अकेली हूँ / राजा सिंह

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क्या पहचान सिर्फ़ आँखों की होती है? आंखें इस पहचान को दिल दिमाग़ तक क्यों नहीं ले जाती हैं? वह लड़का तो खैर तीन वर्ष से परिचित था किन्तु अपने पिता को भी वह कहाँ जान पाई, जिनके साथ उम्र के तीस साल गुज़ारे थे?.. और अब तक उनके रंग बदलते व्यक्तित्व से अपरिचित हूँ, वैसे ही जैसे तीन साल से परिचित उस लड़के, प्रेमी, पति से !

दोनों एक जैसे ही थे, सिर्फ़ एक हल्का-सा फ़र्क़ था। हर व्यक्ति को देखते वक़्त एक ख़्याल-सा रहता है कि वह इन्हें पहली बार देख रही हूँ। किन्तु शनै शनै यह अहसास तारी रहता है कि ऐसा तो कोई और देखा है और फिर उसे ताज्जुब होता है कि अरे, ऐसा तो अपना बाप है! यह अपना और पराए का फ़र्क़ नहीं था। यह भीतर तक गहराई में उतरने पर आभास होता है कि बाहरी आवरण के अलावा भीतर से सब एक हैं। वह उसके प्यार में आकंठ डूब जाती है। जैसे वह पिता को चाहती थी, एकदम आज्ञाकारी समर्पित सी। इसलिए जब वह पहली बार मिला तो जाना पहचाना-सा लगा था। जैसे कि वह पहले भी मिली हो दूसरी बार मिलने पर लगा था कि वह उसे बहुत पहले से जानती है। उसको लेकर उसके मन में कोई आशंका नहीं थी।

वह जब कम्पनी के डायरेक्टर से मिलने आया था तो वह वही बैठी थी। वह किसी अन्य एम.एन.सी में कार्यरत था और फिर डायरेक्टर कि अनुपस्थिति में उसने अलग से मिलने की इच्छा व्यक्त की, तो भीगे ठंडे मौसम में भी दो मिनट उसकी उपस्थिति की जो सेक लगी, वह मन से उतर कर पूरे शरीर में फैल गई थी। जो हर मुलाकात में तारी रहती और गर्मी में कसक भरी ताजी ठंडी हवा का अहसास कराती। उनके मिलन ने अब मन से उतर कर दिल में दाखिल होकर स्थायी डेरा बना लिया था।

कई चीजें अंदर से बदल जाती हैं किन्तु बाहर से वही रहती है और कई चीजें बाहर से बदल जाती किन्तु अंदर से वही रहती है। पिता और प्रेमी ऐसे ही बदले थे। परंतु वह उसके सान्निध्य में अंदर बाहर दोनों रूप में बदल नहीं पाई थी। पता नहीं लड़के के अंदर क्या-क्या, कहाँ-कहाँ बदल गया था, वह पकड़ नहीं पाती थी। दिमाग़ चलता है, दिल में हलचल होती है, लेकिन उसके मुताबिक कार्य नहीं होता है। वह सिल्क कि तरह नरम था तो लोहे माफ़िक कडक भी हो जाता था।

अब जबकि वे अलग अलग हो गए है, किन्तु पहले से व्याप्त उसकी गंध अभी तक उससे लिपटने को आतुर रहती है। अब उसे लगा कि वह उसके साथ लिपटने को सकुचाती सिर्फ़ उसके पास से गुजरती थी और फिर परे हो जाती थी। प्रत्येक व्यक्ति प्रेम चाहता है । प्रेम की चाहना ही वासना में तब्दील होती है और आपस में आबद्ध करती है। परंतु जब हृदय के मूल्यवान स्वप्न तितर-बितर हो जाते है तो वेदना कराह उठती है। वासना और वेदना दोनों विचित्र है और वह दोनों से आप्लावित है। संपर्क हीनता के कारण जब हृदय का उपयोग नहीं होता तो फिर एक दूसरे के प्रति मार्मिक विचार टूट जाते है, क्योंकि वह असहिष्णु और अधैर्य की प्रतिमूर्ति था। उसने सोचा।

पिता ने जब वापस लौटी बेटी का मुख देखा तो उसकी आँखें उसी तरह सतर्क हो उठी थी, जब उसकी लड़की ने ज़िद की उससे जुडने की और उसका सर नीचा हो गया था, बिना उसके कुछ कहे। उनके भीतर अथाह संवेदना का गहराता सागर था, वह तनावपूर्ण चुप्पी जो क्रमशः उपेक्षा और तिरिष्कार पूर्ण व्यवहार में बदल गई थी। बेटी वही कहीं किसी जगह बिल्कुल वही थी जो हमेशा होती थी। सिर्फ़ बाहर कुछ बदल गया था। चहकती हुई कोयल, गूंगी थी, बुलबुल के मानिंद पिंजरे में, अड्डे में कैद। वह ठंडी भावना विहीन प्रस्तर प्रतिमा में तब्दील हो चुकी थी।

