अकबर का घर / कमल
असमतल, चिकनी सतह पर इधर-उधर फिसलते पारे-सा, अकबर का मन भी किसी एक जगह नहीं टिक पा रहा था। कभी तो उसे लगता तुषार की बात मान अपना मकान बेच दे और सारे झंझट से मुक्ति पाये, तो दूसरे ही पल लगता कि चंद लोगों के वैसे नाजायज दबाव में भला वह अपना मकान क्यों बेचे ? इसी पारे-सी फिसलन का परिणाम था कि वे दोनों आमने-सामने बैठे अपनी-अपनी बातों पर अड़े हुए थे । उनके बीच टेबल पर अछूत-सी चाय प्यालियों में सुलग रही थी।
“तो तुम अपना मकान नहीं बेचोगे ?” इधर से तुषार पूछता।
“नहीं, कभी नहीं !” उधर से अकबर का जवाब आता।
हालाँकि लंगोटिया यार होने के कारण तुषार भी नहीं चाहता था कि अकबर अपना मकान बेच कर बेघर हो जाए। इसलिए भीतर से उसे अकबर का वह उत्तर अच्छा लग रहा था। लेकिन उन दिनों मुहल्ले की परिस्थितियां कुछ इस कदर बिगड़ चुकी थीं कि अकबर के मकान से ज्यादा उसे अकबर के जीवन की चिन्ता हो रही थी ।
“चपंडुक हो तुम, पूरे के पूरे चपंडुक !” तुषार बोला.
“और तुम ढक हो। वह भी स्माल नहीं कैपिटल डी से शुरू होने वाला ढक !” अकबर ने जवाब दिया।
“ठीक है।...तुम मरोगे एक दिन।” वह झुंझलाया।
मगर उधर से अकबर की लाहौरी-पंजाबी हँस कर जवाब लायी, “ओय जाण दे परां, मेरा वाल वी विंगा नईं होणा (जाने दो यार मेरा बाल भी बांका नहीं होगा) ।”
....और हर बार की तरह उस बार भी तुषार अचानक आयी अकबर की पंजाबी से गड़बड़ा गया । ऐसे मौकों पर वह कभी न समझ पाता कि क्यों अकबर अनायास ही पंजाबी बोलने लगता है ? शायद उसके अब्बा का असर उस पर पर छा जाता है और वह इस तरह पंजाबी बोलने के बहाने अपने पुराने दिनों को याद कर लेता है।
लेकिन तुषार की गड़बड़ाहट देख जल्द ही अपनी आज की भाषा पर लौटते हुए अकबर ने बात जारी रखी, “मियां, तुम्हारे जनाजे को कँधा दिये बिना मैं नहीं मरने वाला । समझे...हो..हो...हो...।”
उसकी हंसी तुषार की झुंझलाहट की आग में घी का काम कर गई, “ज्यादा स्मार्ट मत बनो। ...तुम कबीर के नहीं कंसों के जमाने में रह रहे हो समझे, किसी भुलावे में ना रहना।”
“...तो कबीर क्या अच्छे समय में हुए थे ?” उसकी बात पर मुस्कराते हुए वह पलट वार करता और तुषार लाजवाब हो कर रह जाता। सच, बातों में वह अकबर से कभी जीत नहीं पाता था।
“आप लोग चाय तो पी लिया कीजिए।” अकबर की पत्नी नज़मा टेबल पर ताजा चाय की प्यालियां रख ठंढी चाय की प्यालियां उठा लेती।
पिछले कई दिनों से तुषार के इस प्रश्न कि ‘मकान बेचोगे या नहीं ?’ के उत्तर में अकबर की ‘नहीं!’ के अलावा उनकी उस अंतहीन बहस का कहीं अंत न होता था। इस तरफ तुषार की झल्लाहट और उस तरफ अकबर की मुस्कराहट दोनों अपनी-अपनी जगह पर डटे रहते।
दुनियाँ के हर आम आदमी की तरह अकबर और तुषार के घरों के भी अपने खटराग...पटराग...चटराग बने रहते और उनकी साप्ताहिक लंबी बैठकी का रविवार आ पहुंचता, जिस एक दिन दोनों दोस्त आराम से बैठने बतियाने की स्थिति में होते थे। वर्ना तो सारा हफ्ता कभी दफ्तर से लौटने में देर तो कभी घरों का सौदा-सुलफ, कभी कुछ तो कभी कुछ लगा ही रहता...। इस बीच की मुलाकातें ‘हेलो हाय टाइप’ की होती थीं। पिछली बार बैठक अकबर के घर थी तो इस बार तुषार के घर। भीतर से चाय, पकौडि़यां, मिक्सचर आदि अपने सामान्य अंतरालों पर टेबल हथिया रहे थे। उनकी गप्पबाजी का चक्का सारे दुनिया जहान की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, खेल और फिल्म आदि की बातों से घूम-घाम कर फिर से अकबर के घर बेचने पर आ अटका था।
गुजरते हुए दिनों के साथ ही उनके बीच उस विषय पर हो रही बात-चीत और तल्ख होती जा रही थी, लेकिन हर बार ही बे-नतीजा रह जाती।
“समझ में नहीं आता, तुम किस दुनियाँ में रहते हो?” तुषार धुँधुआ रहा था।
“मैं तो इसी दुनियाँ में रहता हूँ, तुम अपनी दुनियाँ से जरा बाहर निकला करो। आज की दुनियाँ बहुत आगे निकल गयी है। हमारे पूर्वजों का मंदिर-मस्जिद और धर्म के नाम पर लड़ने वाला जमाना अब बदल चुका है। अब वैसा कुछ नहीं होगा समझे।”
“तुम मूर्ख हो, कुछ भी नहीं बदला!” तुषार उसे समझाने का प्रयत्न करता, ”जिस देश में मंदिर-मस्जिद नहीं हैं, वहां दंगे नहीं होते क्या? इतना भी नहीं जानते, प्रश्न मंदिर-मस्जिद का नहीं, लड़ाई और दंगे-फसाद का है। दरअसल सबसे सीधा और सटीक होने के कारण हमारे देश में धर्म को एक बहाना बनाया जाता है। यदि ये न होता तो कोई और बहाना ढूंढ लिया जाता क्योंकि मूल प्रवृति तो हड़पना है और दंगों की आड़ में हड़पना बहुत आसान होता है, समझे। अमां यार, कभी तो अपनी कहानी-कविता और शेरो-शायरी की काल्पनिक दुनियाँ से बाहर निकल कर अखबार भी पढ़ लिया करो। तुम्हारे उस साहित्य में खूबसूरत अतीत होता है या खूबसूरत भविष्य के जवान मगर हवाई सपने, या फिर होते हैं केवल काल्पनिक और सुंदर जीवन के कभी भी न सच होने वाले भुरभुरे सपने। जबकि अखबारों में होता है, वर्तमान का असल और कुरूप चेहरा । तुम अपने समाज का केवल खूबसूरत अक्श ही मत देखा करो, साक्षात् समाज को देखो जिसकी सूरत आज के समय में बहुत ही भद्दी और डरावनी हो चुकी है।”
“बिल्कुल ठीक। अच्छा, तुम तो साहित्य की दुनिया में नहीं रहते, तो फिर इतना चिंतित क्यों हो। बेफिक्र रहो और ऐश करो।”
“मैं अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए चिंतित हूं।”
“मुझे कुछ नहीं होगा । तुम परेशान मत रहो ।” अकबर हंसता और उठते हुए कहता, “अच्छा फिर मिलेंगे! ...हो...हो...!”
