अकथ / तुषार कान्त उपाध्याय

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प्यार कोई बरसात का पानी है कि जहाँ गड्ढा देखा वहीं जमा हो गया। मौसम बदलते हीं सुख कर निशान भी नहीं छोड़ता।' अकथ अनुभूति है ये।

राजधानी की सबसे पॉस कॉलोनी। खूब चौड़ी सडकों के बीच बने आलिशान बंगले। इनमे से एक डॉ शुक्ल का है। बड़े से गेट के भीतर पेड़ो और तरतीब से लगाई गयी फूलों की क्यारियों के बीच तिमंजिला मकान। भीतर-बाहर देशी विदेशी गाड़ियों की लगातार आवाजाही।

एक स्तब्ध्ता और चुप्पी ओढ़े वातावरण।

घर के भीतर इस वीरान-सी ख़ामोशी को तोड़ती है डॉ मीरा की आवाज़,

'अभि! जाके ले आओ उनको'

'जी ...'

'क्या पता उन्ही के लिए सांसे अटकी हों'

'पर माँ ...'

' हाँ बेटा। ले आओ। देखते नहीं, सारे देह में बेडसोर, पीड़ा से घरघराती आवाज़ और तब भी ... जैसे किसी प्रतीक्षा में असह्य पीड़ा सहकर भी देह नहीं छूट रही।

तभी डॉ शुक्ल ने करवट बदलने कोशिश की। आँखों के कोर भींगे हुए, तकलीफ से विदीर्ण चेहरा और देह ... चमड़े का लबादा ओढ़े नरकंकाल।

मीरा ने सहारा देकर धीरे धीरे करवट बदलवाया। कभी आँखे खुले तो शुन्य में निहारती हुई और अर्ध चेतना में विलीन। प्रोस्ट्रेट कैंसर से जूझते और लगभग हार चुके देह के पिंजरे से से बस पंछी के उड़ जाने की प्रतीक्षा थी। सारे चिकित्सकीय अनुमानों को झुठलाती उनकी आत्मा किसी लालसा में अटक गयी थी।

लोग आते, चुपचाप उन्हें निहारते और धीरे से कमरे से बाहर निकल आते। चारो ओर वीरान नीरवता।

अभिनव, उनका बेटा, एक सफल चिकित्सक। सब कुछ छोड़ -छाड़ पिता की सेवा में लगा है। माँ की बात मान तेजी से बाहर निकलता है। कुछ ऐसा है जो उसके समूचे ज्ञान और तर्क बुद्धि को झुठला रहा है।

डॉ प्रकाश शुक्ल, मेडिकल कॉलेज में बाल-रोग के पूर्व विभागाध्यक्ष। उनकी पत्नी डॉ मीरा शुक्ल उसी मेडिकल कॉलेज में मेडिसिन विभाग की प्रमुख हैं। एक बेटा अभिनव और एक बेटी अनन्या।

अभिनव को उसके मित्र और परिवार के लोग 'अभि बुलाते हैं। उसकी शादी माँ-बाप ने उसी के मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही अपने पारिवारीक मित्र की बेटी से शादी करा दी। शायद अभि के मन की भाषा पढ़ ली थी। बेटे-बहु दोनांे अमेरिका में सफल डाक्टर हैं। बेटी अनन्या आई0ए0एस0 अधिकारी और उसने अपने साथ प्रशिक्षण पा रहे युवक से शादी की थी।

मध्यम वर्ग के लिए ऐसा परिवार, ऐसा जीवन एक आनन्द उत्सव था और ऐसे संस्कार-बेटी और बेटे दोनो, सब कुछ छोड़-छाड़ कर पिता के अन्तिम समय में उनके पास थे।