“मुझे यह पता था यह समय किसी दिन अचानक आ जायेगा।“ पिता ने कहा।

“इस तरह से कभी नहीं सोचा था।“ माँ की आवाज़ सकुचा गई।

माँ हतबुद्धि-सी खड़ी रह गई थी। वह एक तीक्ष्ण-जिह्व, घरेलू और दयालु महिला थी। किन्तु बेटी के दिल में क्या चल रहा है, इसका अनुमान होना बड़ा ही कठिन था। उसने अपने कमरे में पिता की तरफ़ देखा फिर माँ की तरफ। पिता बेहद रोष में थे और माँ निःशब्द। बेटी अव्यक्त थी। अपने मूल चरित्र में कोई भी अभिव्यक्ति स्तर पर खुल नहीं रहा था।

पिता आज भी उसके जीवन का अवलम्ब बना हुआ है। पिता के दृष्टिकोण से वह एक उच्च-वंशीय कन्या है जो अपनी ज़िद के कारण इस दैन्य दशा को प्राप्त हुई है। जबकि वह जीवन और समाज के प्रति जवाबदेह थी। उसके ना रो पाने का दुख। माँ का रोना रह-रहकर कर फूटता है, उसके सम्बंध विच्छेद का दर्द। माँ ने उसका साथ दिया था उस लड़के के साथ विवाह को लेकर, जब पिता किसी भी तरह राजी नहीं हो रहे थे। जब लड़की प्रतिरोध में अपने सर को दीवारों से टकराकर रही थी, तब माँ की ममता ने लहूलुहान बेटी को अंक में समेट लिया था।

“जान लेकर मानोगे?” माँ बिफरी थीं। उस क्षण पिता पिघले थे। ज़िन्दगी में पहली बार माँ ने उन्हें निर्दय सम्बोधन से उकेरा था। वह सहम गए थे। सारी तोहमत उनमें आकर स्थिर हो गई थीं। उन्होंने सहमति दी और लड़की ने फिर उनकी हर सलाह को पूर्णतया अंगीकार करने का इरादा कर लिया था। भरपूर तृप्ति का सबब था।

अपने पिता को न पहचान कर लड़की ने उनका कहन पालन करने का निश्चय किया। उस लड़के से उसके विवाह की अनुमति देकर उन्होंने जो उसे उपकृत किया था, उसका ऋण चुकाने हेतु उसने उनके कहन को आदेश की तरह परिपालन किया था। परिणति वह वर्ष-भीतर ही वापस थी।

माँ शायद वही थीं किन्तु वक़्त बदल गया था। अब वे पिता के साथ हो ली थीं। उसे माँ की बात अच्छी तरह, मगर कुछ बेतरतीब ढंग से याद है कि तुम्हारी मर्जी से शादी हो रही है, निभाना। लड़की के जीवन में आत्मविश्लेषण का मौका था। उसके प्रति जो आकर्षण था वह लड़के के प्रति पतित्व और अपने पत्नीत्व के आधार पर ही था या परस्पर यह आकर्षण प्रेम उसकी सज्जनता, पद प्रतिष्ठा और शिष्टता के प्रति था, जो टूट गया प्रतीत होता है। पहले वह अनुभव शून्य थी, अब नहीं।

‘माँ फिर आप माफ़ कर सको ... मुझे माफ़ कर देना। क्या पिता ने अधर्म से, छल से, कपट धोखा से उसे पति हीन नहीं किया है ? सिर्फ़ प्राण लेना ही जीवन लूटना नहीं है बल्कि श्रीहीन कर देना भी मृत्यु से कम नहीं। पत्थर सिर्फ़ चोट मारने के लिए ही नहीं होते इनसे स्थिर पानी में भी लहरे उठाई जा सकती है। लड़की में वही स्तब्ध-पूर्ण मुख आँखों में न्याय की मांग करता अविश्वसनीय चेहरा था।

