मुख की ओर ताकता रह जाता था। कुछ समझ न सकता। न जाने औरों की क्या बात थी। वे छात्र भी समझते क्या बला होंगे?शक है खुद पंडित जी समझते थे या नहीं। मेरे जानते तो वह भी कोरे ही थे। क्योंकि उन्हें अशुद्धियों का पता ही न था। हालाँकि मैं आगे-पीछे न जाने कितनी बार विचार करने और दूसरे ग्रंथों की सहायता लेने के बाद उन अशुद्धियों को समझता था। मैं यह भी मानता था कि कुछ और ही पाठ होना चाहिए। पीछे चल कर दरभंगे में महामहोपाध्याय पं. चित्रधार मिश्र जी से बातें होने पर उन्होंने उनमें एकाध अशुद्धियों के बारे में अपनी एक लंबी दास्तान सुनाई। उनने बताया कि उन्हें भी कैसे धोखा हुआ था और पीछे किसी दूसरे ग्रंथ के पढ़ते समय पता क्यों कर लगा था कि सचमुच अशुद्धि है। मैंने पहले से ही वहाँ दूसरा पाठ माना था और जो मैंने सोचा था वहीं उन्होंने भी बताया।

मीमांसा के बारे में कही चुका हूँ। मालूम होता था कि जो न्यायप्रकाश आदि दो-तीन ग्रंथ पढ़-पढ़ाए जाते थे वे भी तोते की रटन की ही तरह। मैंने न्यायप्रकाश की कितनी ही बातों का रहस्य तब समझा जब स्वतंत्र रूप से विधि-विवेक, न्यायरत्न माला आदि ग्रंथों का संग्रह और मनन किया। पीछे तो मेरे पास कई ऐसे सुबोध विद्यार्थी आते थे प्राचीन न्यायादि पढ़ने के लिए ही, जिन्हें मीलों से ज्यादा चलना पड़ता था। जब मैं काशी छोड़ने लगा तो ऐसे कितने ही छात्र रो पड़े। क्योंकि प्राचीन दर्शनों की जो अवहेलना विद्या के केंद्र काशी में हो रही थी वह उन्हें असह्य थी। शास्त्रर्थ की जो एक बीमारी सी वहाँ चल पड़ी थी उसके करते व्याकरण और नव्य-न्याय की फक्किकाओं, पंक्तियों और परिष्कारों का अभ्यास कर लेना ही पर्याप्त माना जाता था। शास्त्रों का गंभीर मंथन खत्म सा हो रहा था और इस ओर किसी की दृष्टि न थी।

मैंने देखा कि व्याकरणाचार्य वेदांत की पोथियाँ पढ़ाने बैठ जाता है और नव्यन्याय का पंडित प्राचीन न्याय और मीमांसा का अध्यापक बनने की हिमाकत करता है। खूबी तो यह है कि कोई नियंत्रण नहीं। विद्यार्थी भी ऐसे सीधे और बेवकूफ कि एक ही गुरु जी से सब चीजें पढ़ना चाहते। जिन पंडितों की ख्याति हो गई थी, वह भी सोचते थे कि उनके पास तो छात्रों का समूह आता है। अगर उनने किसी विषय को पढ़ाने में असमर्थता दिखाई तो उनकी अप्रतिष्ठा हो जाएगी। इसलिए पढ़ाए चले जाते थे। यही नहीं, यदि कहीं समझ में न भी आए तो भी रुकते न थे। अप्रतिष्ठा का भूत जो सर पर सवार था। क्योंकि विद्यार्थी मान बैठता कि शायद पंडित जी को यह ग्रंथ ठीक-ठीक समझ में आता नहीं।

मैंने दो ही तीन पंडितों को इसका अपवाद पाया। वह जहाँ समझ न सकते वहाँ रुक जाते। पं. शिवकुमार शास्त्री तो न्यायदर्शन के भाष्य को पढ़ाते समय एक स्थान पर कई दिन रुके रहे और जब तक समझ न लिया आगे न बढ़े। एक पंडित जी और थे जो कहीं न समझने पर रुक जाते। यदि कहीं दैवात छात्र के दिमाग में उसका सही अर्थ आ गया और उसने बता दिया तो बेखटके उसे मान लेते और आगे बढ़ते। पं. अच्युतानंद त्रिपाठी जी संन्यासी पाठशाला में दर्शन पढ़ाया करते थे वही ऐसा करते थे। सारांश यह कि "अपने भी गए और दूसरों को साथ लेते गए" इस सिद्धांत के अनुसार काम करनेवाले पंडितों की बात कितनी बुरी है, इसे कौन समझता था? वैयाकरण न्याय क्या पढ़ाएगा यदि वह नैयायिक न हो?लेकिन न तो वह पढ़ाने से इन्कार करता और न उसका भोंदू विद्यार्थी ही समझता कि हम दूसरे से पढ़ें। एक बार तो मैंने एक अच्छे वैयाकरण से जिनका नाम बताना अनुचित समझता हूँ, ट्रेन में यों ही बातें कीं। उसी सिलसिले में न्याय की कोई बात आ गई। मैं जानता था कि वे कोरे वैयाकरण हैं। फिर भी न्याय की बात को भी मेरे सामने स्पष्ट करने की कोशिश करने में वे जरा भी न हिचके। मैं भीतर ही भीतर हँसा। सन 1922 में लखनऊ जेल में मैं बहुत अंग्रेजीदां लोगों के साथ था जिनमें कई प्रोफेसर भी थे। एक सज्जन को व्याकरण की सिद्धांत-कौमुदी पढ़ने की इच्छा हुई। वे एक प्रोफेसर-साहब के पास उसे पढ़ने की सोचने लगे। जब उनने मुझसे यह बात कही तो मैंने कहा कि उक्त प्रोफेसर साहब सभी विषयों के प्रोफेसर नहीं हैं। मैं जानता हूँ वे सिद्धांत कौमुदी नहीं जानते। मगर पढ़ने के इच्छुक सज्जन ने कहा कि "वाह, प्रोफेसर हैं तो क्यों न पढ़ायेंगे?" आखिर वे पढ़ने के लिए उनके पास गए भी और प्रोफेसर साहब ने भी शान में आ कर यह कभी नहीं कहा कि वे सिद्धांत कौमुदी नहीं जानते। हालाँकि कोई-न-कोई बहानेबाजी कर के वे आज, कल, करते रहे और अंत तक ऐसा मौका नहीं ही दिया कि कौमुदी की पोथी उनके सामने खुलने के साथ ही उनकी पोल भी खुले। इस प्रकार यह मर्ज बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ नजर आया। मैं इसे अंधेर खाता ही मानता हूँ।