दूर जाती उसकी हंसी बड़ी देर तक तुषार के कानों में घुलती रहती, जो सारी आशंकाओं तथा झुंझलाहट के बावजूद गरम गुड़-सी मीठी और जलतरंग के संगीत-सी मोहक लगती । तुषार चाहे जो भी कहता रहे, लेकिन अकबर अपने उन विश्वासों से कभी भी बाहर न निकल पाता, जिनकी नींव कभी उसके अब्बा हुजूर ने डाली थी।
“क्या अकबर भाई साहब को सच में अपना घर बेच देना पड़ेगा ?” सरला अपनी बोझिल आवाज़ और उदास आंखों से तुषार के पास आ बैठी। उसकी आंखें इस बात पर आकर उदास हो जाती हैं वर्ना तो वे खूबसूरत आंखें हमेशा ही चमकती, मुस्कराती रहती हैं। इन्हीं आंखें में झांक कर तो अकबर की बीवी नजमा ने पहली बार उसे आपा कहा था और तब से वह रिश्ता आज तक निभ रहा है।
उस दिन भले ही सरला ने प्रतिवाद किया था, “मैं तुम्हारी आपा नहीं सहेली बनूंगी! सहेलियों में हर तरह की बातें होती हैं। आपा बना दोगी तो मुझे ‘ग्रेविटी मेंटेन’ करनी पड़ेगी। केवल ढेड़ माह का ही तो फर्क है हम दोनों की शादियों में।”
“बातें तो हम अब भी हर तरह की किया करेंगी, बिल्कुल सहेलियों की तरह। लेकिन आप इस मुहल्ले में मुझसे पहले आयी हैं, इस नाते बड़ी हैं।” सरला को निरुत्तर करती नजमा के चेहरे पर शोख मुस्कान थी।
अकबर के मरने की भविष्यवाणी तो तुषार ने झल्लाहट की सहज प्रक्रिया स्वरूप की थी, लेकिन इधर के दिनों में तेजी से बदलती राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से वह भविष्यवाणी सच होने के मुहाने पर पहुँच गई थी। होना तो यह चाहिए था कि वह भविष्यवक्ता बनने की खुशी मनाता लेकिन वह है कि केवल रोता रहता है। बल्कि वह तो बिल्कुल नहीं चाहता कि उसकी भविष्यवाणी सच हो।
कई लोगों के लिए यह बात अजीब होगी और एक हद तक पीढ़ादायक भी कि हिन्दू हो कर वह क्यों एक मुसलमान के लिए रोता रहता है...क्यों वह अकबर की जिन्दगी के लिए चिंतित है ? खैर वैसे लोग भी अब इस बात से प्रसन्न हो रहे हैं कि अंततः तुषार पर तुषारापात होने वाला है और अब अकबर का अंत बहुत ही निकट है।
...लेकिन जरा ठहर जाएं … इस तरह बताने से सब कुछ बहुत सरलीकृत होता जा रहा है और बेमजा भी। बेमजा कहानी भला कैसी कहानी ? क्योंकि कहानी कितनी भी सच क्यों न हो अगर उसे कहानी बनना है तो मजा देना ही होगा ।
फ्लैशबैक की मदद लें तो इस कहानी का प्रारंभ उसी दिन हो गया था, जिस दिन अंग्रेजों के किस्से का अंत हुआ था। अर्थात् दो सौ सालों तक लूटने और राज करने के बाद उस दिन, जब आधा अगस्त गये और आधी रात बीते, सन् सैंतालिस में अंग्रेज अपना बोरिया-बिस्तर समेट ‘शान से’ ब्रितानिया को लौट रहे थे।
उधर लाहौर में अकबर के अब्बा, कट्टार कांग्रेसी और गाँधी जी के सच्चे भक्त, रहते थे।
क्या कहा कौन वाले गाँधी जी? अरे भाई, हमारे वही लंगोट वाले गाँधी जी, जिनके सारे सत्याग्रहों के बावजूद अंग्रेजों ने ब्रिटेन जाते-जाते, गधों को भी मात करती ऐसी दुलत्ती झाड़ी कि हमारा देश दो टुकड़ों में बंट गया और देश की आजादी के लिए हुए सारे संघर्ष, सारी मानवता बंटवारे की सांप्रदायिक हिंसा में लहुलुहान हो कर छटपटाने लगी। खैर और लोग तो तत्काल संभल कर दोनों तरफ लूट-मार में लग गये। लेकिन उस कट्टार कांग्रेसी यानि अकबर के अब्बा हुजूर को भला कोई कैसे समझाता ? उसका मन तो बंटवारे को स्वीकारने के लिए कत्तई तैयार न था। आम जन के शब्दों में, ‘देश आजाद होने के उस समय उसका दिमाग उलटी बातें कह रहा था। यानि उलटा चल रहा था।’
लाहौर में अपने घर के बाहर खड़े वे जोर-जोर से कह रहे थे, “ओए जाण दे, मैं नईं मानदा फिरंगियां दी इस वाँड् नूं (मैं फिरंगियों का यह बंटवारा नहीं मानता हूँ) ।” उनका चेहरा तप रहा था। जवान, गदराया,पंजाबी बदन गुस्से से कांप रहा था और मुंह से झाग निकल रही थी।
लोगों ने उसे समझाना चाहा था, “तेरे मणण, ना मणण न की हुंदा ए। तक्सीम हो चुक्की ए, पाकस्तान बण चुक्कया ए। (तुम्हारे मानने ना मानने से क्या होता हैं। बंटवारा हो चुका है, पाकिस्तान बन चुका है) ?”
