अकेला पलाश / मेहरुन्निसा परवेज / पृष्ठ 1
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आफिस में टेबल के सामने बैठते ही मन की कमजोरी, उदासी जैसे बटन दबाते ही गायब हो गयी थी कहीं। उसकी जगह धैर्य-दृढ़ता आ गयी थी। जिम्मेदारी के एहसास ने उसे बाँध लिया, कस के। चपरासी ने एक गिलास पानी उसके आगे रख दिया। पानी पीकर उसे अच्छा लगा। रुमाल से उसने चेहरा साफ किया। अब वह पूर्ण रूप से तैयार थी, आगे की स्थिति का सामना करने के लिए। चपरासी ने उसके आगे ढेर सारी डाक लाकर रखी दी। डाक छाँटते ही एक लिफाफे को देख उसके हाथ काँप गये। पहचाने अक्षरों की पहचान जो अभी फीकी नहीं हुई थी, उसे देखते ही वह चौंक पड़ी। पत्र खोलते ही वह काँप-सी गयी। तुषार का पत्र था—तहमीना, मैं तुम्हारे शहर में आ रहा हूँ...मिल सकोगी ?
पत्र पढ़कर वह जैसे काँप-सी गयी।
तभी सामने रोड से रजिया आती दिखी। उसने दूर से ही आदाब किया। जवाब में वह धीरे से मुस्करा दी और टेबल पर रखा पेपरवेट गोल-गोल घुमाती रही। हाथ में रखे पत्र को उसने पेरवट से दबा दिया।
‘‘हूँ, आओ रजिया, कैसी हो ?’’ उसने बिना उसकी ओर देखे पूछा। उस वक्त लहजा वैसा ही था जैसे मरीज को उसकी बड़ी बीमारी की सूचना देते समय टटोल कर देखना चाहती हो कि मरीज कितना धैर्य रखता है।
‘‘जी अच्छी हूँ...’’ कहते हुए रजिया ने सहम कर दीवार का सहारा ले लिया।
‘‘रजिया, तुम विनोद को कब से जानती हो ?’’ तहमीना ने बहुत अचानक से सवाल कर दिया।
‘‘जी...’’ वह घबरा-सी गयी, ‘‘जी मैं नहीं जानती, बस पढ़ाते थे, उन्हें मास्टर के रूप में जानती हूँ,’’ वह सतर्क होकर साफ झूठ बोल गयी।
‘‘देखो, रजिया, मेरे सामने झूठ बोलने की कोई आवश्यकता नहीं,’’ उसने टेबल पर से पेन उठा लिया और कोरे कागज पर लकीरें खींचते बोली—
‘‘तुम्हें और मेरे सारे स्टाफ को मालूम है, मुझे झूठ कतई पसन्द नहीं, सच-सच बात कहो क्या तुम्हें मेरे सामने झूठ बोलने की आवश्यकता है ?’’
‘‘जी...’’ वह सहमकर उसे देखने लगी।
‘‘देखो रजिया, मैं ज्यादा नहीं पूछूँगी, न ही ज्यादा बोलूँगी। ठीक है तुम्हारी उम्र अभी कम है, तुम मुश्किल से बीस-इक्कीस वर्ष की हो और तुम्हारी उम्र ऐसी है कि तुम्हें सहारे की भी आवश्यकता है; पर रजिया मेरी बात ध्यान से सुनो। यह ठीक है कि तुम्हें धूप लगी है और तुम्हें छाया की सख्त जरूरत है, पर छाया के लिए ऐसे पेड़ के नीचे पनाह लो जो तुम्हें वास्तव में छाया दे सके। ऐसे पेड़ के नीचे मत खड़ी हो जो तुम्हें छाया भी न दे सके। बल्कि उलटा तुम्हारे ऊपर गिरे और तुम्हें तबाह कर दे। तुम क्या नहीं जानतीं, विनोद दो बच्चों का बाप है, उसकी पत्नी है, उसकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं, वह तुम्हें अपने घर नहीं रख सकता। ऐसे रिश्तों से क्या फायदा जो सहारा न दे सकें...। समझ रही हो न मेरी बात ?’’
