अकारण / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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कभी कभी कुछ ऐसा होता है कि जिसमे दो में किसी का दोष नहीं होता है परन्तु वे एक दुसरे के विपरीत हो जाते है।वसु को जब कभी इस शहर आना होता है तो अक्सर उस पुराने सपने में लौट जाना होता है, जो कभी उसकी हकीकत थी।वसु का घर, बचपन से लेकर जवानी का घर।बनते बिगड़ते सपनों का घर।वही बंगला था, वही भाई था, जैसे कभी बरसों पहले था। बहुत कुछ बदला था, परन्तु नहीं बदला था तो उससे जुड़ी वे यादें जो बरसों पीछे ढकेल ले जाती थी। अभी भी जीवंत रूप में आ खड़ी होती।जैसे बेबी की शांत स्निग्ध मुस्कान, गहरी डूबती बोलती आँखे उसका पीछा कर रही है।और भाई का अभिजात्य, शालीन, और सुंस्कृति व्यक्तित्व की उसे आदेशित कराती छवि। वह बेचैन विक्षिप्त आत्मा की तरह उसे निहारने लग जाता।

उसका यहाँ आना भी अकारण होता था।परन्तु इतने बरसो बाद भी वह यहाँ ज्यादा रुकना नहीं चाहता, क्योंकि ये हमेशा एक टीस दे जाती थीं।परन्तु एक दबा मोह जग जाता और वह खोजने लगता, खो जाता, उन दिनों फैली पसरी स्मृतियों में। जिन्हें वह समटने की कोशिश करता परन्तु वह बिखर-बिखर जाती।उन दिनों भी बहुत कुछ बिखरा है, समेंटने के क्रम में...

कई शाम गुजरी हैं यहाँ, परन्तु वे शाम निराली और दिलकश हुआ करती, जब बेबी आया करती, होती थी।हर रविवार या छुट्टी वाले दिनों की वह बेसब्री से प्रतीक्षा किया करता।वह भाई से ट्यूशन पढ़ने आती और हर बार आँख उठाकर देखती, बिना आवाज पूछती...तुम यहाँ क्यों नहीं? वसु बेबी के प्रश्नों के पीछे छुपी असीम जिज्ञासा से अनभिग्न नहीं था। परन्तु इसका उत्तर उसे भी पता था और वह भी जानता था।वह और बेबी एक ही क्लास में थे परन्तु भिन्न सब्जेक्ट और अलग कॉलेज।बेबी हिन्दी में ऍम।ए कर रही है और वह बेजान फिजिक्स में एम.एससी में, और भाई हिन्दी का प्रोफेसर।

बेबी आ रही है, उसकी आंखों में एक खुशी चमक उठती है और वह एकटक ताकता, उसे देखता रह जाता है।उसी बीच भाई उसकी एकटक बंद कर देता है-वसु मेरे कमरे से मेरा पेन लेते आना।

उसे बुरा लगता है।वसु पल भर रुकता है, वह जाये या वही खड़ा रहे? भाई उससे काफी बड़ा है।उनके बीच काफी फासला है।और जब से माँ बाबू नहीं रहे वही उसका सब कुछ है।निश्चय ही भाई का व्यवहार उसके प्रति आदेशात्मक, अधिकारात्मक और स्नेहात्मक रहता है।वह उनका बहुत आदर और सम्मान करता है किन्तु...बेबी के सामने यह कुछ चुभता-सा लगता है?

वह जानता है कि पेन तो एक बहाना है।उसे वहाँ से हटाना है।जब लॉन में आने, बेबी के आने से पहले से ही उसका इंतज़ार कर सकते है तो अपने पेन सहित क्यों नहीं? यह वह नहीं चाहता।उसके आते ही भाई उसे कुछ न कुछ लाने भेज देता... वसु मेरा पेन लेते आना...चाय को कह देना...तुम्हे कुछ पढ़ना नहीं है? ...वह जान गया है...शायद यही ठीक होता होगा? परन्तु जाने क्यों उसे लगता भाई उसे यहाँ से हटाना चाहता है...शायद पढ़ने-पढ़ाने में एकाग्रता भंग होती है...अब वह वापस अपने कमरे में जा रहा...वह कुछ करता है...पढ़ता है...मन नहीं लगता... फिर भी व्यस्त रहता...या...ढोग करता।

वह वहाँ से हटता है।उसे अपनी किताब बोझिल लगती है।अक्षर आँखों के रास्ते घुसते है और दिमाग में न जाकर कही और खो जाते हैं।आँखे फिर बाहर ताकती है...वह हंस रही, मुस्करा रही है, उसकी नज़रें कभी पढ़ रही है, कभी खेल रही है, कभी ध्यान मग्न हैं।

उनके बीच सम्बंधो का एक त्रिकोण है।जिसका शीर्ष कोण बेबी और आधार कोण वसु और भाई हैं।उसे लगता है कि शीर्ष कोण उसकी तरफ झुका है जबकि भाई उसे अपनी तरफ रखना चाहता है...भाई उसे अपने अधिकार में मानता है, तदनुरूप उसका आचरण परलक्षित होता रहता है।वसु को बेबी का अकेलापन यदा कदा और मुश्किल से नसीब होता।

