अकलियत के शोर में गुम होते पसमांदा / अली अनवर
ऐसा लगता है कि आरक्षण का मसला सामाजिक न्याय का नारा बन कर रह गया है। आरक्षण का लाभ जिन लोगों तक पहुँचना चाहिए था आजादी के साठ सालों के बाद भी वहाँ तक नहीं पहुँच सका है। खेत पटान के लिए क्यारियाँ तैयार की जाती हैं, जिससे पानी बराबर-बराबर पूरे खेत में पहुँच सके। पर, पानी कहीं बीच में ही अटक गया है। खेत की अंतिम क्यारी तक पानी नहीं पहुँच सका है।
यहाँ छह दिसंबर २००७ को पूर्वी चंपारण के केसरिया थाना के रामपुर नैरिया गांव में घटी एक घटना की चर्चा करना चाहूंगा। गांव में एक टोला है अल्लाहपुर। टोला जुलाहा, कुरैशी, धोनी और नाई का है। गांव के मीर और पठान बिरादरी के लोगों ने टोले में आग लगा दी। ज्यादातर घर फूस के थे। सभी जलकर राख हो गए। आग में माल-असबाब के ही साथ कई बकरियां और मुर्गे भी जल गए। बात सिर्फ़ यह थी कि टोले के लोगों ने मीरों और पठानों के यहाँ बेगारी करने से इंकार कर दिया था। साथ ही विवाद एक मस्जिद को लेकर भी था। गाँव में एक मस्जिद थी। टोले के लोग मस्जिद में ही नमाज पढ़ने जाते थे। पर उन्हें आगे की पंक्तियों में बैठकर नमाज पढ़ने की इजाजत नहीं थी। यदि टोले के लोग आगे बैठते भी तो उन्हें धकिया कर पीछे कर दिया जाता। बाद में टोले के लोगों ने टोले में ही एक फूल की मस्जिद बना ली। पर गांव के मीर और पठान लोगों को यह गवारा नहीं था। उन्होंने टोले के लोगों पर मुकदमा कर दिया कि मस्जिद उनके बाप-दादों की जमीन पर बनाई गई है। टोले के लोग जब इसकी शिकायत करने थाने में गए तो थानेदार सुहेत खाँ ने टोले के लोगों को ही डराया-धमकाया। अल्लामा इकबाल का एक चर्चित शेर है:
“एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज
ना कोई बंदा रहा और ना कोई बंदानवाज”
इकबाल इंसाफपसंद शायर थे और अभिव्यक्ति की आसमानी ऊँचाइयों को छूने वाले इस शेर की जमीन निश्चित रूप से यह है कि इस्लाम जात-पांत मानने की इजाजत नहीं देता। उसकी नजरों में सभी बराबर हैं। इसलिए मस्जिद में नमाजी जन सफ (कतार) में खड़े होते हैं तो पता नहीं चलता कि कौन महमूद सरीखा बादशाह है और कौन अयाज की तरह गुलाम। मगर रामपुर नैरिया गांव के मीर और पठानों ने इस्लाम के इस आदर्श का भी ख़याल नहीं रखा। अल्लाहपुर टोले में हुए आगजनी की इस घटना के खिलाफ किसी मुस्लिम संगठन ने या मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाले किसी तथाकथित नेता ने एक लफ्ज भी नहीं कहा। यही घटना यदि किसी हिंदू गांव में होती तो काफी हाय-तौबा मचता।
दरअसल, पसमांदा मुसलमान यह समझने लगा है कि देश का मौजूदा मुस्लिम नेतृत्व उनकी आवाज उठाने को तैयार नहीं है। यहाँ नेतृत्व का आशय सियासी और मजहबी दोनों से है। इसमें उन्हें अपने मजहब की तौहीन लगती है या कि उनका कोई निहित स्वार्थ आड़े आ रहा है? मुस्लिम नेता सभी मुसलमानों के लिए अलग से आरक्षण की मांग कर रहे हैं। आखिर क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मांग आजादी के साठ साल बाद भी सामान्य अवसर के हक से भी वंचित मुस्लिम दलितों के आरक्षण की मांग को दबाने के लिए उठाई जा रही है। पहले इस मांग के स्वयंभू प्रवक्ता सैयद शहाबुद्दीन थे। कई उलेमा भी टोटल मुस्लिम रिजर्वेशन मांग रहे हैं और सेक्शनल रिजर्वेशन की मुखलाफत कर रहे हैं। क्या ये उलेमा अपने दिल पर हाथ रखकर अल्लाह और अपने रसूल की गवाही के साथ कह सकते हैं कि मुसलमानों में कोई ऐसा तबका नहीं है जिसमें तमाम लोग समाजी, तालीमी और माली एतबार में जमाने से पिछड़े हुए हैं। जाहिर है ऐसा वे नहीं कह सकते। मुस्लिम समाज कई तरह के फिरकों, पिछड़ों में भी पिछड़े लोगों को मिलाकर बना है। इसका एक तबका ऐसा भी है, जिसकी हालत कीड़े-मकोड़ों जैसी है। इस तबके को अरजाल, कमीना, नीच क्या-क्या नहीं कहा गया। मुगल, सैयद, शेख, पठान, मल्लिक ये तो सैकड़ों सालों तक हुकूमत करने वालों के नाम रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज इन बिरादरियों में भी गरीब लोग हैं। मगर सिर्फ़ आर्थिक बुनियाद पर इस मुल्क में आरक्षण की व्यवस्था तो है नहीं। भारतीय संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने इस बात पर अपनी मुहर लगा दी है कि आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन होगा। आर्थिक आधार पर आरक्षण अगर आगे कभी होगा, तो गरीब हिंदू सवर्णों के साथ जोड़कर ही मुस्लिम अशराफ तबकों को भी इसका लाभ मिलेगा।