पर कुछ था।

पूरा मेडिकल कॉलेज जानता था। पर सामने कहा किसी ने नहीं कुछ भी नहीं।

डा॰ शुक्ला का गरिमामय व्यक्तित्व, उनकी सादगी, काम के प्रति समर्पण। हर वर्ग और हर खेमा, आदर और स्नेह से देखता था उनको और मैडम। मीरा तो तब प्रथम वर्ष में आयी थी जब डा॰ शुक्ला असिस्टेन्ट प्रोफेसर बन गये थे। मीरा केे पिता उसी कॉलेज में प्रोफेसर थे। उनके प्रस्ताव को डा॰ शुक्ला का परिवार अपने लिये गर्व की बात समझता था।

और डा॰ शुक्ला! उनके लिए तो मीरा, 'मीर' की रूबाइयों की तरह जीवन संगीत लेकर आयी थी। सुन्दर इतनी की इनसे सौंदय के प्रतिमान स्थापित किये जा सकें। एक बार सामने पड़ जायें तो उनकी तरफ से नजर हटाना पीड़ादायक लगता। शालीन मुस्कान और उन्मुक्त हँसी तो किसी को बरबस ही अपना दोस्त बनने का आमंत्रण देती। आने वाले दिनो में उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। सहपाठी एवं सीनियर ही नहीं, उनके प्रोफेसर भी उन्हे आदर से देखते।

डा॰प्रकाश शुक्ल एवं मीरा के विवाह समारोह में ऐसा कौन था जो राजनीति, कला, प्रशासन

में अपनी पहचान रखता हो और वह उस शादी का हिस्सा नहीं बना हो। उनके अपने चिकित्सकीय पेशे की तो बात ही क्या है।

देखते। देखते साढ़े पाँच वर्ष कैसे बीत गये पता हीं नहीं चला। इस बीच शुक्ल दंपति एक सुन्दर बेटा पाकर खुशी से फुले नहीं समा रहा था। डा॰ प्रकाश शुक्ल अब स्थापित डाक्टर थे। कॉलेज में जितना मान था, प्राइवेट प्रैक्टिस भी उतनी ही ख्याति पाने लगी थी। उनसे दिखाने के लिए लोग हफ्तों इंतजार करते।

जैसे ही फुर्सत मिलती पति-पत्नी उड़ जाते कहीं दूर। सिर्फ एक दूसरे के लिए। एक दूसरे के साथ। डा॰प्रकाश के माँ-बाबूजी इस बीच बच्चे को संभालते।

पता है मीरा! मीरा-कृष्ण से सशरीर नहीं मिल पायी थी न, पर हम कृष्ण और मीरा की आत्मा लिए सशरीर मिलते हैं।

मीरा स्निग्ध और तृप्त नयनों से पति को बस निहारती रह जाती।

मीरा अब डा॰ मीरा शुक्ला बन गयी थी, पर पोस्ट ग्रेजुएसन में प्रवेश की चिन्ता ने मीरा को पढ़ाई में इतना अधिक व्यस्त कर दिया की आस पास की दुनिया बिलकुल भूल ही गयीं। हर दोपहर, डॉ प्रकाश के थोड़े से फुर्सत के क्षणों में मीरा उनके मेडिकल कॉलेज के चैम्बर में चली आती और वे भी उसी तन्मयता से उनकी तैयारी में मदद करते।

दिसम्बर के कड़कते जाड़े की दोपहर - लगता था बाहर बर्फ के ओले गिर रहे हों। कई दिनो से सूर्य के दर्शन नहीं हुए थे। इन दिनों मेडिकल कॉलेज कुछ खाली दिखता है। खासकर हास्पीटल से अलग वाला हिस्सा।

डा॰ प्रकाश अपने चैम्बर में हीटर की गर्माहट में बैठे लैन्सेट' के नवीनतम अंक में खोये थे कि दरवाजे पर खट-खट की आवाज हुई।

'आ जाओ'। वह जानते थे उनकी पत्नी होगी। बिल्कुल निर्धारित समय पर। डा॰ मीरा कभी भी बिना नॉक किये अन्दर नहीं जाती। आज मीरा के साथ सहमी हुई-सी उनकी सहपाठिनी और डा॰ प्रकाश की शिष्या डा॰ सुमन भी थी।