जुलाई के अंतिम दिन हैं।बारिस अभी खत्म हुई है।हवा धुली और ठंडी और बह रही है।कुछेक देर पहले ही बेबी आई है।आज वह सामने नहीं पड़ा है।भाई उसे लॉन के उस हिस्से में बैठा के गए जो सूखा है।उन्होंने नौकर से वही मेज और कुर्सिया लगवा दी है।वह भीतर गए है शायद कुछ लाने या फिर चाय के लिए बोलने।बेबी चकर-मकर आँखों से कुछ खोजती है, ढूढती है, फिर फिक्र से खड़ी होती है और फिर बैठ जाती है। वह अपनी कमरे की खिड़की से उसे अनवरत देखता है...हवा की सर सराहट से उसके बाल उड़ रहे है जिन्हें वह सम्हाले है...कुछ बुँदे उस पर गिर गयी है...अब वह बहती दरिया-सी मचल रही है...बह रही है...एक पल वह भीतर देखती है...फिर हलके-हलके से तेज होती है...कुछ बुँदे उसके चेहरे पर मचल उठीं, कुछ माथें और कुछ बालों में स्थायी डेरा बनाती है...वह मंत्रमुग्ध... फिर कुछ आहट से थम जाती...भाई आ रहा है...वह शांत, स्थिर अविचल हो जाती हैं...

वसु जो सोचता है उस पर उसे खुद यकीन करना कोई मायने नहीं रखता, परन्तु उसके सामने सब कुछ छूट जाता है, सब कुछ खो जाता है।वह चुप रहता है और रात में सोने से पहले और नींद आने तक वह अनजानी अद्भुत अनचिन्ही कल्पनायों के भीतर गहन अँधेरे में एक खूबसूरत नशे में डूबता उतराता रहता है।एक बेबी नाम की भंवर है जिसमे वह अतल गहराईयों में समा जाता है...उसे बेबी पर गुस्सा आता है, रोना आता है...वह क्यों भाई के पास चिपकी रहती है...?

एक अजीब मायावी रहस्य में लिप्त उसका सपना क्या कभी खिड़की से बाहर उसके कमरे तक पहुच पायेगा?

अचानक ऐसा लगता है कि बाहर की खुशबू उसके पास उड़ती हुई पास आकर थम गयी है।पूरा कमरा खुशबू से भर गया है और उसका मन और शरीर रूक जाता है।लॉन से निकलकर चलती धड़कन वही खड़ी।उसकी साँस रूक जाती है, माथें पर कुछ बुँदे झिलमिला उठती है।

-क्या पढ़ रहे हो? एक कोमल और मधुर आवाज तैरती है।उसने घबरा कर देखा, जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो।बेबी उसके सामने थी, मुस्कराते हुए.

वह सिर्फ देखता रह गया।

-देखती हूँ, इसमें क्या है? बेबी ने उसके हाँथों से फिजिक्स की किताब खींच ली।उसके कोमल हांथों की छुवन से उसका रूका, दिल धौकनी की तरह धड़कने लगा।इस पल के लिए, वह कई दिन कई रातों से मन ही मन असंख्य बार सोच चुका है।वह दिल से देखने लगा।वह पन्ने पलट रही थी।एकायक उसने एक गुलाबी लिफाफा उसकी किताब में रख दिया।

-यह तुम्हारे लिए है...

वसु यकायक कुछ समझ न सका।उसे लगा दिमाग जाम हो गया।जाम खुला तो खुशी फ़ैल गयी।वह सिर्फ उसे देखता रह गया, एक रहस्यमय प्रेमानुभूति के तहत।बेबी फिर हंसी और इठलाती चल दी, लॉन की तरफ जहाँ भाई फिर आ गए.वे निगाहों से इधर-उधर उसे ही खोज रहे है।

ट्यूशन का समय पूर्ण हो गया है। नौकर चाय रख गया।बेबी ने अपना मुंह फेर लिया।घास जो चारों तरफ पसरी पड़ी थी, उसकी निगाहं उधर से होती हुई खिड़की में जम गयी।वहाँ वसु नहीं था।भाई चाय पीते ठिठक गए.उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से तौला!

-सर! वसु...?

-अभी बुलाता हूँ।भाई ने आवाज दी।वह सतर्क था।बहुत मंद गति से वह टेबल पर आकर रूक गया।

-बैठो! भाई का स्वर तीखा था।वे दोनों चुप थे।बेबी की आँखों में एक कतरा आकर झिलमिला गया।वसु खिच रहा है...खिचता जा रहा है...