मगर वे तो किसी भी तरह मानने को तैयार न थे, “ओय कैसा पाकस्तान ? कित्थों दा पाकस्तान ? (ओए कैसा और कहाँ का पाकिस्तान )?”
उन्होंने अपनी चादर (लुंगी) की गांठ कसते हुए कहा, “इंज होया ए, तां संबालो आप्पणा पाकस्तान, मैं तां हिन्दोस्तान विच ही रैणा ए (ऐसा है तो संभालो अपना पाकिस्तान मैं तो हिन्दुस्तान में ही रहूंगा)।”
घर-परिवार तथा मुहल्ले वालों ने उन्हें बड़ा समझाया लेकिन समझाने वालों के सभी तर्क दर किनार कर, उन्होंने चटपट अपने मन में ठान लिया। बस फिर क्या था, निकले पड़े अंग्रेजों को धत्ता बताने के लिए भारत की ओर। अपनी तरफ से वे बिल्कुल सही काम कर रहे थे परन्तु तब और उन हालातों में लाहौर छोड़ कर भारत आने का मंसूबा रखने वाले उस मुसलमान को सारे लोग पागल ही तो कहते! और सभी लोग उसे पागल कह भी रहे थे! चढ़ती जवानी का उबाल और पंजाबियत की खासियत वाला वह तथाकिथत पागल किसी के भी कहने से नहीं रुका। उसका कहना था, भारत आ कर वह अंग्रजों को धत्ता बताएगा और कि वह आजाद मुल्क का नागरिक होने के नाते अंग्रेजों के बंटवारे वाले फॉर्मूले को पूरी तरह खारिज करता है। उसका तो यह भी कहना था कि सारे मुसलमानों को हिन्दुस्तान और हिन्दुओं को पाकिस्तान जा कर बस जाना चाहिए। अंग्रेजों ने जाते-जाते हम भारतवासियों को जो उल्लू बनाया था, उसका बदला लेने का यही एकमात्र रास्ता है। लेकिन उसकी बात किसी ने नहीं सुनी ! साथ ही उसे बताया गया कि वह पागल है और पागलों की तरह चुपचाप एक तरफ बैठ जाए। अब पागलों की भी बात भला कोई सुनता है ? वैसे भी देश से प्रेम करने वाले पागल ही तो होते है ? तभी तो शहीदे आजम भगत सिंह, बिस्मिल और खुदीराम बोस जैसे पागल हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमते हैं । चंद्रशेखर ‘आजाद’ जैसे पागल अंग्रेजों के हत्थे चढ़ने की जगह स्वयं को गोली मार, आजाद मौत लेते हैं, तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे विदेश जा कर हिन्द के लिए फौज रचते हैं। अगर वे सब देश-प्रेम में पागल न होते तो क्या पड़ी थी, उन्हें वह सब करने की ? आज के नेताओं की तरह वे भी चुपचाप माल काटते और चैन की बंशी बजाते ।
ख़ैर...अकबर के अब्बा के सर पर बंधी पगड़ी, खुली दाढ़ी, और उसकी फर्राटेदार लाहौरी-पंजाबी सुन कर सन् सैंतालिस में अटारी-बार्डर पार करने पर सब ने उन्हें सिक्ख ही समझा था। जब वह कहते कि वो मुसलमान है और अंग्रेजों को उल्लू बनाने के लिए भारत आ गया है, तब लोग उस पर तरस खाते हुए कहते, “पाकिस्तान में अपना सब कुछ गंवाने के कारण सरदार जी का दिमाग चल गया है।”
उस समय के लोग निश्चय ही पुरुषार्थ में ज़रा कमज़ोर रहे होंगे जो नीचे से चादर (लुंगी) उठा कर अकबर के अब्बा का ‘धर्म-चेक’ न कर सके! वर्ना आज के दौर में तो गर्भ से भी अजन्मे बच्चे निकाल कर सहजता से ‘धर्म-चेक अनुष्ठान’ संपन्न किये जाते हैं। फलतः वे एक लंबे समय तक लोगों की नजरों में पागल-सिक्ख ही बने रहे थे।
वह बेइमान दिनों और धोखेबाज रातों का दौर था। कभी भरी दोपहर में हैवानियत का अंधेरा छा जाता तो कभी काली रात में भी इंसानियत की रोशनी कौंध जाती। तेज आंधी के थपेड़ों में दिशाहीन उड़ते सूखे पत्ते की तरह अपनी उन बातों के साथ न जाने वे कहां-कहां भटकते रहे। उन्हीं भटकते दिनों की एक डूबती शाम उन्हें नूर मिली थी। पाकिस्तान जाने के लिए निकले अपने परिवार से बिछड़ कर भटकती दुखी, हैरान और परेशान अकेली नूर ! जिसकी खौफज़दा आंखों में सब कुछ था, नही था तो बस जीवन। सामने पड़ते ही, पहली नजर में वह भी उन्हें सिक्ख समझी थी और जान गई कि अब उसका अंत निकट है। लेकिन डर के मारे बेहोश होने से पहले अपने कानों में पड़े शब्द, “डर मत, अल्लाह पर भरोसा रख।” उसे राहत दे गये थे । होश में आने के बाद जब उन दोनों ने एक दूसरे की सच्चाई जानी तो लगा कि उन्हें एक दूसरे की सख्त जरूरत है । फिर नूर को उनकी जिन्दगी का नूर बनते देर न लगी।