“ये मुझसे कई बार से कह रही थी। पी॰जी॰ की तैयारी में इसे भी थोड़ी आपकी मदद मिल जाती तो।”

'हु उ...' डा॰ प्रकाश असहज महसूस कर रहे थे। डा॰ सुमन को भी पढ़ाया था उन्होने क्लास में। परंतु चैम्बर में पढ़ाना। पत्नी की बात और है या फिर छात्रों के समुह में ठीक है।

'देखो - ये मेरे साथ ही आया करेगी।' डा॰ प्रकाश की असहजता महसूस करते हुए मीरा ने अनुनय भरी शब्दों में कहा।

“ ठीक है।” डा॰ शुक्ल की विवश-सी सहमति।

मीरा और सुमन हाउस जॉब के बाद जो भी समय मिलता, साथ हीं पढ़ाई करने में गुजारने की कोशिश करती। डा॰ शुक्ल का चैम्बर या मीरा का घर। सिर्फ पढ़ाई। डा॰ शुक्ल भी मुश्किल से मिले थोड़े से फुर्सत के क्षण इनके साथ ही गुजरते।

♦♦ • ♦♦

आज सुबह से ही पुलिस की गाड़ियों की गहमा-गहमी है। कॉलेज में साईने दृडाइ की घोषणा हो गयी है। आधी रात से हीं पुलिस ने छात्रों को समान बाँधने और सुबह तक छात्रावास खाली करने की सूचना माइक से देनी शुरू कर दी थी।

डा॰ सुमन के लिए अचानक बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी। कहाँ जाँए। गाँव जाने से सारा संपर्क टूट जाने का खतरा। पिता किसी तरह अपने पुरोहित के पेशे एवं तीन बीघा जमीन के दम पर घर चला पाते हैं। सुमन को कई बार कालेज एवं हास्टल के फीस के लिए कितनी फजीहत उठानी पड़ती, ये तो वही जानती है। मीरा हर बार उसे मुश्किल से उबारने को प्रकट हो जाती। सुमन का स्वाभिमानी मन विद्रोह करता पर विवशता मजबूर कर देती।

'एक बार डाक्टर बन जाने दो, मीरा के सारे कर्ज चुका दूँगी।' इसके लिए वह करूंगी जो कोई न कर पाये। मीरा अक्सर सोचती।

और आज फिर मुश्किल में। कहाँ जाए अचानक हुए इस बन्द में। सामान बांधे बालकनी में आ खड़ी हुई। हताश एवं रूआंसी।

गाँव चली गयी तो पी॰जी॰ में प्रवेश पाना सपना ही रह जायेगा। इतने पैसे हैं नहीं कि कोई प्राइवेट मकान किराये पर ले आस-पास।

और तभी सामने सड़क पर मीरा की कार आकर रूकी। मीरा सींढ़ीयाँ फलांगती सीधी सुमन के सामने खड़ी।

“ये समान बाँध यहाँ क्यों खड़ी है।श्

फिर क्या करूं। सोच रही हूँ गाँव चली जाउं, पर सब कुछ बिखर जायेगा।'

क्यों तेरा घर नहीं है यहाँ।

एक मीठी झिड़की देती मीरा ने सीधा उसका समान उठाया 'चल घर चलते हैं। मेरा घर तुम्हारे लिए पराया हो गया। सामान उठा -।

जब तक सुमन कुछ समझ पाती, आधा सामान उठाये मीरा सीढियाँ उतर रही थी। और बाकी के सामान के साथ घिसटती हुई सुमन कार में आ बैठी। अनमनस्कय, सकुचाई हुई।

पूरे पैंतालीस दिनो के बंद के दौरान सुमन वहीं रही, मीरा और डा॰ प्रकाश के घर। सब कुछ सुलभ। सिर्फ पढ़ाई। डा॰ प्रकाश भी अब कुछ ज़्यादा ही समय देने लगे थे और प्रकाश के माता-पिता के लिए तो जैसे बेटी घर आ गयी थी।