वह उसके भव्य सफेद सौंदर्य को देखकर वह इतना हतप्रभ हो गया था कि दिमाग़ सुन्न हो गया था। जिसे वह दिल की अनंत गहराइयों से चाहता था वह उसे वैसी नहीं लगती थी जैसा उसने सोच रखा था। दिल की सच्चाई और सही निर्णय से दुर्भाग्य का कोई सम्बंध नहीं है। भाग्य-दुर्भाग्य के आपने ही चक्र और नियम हैं। कितनी ही देर तक लड़की को देखता रह जाता है। वह उससे अलग हो रही थी अकारण, यह कहते हुए कि तुम वैसे नहीं निकले जैसे दिखते थे। उस दिन वह हंस दिया था। उसने देश परदेश देखा था, लड़कियाँ और स्त्रियाँ भी देखी थीं किन्तु ऐसी, जिसकी काया उसकी अवश्य थी परंतु अंदर अक्षरशः पिता थे, कतई नहीं। वह किसी भी चीज को डूबकर नहीं सोचता था जबकि वह क्षुद्र बातों को भी गंभीर मुद्दा बना लेती थी। समय बदलने के साथ वह बिल्कुल नहीं बदली थी, आख़िर वह कब तक बदलता?

उसने जो कुछ लड़की से कहना चाहा था, वह समझ गई थीं किन्तु उसके दिल दिमाग़ में छाई पिता कि उक्तियाँ सदैव विचरती रहती थी... ‘लव मेरिज से फायदा क्या यदि इसमें भी दहेज देना पड़े?’ ...’यह लो आठ लाख- अब इसमें चाहे कार खरीदो, फ्लैट, वर्ल्ड टूर, या फिर विवाह ख़र्च !’ (जबकि वह उनकी एकमात्र संतान थी और संपदा करोड़ों के पार) ।... फिर पिता ने लड़के की सलाह की अनदेखी की। पिता ने लड़की को नामित करने से भी इनकार कर दिया था।

जाते हुए लड़की ने उस पर लालची और लोभी का भी तगमा अटका दिया था। यह कलंक है उस अपराध का जो उसने किया ही नहीं था। इस तोहमत से भी वह विचलित नहीं हुआ था। क्योंकि वह जानता था कि वह ऐसा नहीं है। लड़के ने अपनी जमा पूजी से सब कुछ इकट्ठा किया फ्लैट, कार और यूरोपियन टूर भी। वह घर ख़र्च में भी कोई सहयोग के लिए अनिच्छुक थी,यह पुरुष जिम्मेदारी है! खीज कर उसने अपना ख़र्च ख़ुद उठाने को कहा था और तभी लड़की ने उसका घर छोड़ दिया।

लड़का एक बार उसे अलग रहने के दरमियान मनाने गया था अपनी बहिन के विवाह का निमंत्रण देने।... ‘ऐसे शुभ अवसर पर घर कि बहु को घर में होना अतिआवश्यक है,’ उसके पिता ने कहा था।

‘जब आपसे ही अलग हूँ तो अन्यों से जुड़ाव कैसा?’ लड़की ने घृणा तिरिस्कार और रौब से जाने को मना किया।

‘तुम्हारा क्या ख़्याल है, हम इन तीन वर्षों में आपस में अपने प्यार को इतना विकसित नहीं कर पाएँ कि आपस में अलग होने के भय से सहम जाएँ?’ लड़के ने पूछा था। इसमें संदेह नहीं है कि हर एक के पास कुछ न कुछ ऐसा होता है जो मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण होता है और वह अपने प्रिय को देना चाहता है। उसका गिड़गिड़ाना जारी रहा, शब्द वाक्य बहते चले गए।

हर युगल व्यक्ति चाहता है कि दूसरा उसे पहचाने और उसके भीतर पहुँचे उसकी आत्मा में प्रवेश करें। यह हो ना सका। वे एक दूसरे से परिचित होकर भी अपरिचित रह जाते है।

किन्तु उसने कुछ अलग-सा जवाब दिया था, ‘मैं घटित परिस्थितियों की सफ़ाई नहीं चाहती हूँ। जो कुछ हम में घटित हुआ है, उसे वहाँ के वही छोड़ देना है। अब स्थितियाँ पहली जैसी नहीं रही है और ना भविष्य में रह पायेंगी।‘

एक अर्थ भरी दृष्टि देखकर कहा, ’यह अस्वाभाविक प्रवृति है। तुम्हारे प्रति गुप्त श्रद्धा प्रेम के कारण स्वयं के हाथों स्वयं को बलिदान करना नहीं हुआ !’ उसे लगा कि लड़की परिचित भी नहीं सिर्फ़ एक अजनबी -एक भयानक अजनबी। उसका दम घुटने लगा, कराह उठा। उसकी बातचीत, कष्ट, दुख, सुंदर चेहरा, बेवकूफ चेहरा, शालीनता सब छल है-जो खींचता है, आकर्षित करता है, उसी तरफ़ मन चल पड़ता है। लड़का वही स्तब्धपूर्ण मुख, आँखों में न्याय की मांग करता हुआ, करुण मूर्त भाव लिए वापस लौट आया था।

‘आप अगर माफ़ कर सको ... मुझे माफ़ कर देना।‘ लड़के ने विह्वल होकर अपने माता-पिता से कहा। वे खेदमय आश्चर्य में थे। फिर वे तीनों रोने लगे माता-पिता और बहन, जैसे घर में कोई ग़मी हो गई हो !