जीवन भले थम जाए, समय नहीं रुकता । दिन बीतते गये। तारीखें बदलती गईं । नये देश...नये हुक्मरान...नई समस्याएं । अलग हुए उन दोनों देशों में न जाने क्या-क्या होता रहा? नहीं हुआ तो बस वह सब, जिसके लिए आजादी के दीवानों ने अपने जीवन होम किये थे और देशवासियों ने उम्मीदें पाल रखी थीं ।
...फिर धीरे-धीरे अकबर के अब्बा ने उस तरह की बातें करनी स्वयं ही बंद कर दीं। लेकिन यह कभी न माना कि पाकिस्तान छोड़ हिन्दुस्तान आ कर उसने कोई गलती की थी। और ना ही कभी पाकिस्तान लौट जाने के बारे में सोचा, जैसा कि उन दिनों उनके पाकिस्तान वाले रिश्तेदार चाहते रहे थे। उनकी दुनियां यहीं थी और वह दुनियां रफ्ता-रफ्ता यहीं गहरी होती जा रही थी। जब उनके घर पहली संतान के रूप में अकबर का जन्म हुआ तो वे बड़े प्रसन्न हुए।
“इसका नाम अकबर रखेंगे !” अकबर के अब्बा ने नूर के बालों में प्यार से अंगुलियां फिराते हुए कहा था। तब तक उसकी लाहौरी-पंजाबी जाने कहां खो चुकी थी।
“अकबर क्यों ?” नूर ने अपनी कजरारी आँखें उनके चेहरे पर टिका दीं।
“हिन्दू-मुसलमान को एक करने के लिए उस अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ चलाया था। हमारा अकबर भी इंसानों के बीच खड़ी नफरतों की दीवारें गिराएगा।” बोलते-बोलते उनकी आँखों में चमक भर गयी थी। न जाने क्यों उन्हें इस बात का हमेशा ही भरोसा रहता कि एक दिन सभी लोग मिल जाएंगे और हिन्दुस्तान, पाकिस्तान मिल कर फिर से एक भारत बन जाएंगे...वही महान जगत्गुरू की प्रतिष्ठा वाला भारत । भले ही आज हालात अच्छे न हों, लेकिन एक दिन जरूर सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। इंसान हमेशा के लिए जानवर बना नहीं रह सकता। ये धर्म और जात-पात के नाम पर होने वाले झगड़े बंद हो कर ही रहेंगे। जब तक वे जिन्दा रहे अमन और खुशहाली के वे सपने हमेशा उनके दिल में जीवित रहे।
पता नहीं अब्बा हुजूर के विश्वासों का असर था या अपने नाम का, अकबर अपने अन्य भाइयों-बहनों से स्वभाव में काफी अलग था। अब्बा का वह भरोसा जो अणुवांशिकता के माध्यम से सबसे ज्यादा अकबर में बह आया था, काफी दिनों तक बना रहा।....लेकिन फिर हालात तेजी से बदलते चले गये थे। हालाँकि वैसा होना ‘जेनेटिक्स’ के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि जीवों में वे गुण-दोष तो पीढि़यों तक अक्षुण बने साथ-साथ चलते रहते हैं। लेकिन यहां वैसा नहीं हो रहा था।
तो हुआ यूँ कि बीसवीं सदी की अंतिम चैथाई में तब से, जब से कुछ लोगों ने इसे मुहल्ले को बलपूर्वक ‘हिन्दु-मुहल्ला’ बनाना शुरू किया था, उस मुहल्ले में कुछ लोग तथाकथित रूप से ‘असल हिन्दू’ बन गये और गर्व से कहने लगे थे कि भारत, भारत नहीं असल में हिन्दुस्तान है और हम भारतीय नहीं हैं, ‘गर्व वाले’ हिन्दू हैं। अगर यहां कोई गैर-हिन्दू रहना चाहता है तो वह हिन्दू बन कर ही रह सकता है। अर्थात् यदि वह मस्जिद, गुरूद्वारा, गिरजा आदि जगहों पर जाता है तो कोई बात नहीं, लेकिन इबादत उसे हिन्दू रीतियों से ही करनी पड़ेगी! यथा अजान, अरदास और प्रेयर की जगह आरती करनी होगी घंटे बजाने पड़ेंगे। अगर वैसा न किया, तब बिना किसी किन्तु-परन्तु (इफ्स और बट्स) के ‘के.बी.के.बी.’ अर्थात् कहीं भी, कभी भी मरने के लिए तैयार रहना होगा।
वैसे मोटे तौर पर देखा जाए तो पूजा आदि वाली इन बातों में ऐसी कठिनाइयां न थीं कि वे मानी न जा सकें। लेकिन सभ्यताओं का इतिहास उठा कर देख लें, बातें मनवाना तो कभी भी कहीं भी ‘गर्व वालों’ का उद्देश्य भी नहीं रहा है। उनकी ‘अर्जुन-दृष्टि’ आम आदमी पर नहीं हर काल में सत्ता की गद्देदारी कुर्सियों पर रहती है। वह सत्ता, जो मान मनौव्वल से नहीं, सर फुटौव्वल से ही मिलती है। वैसे भी लड़ने-मारने के गुण गुफा-युग से ही मनुष्यों के गुणसूत्रों में चिपक-चिपक कर लिपटे हुए हैं। उन पर ‘पोजिटिव क्रोमोजोमल म्यूटेशन’(रचनात्मक गुणसूत्रीय बदलाव) के लिए किसी भी रेडियेशन का असर नहीं पड़ता। वैसे भी मान-मनौव्वल से ज्यादा जब लड़ने के बहाने ढूंढना उद्देश्य हो तो क्या किया जा सकता है ? क्योंकि ‘मान-जाना’ मतलब सुलह-सफाई यानि कि शांति !