परीक्षा के दिन नजदीक आ रहे थे। तनाव और दबाव अपने चरम पर था।

रविवार की सुबह - लॉन के गुनगुनी धूप में बैठे मीरा और सुमन के साथ डा॰ प्रकाश सुबह से सवालों को दोहराने में लगे थे।

ष्एक चाय हो जाए। मीरा उठकर चाय लाने अन्दर जाते हुए बोली।

सुमन भी सिर कुर्सी से टिकाए अधखुली आँखों से सुस्ताने लगी।

तभी - उसकी नजर डा॰ प्रकाश पर गयी। दोनों की नजरें क्षण भर को मिली। सुमन से सकुचाकर आँखें बंद कर ली। कई बार छुपी नजरों से देखा। डा॰ प्रकाश एक मोटी-सी अधखुली किताब के पीछे से निर्निमेष उसे निहार रहे थे।

पूरा दिन गुजर गया, सुमन का अशांत मन बार-बार पढ़ाई से भटक जाता।

मीरा एवं सुमन पोस्ट ग्रेजुएसन उसी मेडिकल कॉलेज से पूरा करने के बाद वहीं सहायक प्राध्यापक बन गयी थी। मीरा ने मेडिसिन में और सुमन ने गयनोकोलाजी में पोस्ट ग्रेजुएसन किया था।

बेटी के छठी के मौके पर डा॰ प्रकाश एवं डा॰ मीरा ने अपने सभी अभिन्न मित्रो को बुलाया था।

सुमन आज की पार्टी में मेजबान की हैसियत से इतनी तल्लीन थी जैसे उसके अपने बेटी की छठी हो।

डा॰ प्रकाश के बचपन के मित्र डा॰ नीरज श्रीवास्तव एवं उनकी पत्नी डा॰ मुक्ता विशेष तौर से इस आयोजन में भाग लेने आये थे। डा॰ नीरज और उनकी पत्नी लंदन के मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे। मुक्ता बचपन में मीरा की सहपाठी रही थी। बचपन की दोस्ती और भी खास वाली।

मीरा! मैं एक बात कहना चाहती हूँ... दूसरे दिन सुबह की चाय पर मीरा को अकेले पा मुक्ता ने कहा।

'हाँ' बोल ना। तुझे भी औपचारिक होने की ज़रूरत पड़ गयी।'

'नहीं। परंतु बात कुछ ऐसी है।'

मीरा का मन संशय से भर उठा। हमारा मन नाकारात्मक बातों की कल्पना बड़ी जल्दी करने लगता है।

'ये सुमन ने शादी नहीं कि अभी तक।

देख मुक्ता। वह बहुत ही सामान्य परिवार से आती है। ये तो तुझे भी पता है। अब उसके लायक लड़का, उसके पिता तो खोजने से रहे।

'वो तो ठीक है, पर सुमन जैसी स्थापित लड़की को लड़कों की क्या कमी। कई सहपाठी ही तैयार बैठे होंगे।'

'तो...'

'कहीं प्रकाश और सुमन में...'

'पागल हो गयी है।'

'पता नहीं यार...'

मीरा ने सिरे से बात को खारिज कर दिया। पर मन था कि संशय की गहरी खाई में डुबकियाँ लगाने लगा।

“अरे तेरा चेहरा इतना मुर्झा क्यों गया। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कल से। मेरा वहम होगा। तू मेरी दोस्त है इसलिए कह दिया।”

एक सत्पाह रहकर डा॰ नीरज एवं डा॰ मुक्ता तो चले गये। पर मीरा का मन आशंका से मुक्त न हो सका। कई बार तो ये सब कुछ हास्यास्पद लगता और मुक्ता पर खीज भी होतीे ऐसी बात करने के लिए और... दूसरे ही क्षण लगता शरीर का रक्त निचुड़ रहा है।

जाते-जाते डा॰ नीरज ने मीरा की बेटी का नामकरण किया।

छः साल के बेटे एवं तीन महीने की बेटी के साथ मीरा अपने सुखद संसार में खो गयी थी। अब- फिर से उन्होने ड्यूटी ज्वाइन कर ली। मेडिकल कॉलेज की ड्यिूटी और फिर सीधे घर। पर उनके अंदर की सहजता और शांति जैसे कपूर की भांति उड़ गयी हो।