लड़की को वह याद आता था किन्तु वह बताती नहीं थी। उसने उसके पैसों से खरीदी कार वापस कर दी। किन्तु उन्होंने उसे लड़की नहीं दी। वह इतनी मौन-गंभीर होती जा रही थी कि किसी भी व्यक्ति से रहा नहीं जाता होगा। उसके भीतर एक अजीब व्यथा से दिल कुम्हला रहा था। उसका शरीर शिथिल हुआ जा रहा था। उसने लड़की के कंधे पर हाथ रखा जिसे उसने सहजता से हटा दिए। उसका विच्छेदन अंत भटकन का शिकार था, फिर भी उनमें अभी तक चेतना थी, ऊष्मा थी।

माँ को कोई कसूरवार नहीं लगता। कभी वह पति, तो कभी बेटी और कभी दामाद की तरह देखती और चुप लगा जाती। जैसे कि वह ख़ुद कसूरवार है! वह विवश थीं। उसे पति से सहमत होना आता था।

लड़की वापस नहीं मिली। प्रति उत्तर में तलाक का नोटिस मिला। उस पर मानसिक और शारीरिक प्रतारणा का आरोप लगाया गया था। इन आवश्यक प्रथकीय वर्षों में उसमें कभी भी लड़की से संपर्क साधने कि कोशिश नहीं की थी, क्योंकि तब प्रथकीय समय बढ़ जाता और वैसे भी उसे नीली आँखों वाले उसके काईया पिता से काफ़ी एलर्जी विकसित हो चुकी थी और अब तो वह पूरी तरह पितामय हो गई होगी।

तीन वर्ष केस चला, किन्तु फ़ैसला नहीं हो रहा था। वकीलों ने आपसी सहमति से केस समाप्त करवा दिया। लड़के को सिर्फ़ पंद्रह लाख देने पड़े गुज़ारा भत्ता के रूप में। लड़के-लड़की को अब तक समझ में नहीं आ रहा था कि इस प्रकरण का खलनायक कौन है। वे ख़ुद या अन्य कोई? प्यार करने वाले इस क़दर तक निष्ठुर हो जाते है? लड़की रुवासी थी तो लड़का व्यथित। दोनों शर्मसार क्या कहते ?

‘हम किसे दोष दें?’ वह भीरु स्वर में बोली।

‘हम नियति कि सामने घुटने टेक देते है।‘ लड़के ने अफ़सोस किया।

अदालत में तलाक मंजूर हो गया था। लड़का और लड़की कानूनी रूप से भी अलग हो गए थे। वस्तुतः अलग तो वे तीन वर्षों से ज़्यादा से थे। जब से वह आई थी उसके माँ बाप दहशत में थे। जब भी वे उसे देखते तो ऐसा लगता कि उसमें निरीहता टपक रही है।

समय आगे ही नहीं चलता है कभी पीछे भी चल पड़ता है। वह वैसे फिर हो गई जैसे गुड़गाँव नौकरी पर जाने से पहले थी। अब लड़की पुनः पिता के आधीन हो गई थी। गुड़गाँव छोड़ दो। वह नौकरी छोड़ दो। यदि वर्क फ्रॉम होम हो सकता है तो वही नौकरी करो। वरना उसका मोह नहीं छूटेगा। ...। घर में ऐसे रहो जैसे अस्तित्वहीन हो।...। अगर घर से बाहर क़दम रखना पड़े तो हम तीनों लोग एक साथ चलेंगे। बाहर अकेले सिर्फ़ मैं...! ‘उससे अब भी ख़तरा है।‘ वह सुनती रही और मानती रही।

लड़की के सुबह से शाम तक कार्यक्रम निश्चित थे। जिसमें एकाग्र होकर वह सुबह-शाम होती थी। किन्तु उसके दिमाग़ में एक अस्थिर बेचैनी बनी रहती। सदैव पिता की हिदायतें गुँजती रहती। वस्तुतः उसका बोलना, निकालना, मिलना सीमित था, जो लड़की तरफ़ से नए की तलाश के प्रतिकूल करता था। उसके इस एकांत प्रिय जीवन से परिवार में कोई ख़ुश नहीं था। किन्तु जन लज्जा के अनुकूल था।

“मैं तेरा दूसरा व्याह करूंगा, अपनी जाति-समाज के लड़के से और वह भी अविवाहित से।” लड़की के पिता ने आश्वस्त किया। पिता ने बहुत कुछ अमूल्य दिया है उसमें आत्मीयता सर्वाधिक है और उसके अनुरूप ही सुवासित स्मृतिया ही क़ैद है किन्तु कोई अप्रिय गंध अवश्य रही है जो कि न्यायसंगत नहीं है।

लड़की ने सोचा- क्या अपनी जाति-समाज में वैवाहिक सम्बंध-विच्छेद नहीं होते है ? उसकी अपने मामा के लड़के का सजातीय वधू के साथ तलाक हो चुका था। तब उसका कारण बहू क्यों बनी थी? उसने सोचा कि विवाह गैर ज़रूरी है ? किन्तु वह अपने रुख पर अडिग नहीं थी फिर भी ...