‘शांति’ शब्द के उच्चारण से ही अचानक चारों तरफ अजीब सी तिलस्मी हवाएं बहने लगतीं जिनकी सरसराहट मजाक उड़ाने के से अंदाज में कानों में फुसफुसातीं, “ओम्...शांति...ओम्! ओम्...शांति...ओम् !’
तिलस्मी हवाओं का पहला झोंका पूछता, “ए! क्या बोलता तू ?”
दूसरा कहता, ‘शांति?...येड़ा है क्या !”
तीसरा तेजी से झपटता आता, “मूर्खों ! युद्धों और महाभारतों की परंपरा वाले हमारे देश में शांति?”
चौथा भला क्यों पीछे रहता, “शांति यहाँ चाहता कौन है ? गुफा-युग से निकल आये उन मानवों का दिमाग अभी भी उन पथरीली गुफाओं के उजाड़ अंधेरों में भटक रहा है।”
और तब पांचवां झोंका के.एल. सहगल की आवाज में फैसला सुनाता, “....तो हासिल ये कि जब तक मार-पीट, और खून-खराबा न हो जाय, हम जी के क्या... या करेंगे ?” और तिलस्मी हवाएं कोरस करने लगतीं, “नहीं, नहीं ! शांति बहन जी नहीं चलेगी, अशांति भाभी जी चाहिए। अशांति...अशांति !” फिर जैसे अचानक बिजली चली जाए, अचानक ही छा जाने वाला सन्नाटा बतलाता कि वहां बातें करती तिलस्मी हवाएं चली गई हैं।
तो इसी तरह के कई ऊट-पटांग आदेशों के अंतर्गत हिन्दुओं के मुहल्ले में स्थित अकबर का तथाकथित मुसलमान-घर अड़ गया था। दरअसल घर का हिन्दु-मुसलमान होना नहीं, इसका असल कारण उस घर का मुख्य बाजार में मेन रोड पर स्थित होना था। कुछ गर्व वाले हिन्दुओं का सोचना था, अगर उस घर को झटक लिया जाए तो वहां एक अच्छा खासा मार्केटिंग कंप्लेक्स बन जाएगा। जहां देसी से ज्यादा विदेशी कपड़ों, टी.वी., फ्रिज, मोबाइल आदि इलेक्ट्रोनिक्स सामानों, पिज्जा-बर्गर और भी न जाने क्या-क्या चीजों की रिंग-बिरंगी, जलती-बुझती, मचलती-चमकती दुकानें होंगी। जिनसे होने वाली आमदनी उन्हें देखते ही देखते फर्श से अर्श तक ले जाएगी । उन्हें अकबर का घर बुरी तरह ललचाने लगा था । उन लोगों को अपने तथा सुनहरी बाजार के बीच एक अकेला अकबर खड़ा नजर आ रहा था ।
...तो जिस तरह आधा अगस्त गये और आधी रात बीते सन् सैंतालिस वाले उन दिनों अकबर के अब्बा हुजूर हिन्दुस्तान आने के लिए अड़ गये थे उसी तरह इक्कीसवीं सदी बीतने वाले इन दिनों में अकबर हिन्दुओं के मुहल्ले वाले अपने पैतृक घर को ले कर अड़ गया है। ...कि वर्षों से वह अपने परिवार के साथ वहां रहता आया है, उसे बेच कर कैसे और क्यों कहीं और चला जाए ? उन दिनों उसके अब्बा हुजूर नहीं माने थे तो आज भला वह कैसे मान जाता ?
उसके अब्बा को याद करने वाले बातें करते हैं, ‘अजीब अहमकों का खानदान है! न जाने क्यों हमेशा मरने पर लगे रहते हैं। अरे भई, अगर बहुत उम्र हुई तो भी 70-80 साल की ही जिन्दगी होगी न, जरा इधर-उधर कर के काट लो । भला क्या बिगड़ जाएगा ? हिन्दु बनने कहा जाए हिन्दु बन जाओ, मुसलमान बनने कहा जाए मुसलमान बन जाओ । इसमें क्या हर्ज है ? वैसे भी पूजा करो या इबादत कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ! जिन्दगी ऐसे ही रहेगी, हमारी कठिनाइयों का हल कहीं ऊपर से कभी नहीं टपकेगा। अपनी कठिनाइयों के हल हमें स्वयं ही ढूंढने पड़ेंगे, वह भी नीचे और इसी जमीन पर। लेकिन अकबर जैसे लोग ऐसे मूर्ख हैं कि मानते ही नहीं । क्या कहते हैं, जिन्दगी को सुंदर बनाएंगे, समाज को सुंदर बनाएंगे, सभ्यता-संस्कृति बचाएंगे, आने-वाली नस्लों को सुंदर देश दे कर जाना है....न जाने क्या-क्या ऊल-जलूल बकते रहते हैं। ...क्या कर लिया देश पर मर-मिटने वालों ने ? क्या कर पाये अकबर के अब्बा हुजूर ? अब तैयार रहिए कुछ वैसा ही होगा इस अकबर का ! ऐसे लोग बस झूलते रह जाते हैं। अकबर चाहे जितनी उछल-कूद मचा ले होगा इससे भी बस वो होगा... हां, नहीं तो !’