-वसु, इस समय तो संग बैठ सकते हो? उसकी पलकों में नरमाई है और कुछ पल के लिए मुंद गयी, परन्तु अंगुलियाँ यन्त्र चालित-सी उसके लिए चाय बना रही थीं।उसके कातर नयनों ने शुक्रिया अदा किया।चाय खत्म हो गयी है।बेबी गेट के बाहर जा रही है।भाई, भीतर आने को कह कर चले गए थे।वह कितनी देर ऐसे ही रहा।जिनमे उसके लिए एक भीगा-भीगा अहसास था।

वह अगस्त शुरू की एक शाम है।शाम होते ही उसमे दर्द भरना शुरू हो गया है।वह अपने कमरे में जड़-सा बैठा।खामोश पत्थर माफिक बाहर, उदास शून्य में खोया था।कभी यह लगता कि वह सहमा-सा जल है, जिसके परकोटे मजबूत दीवालों में कैद हैं।वह बड़ी देर से एक अजीब नशीली गंध से सराबोर बिखरा-बिखरा है।

रात के आठ बज रहे है।भाई लौट के आ रहे हैं।वसु जानता है वह कहाँ गए थे? उन्होंने गाड़ी पार्क की और अप्रत्याशित रूप से उसी कमरे की तरफ आ रहे है।भाई चलते-चलते कुछ ठिठके.।कुछ सोचने लगे फिर कुछ तेज कदमों से चल पड़े।वह अपने कमरे में बैठा उन्हें ही देखने लगा है, हाँथ में वही गुलाबी लिफाफा था जिसे वह कई बार देख चुका है।लिफाफे के भीतर बेबी का बर्थडे कार्ड है, जो कई बार बाहर-भीतर हो चुका है, पढ़ा जा चुका है।

वसु ने अंतिम बार कार्ड को धीमे से चूमा और उसे टेबल की दराज में रख दिया।तब तक भाई उसके कमरे में आ गए. उनके चेहरे पर निराशा और झुंझलाहट स्पष्ट दिख रही है।कुछ क्षण उसे देखते रहे फिर हलके से कहा,

-बेबी ने तुम्हे बुलाया है।

वसु तनिक हैरान होकर हवा में ताकता रहा।

-तुम समझते हो मैं झूंठ बोल रहा हूँ... बेबी ने तुम्हे इनवाइट किया था? ...तुम जानते थे आज उसका बर्थडे है?

-हाँ! उसने बर्थडे कार्ड दराज से निकाल कर उन्हें दिया।

इस छोटे से हाँ ने उन्हें चौका दिया।वह कुछ देर कार्ड को देखते रहे।लिफाफे पर सिर्फ वसु लिखा था।निपट अकेला शब्द।उसकी तरह निपट एकाकीपन से झूंझता हुआ।

-जब मैं जा रहा था तो साथ क्यों नहीं चले? वह विस्मय में थें...

-तुम जाना नहीं चाहते थे?

भाई के चेहरे पर संदेह और अनिश्चय तनाव व्याप्त था।

वह चुप रहा उसके पास जवाब नहीं था।भाई फिर चुप हो गए.किन्तु उस चुप्पी में बोझिल तनाव था।वसु दूसरी और देखने लगा।

-अब, अभी जाओ! भाई ने उसके कंधे पर हाँथ रख दिया।उसमे एक आश्वासन था कि वह नाराज नहीं है।

वसु खड़ा हो गया।उसने एक बार भाई की तरफ देखा और दूसरे क्षण वह तैयार होने लगा।

-और हाँ! कार से जाना ड्राईवर को बुला लेना।रात में अकेले मोटर साइकिल से जाना ठीक नहीं है।

यह कहानी नहीं है।कुछ चीजें ऐसी होती है जो होती तो वास्तविक है, परन्तु लगती है कहानी।वसु बार-बार दोहरा रहा था कि पार्टी अभी खत्म नहीं हुई हो? परन्तु उसके पहुचने तक बर्थडे पार्टी समाप्त प्राय: थी।अधिकांश लोग जा चुके थे।परन्तु बेबी उसका इंतज़ार कर रही थी।उसके कुछ खास दोस्त भी उसका साथ देने के लिए रुके थे या उसने रोक रखा था।उसने और उसके फ्रेंड्स ने अभी तक खाना भी नहीं खाया था।

वसु के चेहरे पर शर्म और सहानुभूति के अजीब मिले-जुले भाव थे।शर्म अपने लिए और सहानुभूति बेबी के लिए.वह सोचता है कि बेबी कहेगी, तुम इतनी देर में आ रहे हो और वह भी सर से उलाहना करने पर? परन्तु वह यह देखकर हतप्रभ रह गया इसके विपरीत उसकी आँखें चमक उठी थीं।

-वसु...! क्या तुम नाराज थे?

-नहीं।वह अपना सिर हिलाता है।फिर वह हंस देता है।वह भी हंस देती है।फिर सभी हंस देते है।वह सबको शांत करती है और करवाती अपने फ्रेंड्स से परिचय है-मेरे टीचर के छोटे भाई विभोर अग्रवाल...माय फ्रेंड...चुप...गुपचुप फ्रेंड! ...और मैं चित्रा सिंघल।मुझे अभी तक ज्ञात नहीं है कि यह मुझे अपना फ्रेंड्स मानता है कि नहीं?