“क्या दुनिया में लोग अकेले नहीं रहते!“ लड़की ने अस्पष्ट, धीमे एवं आर्द्र स्वर में पूछा।

‘एक सकारात्मक जीवन जीना असंभव है।‘ पिता ने कहा।

किन्तु पिता उसके लिए किसी सजातीय नए कुँवारे लड़के की तलाश नहीं कर पाए। यह एक तरह से असंभव ही था। इससे उलट तो मुमकिन था जैसा कि पहले समाज में प्रचलित था।

लड़की के हृदय में सारी मायूसी, अवसन्नता तथा म्लानता के बावजूद बहुत गहरे-गहरे, कहीं कुछ तो फड़फड़ाता रहता था। शायद वह सेक्स चाहना थी जो दबी रहकर भी उभर आती थी। वह इससे अनजान ना रही थी । उसका अनुभव जो सारी दीवारें, सारी परतें, सारे व्यवधान तोड़फोड़ कर बाहर निकालना चाहती थी। किन्तु नैराश्य में, अथक उत्साह से और निःशेष आशा से इस कर्महीनता के निर्जीव सागर में डूब जाना होता है। फिर भी सान्निध्य की कसक रह-रह कर उठती रहती ही थी। इस घुटन भरे माहौल में वे उन दो पुरुष आँखों की तलाश सदैव रहती जो सहज मैत्री, ससंपर्क एवं संसर्ग से परिपूर्ण हो ! इस विराट एकांतता में बर्फ-सी जमी हुई शारीरिक मिलन की चाह कही से एक ऐसी दृष्टि की तलाश में अवश्य रहती जो अपनी गरम साँसों से पिघला सके।

पिता को लगा कि इस जगह और मकान में ही खोट है। वह ज़िद में थे। उन्होंने हुक्म दिया अब यहाँ नहीं रहना है। उसने नई नौकरी की जिसमें वर्क फ्रॉम होम सुविधा थी। प्रतिदिन जाना नहीं था...। हाँ... ! यह ठीक है। वे यहाँ का घर किराये पर देकर पूना में शिफ्ट हो गए, एक फ़्लैट में... यहाँ भी उसे वैसे ही रहना था जैसे लखनऊ में... सिर्फ़ आपस में। उसने सोचा जब वर्क फ्रॉम होम से नौकरी करनी थी तो लखनऊ अपने घर से क्यों नहीं? उसे लगा कारागार बदल दिया जाएगा, इस आशंका के तहत कि लखनऊ से भागना मुमकिन हो सकता है।

लड़की के पंख यदि काटे नहीं गए थे तो भी चिपका दिए गए थे जिससे कि वह उड़ ना सके। उसे घर की क़ैद मुहैया करवा दी गई थी और सुरक्षा के कारण उसकी जेल लखनऊ से पूना स्थानांतरित कर दी गई। यहाँ से भागने उड़ने कि गुंजाईस नहीं थी कम से कम उसके पास तो नहीं। हर माह मिलने वाला उसका वेतन पिता के खाते में होना था। यह कार्य लड़की को नियमतः करना अनिवार्य था। वह फ्लाइट लेस बर्ड, कीवी के रूप में स्थिर हो गई थी, किन्तु फ्लैट-घर की चहारदीवारी में सीमित।

पूना में आए हुए भी पाँच साल बीत गए थे किन्तु वह वैसे ही थी पुनः अविवाहित। उसे यह समझ में नहीं आता था कि पिता को कैसे समझाया जाए। एक कटु सच को कैसे झूठ में परिवर्तित किया जा सकता है? लड़की में किसी के प्रति कोई आतुरता नहीं उपजती थी। खाली खाली नजरों हर चीज देखती और कोई राह ना मिलने पर वापस अपने में स्थिर हो जाती। एकाकी शून्य में विचरा करती किन्तु सबसे उदासीन। उसे अपने से ही मुलाकात असंभव लगती थी। थी। उसकी अति व्यस्तता चमक रही और उसका परायापन जाग रहा था।