अकबर को प्रारंभ में इशारों-इशारों में बताया जाता रहा था । लेकिन ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया’ वाला इशारा समझ जाए, अपना अकबर ऐसा न था। वैसे समझ कर भी उसने मटिया दिया होगा, इसी का चांस ज्यादा है ।
फिर सुना गया कि एक रात कुछ लोग उसके घर जा चढ़े। वहां उनके बीच कुछ निम्नलिखित प्रकार की बात-चीत हुई थीः-
- “मियां तुम यह मुहल्ला छोड़ दो।” पहला ही वाक्य अकबर के सर पर आण्विक बम-सा फटा, उसके चारों तरफ हिरोशिमा और नागासाकी बनते चले गये।
- “क...क...क्यों ? हम वर्षों से यहां रहते आये हैं। यहां की मिट्टी में...।” अपनी गुम होती सिट्टी-पिट्टी में उसे सबसे पहले अपनी मिट्टी ही याद आयी।
- “...चोप्प स्साले, तुम्हारी मिट्टी गई तेल लेने !” अगले ने उसे जोर से झिड़क दिया।
- “दे...दे...देखिए, आप लोग गालियों पर न उतरें...!” उसे लगा मानों नंगा करके बाजार में चौराहे पर खड़ा कर दिया गया हो।
- “क्यों बे ? तू क्या कर लेगा ? गालियां न दें तो क्या तेरी आरती उतारें, हैं ?”
- “देखिए मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। आप लोग मुझे मुहल्ला छोड़ने के लिए क्यों कह रहे हैं?” उसने बात संभालने का प्रयत्न किया।
- “देख बे, मुहल्ला छोड़ने को बोल दिया सो बोल दिया। अब तुझे मुहल्ला छोड़ने की कैफियत भी बतानी होगी क्या ?” एक और खूंखार आवाज आयी।
- “...जी...वो...।” वह कुँकियाया ।
- “अकबर के बच्चे, क्या कहा तुमने कुछ नहीं बिगाड़ा ?” उसकी कुँकियाहट को बीच में ही काट कर एक और आवाज उठी, “तुम तो पूरा मुहल्ला ही बिगाड़ रहे हो।”
- “नहीं...नहीं, मैं अकेला पूरा मुहल्ला कैसे बिगाड़ सकता हूं ? आ...आप लोगों को जरूर कोई गलत-फहमी हुई है ।”
- “अरे अकबरवा, हम बताते हैं तुमको कि कइसे बिगाड़ रहे हो। सीधी सी बात है, तुम ‘बड़ा’ बनाते हो कि नहीं ? बोलो ।” तब तक पीछे खड़ा एक ‘गर्व वाला’ हिन्दू आगे निकल आया।
- “वो...वो...तो...”
- “जब तुम ‘जिबह’ बनाते हो, तब उसकी गंध हवा में उड़ती है। वह गंध उड़-उड़ कर पूरे मुहल्ले में फैलती हुई हमारे घरों में घुस आती है। फिर सांस के साथ हमारे शरीर के भीतर घुस जाती है, समझे। अब हमारा धर्म भ्रष्ट हुआ कि नहीं ? बोलो !” उस व्याख्या से अकबर अवाक् और किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया। एक पल को उसके ज़ेहन में बचपन में सुनी ‘बाघ और मेमने’ वाली कहानी कौंध गई। जहां बाघ ने मेमने को नदी की धार के उलटी तरफ वाला पानी जूठा करने के आरोप में मार कर खा लिया था। उसने हकला कर कुछ कहना चाहा, लेकिन उसके गले से जो आवाज निकली, वह मरियल कुत्ते की कूं...कूं..जैसी थी ।
- “...तो इसीलिए तुम्हें मुहल्ला छोड़ना होगा, समझे !” गर्व वालों ने उसे फैसला सुनाया।
- “और ऊ जो तुम्हारा चमचा है न तुषरवा, उसको भी तो तुम जिबह खिलाते हो !”
- “नहीं...नहीं यह सच नहीं है। तुषार बाबू तो शुद्ध शाकाहारी हैं।” अकबर का गला सूख गया था।
- “तो क्या हुआ ? तुम्हारे घर का शाकाहार भी तो उसी चूल्हे पर बनती हैं न, जिस पर अपना ‘जिबह’ बनते हो। अब बताओ शाकाहार भी हुआ कि नहीं भ्रष्ट ?”
- “आज तक तुमने जो किया, सो किया। अब हम तुम्हें अपना मुहल्ला और भ्रष्ट करने नहीं देंगे।”
- “अब कान खोल कर सुनो, मकान के लिए ग्राहक की चिन्ता मत करो। अपना सेठ तैयार है उसी ने हमें तुम्हारे घर भेजा है। दाम अच्छा मिल जाएगा। उसे बेच कर चुपचाप कहीं सटक लो समझे कि नहीं! ऐसा ‘गोल्डेन शेक हैन्ड चांस’ फिर नहीं मिलेगा?”