भीतर ही भीतर बेचैन मीरा अपने दाम्पत्य में वह गर्माहट और स्निग्धता नहीं पाती। लगता प्रकाश किसी दूसरी दूनिया में खोये हैं। दूसरे ही क्षण इसे मन में घर कर गये वहम की तरह निकालने की कोशिश करती। अचानक कोई बहाना बना घर वापस आ जाती। फिर अपने व्यवहार पर झंुझलाती। तो कभी, अचानक डा॰ प्रकाश के चैम्बर में बिना खटखटाये घुस आती और चौकन्नी नजर से इधर उधर देखने लगतीं। डा॰ सुमन के साथ भी व्यवहार कुछ खिंचा होता।

“कितनी पागल हूँ। मुक्ता ने जरा-सा क्या कह दिया शक मेरे मन से निकलता ही नहीं। भला प्रकाश जैसा पति और वह भी मेरी सबसे अच्छी सहेली के साथ। छिः। मेरी सोंच दूषित हो गयी है।”

डा॰ सुमन कॉलेज के अलावा डा॰ वन्दना मुखजी की सहायक हो गयी थी। डा0 मुखजी, गायनोकोलोजी की विभागाध्यक्ष एवं स्त्री रोग में राज्य में उनकी शोहरत सबको पीछे छोड़ देती। दो सालों में ही सुमन उनके लिए अभिन्न अंग बन गयी थी। किसी भी ऑपरेशन में, बिना सुमन के असहज महसूस करने लगती। सुमन की पतली-पतली अंगुलियाँ मानो बनी हीं थी सर्जरी के लिए। उसने कुछ कर्ज लेकर एक छोटा-सा बंगला खरीद लिया था। अपने काम में इतना व्यस्त की मीरा के से कभी-कभार ही मुलाकात हो पाती। हर बार मीरा को लगता - सुमन नजरें चुरा रही है। सुमन के पिता एवं सम्बंधियों ने कई बार प्रयास किया कि वह शादी कर ले पर पता नहीं क्यों हर बार टाल जाती। अब तो सभी ने उसकी शादी के लिए दबाव बनाना भी छोड़ दिया था।

शंकर जी पहले मार्केट चलिए। कुछ सामान लेते घर चलेंगे।

डा॰ मीरा अपनी गाड़ी स्वयं चलाती थी। डा0 प्रकाश का कोई स्टाफ शायद ही घर पर आता हो। सिर्फ एक ड्राइवर-शंकर ही था जो कभी।कभार बच्चों या मीरा के लिए आ जाता था।

आपके साहब को कॉलेज और क्लिनिक से फुर्सत नहीं मिलती और ये घर के ज़रूरी काम मुझे ही निपटाने पड़ते हैं। रोज तो रात ग्यारह से पहले घर नहीं लौटते।श् बस बातचीत करने के लिए मीरा ने यूं ही कह दिया।

“कहाँ मेम साहब। क्लिनिक तो सात बजे ही बंद हो जाता है। और फिर साहब गाड़ी खुद ही लेकर।' अचानक जैसे कोई ग़लत बात उसके मुँह से निकल गयी हो- चुप हो गया।

'क्या गाड़ी खुद ही लेकर। बोलो शंकर।

साहब डा॰सुमन मैडम के यहाँ चले जाते हैं।' अब शंकर ने बात पूरी करने में ही भला समझा।

पति-पत्नी के ऐसे मामलों में पूरी दुनिया भले ही वाकीफ हो जाये पर जिसका हक छीन रहा हो वह शायद अंतिम व्यक्ति होता है जानने वाला।

मीरा संज्ञा शून्य। चुप।

जैसे किसी संकरी-सी गली के दूसरे छोर पर बने झोंपड़पट्टी में आग लग गयी हो। ना तो दमकल की गाड़ियाँ वहाँ पहुँच सकती है और ना ही बस्ती में इतना पानी है कि आग बुझायी जा सके। बस - जलना ही नियति है। सिर्फ चिरांध ही बस जाती है चारो ओर।