इतनी बड़ी दूर निकल आने के बाद भी वह अक्सर लौटती थी, उन दिनों में ... पहले वह सेक्स के प्रति अशिक्षित तथा अपूर्ण होते हुए भी आधुनिकता के संपर्क में थे। एक दूसरे के प्रति प्रलोभन से दब चुके थे। उसके प्रति वर्जना की भावना नहीं थी। अकसर वह पूछ लेता ‘सेक्स करेंगी ? और सहमति होने पर ही वह संसर्ग रति होते। फिर से उसकी याद आई कि वह इतना बुरा नहीं था जितना महसूस कराया गया था। आखिरी मुलाकात के समय वह उससे सीधी आँखों से देख नहीं सकी थी। घने काले बादलों का झुंड उसकी आँखों में उतर आता, किन्तु बरसात नहीं होती। शायद लड़के कि बरबादियों की हवा उन्हें उड़ा कर कही दूर ले गई है। वह पिता की ख़ुशफमियों की जंग में शतरंज के राजा की तरह बेबस, वज़ीर के रहमोकरम पर ज़िंदा थी।

वह जानती थी कि पिता का पुनः स्थापित शासन का कारण उसका प्रेम विवाह असफल होना था। किन्तु उसे शारीरिक और मानसिक रूप से क़ैद करना अकारण है। इसके बावजूद उनकी क़ैद निरर्थक सिद्ध होती क्यों जा रही है ?वह सोचती यदि पिता धोका धड़ी करके उसे अविवाहित सजातीय लड़के से बाँध भी दिया तो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी ताड़ना प्रताड़ना की हकदार वही तो होगी? फिर क्या वह यह स्वीकार कर पाएगी कि वह अभी तक अविवाहित है ! झूठी का तगमा कब तक वह ढोएगी ? क्या यह कारण नहीं होगा कि उसे एक और तलाक के लिए सदैव तैयार रहना पड़ेगा? उसे लगता है कि अपनी असफलता उपरांत पिता की, प्रत्येक शर्त स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी। हाँ...! निःसंदेह वह पिता की हिदायतें नहीं बल्कि शर्तें ही थी उसे साथ रखने की। वह विद्रोह चाहती किन्तु उसके पास कोई संभावनीय साथी की गुंजाइश नहीं थी। उसके विलग होने के निपट अकेले में वह क्षण फिर... फिर आता, जब उसके शरीर की धमनियों में पुरुष-स्त्री की मित्रता एवं संसर्ग संपर्क के एक नशे की तरह प्रवाहित होता। लड़के के साथ उसके प्रथम मिलन स्मरण मात्र से ही उसका चेहरा रक्तिम हो आया था। उसे लगा तब वह ज़्यादा सुंदर लगती थी।

पिता के प्रति नफ़रत उपज रही थी। माँ का कोई रंग नहीं था, वह कभी लड़की के रंग में होती तो कभी पति के साथ। पिता को उसकी उससे विवाह की एक ग़लती याद है जो उसने लड़की को नामिनी बनाने की सलाह दी थी किन्तु उसके प्रतिकार में उनकी अपनी अक्षम्य ग़लतियाँ जीवित उसे खा रही थीं। निस्सहाय की भावना से आत्मविश्वास का लोप होता है और एक दूसरे पर विश्वास करने की क्षमता कम होती जाती है। उसमें गुस्से का, क्षोभ का, खीझ का और अविवेकपूर्ण कुछ भी कर डालने के प्रवृति विकसित होती जा रही थी।

एक सपना अकसर उसे रात में प्रताड़ित करता है। वह एक कमरे से भी बड़े पिजरे में बंद है और वह पिजरा बहुत मज़बूत लोहे के सीखचों से सुरक्षित है और बाहर उसे शेर, बाघ और भेड़िया घेरे हुए है। उसे ललकारते रहते है कि बाहर निकले तो उसे हड़प-गड़प जाएँ। अचानक उसे शेर बाघ और भेड़िया माँ, पिता और उस लड़के में तबदील होते लगे। वे अट्टहास कर रहे थे। फिर वे लड़ झगड़ कर शांत हो गए या पस्त हो गए चिल्लाते, गुर्राते हुए। बाहर शेर, बाघ और भेड़िया थक कर, लस्त-पस्त चुप थे। उसने अपने पिंजरे को देखा वह निकल भागना चाहती थी किन्तु पिंजरे में ताला जड़ा था। वह निराश हताश रो पड़ी। उसके रोते ही सब जग गए और फिर उसपर हमला करने लगे किन्तु पिंजरे के लौह आवरण में वह सुरक्षित थी और उसकी नींद खुल जाती। देखती है सही में, वह सपनों में भी रोई है।... एक रात में ऐसे ही उद्दिन्ग सोई थी... ‘उसके पिंजरे का ताला खुला था और बाहर सभी हिंसक सोये थे। उसने धीरे से निकलने को सोची और आहिस्ता से बिना खटक किए निकल गई... वह प्रसन्न थी...’ यह भोर के सपने की हक़ीक़त थी।