सभी मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करने वालों को क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि धर्म के नाम पर आरक्षण देने की इजाजत भारत का संविधान नहीं देता। हालांकि यह एक नामुमकिन मांग है लेकिन थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि हमारे कुछ रहनुमाओं को नामुमकिन को मुमकिन बनाना आता है तो क्या ऐसा होने से फिरकापरस्ती को बढ़ावा नहीं मिलेगा? खटिया एक तरफ से बीनी जाती है, दूसरी तरफ तो केवल रस्सी खींचना बाकी रहता है। यह मांग पूरी कराके कुछ नेता अपनी पीठ भले थपथपा लें कि हमने एक बड़ा काम कर दिया मगर क्या देश का हिंदू जनमानस इसे कबूल करेगा? क्या नौकरशाही इसे अमली जामा पहनाने देगी। उलटे हिंदू संप्रदायवादियों को बाबरी मस्जिद से भी बड़ा मुद्दा मिल जाएगा। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदू और मुस्लिम, दोनों तरफ के फिरकापरस्त नेता मुद्दाविहीन हो गए हैं। दोनों को शिद्दत से तलाश है ऐसे जजबाती मुद्दे की, जिस पर वे अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंक सकें। पूर्ण मुस्लिम आरक्षण की मांग ऐसी ही किसी मिली-जुली साजिश का परिणाम तो नहीं है?
मुसलमानों का एक बड़ा तबका मंडल आयोग की सिफारिशों को अपने लिए खुदा की एक बड़ी नियामत मानता है। मगर छोटा ही सही, एक तबका ऐसा भी है, जो इसे मुसलमानों में फूट डालने का औजार समझता है। इस तबके का कहना है कि मंडल आयोग की सिफारिशें मुस्लिम समाज के लिए गैरमौजूं हैं। यह सोच नयी नहीं है। भारतीय संविधान की रचना के समय और उससे पहले से दलितों पिछड़ों को आरक्षण देने के सवाल पर नामी-गिरानी मुस्लिम लीडरों का यही रवैया रहा है।
सियासी और मजहबी मुस्लिम नेताओं को क्या ईसाइयों से सबक नहीं लेना चाहिए? ईसाई धर्म में भी तो उसूलन जात-पांत नहीं है। लेकिन, इस कड़वे सच को कबूल करते हुए कि अमलन उनके यहाँ यह फर्वâ मौजूद है उसका नेतृत्व अपनी दलित बिरादरी के लिए आरक्षण की मांग एकजुट होकर कर रहा है। मदर टेरेसा तक इस सवाल पर धरने पर बैठ चुकी हैं। मगर यह अफसोसनाक है कि मुसलमानों के स्थापित मजहबी और सियासी नेता अपने दलित समाज के लिए कोई पहल नहीं करते। उलटे वे जिन पार्टियों में हैं उनके नेताओं को यह समझाते रहे हैं कि ऐसा करने से उनका ‘वोट बैंक’ बिखर जाएगा। मौजूदा दौर की सामाजिक न्याय की पैरोकार पार्टियां और नेता, जिनसे दलित मुसलमानों के साथ हो रही इस नाइंसाफी के खिलाफ कदम उठाने की उम्मीद की जाती है, वे भी खामोश हैं। शायद उन्हें इस बात का डर है कि ऐसा करने से कहीं उनसे अगड़ा मुस्लिम बिदक न जाए।
पिछले साल मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के जायजे के लिए गठित सच्चर समिति की रिपोर्ट को लेकर काफी चर्चा चली। सच्चर समिति ने भी मुस्लिम समाज को तीन वर्गों में बांटा है: अशराफ (उच्च), अजलाफ (मध्यम) और अरजाल (पिछड़े)। समिति ने अरजाल की स्थिति पर गंंभीर चिंता व्यक्त की है जिसे कुछ लोगों द्वारा पूरे मुस्लिम समुदाय की बदतर स्थिति के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
ईसाई और मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा और सुविधा नहीं देने के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि चूंकि छुआछूत की बीमारी सिर्फ़ हिंदुओं में हैं, इसलिए केवल हिंदू दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया। सवाल उठता है कि आदिवासी समाज में तो छुआछूत बिलकुल नहीं है, तब उन्हें क्यों अनुसूचित जनजाति घोषित कर आरक्षण की सुविधा की गयी? इससे तो यही साबित होता है कि अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने का आधार सिर्फ़ छुआछूत नहीं, बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन भी है। उक्त तीनों कसौटियों पर कसने पर क्या मुस्लिम दलित भी अनुसूचित जाति का दर्जा और सुविधा पाने का हकदार नहीं बनता?