-सच...! बेबी.।? वसु मुस्कराता है।वह भी मुस्कराती है।वे सभी हँसते...घुल-मिल जाते है।

वसु अपने कमरे में है।उसका कमरा वैसे ही है जैसे वह वर्षो पहले था।भाभी आती हैं।अनुपमा मैडम।स्कूल के दिनों में वह उसकी इंग्लिश की टीचर हुआ करती थी।

-भोजन नहीं करना है क्या? उनके स्वर में एक भीगा-सा आग्रह है।

वसु को एक लम्बी जम्हाई आती है।वह उठने को सोच ही रहा था कि भाई भी आते दिख जाते हैं।अब वह शर्म महसूस करता है और उनके पहुँचने के पूर्व ही वह भाभी के साथ निकल पड़ता है-डाइनिंग रूम की और।

आज कई बरस बाद भी उसे ऐसा क्यों लगता है कि भाई असंतुष्ट है? एक अपरिचित डर उसे घेरे रहता है।क्या कारण है...? ...वह...? ...या...बेबी.। (चित्रा) ...? ...मन रूक जाता है, दिल की धड़कन बंद हो जाती है, सिर चकराने लगता है।क्या उसके साथ ही यह सब होता है या फिर बेबी के साथ भी ऐसा कुछ होता होगा? यह एक रहस्य है जो उसकी समझ से परे है...पता नहीं वसु को यह क्यों विश्वास है कि भाई ने आत्महत्या के विषय में कभी नहीं सोचा होगा? ...उस समय भी नहीं जब...! यह एक दिमागी फितूर है जो भाई जैसे सुलझे और प्रैक्टिकल व्यक्ति के लिए नाकाफी है...हाँ, अलबत्ता उस रात वसु, को यह विचार अवश्य ही तंग करता रहा, शायद वह प्रयत्न करता तो अवश्य ही सफल रहता।परन्तु वह निहायत डरपोक किस्म का इन्सान था और अब भी है।उसमे अनिर्णय की स्थिति सदैव हावी रहती है।

भाई जब आये वह उनके बारे में नहीं सोच रहा था।वह बेबी में निमग्न था।उसे यह भी नहीं पता कि भाई उसी के यहाँ से आ रहे है।फाइनल परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और बेबी का आना बंद था।वसु उसे देखना चाहता था।मिलना चाहता था।बाते करना चाहता था।परन्तु उसके मिलने के लिए अब उसके घर जाना होगा।जिसके लिए आवश्यक साहस नहीं जुटा पा रहा था। भाई की परमिशन भी चाहिए. क्या कारण बतायेंगा? क्यों...? किन्तु उसकी प्रतीक्षा बदस्तूर जारी थी।उसकी छवि दबे पाँव अक्सर उसे तंग करती रहती।वसु लॉन की उन्ही कुर्सिओं में बैठा, बेमतलब उसके आने की प्रतीक्षा में मशगुल था।

कभी कभी हम चमत्कारों में यकीन करने लगते है, जब कोई आस नहीं होती है।परन्तु चमत्कार भी सोचे से अलग हुआ करते है।

वह जून का अंतिम रविवार था।शाम बीत चुकी थी।रात ठीक से उतर भी नहीं पाई थी कि भाई बदहवास-सा मेरे सामने चला आया था, बिलकुल पास एकदम सामने।उनके हाथ में सुलगती हुई सिगरेट परन्तु अभी वह पी नहीं रहे थे।

वसु ने उनकी ओर संशय से देखा।उसकी आँखों में विष्मय था-यह अजीब बात थी।उसने कभी भाई को ऐसा नहीं देखा था।उसने सदैव भाई को सभ्य शालीन और मर्यादित ही देखा था।यह पहली दफा है कि...? कही यह कोई नाटक की रिहर्सल तो नहीं? परन्तु वह जानता था भाई को ऐसे किसी चीज में दिलचस्पी नहीं है।

-वसु, उन्होंने मुझे रिजेक्ट कर दिया...! ...मुझे? निःसंदेह वह मेरी और आँख टिकाये थे परन्तु कुछ हिल से रहे थे जैसे कि वह नशा किये हो? परन्तु वह नशे में नहीं थे।

वह हैरान होकर उन्हें ताकता ही रह जाता है।उसकी आँखों में कौतुहल था और उसने आँखों ही आँखों में पूछा माजरा क्या है? भाई धम्म से कुर्सी में गिर पड़े और एक लम्ब-सा कश लेकर कही खो गए.उनके चेहरे पर अपमान और गुस्से का मिला-जुला भाव दिख रहा था।

वे दोनों चुप थे।वसु को अपने भीतर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस होने लगी...उसे लगा भाई भी ऐसे होंगे? हालत क्या है? कुछ जाने बगैर कैसे यह संभव है? एक अजीब-सा तनाव फ़ैलने लगा था।उसे हालत जानने की उत्कट अभिलाषा जाग उठी।

-क्या बात है, भाई जी? यह पूँछकर उसी क्षण न जाने क्यों उसके भीतर एक अजीब-सी झुरझुरी दौड़ गयी कि भाई के बताते ही वह उस पेचीदा रहस्य को जान सकेगा जो उनके भीतर पल रहा है।और जिसके कारण उनकी यह हालत बनी है-रिजेक्शन क्या है? उसे लगा कि इस रिजेक्ट शब्द के पीछे बहुत कुछ पेचीदा रहस्य छुपा है।किन्तु भाई अजीब से तनाव और बेचैनी में थे या उहापोह में थे।वसु प्रतीक्षा करता है...