विषाद, अवसाद में डूबती उतराती लड़की उसकी आरोही आत्मा त्रस्त निष्कृति सोचती। वह मानती कि हर शख़्स में कोई दूसरा भी होता है। बुरा-बुरे के अलावा भला भी होता है और भला-भले के अलावा बुरा भी होता है। उसका अपना जीवन साथी चुनना स्वयं का चुनने का भविष्य स्वतंत्र रखना चाहती है। वह खूँटे से बंधी निरीह बलि पशु-सी नहीं रहना चाहती। यौनिक प्रसंगों की अनदेखी नहीं की जा सकती । उनका भी जीवन में सुरभित स्मृतियाँ है उनके प्रति प्रतिबंधता होनी आवश्यक होती है। उसके लिए मन-पसंद का बड़ा महत्त्व है, किन्तु यदि प्रारंभ अविश्वास से होगी तो... ?

लड़की का कल्पना प्रिय मन ने हर उस सुदर्शन व्यक्ति के आस-पास चक्कर काटने लगता, फिर विस्मयातुर दृष्टि से सकुचाकर खो जाता, मन की अनंत गहराइयों में।

साँझ जब बिल्कुल झुकी होती तो उसका मन पुरुष संसर्ग की चाहना का शिकार होता। उसमें अपनी आकृति खो गई होती, पहले झेप, फिर लज्जा, फिर संकोच, फिर बातचीत, फिर रोमांस का विकास कुछ इस तरह होता कि वह आत्मरति में लीन हो जाती। आत्मरति से क्षुधा तो शांत हो जाती किन्तु संतुष्टि न मिलती। मनुष्य और प्रकृति के आपस में अधिकार करके छा जाने के अप्रतिम रूप के साहचर्य का क्षण आता, किन्तु खो जाता भयावह अटल गहरहियों में। विशाल गहरा काला आकाश और नीचे निस्तब्ध शांति में कलपती वह। मानो नग्न आकाश, मुक्त पल और निरपेक्ष मस्त आत्म धारा का खुमार और ऐसी लंबी एकांत रातें में वह होती थी। उसे लगता लाखों नग्न धारणाएँ फूटकर निकल रही है और अविभाज्य अंग में तिरोहित हो रही हैं।

पिता के प्रति दुराग्रह या दुर्भाव का एक भी विचार उसके दिल में नहीं है। किन्तु आजकल के माहौल में बिना उठापटक और खींचातानी से वैवाहिक सम्बंधों को नकारात्मक या निन्दात्मक नहीं किया जा सकता। जबकि गहरी आत्मीयता एक ऐसा आदर्श है जो आज के समय तिरोहित होता जा रहा है। वह एक सीमा के अंतर्गत अपना मतभेद दिखाती लेकिन शालीनता की पकड़ कही भी ढीली होने नहीं दी। शोषण और नियंत्रण उसकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के स्थायी भाव बनते जा रहे थे। परिवार, करिअर और कठोर पारिवारिक नियन्त्रण उसे छलने और डँसने लगे थे। हताशा के उस दौर में उसकी माँ ने कई बार... ’पिता सही है’ यह ज्ञान माँ ने दिया । अब बड़ी शिद्दत से उसे पलायन की तलाश थी।

एक दिन उसके मैनेजर ने कंपनी में बुलाया और कहा, “वर्क फ्रॉम होम में कम से कम दो दिन सेंटर आना आवश्यक है।“ प्रस्ताव दिया, “यदि पांचों दिन आ सके तो उसका पैकेज बढ़ जाएगा और आने-जाने का भत्ता या सुविधा मिलेगी... नहीं तो नौकरी ज़्यादा दिन...नहीं...?”

