अंधे जहान के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहां? - 2 / जयप्रकाश चौकसे

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अंधे जहान के अंधे रास्ते, जाएं तो जाएं कहां?
प्रकाशन तिथि :04 फरवरी 2017


इंदौर में बाईस दृष्टिहीन लोगों के बीच क्रिकेट स्पर्द्धा के लिए घंुघरू वाली गेंद का इस्तेमाल हुआ ताकि ध्वनि की मदद से खेल खेला जा सके। ध्वनि पर निशाना साधना पौराणिक ग्रंथों में भी वर्णित है। सई परांजपे ने 'स्पर्श' नामक फिल्म बनाई थी, िजसका नायक दृष्टिहीन होता है। गुलजार की 'कोशिश' के पति-पत्नी बहरे हैं और उनकी एकमात्र चिंता यह है कि कहीं उनकी संतान को तो यह रोग नहीं है। सलमान खान अभिनीत 'बुलंद' मंे नायक दृष्टिहीन व्यक्ति है परंतु फिल्म अधूरी ही रही। भारत में अधूरी फिल्मों की रीलें इतनी अधिक हैं कि पूरे भारत को उसमंें बांधा जा सकता है। फिल्म उद्योग ने कभी इन अधूरी फिल्मों को सहेजकर नहीं रखा और हमारी फिल्म विरासत भी नष्ट हो गई। 'संगम' में यूरोप में फिल्मांकित गीत था, 'कभी न कभी कोई न कोई आएगा और हमारे सोते भाग जगाएगा।' किंतु लगभग ऐसे ही मुखड़े का गीत देव आनंद अभिनीत 'शराबी' में आने के कारण राज कपूर ने इसे अपनी फिल्म 'संगम' से हटा दिया। टेक्नीकलर में बनी इस फिल्म का संपादन, पुनर्ध्वनिमुद्रण इत्यादि लंदन में किया गया था। अत: सारी सामग्री वही रह गई। कालांतर में टेक्नीकलर कंपनी चीन ने खरीद ली और सारा सामान वहां चला गया।

