अकर्म / गोपाल चौधरी
तुली की जिंदगी ऐसे गुजरने लगी जैसे उसे किस सहारे या खुशी कि उम्मीद न हो। खुशी, सुकून क्या है उसने जाना ही नहीं। बस सुना था कि जिंदगी आनंद का दूसरा नाम है। पर क्या सचमुच ऐसा है? अगर हाँ तो फिर उसे आनंद या खुशी का अनुभव होना चाहिए। अगर नहीं हो रहा है तो उसमे कुछ कमी है? या ये कथन कि जिंदगी आनंद का दूसरा नाम है, गलत है?
लेकिन जो मिला या मिल रहा है, क्या उसमे खुश रहा जा सकता है? अगर खुश नहीं रहा जा सकता तो दुखी होने की बात भी तो नहीं है। कम से कम उसे स्वीकारा तो जा सकता बिना किस लाग लपेट के, बिना किसी तरह के प्रक्षेपण, संकल्प और विकल्पों के अंतहीन सिलसिले के। अपने असंगत और असीम विचारो के असीम भटकन में भटकते मन पर नियंत्रण रख कर। या उनके परे जा कर।
इसमे कोई शक नहीं है कि तुली ने जो चाहा मिला नहीं। किसी को भी नहीं मिलता। क्योंकि चाहत और मिलने में कोई कार्य कारण सम्बंध नहीं है जो मिले ही है। लेकिन जो बिना चाहत का मिलता है क्या उसमे खुश नहीं रहा जा सकता? उसे अपनी चाहत नहीं बनाया जा सकता है? पर क्या यह भाग्यवादी होना नहीं है? क्या दूसरे, चाहे उसके माता पिता ही क्यो नहीं उसकी जिंदगी का निर्णय ले सकते है। ? क्या ये गलत नहीं है? क्या इसका विरोध नहीं होना चाहिए?
तुली ने विरोध तो किया पर विद्रोह नहीं कर पाया। विरोध में किस चीज या मुद्दे के खिलाफ आवाज उठाई जाती है। पर विद्रोह में किया जाता है। अपनों का, समाज का, उसके कुंद हो उठे रीति-रिवाज़ों, जातिवाद के सड़ांध परिणाम का, दहेज की अमानवीयता के खिलाफ आवाज तो उठाई पर कुछ कर नहीं पाया। उसने बगावत या खिलाफत नहीं की। इस तथ्य के बावजूद कि वह विरोध तो कर सकता था।
पर क्या वह ऐसा कर सकता था। व्यक्तिगत स्तर पर तो कर सकता था। कितनों ने किए भी। ये दूसरी बात है सबका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हुआ। कुछ को जात के खतरे में पड़ने की आशंका से मार दिया गया या जिंदा जला दिया गया। कुछ को 'ऑनर किलिंग' की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिया गया। बाकी जो बच जाते है, ये उनका नसीब ही है!
नहीं तो समाज में बड़े-बड़े आंदोलन हुए इस जातिवाद के खिलाफ। नामी गिरामी लोग इस जातिवाद के खिलाफ लड़ कर अपना नाम इतिहास में अमर कर चुके है। पर जातिवाद वहीं का वहीं रहा। बल्कि मजबूत होता रहा। इसकी जड़े और गहरी होती रही।
आधुनिक युग मे, उपभोकतावाद और वैशविकरण के इस दौर में और मनबूत ही होती जा रही है यह जाति। इसके शिंकंजे और ही कसते जा रहे हैं। कहते है, जब कोई-कोई चुनौती आती है, कोई खतरा आता है तो सामाजिक और राजनीतिक कुरीतियाँ और विसंगतियाँ और भी मजबूत होती हैं। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वह और संगठित और सांघातिक होती जाती है। उनके संघटको और घटको को परिष्कृत और परिमार्जित किया जाता है। ताकि वे अपनी नापाक पकड़ बनाए रख सके। जातिवाद के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है।
पर तुली विद्रोह तो कर सकता था। लेकिन कर नहीं पाया। तुली ने तो यहाँ तक की जबर्दस्ती विज्ञान विधा लेने का और इंजीन्यरिंग पेशे में जाने का भी विद्रोह नहीं कर पाया। केवल विरोध की आवाज उठा कर चुप हो लिया। फिर जातिवाद और दहेज का क्या विद्रोह कर पाता!