-तुम क्या सोचते हो? क्या मैं बहुत बड़ा हूँ...? उसके पिता ने कहा कि मैं बहुत बड़ा हूँ...बेबी से विवाह के लिए.? क्या यह ठीक है...? तुम भी ऐसा सोचते हो? मै काफी बड़ा हूँ...? हुं...ह: ...? एक ठंडा-सा आतंक उसके भीतर समा गया था।वह भाई की बहुत कद्र करता है। उसे लगा कि भाई को आत्मीयता की अत्यंत आवश्यकता है।परन्तु न जाने क्यों एक अजीब-सी खुसी उसके भीतर व्याप्त हो गयी, जो भाई के डर के कारण बाहर आ नहीं पा रही थी।

भाई ने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी।

-तुमने कुछ उत्तर नहीं दिया? वह उनके चेहरे को सीधी आँखों से नहीं देख पा रहा था।

-मुझे नहीं मालूम...हांलाकि यह कहकर वह पछताया।

-यदि तुम मेरी जगह होते तो क्या करते?

-आपकी जगह पर?

उसने कभी उनकी जगह पर अपने को रख कर नहीं देखा था।वह इस बात का जवाब देना नहीं चाहता था।वह इस बात का जवाब जानता भी नहीं था। सबकी अपनी-अपनी जगह होती है।कोई किसी की जगह कैसे ले सकता है? वह इस तरह का कोई जवाब देना नहीं चाहता था।कुछ भी नहीं? भाई ने अपनी दोनों हथेलियों को बहुत सख्ती से आपस में भीच रखी थीं। जैसे अपने को रोक रहे हो अंधाधुंध, किसी पर टूट पड़ने के लिए.शायद उन्हें मेरे मुखर समर्थन की उम्मीद थी।

एक अजीब-सा तनाव था।वह दबाव में था।एक विवश निरीहता के तहत वह असीम दबाव में था।क्या असह्य दबाव तले कोई चीज या घटना याद आ सकती है... याद की जा सकती है...और सचमुच उसे तीन चार हफ्ते घटी वह घटना याद हो आई.

भाई ट्यूशन के समय तक बाहर से अभी तक घर नहीं आये थे।बेबी आ गयी थी।वह क्षण भर रूकती है।सोचती है रुके या वापस लौट जाये? वसु उसे ही देख रहा है...वह बेबी से मिलना चाहता है।बाते करना चाहता है।शायद कुछ अतरंग बातें हो? इस समय वह दोनों अकेले है। दोनों के फासले के बीच कोई नहीं है।इस समय भाई नहीं है।वह जानता है एक छोर पर बेबी और दूसरी छोर पर वह है, उन दोनों के फासले के दरम्यान भाई एक मजबूत दीवार की तरह खड़े है।

वसु निकलकर एकायक उसके सामने आ खड़ा होता। उनकी प्रतीक्षा का अंत आ पंहुचा था।, इसे जानते हुए भी है।वह चौक जाती है, पर हंसती है।इस क्षण का कोई विश्वास नहीं कर सका। आगे बढ़ता है और उसका हाथ पकड़कर कहता है।

-अभी भाई के आने में देर है, तब तक हम बंगले के पीछे खेतों और जंगल में चलते है? उसके प्रस्ताव पर उसे कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि खुशी महसूस होती है।

-हाँ...हाँ...मजे रहेगें। वह उत्साहित है।

वे बंगले के पीछे आ गए थे।माली फावड़े से खोदकर क्यारियाँ बना रहा था।मिटटी का ढेर था।कुछ देर उन दोनों ने काका से बात की, पूछतांछ की। आगे बढ़े।खेतों के पगडंडियों में चलते हुए, वे खेतों काम करते हुए मजदूरों पर हलकी फुलकी निगाह डालते हुए वे बंगले की सीमा पार कर गएँ।अब वे मैदान के उबड़-खाबड़ जमीन पर चलने लगे।चारों और छोटे बड़े ऊँचे नीचे मिटटी के ढीले-टीले, गढ्ढे-तालाब और झाड़ियों पेड़ पौधे बिखरे पड़े थे।कही कही पर घनी वनस्पति थी।

वे सहसा चलते-चलते ठिठक गए.उसे लगा बेबी शायद थक गयी है।उन्होंने पलट कर बंगले को देखा पेड़ों के झुरमुटों में बंगला छुप गया था।अब ठीक है।दोनों की आँखें जंगल मैदान के चारों और देखती है।एक चारागाह के पास एक छोटे तालाब के पास ही एक बड़ा-सा नीचा पत्थर का टीला है।दोनों की आँखों ने सहमति दी।वे वही जाकर बैठते है।