‘‘जी,’’ रजिया सर झुकाकर रो पड़ी।
‘‘मत रो रजिया, मेरी बात को अकेले में सोचो और उस पर अमल करो। क्या फायदा, विनोद की पत्नी इधर-उधर बकती है, तुम्हें बदनाम करती है, पति से लड़ती है ! तुम्हें अब यहाँ रखना भी ठीक नहीं है। इसलिए मैंने तुम्हारा ट्रांसफर कर दिया है, और तुम कल ही यहाँ से चली जाओ और काम में अपना मन लगाओ।’’
‘‘जी...।’’
‘‘अब आँसू पोंछ लो और जाकर पानी पियो और अपना काम देखो और मेरी बात का मान रखना अब तुम्हारा काम है।’’
रजिया चली गयी। मीनाक्षी जो खिड़की के पास बैठी चुपचाप अब तक तमाशा देख रही थी, उसकी तरफ देख मुस्कुरायी और बोली—‘‘आपने तो बहुत थोड़े शब्दों में उसे अच्छी तरह समझा दिया है।’’
तहमीना मुस्कुरा दी, तभी चाय आ गयी और उसने हाथ बढ़ाकर चाय ले ली।
‘‘एक और केस है मैडम,’’ मीनाक्षी उसके पास आती हुई बोली।
‘‘किसका है ?’’
‘‘अपने यहाँ की ही है। उसका एक ग्राम-सेवक से प्रेम चलता है, उसका अपना पति मर गया है, पति की तरफ से दो-तीन बच्चे हैं, अब इस ग्राम-सेवक से भी उसे गर्भ है। मुझे पता चला तो मैंने उसे बुलाकर बहुत डांटा, मैंने उसे गर्भ गिराने और आपरेशन करवा लेने के लिए बहुत कहा, पर वह नहीं मानी। अब अपने यहाँ दो-तीन माह से तनख्वाह नहीं मिल पा रही है, पैसों की तंगी है, तो उसे एक दूसरे डिपार्टमेंट वाली ने अपने घर रख लिया है। आजकल वह अपने यहाँ ड्यूटी भी नहीं कर रही है। वह उसी महिला के पास रहती है और उसके घर का काम देखती है। उसने उसे दूसरी जगह काम पर लगवा देने का आश्वासन दिया है।’’
‘‘अच्छा,’’ तहमीना ने खाली कप टेबल पर रख दिया, ‘‘यह तो बहुत बुरा है कि हमारे डिपार्टमेंट के व्यक्ति को कोई दूसरा भड़काये,’’ तभी सामने से दुलारी बाई आती हुई दिखी, और उसके सामने नमस्ते कर खड़ी हो गयी।
‘‘कहो कैसी हो ?’’ तहमीना ने एकदम शान्त होकर उससे पूछा जैसे कुछ न जानती हो।
‘‘जी अच्छी हूँ, गाड़ी देखकर आपके पास आयी हूँ।’’
‘‘सुना है तुमने यहाँ का काम छोड़ दिया है और पंचायत में काम ढूँढ़ रही हो !’’
‘‘यहाँ तनखा कम है दीदी, फिर समय पर मिलती भी नहीं,’’ वह ढीठ होते हुए बोली।
‘‘देखो दुलारी बाई, इसी तनखा पर तुम दो साल से काम कर रही थीं, तब तनखा कम नहीं लगती थी, अचानक अब लग रही है। इसमें मैं क्या कर सकती हूँ, जैसा ऊपर के आदेश होते हैं वैसे ही काम होता है। हम अपनी मरजी से अधिक वेतन तो नहीं दे सकते। रही समय पर वेतन न मिलने की बात, तो देर-सबेर हर जगह होती है। तुमने यह कैसे सोच लिया कि उनके डिपार्टमेंट में समय पर वेतन मिलेगा ? वहाँ भी यही परेशानी होगी। यदि तुम्हें परेशानी थी तो यहाँ तुम किसी से कह सकती थी। यह तो बहुत बुरी बात है दुलारी बाई की कि अपने यहां की बात दूसरे के घर जाकर कहो। मैं तुम्हें यहाँ रहने पर जोर नहीं देती, पर इतना जरूर कहूँगी कि जिसका नमक खाओ उसके प्रति वफादार भी रहो।’’
‘‘जी,’’ घबराकर उसने देखा।
‘‘और सुना है तुम्हें गर्भ है ?’’
