अकेलापन / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक व्यक्ति कब-कब और कितना और कहां-कहाँ अकेला होता है। ये सोचने की बात है। अकेलापन हमारा, कोख से शुरू होता है और कब्र तक चलता है। हम कोख में अकेले थे, फिर कमरे में, फिर मकान में, गली में, शहर में, देश में और अंत में दुनिया में अकेले हो जाते हैं। अपने कमरे में किसी के साथ हम बिलकुल अकेले होते हैं। फिर ऑफिस में, दोस्तों में, रिश्तों में, सब जगह हम अकेले हो जाते हैं आसपास हमारे भारी भीड़ होती है, लेकिन मन का सूनापन नहीं जाता।

रात में जागने वालों की ज़िन्दगी में कभी भी सुबह नहीं आ पाती। सीधे दोपहर ही आती है, गोया रात-रात भर जाग-जाग के वह मेहनतकश विद्यार्थी पढ़ता है और अलसुबह उसे नींद आ जाती है। जैसे उसका बचपन उग ही नहीं पाता ठीक से और जवानी हड़बड़ाहट में निकल जाती है वह सीधे बूढ़ा होता है। उसकी दोपहर उसके जीवन का मध्यांतर उसे बहुत दुखदायी लगता है। उसकी दोपहर की धूप एक दिन चुपचाप रात में बदल जाती है, रात यानी मौत, निर्वाण, मोक्ष, अंत चाहे जो कहो। सुबह का सूरज, प्रेम गीत, ओस की बूंदें वह महसूस नहीं कर पाता।