इसका नतीजा यह निकला की उसकी जिंदगी नर्क बन गई। वह एक चलती फिरती लाश-सा हो गया। जो भी बोला जाता वह करता। एक मशीन की तरह। घर से कार्य-स्थल और कार्य-स्थल से घर जाते समय उसे ऐसा लगता जैसे मरघट में जा रहा हो। एक शमशान घाट की नाई ही तो था उसका घर और कार्य-स्थल! जहाँ उसके अरमानो, सपनों और जिजीविषा की चिता अब तक जल रही होती! और ये शायद ही बुझे। ये आग उसकी चिता की अग्नि के साथ ही ठंडी हो शायद!
अब तुली कुछ समझने लगा था बहुत सारी बाते। उसे पता चल चुका था कि क्यों पापा उसे सिविल इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। इसमे नाजायज और ऊपरी आय खूब है! जहाँ जाओ लूट, कदाचार और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता की पैसों की लूट अफसर और कर्मचारी मिलकर कर रहे होते!। नेता, मंत्री और संतरी तक इसमे मिले थे। कमिशन ऊपर तक जाता होता!
तुली इस लूट में शामिल नहीं होता। पर जनता के पैसो के वे लुटेरे उसे शामिल करना चाहते। जब वह मना करता तो वे सोचते: कही उनके राज न खुल जाए और पकड़े न जाएँ कहीं! ऐसा चोरो, लुटेरो और गद्दारों के संदर्भ होता है, वे दूसरे भी शामिल कर लेते है। ताकि कोई खतरा न हो। पर तुली मना कर देता और उसका तबादला हरेक साल-छै महीने पर होता रहता। दस साल की नौकरी में उसकी 18 बार बदली हुई।
घर की स्थित भी कुछ ऐसी ही होती! बीबी जमींदार घराने की थी। करोड़ों दहेज लेकर आई थी। तुली के घर की सूई से लेकर कार तक दहेज में मिला होता! और वह इस बात की अक्सर ताने मारती रहती। कहती, सब कुछ उसके पापा का दिया हुआ है। हमेश ताने मारते रहती। खुद बैठे-बैठे पलंग तोड़ती होती और उससे काम करवाती। उस पर कहती घर के सारे काम वही करे। वह हाथ तक नहीं लगाती किसी काम मे। कहती इतना दहेज उसके पापा ने काम करने के लिए थोड़े ही दिया है!
तुली घर गृहस्थी के काम आधा-आधा बांट कर करना चाहता। वह बोलती—पापा ने इतना दहेज दिया है काम करने को थोड़े ही। हम तो नहीं करते। आप ही करो।
अब तुली क्या बोलता और करता! दहेज उसके पापा ने लिया। वह तो दहेज प्रथा के खिलाफ रहा है। वह तो अंतरजातीय विवाह करना चाहता था। वह भी दहेज के बिना। पर शादी के-के दोनों आदर्शो को ताक पर रखना पड़ा। करुणा के चले जाने से उसका दिल पहले से ही जार-जार हो रहा था। उस पर पापा की थोथी और खोखली दलील! वह कुछ नहीं कर पाया और इस लड़की के गले बाँध दिया गया।
और एक दिन करुणा ने उसे खाना बनाने को कहा। क्योंकि वह आराम करना चाहती होती। बैठे-बैठे शायद थक गयी थी। पर तुली का सब्र जवाब दे गया। उबल पड़ा वो। दोनों में खूब बक झक हुई। इतनी की मार पीट की नौबत आ चुकी होती। पर तुली पीछे हट गया। लेकिन करुणा ने जाते-जाते उसे अपने चप्पल दे मारी। पर उसे लगी नहीं। उसने सिर को थोड़ा टेड़ा कर दिया था। पर उसे गहरा सदमा-सा लगा। इतना धक्का लगा, उसके दिल को इतनी चोट लगी कि वह कुछ बोल नहीं सका।
बहुत दुख हुआ था तुली को। बचपन से ही वह नारी को बराबरी और सम्मान की भावना से देखता आया! नारी उत्पीड़न और हिंसा के सख्त खिलाफ रहा है। चाहे घर हो या बाहर। घर में भी पापा जब कभी माँ को दबाना चाहते, या कुछ अपशब्द बोलते, तो वह इसका विरोध करता। –पापा ये क्या कर रहे है। मेरे सामने या पीछे भी माँ को ऐसा कभी न बोलना ...