बैक। व्यू। मिरर में डा॰ मीरा को देख शंकर डर गया।

'घर चले मेम साहब। लगता है आपकी तबीयत ठीक नहीं।' कई बार दुहराने पर मीरा ने सहमति में बस सर हिला दिया।

तीन महीना गुजर गया। डा॰ मीरा पूरा दिन कॉलेज और अपने बच्चों में स्वयं को व्यस्त रखतीं। घर आते हीं जैसे किसी गर्म माइक्रो वेव ओवेन में बैठी महसूस करती। सास-ससुर के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी नहीं थी। हाँ, डा॰ प्रकाश से बिना कुछ कहे दोनो जैसे दो ग्रहों पर जा बैठे हों। प्रकाश भी कोशिश करते जितना कम अकेले में मिलना पड़े। रात में बिस्तर जाते ही सो जाते या सो जाने का अभिनय करते।

और मीरा के लिए... जैसे बिछवान पर असंख्य नागिन लोट रही हों। फिर भी बिस्तर पर गिरते गिरते जैसे नीम बेहोशी छा जाती और वे बेसुध सो जाती। पर घंटा दो घंटा बितते उठकर बैठ जाती। सारा शरीर झनझना रहा होता - हथेलिया पीसने से भिंगी हुई। घंटो पालथी मारे, बिस्तर में बैठी रहती। कभी उठकर पानी पीती तो कभी खिड़की पर खड़े हो बाहर फैले सन्नाटे से मौन गुफ्तगु करतीं। बगल में लेटे पति पर नजर पड़ते हीं आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता। जिस घर को अपना घर समझ सब कुछ भूल गयी थी वह कब, कैसे पराया हो गया पता नहीं चला।

'मैं तो किरायेदार हूँ इस घर में। कभी भी जाने को कहा जा सकता है। कहाँ जाउँ। और फिर ये दो बच्चे। कल तक जिस जमीन पर खड़े हो अपने भाग्य पर इठला रही थी, वह तो पानी पर तैरता बर्फ का टुकड़ा निकला। अगर मेरे जैसी सक्षम स्त्री इतनी असहाय महसूस करती है तो फिर पति और उसके परिवार पर निर्भर औरतें क्या भोगती होंगी।”

'मीरा...!'

'हाँ।' अचानक डा॰ प्रकाश की आवाज सुन मीरा की तंन्द्रा टूटी।

“मैं देख रहा हूँ पिछले कई महीनों से। तुम्हारी घुटन और बेचैनी। जो सच है वह है। मैं जानता हूँ तुम्हे सब पता है।” डा॰ प्रकाश ने मीरा के हाँथों पर अपना हाथ रखना चाहा।

मीरा उठकर खिड़की पर चली आयी थी।

'फिर इस पर बात करने का क्या मतलब।'

अचानक मीरा को लगा जैसे यह कोई निरीह स्त्रिी नहीं बल्कि अपने जीवन पर नियंत्रण रखने वाली एक सशक्त और सक्षम महिला बोल रही हो। आज प्रकाश को नकार कर जैसे खुद को पा लिया हो।

'सो जाओ प्रकाश।'

और मुँह फेर कर बाहर लान में निकल गयी अचानक। ठंढी अंधेरी रात... कब वापस आकर सोयी कुछ होश नहीं। महीनो बाद आज नींद आयी थी। दिन चढ़े तक सोती रही।

फोन की घंटी ने डा॰ प्रकाश और मीरा की नींद तोड़ दी। साईड लैंप जलाते हुए डा॰ प्रकाश ने बिना दूसरी तरफ की आवाज बिना सूने कहा - 'हाँ नीरज! बोल।'

उन्हें पता था रात के एक बजे नीरज ही फोन कर सकता है।

नीरज अगले महीने आ रहा है। वह सिंगापुर एक कांन्फ्रेंस में आने वाला है, फिर हमलोगों से मिलने आयेगा। बच्चों के बारे में पूछ रहा था।'