‘‘जी,’’ उसके माथे पर पसीना छलक आया।
‘‘देखो बनो मत, यह मत सोचो कि मैं कुछ नहीं जानती, मुझे अपने हर कमर्चारी के बारे में एक-एक बात मालूम रहती है। गर्भ किसका है, ग्राम-सेवक का न ?’’
‘‘................’’
‘‘आज तुम चुप रहोगी, पर कल तुम्हारी स्थिति जब सब से सब कह देगी कि तुम विधवा हो यह बात सारे लोग जानते हैं ! दुलारी बाई मैं जानती हूँ औरत मजबूरियों में हर काम करती है। तुम्हारे जो बच्चे हैं इन्हें अच्छे से पालो, भटको मत। कल यह तुम्हें सहारा देंगे, तुम्हें, सँभालेंगे।’’
‘‘जी...जी’’ कहती वह फूट-फूटकर रोने लगी—‘‘मैं भटक गयी थी, दूसरे के बहकावे में आ गयी थी, आपने मुझे रास्ता दिखा दिया, मुझे बचा लिया। अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी, पर मुझे उस गाँव से हटा दीजिए, कहीं और भेज दीजिये, वह ग्राम-सेवक मेरी जान के पीछे पड़ा है।’’
‘‘ठीक है हम तुम्हें दूसरे गाँव में भेज देंगे, तुम जाओ और अपना काम करो, दूसरों के बहकावे में मत आओ। दूसरों के दिखाये रास्ते पर चलने के बजाय अपना रास्ता चलना ठीक होता है न।’’
दुलारी बाई रोती हुई उठी और नमस्ते कर चली गयी।
‘‘मैडम कहीं वह उस महिला से जाकर कुछ कहेगी तो नहीं,’’ मीनाक्षी घबराती हुई बोली,’’ वरना वह मुझसे लड़ने आयेगी कि मैंने उसका नाम आपको बतला दिया।’’
‘‘बताने दो मीनाक्षी क्या फर्क पड़ता है; पर नहीं वह नहीं बतायेगी, उसका मन दुख गया है जहाँ मन दुखता है। औरत का, वह बात की तह तक पहुँच जाती है। वह अपनी गलती समझ गयी है, और वह किसी से कुछ नहीं कहेगी, और यहीं लौट आयेगी।’’
‘‘चलिये मैडम नाश्ते का टाइम हो गया है,’’ मीनाक्षी उठते हुए बोली।
‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है, खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है, बल्कि तुम जाओ और नास्ता कर आओ, मैं कुछ देर अकेले रहना चाहती हूँ।’’
मीनाक्षी उठकर बाहर चली गयी और वह ढीली होकर अपनी कुर्सी पर लेट-सी गयी। अपने बालों से खेलते हुए उसने छत को दखा। खपरैल की बड़ी पुरानी-सी छत थी, नीचे यहाँ से वहाँ तक सफेद कपड़ा लगा दिया गया था ताकि धूल न गिरे। कपड़ा सफेद था इसलिए काफी गंदा हो गया था।
रजिया और दुलारी को शान्त कर वह खुद भीतर से बहुत अशान्त हो गयी थी, आँखें वीरान हो गयी थीं। दूसरों के कष्ट के आगे अपने कष्ट बड़े नहीं लगते। आज उसे वैसा ही लग रहा था जैसे सूखी नदी के किनारों की तरह, नदी जब सूख जाती है तो उसका दर्द कितनों ने देखा था, कितनों ने परखा था ! वह अपने सारे दर्द को गर्भ में छुपाए वीरान, हैरान सी पड़ी रहती है।
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