हाल ही में खबर आई है कि चीन में प्रतिदिन लगभग पचास नए सिनेमाघर बन रहे हैं और भारत में एकल सिनेमा तोड़े जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में सिनेमाघर के मालिक की मृत्यु के बाद सिनेमाघर का लाइसेंस रद्‌द हो जाता है और नवीनीकरण की समय एवं धन खाने वाली लंबी प्रक्रिया प्रारंभ होती है। जब पिता की संपत्ति के वारिस परिवार के पुत्र व पुत्रियां स्वत: ही हो जाते हैं तब सिनेमा लाइसेंस संपत्ति के रूप में पुत्रों और पुत्रियों को क्यों नहीं मिलता- यह रहस्य ही है। कोई विधायक या मंत्री मुख्यमंत्री को इस अंधे नियम को बदलने की बात ही नहीं कहता। आजकल मनोज श्रीवास्तव मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रिय अफसर हैं और वे कवि भी हैं फिर भी न्याय नहीं हो रहा है, जबकि दार्शनिक अरस्तू की अवधारणा है कि जब कवि राजा होगा तो सबको न्याय मिलेगा। कई मामलों को देखते हुए लगता है कि वर्तमान कालखंड 'अंधा युग' ही है। 'अंधा राजा अंधी प्रजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।' कुदरत का अनोखा न्याय है कि दृष्टिहीन लोग दूर से अाती ध्वनि को भी पकड़ लेते हैं और खतरों को सूंघ भी लेते हैं गोयाकि उनके कान बहुत कुछ सुन सकते हैं और सुगंध भी उन तक सामान्य लोगों से पहले पहुंच जाती है। इस तरह कुदरत अपनी भूल सुधारने का प्रयास करती है। सरकारें अपनी भूल को सुधारने के बदले कुछ और गलतियां करने लगती है। नोटबंदी की भूल के पश्चातापस्वरूप बजट को भी लुंजपुंज बना दिया। यह बजट पुरानी हुकूमत के दस्तावेज को ही नए मुहावरों में प्रस्तुत करने के समान है। यह बात भी देखी गई कि संसद में आदरणीय सांसद दो हाथ से ताली नहीं बजाते वरन एक हाथ से अपनी मेजें थपथपाकर प्रशंसा की ध्वनि उत्पन्न करते हैं। वे दोनों हाथों से तालियां क्यों नहीं बजाते? स्पष्ट है कि ये तालियां अनिच्छुक लोग बजा रहे हैं। यह केवल रस्म अदायगी है। सब जानते हैं कि प्रधानमंत्री की नज़र है कि कौन ताली नहीं बजा रहा है। सरदेसाई ने अपनी किताब में लिखा है कि मंत्री इतने भयभीत है कि पत्रकार को अपने घर के पीछे से प्रवेश करने का निर्देश देते हैं। बंगले का अगला भाग निगरानी पर है गोयाकि सभी भयभीत हैं। भयभीत सरकार डरी हुई प्रजा पर हुकूमत हुकूमत खेल खेल रही हैं। आजादी के इतने दशक बाद भी अनगिनत गांवों में बिजली नहीं पहुंची और उनसे कैशलेस संरचना की उम्मीद की जा रही है। कभी-कभी फिल्में अजीबोगरीब इत्तफाक से बनती है। मसलन संजीव कुमार आरके नैयर द्वारा कभी उनकी सहायता के एवज में उनके लिए फिल्म करना चाहते थे परंतु उनकी शर्त थी कि वातानुकूलित स्टूडियो में एक ही सेट पर लगातार चालीस दिन शूटिंग करके फिल्म बनाई जा सके। वहां मौजूद खाकसार ने दो घंटे में ही उन्हें 'कत्ल' नामक फिल्म की कथा बनाकर सुना दी, जिसमें एक दृष्टिहीन पति अपनी बेवफा पत्नी का कत्ल करता है। वह भी ध्वनि के सहारे जीना सीख जाता है। क्लाइमैक्स के दृश्य में बेवफ पत्नी जानती है कि उसका पति ध्वनि पर निशाना साध लेता है, अत: वह सांस रोककर दरवाजे की ओर जाती है परंतु दरवाजे पर पहुंचते ही वह स्वयं को सुरक्षित समझकर वह सांस लेती है और नेत्रहीन पति गहरी सांस की ध्वनि पर गोली दाग देता है और बाहर जाने के पहले कहता है कि जब उसके पास दृष्टि थी और उसने एक अनाथ, बेसहारा गरीब लड़की को प्रशिक्षित करके सफल सितारा बनाया तब भी प्रशिक्षण के समय वह अपने श्वास नियंत्रण पर ध्यान नहीं देती थी और वही दोष उसकी मृत्यु का भी कारण बना। इतिहास में दर्ज पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई का तथ्य भी ऐसा ही है।

इस फिल्म के निर्माण के समय ही संजीव कुमार ने खाकसार को बताया था कि उनके खानदान में ज्येष्ठ पुत्र दस वर्ष का होता है और उसके पिता का स्वर्गवास हो जाता है। शायद इसी कारण संजीव कुमार ने विवाह नहीं किया परंतु उन्होंने अपने प्रिय भाई किशोर जरीवाला की मृत्यु के बाद उनके पुत्र को गोद लिया था। उस दत्तक पुत्र के दस वर्ष के होते ही संजीव कुमार का निधन हो गया। दरअसल, हम तर्क व बुद्धि के सहारे बहुत कुछ निर्णय करते हैं, जो सही भी है और एकमात्र तरीका भी है परंतु कितनी ही घटनाएं ऐसी होती हैं कि आप उनका विश्लेषण कर ही नहीं पाते। आज भी प्रकाश वृत्त से अधिक बातें अंधकार के क्षेत्र में आती हैं। एक दृष्टिहीन पात्र पर फिल्मांकित मधुरतम गीत है, 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई एक पल जैसे एक युग बीता, युग बीते मोहे नींद न आई।'