मुस्लिम दलितों की पीड़ा और क्रूर वास्तविकताओं से आँख चुराने वालों अथवा अनजान लोगों के लिए चलिए, थोड़ी देर के लिए यह भी मान लें कि मुस्लिम दलित अपने समाज में ठीक हिंदू दलितों की तरह छुआछूत का शिकार नहीं होता। पर लोकतंत्र में संख्याबल महत्वपूर्ण है, यहाँ यह सवाल कैसे दबा रहेगा कि मुस्लिम दलित समाज का दायरा कितना बड़ा है? कुल मुस्लिम आबादी बारह से चौदह प्रतिशत के बीच हैं। बाकी आबादी का वह तबका तो मुस्लिम दलितों के साथ भी वही सलूक करता है, जो हिंदू दलितों के साथ करता आ रहा है। मुस्लिम धोबी, मेहतर, चमार, नट, पासी आदि जातियों को तो अपने पेशों के लिए हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों में जाना पड़ता है। इस तरह तो वे भी छुआछूत के शिकार होते हैं।
मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल नहीं करने के पक्षधर यह कनफुसिया प्रचार चलाते हैं कि हिंदू दलितों के अलावा अन्य धर्मों के दलितों को अनुसूचित जाति में शामिल कर लेने का परिणाम बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के रूप में सामने आ सकता है। ऐसे लोगों का प्रचार है कि अनेक हिंदू दलित पहले ही इस्लाम और ईसाई धर्म कबूल कर चुके हैं। अगर हिंदू धर्म से आरक्षण का आकर्षण भी जाता रहा तो आगे बड़े पैमाने पर धर्मातरण हो सकता है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब मुसलमानों, ईसाइयों की आबादी इतनी हो जाएगी कि हिंदू अपने ही देश में अल्पमत में चले जाएँगे।
क्या यह आशंका बेबुनियाद नहीं है? अनुभव तो यह कहता है कि आदमी का धर्म से रिश्ता खास कर गरीबों का इतना कमजोर नहीं होता कि वह थोड़ी-बहुत आर्थिक सहूलियतों के लिए अपने धर्म का ही त्याग कर दे। फिर यह भी बात नहीं है कि मुस्लिम और ईसाई दलितों को आरक्षण की सुविधा देने से हिंदू दलित इस सुविधा से वंचित हो जाएँगे। अपने देश में हुए धर्मांतरण के काल विशेष और कारणों पर जब नजर डालते हैं तो पता चलता है कि गले में घंटी बांधने से लेकर कान में पिघला शीशा डालने, आंख फोड़ने, लिंग काटने, तालाब-कुएँ-घाट पर पानी नहीं भरने देने, मंदिर प्रवेश पर रोक लगाने, परछार्इं से दूर भागने तथा तरह-तरह के सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़नों से तंग आकर ही मौका मिलने पर हिंदू दलितों के एक हिस्से ने अपना धर्म बदला। अब तो ऐसी कोई स्थिति है नहीं। इसलिए बड़े पैमाने पर धर्मातरण की आशंका बेमानी है। इस तरह की आशंका तो पिछले पचास सालों में भारत के सामाजिक नजरिए में आए बदलाव की सकारात्मक दिशा को भी नकारने वाली है। हिंदू दलितों के धर्मांतरण की बात तो दूर रही, अगर मुस्लिम और ईसाई दलितों को ही लिया जाए तो वास्तविक तस्वीर यह है कि आजादी के साठ सालों के बाद भी वे नाइंसाफी के शिकार हैं, लेकिन उन्होंने फटाफट अपना धर्म छोड़ आरक्षण की सुविधा के लिए हिंदू धर्म कबूल नहीं कर लिया।
दरअसल, अकलियत के शोर में पसमांदा मुसलमानों की शख्सियत गुम हो गई है। जरूरत है कि इन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएँ। यहाँ अफसोसनाक है कि केंद्र सरकार सच्चर समिति की रिपोर्ट को लेकर काफी जज्बाती दिखती है। इसका कारण सियासी हो सकता है। मगर रंगनाथ मिश्र आयोग की कोई चर्चा नहीं करता। आयोग ने नौ माह पूर्व ही अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी है, पर रिपोर्ट को अब तक सदन के पटल पर नहीं रखा गया है। जरूरत है कि यूपीए सरकार अपने सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर मुसलमानों को उनका हक दिलाने के लिए सार्थक कदम उठाए, अन्यथा इसके दूरगामी परिणाम पीड़ादायी हो सकते हैं।