अकबर उनके सेठ को जानता था। वह सेठ अपने मटके के अड्डे और जमीनों पर अवैध कब्जे के लिए शहर भर में जाना जाता था। उसने सूख आये गले में थूक घोंटते हुए किसी तरह जवाब दिया, “नहीं, मैं यह मकान नहीं बेचूंगा।”
- “देखो अभी तो हम समझाने आये हैं अगर समझ गये तो ठीक है। न समझे तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना।” उस सारगर्भित वार्तालाप के बाद वे सभी लोग जिधर से आये थे, उधर को ही लौट गये।
...लेकिन उस दिन के बाद से अकबर के जीवन में सारी चीजें कठिन होती चली गई थीं। अपने ही मुहल्ले में उसे मानसिक तौर पर धीरे-धीरे कर के मारा जाने लगा था। कभी उसके घर पर तथाकथित भूतों द्वारा पत्थर फेंके जाते, कभी उसके घर की महिलाओं के साथ युद्ध में जीती गई महिलाओं की भाँति व्यवहार करने के प्रयत्न किये जाते। पड़ोसी देश का नागरिक तो उन्हें हर पल ही घोषित किया जाने लगा था। हर वो कोशिश की जातीं, जिससे अकबर का जीना मुहाल होने लगा।
एक शाम अकबर का छोटा बेटा नजीर बाजार से मछली ले कर लौट रहा था। बारह-चौदह साल का नजीर जल्द से जल्द घर का काम निपटा कर खेल के मैदान में अपने दोस्तों के पास पहुंचना चाहता था इसलिए उसकी चाल तेज थी। मछली बाजार से निकल कर चौक पर पहुंचते उसे जिन युवकों ने देखा, उनमें से कुछ उस रात अकबर को धमकाने वालों में शामिल थे।
एक बोल उठा, “देख बे अकबरवा का बेट्टा।”
“ठहरो तुम सबको तमाशा दिखाता हूं। वह भी फोकट में।” दूसरे ने कहा और नजीर की ओर बढ़ गया।
जब वह नजीर के पास पहुंचा तो नजीर को पता ही नहीं चला कब उसे बगल से निकलते उस युवक ने लंग्घी मारी। नजीर दूर जा गिरा उसकी बांहों और घुटनों पर छिल जाने से खून बहने लगा था। मछली वाला पोलीथीन उसके हाथ से छिटक कर दूर जा गिरा। मछली के टुकड़े सड़क पर धूल, गोबर आदि में बिखर गये। उनमें से एक टुकड़ा उठा कर बिल्ली भाग चुकी थी और बाकी के लिए आस-पास से कुत्ते आ जुटे थे। नजीर ने वह दृश्य देखा तो घर में मार पड़ने की आशंका से जोर-जोर से रोने लगा ।
“चुप बे, देख कर नहीं चलता और अब रो रहा है !” गिराने वाला उसे झिड़क रहा था ।
तब तक नजीर अपने गिराये जाने का मामला पूरी तरह समझ चुका था। वह जोर से चीखा, “नहीं अंकल आप झूठ बोल रहे हैं। मैं खुद नहीं गिरा, आपने मुझे गिराया है।”
“चुप रहो ! खुद गिरे हो और हम पर इल्जाम लगा रहे हो ? झूठ बोल रहे हो, शर्म नहीं आती ।” गिराने वाला उसे डांटने लगा। तब तक उसके बाकी साथी भी वहां आ, हो...हो...कर हंसने लगे।
संयोगवश उधर से गुजर रहे तुषार ने नजीर को देख लिया। वह तेजी से उसकी ओर लपका उसके वहां पहुंचते ही हंसने वाले लड़के इधर-उधर खिसक गये। तुषार ने सारा मामला जान कर पहले नजीर को चुप कराया फिर अपने पास से उसे मछली खरीद कर दी और साथ ही यह निर्देश भी कि घर पर किसी को कुछ ना बताये।
उसके कुछ दिनों बाद की घटना तो और भी उदंडता से घटी थी। अकबर नजमा के साथ रिक्शे पर घर को लौट रहा था। न जाने किधर से फेंका गया बांस का डंडा आ कर रिक्शे के चक्के में फंस गया। गति में अचानक आये अवरोध के कारण रिक्शा उलट गया। बचते-बचाते भी दोनों सड़क से जा टकराये। नजमा का सर फूट गया। न जाने कहां से आकर कुछ लड़के उनके पास खड़े हो गये लेकिन उन्हें सहारा दे कर उठाने की जगह उन पर हंसने लगे। एक ने बढ़ कर इत्मिनान से रिक्शे के चक्के में फंसा अपना बांस निकाला।
अकबर ने उसे पहचान लिया था वह गुस्से से चीखा, “तुम लोग...!”
उसने अपने कंधे झटकाते हुए बेफिक्री से कहा, “हुंह... हम तो अपना प्रेक्टिस कर रहे थे। न जाने कैसे हाथ से फिसल गया।”
“मुझे पता है, तुमने जान-बूझ कर बांस फेंका है। सब तुम लोगों की बदमाशी है।” अकबर बोला।
“देखिए आप जबरदस्ती झगड़ना चाह रहे हैं । इट वाज एन एक्सीडेंट । शुक्र कीजिये बांस रिक्शे के चक्के में फंसा, आपके सर पर नहीं पड़ा। वर्ना आपका मुंह नहीं खुलता, अब तक आपकी खोपड़ी खुल जाती !”...हा..हा..हा.. वे लड़के जिधर से आये थे, हंसते हुए उधर को ही निकल गये। अकबर को लगने लगा, मानों सन् सैंतालिस की पाशविकता एक बार फिर से उसके अब्बा की रूह की आंखों में आंखें डाले अट्टाहास करने लगी हो। ...और वैसी पाशविकता के खिलाफ अड़ जाने की हिम्मत रखने वाले उसके जीनों में इस बार ‘क्रोमोजोमल म्यूटेशन’ हो ही गया था । लेकिन इस इरादे के साथ कि अपना मकान उस सेठ को नहीं, किसी अन्य खरीददार को बेचेगा ।
मगर ज़रा ठहरिए, ऐसे तो यह कहानी एक बार फिर से सरलीकृत होती जा रही है। लगता है यहां पर कहानी में एक और पेंच आना जरूरी है, तो बचना ऐ प्रेमियों लो वह आ गया। अब पेंच आ गया तो इसमें कोई क्या कर सकता है ? वैसे भी जब सारे लोग बच निकलने वाला और आसान रास्ता ढूंढने लग जायें तब तो पेंच ही आयेंगे ?