वे दोनों चुप है।आज इतने दिनों के बाद भी कोई पहल नहीं कर रहा था।बहुत कुछ ऐसा था जो अनकहा था।ऐसा क्यों लगता था कि एक अपरिचित गांठ उन दोनों के बीच उलझी थी जिन्हें उन्हें खोलना था।बेबी एकायक समझ न सकी कि वसु उसे यहाँ क्यों लाया है? उसे लगा उन दोनों के बीच कुछ ऐसा है जो अव्यक्त, अनबूझ और अवश है।उनके मन के भीतर झंझावतों में उनके अपने सपने थे जो एक दुसरे के चेहरे से झांक रहे थे।

-बेबी, तुम्हे यहाँ आना बुरा तो नहीं लगा?

-नहीं...क्यों? तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो?

-नहीं...ऐसे ही...?

...मुझे बहुत अच्छा लगा है...कसम से!

-बेबी, तुम मेरे संग हो, भाई को बुरा तो नहीं लगेगा?

क्यों...? उसने उसकी आँखों में झांक कर कहा।

इस क्यों ने उसकी जाने कब की शंका कुशंका का अंत कर दिया। परन्तु यह बेबी का जवाब था।उसका क्या...! वह भाई का बहुत सम्मान करता था और निश्चय ही प्यार भी।उसकी अनिच्छा भी उसके लिए काफी मायने रखती थी। एक अपरिचित डर की छाया उसे धीरे-धीरे घेर रही थी।

बेबी सोचती रही और टुकुर-टुकुर उसके चेहरे, उसके होंठों को निहारती रही...वसु! जो कुछ कहना है, अभी कह डालो...इसी क्षण... इसी पल कह दो।आज की शाम फिर न आयेगी।ज़िन्दगी में यह पल दुबारा आ पायेगा...? वसु वह तीन शब्दों के कहने में अटक गया और बेबी भी। किन्तु दोनों के बीच वह वाक्य अस्वर में दोनों तरफ से हवा में तैर रहा था।

रात के पदचाप आने लगे थे।अचानक उनमे भय ने प्रवेश करना शुरू कर दिया।वह डर, अँधेरे या जंगल का नहीं बल्कि भाई की नाराजगी का डर।वे सहमे से चुप थे।वे बंगले की तरफ लौटने लगे।उनके साथ उनकी छायाएँ भी थी।उबड़ खाबड़ रास्तो ने उनकी गति काफी धीमी कर दी।

वे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बंगले की तरफ आ रहे थे कि भाई आते दिखाई दिए.शायद उन्हें माली काका ने बता दिया होगा।उनके हाथ में एक लम्बी-सी डंडी थी।क्या वे मारेगें? भाई उन्हें देखकर रूक गए और उन दोनों के निकट आने का इंतज़ार किया।

-तुम थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकती थी? उन्हें अफ़सोस था।

-तुमने बेबी को क्यों बहकाया, जंगल चलने के लिए? उन्होंने संदिग्ध भाव से वसु की और देखा।

-तुम इसके संग क्यों आयी? डर भय कुछ है कि नहीं? वह जगह खतरनाक है।अप्रत्याशित रूप से वे हिंसक नहीं हुए.फिर भी वसु की आँखों में सहमा डर था, तो बेबी की आँखों में एक छोटा-सा बादल उमड़ कर आ बैठा था।उन्हें लगा कि वे दोनों कांप रहे है। भाई पत्थर हो गए, उदास, व्यग्र और खामोश।

इस समय जहाँ वे बैठे थे उस जगह भाई के साथ बेबी हुआ करती थी।वह कभी उनके साथ यहाँ अकेले नहीं बैठा था।वे दोनों अपने में अकेले थे।वह सदैव इस बात का ध्यान रखता था कि उसकी किसी बात से भाई को कोई तकलीफ न हो और भाई हरदम उसकी सारी सुख सुविधा का ख्याल रखते थे।स्वाभाविक है, प्यार करते होंगे तभी न? उसने सोचा।परन्तु उनके बीच सदैव एक हल्का-सा पर्दा विद्यमान रहता था।आज अप्रत्याशित घटित हुआ था।वे बड़े भाई के आवरण को फाड़ कर वे मित्रवत बात कर रहे थे।

-वसु, यह गलत है कि नहीं?

-क्या?

इस क्या से भाई चिढ़ गए.

-तुम सीरियस हो न? ...तुम मेरा विश्वास नहीं करते...तुम समझते हो...?

-निश्चय ही...परन्तु मैं सोच रहा था कि बेबी की क्या प्रतिक्रिया थी?