कहना मुश्किल था कि प्रकाश आत्मालाप कर रहे हैं या मीरा को संबोधित।

एयरपोर्ट से घर आते हुए डा॰ नीरज ने डॉ0 प्रकाश का हाथ दबाते हुए कहा “जॉनी वाकर लाया हूँ तेरे लिए - ब्लू लेबल। चल आज शाम बैठ गप्पे मारेंगे।

डा॰ प्रकाश स्वयं भी चाहते थे। पता नहीं कितने दिन हो गये थे घर में घर की तरह रहे। आज हर तरफ से छुट्टी कर रखी थी।

शाम से दुनिया जहान की बातें चलती रही। दोस्तों की, कालेज की।

'प्रकाश इस बार मैं कुछ खास बात करने आया हूँ।'

'मुझे पता है। परन्तु ये बात तुम तक कैसे पहुँच गयी।'

शुतुरमुर्ग की तरह बालू में आँखें छिपा लेने से सच्चाई थोड़े ही छुपती है। पूरी मेडिकल फ्रेटरनीटि जानती है इस बात को।

तू क्या कर रहा है यार। क्या नहीं है तेरे पास। एक ऐसा घर जो जन्मों की प्रार्थना के बाद मिलता है। आखिर क्या कमी है तुझे। उसका भी जीवन है... और तेरी पत्नी, तेरे बच्चे।

'कमी? कमी तो कुछ भी नहीं।' तुझे क्या लगता है प्यार कोई बरसात का पानी है कि जहाँ गड्ढा देखा वहीं जमा हो गया और मौसम बदलते हीं सुख कर निशान भी नहीं छोड़ता।'

“कमी से प्यार का क्या रिश्ता। प्यार तो पहाड़ का सीना चीर कर बहता अशेष झरना है। इसके श्रोत का पता करना बड़ा मुश्किल है। कब, कहाँ, किस उम्र में हो जाये, कहा नहीं जा सकता।”

और जिससे तूने शादी की। वह प्यार नहीं। फिर सुमन! क्या वह सिर्फ प्यार के भरोसे जीवन गुजार पायेगी। आखिर उसको भी तो अपना परिवार चाहिए।'

'क्या करू, विवश हूँ। सब कुछ जानते समझते हुए। मीरा के प्रति घोर अपराध बोध भी है। सब कुछ भरा होने के बाद भी... बड़ी सुखद अनुभूति है यार।

हाँ! सुमन रह जायेगी मेरे लिए।'

'यह तो निरा स्वार्थ है।' अब नीरज तल्ख हो आये थे।

जो भी हो।'

तू जानता है प्रकाश। सारे विवाहेत्तर सम्बन्ध देह लिप्सा में सराबोर रिश्ते हैं।'

"विवाहेत्तर सम्बन्ध सामाजिक वितृष्णा से बना अघोर शब्द है। यह सच है कि स्त्री-पुरूष के बीच बिना देह के प्रेम नहीं रह सकता। पर यह सिर्फ देह के लिए नहीं... अकथ अनुभूति है ये।"

डा॰ प्रकाश के चेहरे पर स्निग्ध भाव देख नीरज भी चुप हो गये।

दुसरे दिन दोपहर की जहाज से वापस लौट गए डॉ नीरज। अपने दोस्त के अजनबी घर को पीछे छोड़।

डा॰ मीरा ने खुद को अपने पेशे में डुबा दिया। हर मरीज का दुःख उनके अपने दुःख का विस्तार था। कॉलेज की सबसे लोकप्रिय और गरिमामय प्रोफेसर के रूप में जानी जाने लगी थी। दुनिया के लिए डा॰ प्रकाश एवं डा॰ मीरा आदर्श पति-पत्नी थे। बच्चों के लिए आदर्श माँ बाप। उनके संस्कारो ने बच्चों को घर का बोध कराया एवं इतने सफल बच्चों के लिए आज भी माँ-बाप सब कुछ थे।