तो हुआ यूं कि जब भी कोई ग्राहक अकबर का शानदार मकान देखने आता लौटने के क्रम में सेठ के लोग, जो उस रात अकबर को धमकाने गये थे, उस संभावित ग्राहक से कहते कि खरीदने के बाद ‘मुस्लिम-मकान’ का शुद्धिकरण करवाना पड़ेगा। जिसके लिए पांच लाख का खर्च पहले उन लोगों के पास जमा करवा दे। उसके बाद मकान खरीदने की सोचे। यह सुन कर वह खरीददार जो जाता फिर लौट कर कभी न आता। परिणाम यह हुआ कि देखते ही देखते उसके शानदार मकान की कीमत बीस लाख से घट कर आठ-दस लाख तक पहुंच गई। ...और घटती कीमत देख कर ‘मकान शुद्धिकरण’ वाले लोग अपनी चाल के प्रति आश्वस्त हो रहे थे। जब खरीददार नहीं आयेगें और मकान की कीमत भी बुरी तरह टूट चुकेगी, तब सेठ अकबर का मकान बड़ी आसानी से कौडि़यों के मोल खरीद कर वहां अपना चमचमाता बाजार खड़ा कर लेगा।
...मकान की घटती कीमत के उन्हीं दिनों में एक बार फिर से उसी मकान में बैठे चाय पी रहे अकबर तथा तुषार बाबू आपस में बहस कर रहे हैं। पिछले हफ्ते गर्व वालों की तरफ से अकबर को आठ लाख का आ ऑफर मिला था।
तुषार की आवाज कांप रही थी, “ठीक है कि क़ीमत कम है, लेकिन अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, यह मकान बेच दो। पता नहीं आगे क्या-क्या होने वाला है।”
“नहीं, तुषार बाबू, हमसे नहीं होगा। कीमत कम हो या ज्यादा, पर घर नहीं बेचेंगे।” अकबर ने दृढ़ता से अपना निर्णय सुनाया। उसका उत्तर तुषार को हैरान करने वाला था।
“क्यों अब क्या हुआ? रात को सपने में अब्बा हुजूर आये और मना कर गये, जो तुम फिर से अपना नहीं बेचने वाला पुराना राग अलाप रहे हो?”
हालाँकि घर बेचने के निर्णय से लौट कर घर न बेचने का अकबर का वह निर्णय उसे भी अच्छा लग रहा था। लेकिन अकबर को हो रहे कष्टों के बारे में सोच कर वह विचलित भी था। इसलिए उसने समझाया, “अब फिर से वही राग मत अलापो। मेरी मानो तो जल्द से जल्द इसे बेच दो। क्या पता अभी मिल रहे आठ लाख से भी बाद में हाथ धोना पड़ जाए और इसकी कीमत घट कर दो-चार लाख न रह जाएं। जैसा समय आ गया है उसमें अच्छाई के नहीं कटु यथार्थ के डरावने सपने ही देखने पड़ेंगे।”
“नहीं तुषार बाबू, अब तो अब्बा हुजूर आके कहें, तब भी अपना घर नहीं बेचूंगा।” अकबर के चेहरे पर दृढ़ता थी, “सपना तो वह था जो मैंने देखा और सोचा लिया कि मकान बेच कर अपनी मुश्किलों का हल पा लूंगा। मकान बेच देने से सारी समस्याएं हल हो जाएंगी क्या? अगर मकान बेच देने से समस्याएं हल होने लगें, तो दुनिया के नब्बे फीसदी लोग अपना-अपना मकान बेच देना चाहेंगे। नहीं....वो मेरी भूल थी। अब मैं उस बुरे सपने की सच्चाई जान चुका हूँ। हर काल में ताकतवरों ने कमज़ोरों पर झूठे दोष मढ़ कर उनकी निर्भरताएं छीनी हैं । कहीं कोई जंगल हड़पना चाहता है तो कहीं कोई रेगिस्तान। कहीं कोई मकान हड़पना चाहता है तो कहीं कोई जमीन। कहीं कोई गाँव हड़पना चाहता है तो कहीं कोई पूरा देश। कहीं कोई पानी हड़पना चाहता है को कहीं कोई तेल। ...और उस पर तुर्रा यह कि अपनी लूट को सही साबित करने के लिए वे झूठ-मूठ का कोई भी तर्क जड़ देते हैं। जब तक आप उस तर्क के झूठ की दुहाई देते हैं, तब तक तो लूट पूरी हो चुकी होती है। इस दुनिया में जो ज्यादा ताकतवर है वो उतना ही बड़ा लुटेरा है।
...और यहां इस मुहल्ले के लुटेरे मेरे घर की जगह बाज़ार बनाना चाहते हैं । कभी जान से मारने की बात बताते हैं तो कभी मकान की कीमत घटाने की कोशिशें करते हैं । नहीं तुषार बाबू, नहीं ! मैं अपने घर को बाज़ार नहीं बनने दूंगा । भले ही कोई चालीस लाख ले कर क्यों न आ जाए ! मैं लात मारता हूँ, ऐसे लाखों पर। ये मकान नहीं घर है, हमारा घर! हमारे कई जिन्दा और सच्चे ख़्वाब यहां सरगोशियां करते हैं । मैं अब समझ गया हूँ, मेरी लड़ाई मुहल्ले वालों से नहीं हड़पने वाले लालच से है। मेरा घर अब हड़पने वाले लुटेरों के खिलाफ यूं ही और यहीं पर खड़ा रहेगा । मैं इसे नहीं बेचूँगा....कभी नहीं !....किसी भी कीमत पर नहीं !!”
तुषार ने अकबर का हाथ कसकर पकड़ लिया उसकी आंखों में चमक थी, “ये की न तुमने असल बात। मैं तुम्हारे साथ हूँ ।”