-अफ़सोस तो यही है कि उसने भी अपने पापा का समर्थन किया और लगता है कि तुम भी मेरे समर्थन में नहीं हो? ...भाई काफी उदास हताश और निराश लग रहे थे। उन्हें इस बात से कोफ़्त हो रही थी कि वसु ने उनका खुलकर समर्थन नहीं किया, न ही सहानुभूति दर्शायी।

एकायक वह उठे उनमे गुस्सा, नाराजगी क्षोभ और संताप का मिलजुला भाव था।ऐसा लगा कि वह किसी निर्णय पर आ पहुँचे है।-तुम्हे मेरी कतई परवाह नहीं है...उन्होंने उसका कन्धा झकझोरते हुए कहा। उसने चुप रह जाना बेहतर विकल्प लगा।वह दुविधा में था।

उनके बीच कलुष आ बैठा था।

-आज से और अभी से बेबी से सारे सम्बन्ध ख़तम और यह तुम्हारे लिए भी है...भाई ने कुछ चीखते हुए कहा।

इस समय उनसे बहस करना अर्थहीन और हास्यास्पद था...किन्तु वह जानता था कि उसे मना करना अकारण था।

यह कहते हुए वह भीतर अपने कमरे में जाते दिखे।वे कोई निर्णय ले चुके थे।वहाँ से लैंडलाइन पर वह अनुपमा मैडम से तुरंत मिलने का आग्रह कर रहे थे।उनके स्वर में तीब्रता, शीघ्रता और निसहायता का मिलाजुला समिश्रण था।वसु घबराहट को दबाने का प्रयत्न कर रहा था जिसमे दुःख था।

उसे भाई का निर्णय बेहद नागवार गुजरा था परन्तु वह मानने के लिए विवश था।वह उनका विरोध करने के नाकाबिल था।उसे बेबी से अलग होना किसी यातना से कम नहीं था।परन्तु उसे यह सब करना ही था।बड़ा तकलीफ देह था यह सब चुप-गुप के झेलना।

...फिर उस दिन के बाद, जब उसने सोचा अब उससे कभी नहीं मिलुगा। सड़क चलते हुए दिख भी गयी, तो उसकी तरफ देखूगा भी नहीं।पीछे मुड़कर भी नहीं।जैसे वह एक हवा जो उसके जीवन में आई और लग कर गुजर गयी। परन्तु जब वह आखें बंद करता, वह दिखाई पड़ जाती।उन लमहों में अब भी जीता है।

वसु जानता था कि बेबी उसकी स्थिति, परिस्थिति और मनोदशा बेहतर ढंग से महसूस कर सकती है...तो क्या बेबी ने भी कभी उससे मिलने की कोशिश नहीं की होगी? ...शायद नहीं...! क्योंकि वह अच्छी तरह समझती थी कि बसु एकदम दब्बू है, कम से कम भाई के सामने।वह भाई को उपेक्षित नहीं कर सकता।उससे कुछ अलग न हो सकेगा।

यद्दपि वे फिर कभी नहीं मिले थे परन्तु उनके मन में एक दुसरे के प्रति खीज या कटुता नहीं थी।वह जानती थी कि वसु भाई का बहुत सम्मान करता और प्यार भी।उनके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकता, निःसंदेह उसका विछोह कम पीड़ादायक नहीं रहा होगा।

उस रात जब वह सोने की असफल कोशिश कर रहा था तो अनायास भाभी के उस वाक्य पर ठहर गया जो रात के खाने में भाभी ने कहे थे-वसु, जानते हो चित्रा अपने हसबैंड के साथ यु-एस में सेटल हो गयी है।उस समय उसने बड़े ही संयत और निर्विकार से इस खबर को स्वीकार किया था-जिससे यह ध्वनित होता था, हमें क्या?

उस रात जब भाभी वसु के कमरें के कमरे में आई तो स्तम्भित-सी खड़ी रह गयी।उसने वसु को कभी ऐसा न देखा था।पूर्णतया अवसाद में डबा-डब भरा हुआ।

" वसु, सो गए क्या? भाभी ने उसके बिस्तर के पास आकर कहा।

वसु चुपचाप आँखे मूंदे लेटा है, निश्चल, निस्पंद।जैसे कोई शव।कभी कभी ऐसा होता है कि आदमी जीता हुआ भी करींब करीब मरने की सीमा तक पहुँच जाता है। मरता नहीं है, परन्तु मरने की स्थिति में होता है।

तब भाभी एकदम पास खिसक आई और बिस्तर के एक कोने में बैठीं।धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा-सुंदर, कोमल, स्निग्ध ममतामयी-कही बुखार में तो नहीं है? वह नहीं था।

" वसु क्या बात है? '

और तब वसु ने अपनी आँखे खोलकर उन्हें देखा एक छोटे बीमार बच्चे की मानिंद। मुरझाये पीले चेहरे ने एक लम्बे क्षण तक उन्हें देखा।कही से आंसू का एक कतरा उसकी आँखों में ढरक आया।

"कुछ भी तो नहीं!" अनायास उसके मुंह से निकला।

"यह अकारण तो नहीं...?" उन्होंने संयत स्वर में पूछा।

वसु सहसा उठ बैठा।उसने पलथी मार ली और तकिया अपनी गोद में रख कर बोला, "क्या...क्या है, क्यों परेशान कर रखा है? ठीक से सोने भी नहीं देतीं?" हालांकि, उसके स्वर में तल्खी नहीं थी।

"तुम झूठ बोल रहे हो!" भाभी मनुहराते हुए कहा।

कुछ पल दोनों के बीच मौन पसरा रहा।एक दुसरे को तौलते रहे।पहल का इंतजार करते रहे।

"वसु, अब तुम शादी कर लो! ...अब कोई कारण नहीं बचा है।ऐसे रहने का?"