डा॰ सुमन ने सर्जरी में वह नाम कमाया कि डा॰ वन्दना मुखर्जी भी गर्व करती अपनी इस अभिन्न शिष्या पर। बच्चे कभी-कभार सुमन आंटी से मिलने भी जाते। डा॰ प्रकाश शुक्ल की शाम तो निर्वाध डा॰ सुमन के घर बीतती।

अभी के फोन ने सुमन की मानो हृदय-गति रोक दी। किसी तरह कपड़े बदले और अभि के पहुँचने तक मुख्य-द्वार तैयार खड़ी हो गई थी। सब पता था, हृदय तार-तार डा॰ प्रकाश को देखने के लिए। मीरा के घर जाकर मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी।

सुमन के आते ही सभी खड़े हो गये। बिस्तर के बगल की कुर्सी पर बैठते सुमन ने डा॰ प्रकाश के हाथ पर हाथ रखा। अपने हाथों में दबा लिया और निर्विकार बैठी रही। रेगिस्तान के दोपहर की तरह सूखी आँखे अनायास मीरा की तरफ उठी। प्रकाश का हाथ अपने हाथों में लिए मीरा के तरफ जुड़ गये। जैसे पूरे जीवन मीरा की यातना का कारण होने के लिए क्षमा माँग रहे हो।

प्रकाश ने कराह कर आँखें खोली। कुछ कहना चाहते थे। होंठ हिल रहे थे पर शब्दों को वाणी नहीं। सुमन के हाथ पर दबाव बढ़ गया... सुमन के प्रति कृतज्ञता जताती। आँखें मीरा की तरफ उठी। क्षमा याचना करती। सुमन ने हाथ बढ़ाया मीरा की तरफ और खींच कर प्रकाश के हाथों पर रखा। सबकुछ ठंढा।

तेरह दिनों की गहमा-गहमी। आमने। सामने पड़ती रही पर कभी कुछ बोल नहीं पायी दोनों। इन दिनों में शायद ही किसी ने सुमन को बोलते सुना होगा।

'आती रहना। अब अपने घर जाने के लिए विदा माँगने आयी सुमन को बस इतना ही बोल पायी मीरां'

डा॰ नीरज के साथ अभि और अनन्या कार तक छोड़ने आये। कार की पिछली सीट पर बैठी सुमन को देख कर लगता जैसे किसी लाश को बैठा दिया गया हों। निर्विकार... मानो जीने का कारण ही खो बैठी हो।

'लगता है सबकुछ कल ही तो घटा है। पढ़ाई के दिनों का संघर्ष और हमेशा खड़ी स्नेह एवं सहयोग को आतुर मीरा। सोचा था मीरा के लिए कभी वह करूंगी जो किसी ने नहीं किया। सचमुच। जीवन का एकाकीपन जो उसके कारण मीरा को मिली, भला और कौन दे सकता था।

मीरा - कभी एक शब्द गिला का नहीं निकाला उसके मुँह से। पूरी दुनिया के सामने पति और परिवार की मार्यादा को हमेशा बनाकर रखा। विचारो के अंधी सुरंग में डूबती-उतराती सुमन वापस आ गयी अपने घर। लग रहा था वह किसी भूत बंगले में रहने आ गयी हो। जिसके लिए सारा जीवन अकेला गुजार दिया, कभी बच्चों की चाह नहीं की, सिर्फ शाम के कुछ लम्हें साथ रहने के एवज में सारी दुनिया से अलग हो गयी थी। फिर भी...जीवन की सार्थकता इसी प्यार में है। बहुत ही सुखद और अनंत।

'प्रकाश। मैं धन्य हो गयी तुम को पाकर'

वो आकर उसी लॉन चेयर पर बैठ गयी जहाँ प्रकाश बैठकर उससे गप्पे लड़ाते थे। सामने पेंड़ से चिड़ियों का एक झुण्ड उड़ा... अपना घोसला खाली कर

पेड़ अकेला, वीरान... और चारो ओर धुप्प अँधेरा छा रहा था।