एक बार तो पापा माँ पर कहा सुनी के दौरान हाथ उठाने जा रहे थे। तुली बीच में पड़ गया। —ऐसा कभी नहीं करना। सोचना भी नहीं तो मैं भूल जाऊंगा की मैं आपका बेटा हूँ और आप मेरे पापा।
पापा दंग रह गए थे। प्यारी माँ इतनी खुश हुई कि उसकी खुशी छुपाए नहीं छुपती।
पर माँ की यह अप्रत्याशित-सी खुशी तुली को समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करती-सी लगी। कैसी दुनिया है? कैसा समाज! कैसे लोग! अपने ही आधी आबादी, अपने ही आधे हिस्से को दबा कर, घर की चारदीवारी में कैद कर हजारो साल से उत्पीड़ित करते आ रहे। क्या ये आत्मघाती नहीं है? अगर नारी-पुरुष बराबर होते। समाज और सभ्यता के विकास में बराबर के भागीदार होते। तो हमारी सभ्यता कितनी प्रगति की होती! दुनिया कितनी आगे बढ़ गयी होती। पर उसे क्या पता कि पुरुष प्रधान यह समाज और दुनिया अपना वर्चस्व बनाए रखने के आगे विकास और प्रगति की परवाह नहीं करता!
इसी पुरुष प्रधान समाज और इसके परोकारों, जिसमे देश के दो ऊपरी जाति शामिल है, ने महिलाओं की पचास प्रतिशत आबादी के साथ साथ, 80 प्रतिशत दलित पिछड़ो को भी दबा कर, प्रताड़ित कर रखा है। इस प्रकार इस प्रकार एक सौ तीस प्रतिशत आबादी जिस देश और समाज दबाई, सताई और प्रताड़ित की जा रही हो, वह क्या आगे बढ़ सकता है? इसमे कोई आश्चर्य नहीं है कि कोई भी आया हमे गुलाम बना गया और इस गुलामी और इसके तंत्र को अब तक बरकार रखा गया है, ताकि ये लूट और शोषण अबाध रूप से चलता रहे।
इतिहास में ये बाते नहीं हैं। साहित्य में भी इस पर विमर्श बहुत कम हुए हैं। वह भी बहुत छीछले और सतही तौर पर। क्योंकि इतिहास और साहित्य पर इन्हीं दोनों का आधिपत्य है। ये भला क्यों ये सब बाते करेंगे। महिलाओं की आधी अबब्दी को दबाने और उत्पीड़ित करने के अलावे इन्होने बहुसंख्यक दलित पिछड़ो को भी पशु की तरह बाँध और दबा कर रखा है। जब ये इनके काबू से बाहर जाते रहे तो विदेशियों और बर्बर जातियों की भी मदद लेते रहे हैं। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए। ये दूसरी बात है कि इन बर्बर और विदेशी लुटेरी जातियो ने अंत में उन्हे गुलाम बना लिया और एक हजार साल तक शासन करते रहे।
ये सब बातें सोच कर तुली का मन दिन भर खराब-सा रहा। भरी भारी-सा लगता रह। ऑफिस में भी मन उखड़ा उखड़ा-सा रहा। फिर ऑफिस में भी बक झक हो गई। एक जांच समिति बनी थी एक पुल के असमय टूट जाने पर। इसमे में घटिया सीमेंट और सरिया डालने का मामला था। उस पुल में उदघाटन के पहले ही दरार आने शुरू हो गए थे। सबों ने खूब मोटी कमीशन खाई थी। तुली इससे दूर रहा। पर उसका हस्ताक्षर ले लिया गया था।
अब जान पर बन आई तो लगे सभी गेंद फेंकने लगे एक दूसरे के पाले मे। पर सभी लुटेरों और जनता के पैसे के चोरों ने मिल कर तुली को बलि का बकरा बनाने की योजना बनाई। पर उसने एक महीने कि छुट्टी पहले से ही डाल दी और मुख्यालय में हँगामा मच गया। उनका सारा खेल खत्म हो गया।