वसु सोचता है कि भाभी सब क्या जानती है? या सिर्फ अनुमान के आधार पर वह ऐसा कह रही है...उस दिन भाई ने जब उसका प्रस्ताव स्वीकार किया था चाहे गुस्से, क्रोध या अपमानित होने के अतिरेक में ही, तो उन्हें भाई, बेबी और उसके त्रिकोण के विषय में जानकारी थी? ...या भाभी कभी बेबी से मिली थीं? ...या भाई जी ने उनका वर्जन सुना था? ...किन्तु उसकी कब सुनी...? वे कैसे बीते हुए खाली पड़े अंतरालों को जोड़ पायी होंगी? ...उसके प्रति उपजी आत्मीयता मेरे लिए है या उन फैसलों की तरह हैं, जिनसे अकेलापन मिटता है, ।और परिवार बनते और बसते है।

"नहीं, मै ऐसे ही ठीक हूँ।" वसु ने अनमनस्कता से कहा।

"वसु, मै तुम्हारी भाभी बनने से भी पहले तुम्हारी टीचर थी, मैडम अनुपमा...ठीक है? ...कोई डिस्कशन नहीं...मैंने जो टास्क दिया है उसे हर हॉल में पूरा करना है...समझे!"

वह अजीब नज़रों से निहार रही थीं-जैसे कुछ पूंछ रही हो।आखिर! तुम्हारे आगे सारी जिंदगी पड़ी है।इसे इस तरह जाया मत करो।

उन्होंने इस ढंग से परिचय कहा, जैसे उसे यह पहली बार पता चला हो। उसके चेहरे पर हंसी आते-आते रुक गयी।उस हंसी में एक विवश निरीहता छिपी थी, मानों वह खुद पर हंस कर अपने को विश्वास दिला रहा हो कि अभी तक उसने कब किसी की अवज्ञा की है?

"मगर...?"

"अगर, मगर कुछ नहीं।" वह जाने से पहले एक बार आखरी बार उसको देखती हैं।दीवार की तरफ उसका मुड़ा हुआ सिर था।वह उसके चेहरे की कोई किसी प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं देख पाई. उठती है और चलते हुए एक बार वह फिर दुहराती हैं।वे तसल्ली देती है, खुद खाली होकर, मेरी खाली जगहों को भर देंती है।

वसु को तसल्ली आती है।उस तसल्ली में-में बेचैनी छिपी होती है।जो भीतर तक धंसी रहती है।संदेह और अनिश्चय से उसके चेहरे पर एक तनाव खिच आता है।

अब कोई नहीं आयेगा।वह चली गयी हैं।उसने उन्हें जाते हुए देखा।वह घटनाओं को उलटे क्रम से देखने लगता है।

-किंही अज्ञात क्षणों में भाई ने बताया था कि तुम्हारी अनुपमा मैडम मेरी क्लास-फेलो थी, यदि कोई दिक्कत हो तो बताना। -उसे भाई का आदेश-आज से और अभी से बेबी से सारे सम्बन्ध ख़तम और यह तुम्हारे लिए भी है...भाई ने कुछ चीखते हुए कहा। -यह पनिशमेंट था हम दोनों के लिए.या उससे भी आगे जहाँ से क्रूरता शुरू होती है और हिंसा में तब्दील होती है।किन्तु नहीं यह सिर्फ कमीनापन था...नहीं...नहीं... वह रूक गया।आगे कुछ भी न था–सिर्फ एक घटिया सोच की जलन। उसकी भी नहीं जिसकी वजह से उन्हें अलग किया गया था।

-यह रात-एक अरसे बाद यह रात भी एक अधमिटी स्मृति के कुहांसे में घुल जाएगीं।रह जायेगा केवल वह और उसका आकारहीन अर्थहीन अनुप्राणित करता एक अस्पष्ट धुन्घला-सा दर्द जो किसी के चाह से उत्पन्न जीने की क्रिया से धुलधुसरित होता जा रहा है।

-मैडम अनुपमा एक-आध बार घर भी आई थीं, जब बेबी ने आना शुरू नहीं किया था।

परन्तु उलझन अनिद्रा और बेचैनी से भरी इस रात में उस वाक्य ने जख्मों में बड़े मलहम का काम किया। तुम्हारे आगे सारी जिंदगी पड़ी है।इसे इस तरह जाया मत करो।

वह थका और निढाल हो आया था। अकारण! तब उसकी पलके बोझिल होते हुए बंद हो गयी।वह गहरी नीद में आ गया।