एक लंबे और कष्टदायक अरसे के बाद बेतकल्लुफी से उसके पास बैठ गई। लड़की को लगा कि प्रस्ताव उसकी पिंजरे से मुक्ति है। उसने तुरंत हाँ कर दी।... शर्त यह रखी कि उसके घर को यह सुनिश्चित किया जाए कि वर्क फ्रॉम होम की सुविधा समाप्त हो गई है।

इसमें संदेह नहीं है था कि इस प्रस्ताव के कारण उसमें एक सकारात्मक ऊर्जा भर दी थी। अपनी हार से मन में उत्पन्न हुई अभाव और आत्मग्लानि जलन को वह शांत करना चाहती थी। इसमें उसकी पिता के प्रति संकल्पना, प्रस्तुतिकरण और निष्पादन से उनकी पुत्री प्रियता कहीं से भी प्रभावित नहीं होती है।

पिता पर लड़की का इस तरह से समझौते के विरुद्ध एवं विकल्प हीनता के कारण एक क्षोभ के तहत, काली भावना छाई हुई थी। पिता के चेहरे पर आश्चर्य एवं घृणा के भाव रहे होंगे, फिर भी यह पिता-पुत्री की जीत-हार से परे जीवन की सहजता में जो व्याप्त है वही प्राप्त है के अनुरूप है। उनका उस असभ्य और बर्बर वृति के सामर्थ्य और शक्ति के प्रति खिंचाव रहना एक तरह की प्रवृति ही है, लड़की ने सोचा।

दोनों के बीच दो जमानों का फ़र्क़ था, फिर दोनों के बीच बड़े फासले थे। इस मध्य वर्ग में रहते हुए उसके बाल एकदम सफेद हो गए है और वह जन घृणा को पहचानता था। लड़की की अति व्यस्तता चरम पर थी और साथ में उसका परायापन जगमगा रहा था।

उस दिन मौसम ख़ुशगवार था और पिता के हाथ में अख़बार था। वे बेटी के लिए वैवाहिक विज्ञापन में उलझे थे कि वह दिख गया। एक सजातीय विधुर लड़के का प्रस्ताव उन्हें भीतर तक भिगो गया। उन्होंने धीरज की सांस ली।

पिता ने तुरंत-फुरन्त अपनी लड़की का प्रस्ताव प्रेषित कर दिया। लड़की का एक पृथक कमरा अवश्य था लेकिन पिता का बहुत दिनों के बाद इस तरह का उत्साहित पत्र-व्यवहार, उसे कई प्रश्नों से भर गया।

कुछ ही दिन गुजरें थे कि प्रति उत्तर आ गया, सभी संलग्नकों सहित।

“कैसा लगता है तुम्हें?” पिता ने लड़के का फोटो दिखाते हुए पूछा।

लड़की ने एक गहरी सांस खींची, जी धंस गया। फिर दिल की बात बताई। “काफी गहरा रंग है,” लड़की ने झिझकते हुए कहा।

“ये तर्क, ये उक्तियाँ ,यह लॉजिक, यह फिलास्फी । ज़िन्दगी को साफ़ दिखने वाले तथ्यों ज़िन्दगी को जानबूझकर तोड़-मरोड़कर पेश करने के तरीके है ! तुम किसे सिखाती हो ?...मध्यवर्गीय घर, भारतीय संस्कृति और उस पर पिता का घर में, उपहास, तिरस्कार और निंदा का विषय बनती है। लेकिन जब वही अच्छे खाते-पीते परिवार की गृहलक्ष्मी बनती है तो उसका सम्मान आसमान छूता है।...” वे इस तरह की दर्जनों बाते करते थक से गए थे। उनके मस्तिष्क में एक उत्तेजना फैल गई थी। धीरे धीरे वे शांत हुए स्तब्ध हुए और फिर शर्मिंदा हो गए।

लड़की शांत निर्विकार बैठी रही। उन्होंने जो कहा उनका ज्ञान और अनुभव था, उसका नहीं। वह स्त्री आधुनिक, खुली दृष्टि-सम्पन्न नवयुवती है। पिता उसके क्रोध के विषय नहीं थे। सिर्फ़ इसलिए कि उनका उसके प्रति अच्छा व्यवहार ! क्या उनकी सच्चाई का यह अंतिम प्रमाण है और निर्णायक प्रमाण माना जा सकता है? प्रश्न ज़िन्दगी में होने वाली ग़लतियों का नहीं है। प्रश्न उन रिक्तियों का है जो बीच में रहते हुए ग़लती सुधारी नहीं जा सकती। कौन बेमतलब लड़ाई-झगड़ा करें? उसे स्वयं अपने निज का परिष्कार और विकास करना हैं। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती। उष्म संपर्क हीनता के कारण जब हृदय का उपयोग नहीं हो पाता, तो मूल्यवान स्वप्न खो जाते हैं। महत्त्वपूर्ण भाव और मार्मिक विचार टूट जाते हैं और सृजनशील संकल्प शक्ति ग़ायब हो जाती है।

प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति प्रेम का भूखा है। अपने से प्रेम का अभाव और ज़्यादा प्रेम की भूख बढ़ाती है। ज्यों ज्यों परिस्थिति बिगड़ती है वह सहानुभूति के लिए और तरसता है। लेकिन उसकी प्रेम प्रदान करने की शक्ति चुकती जाती है। अपनी अस्तित्व रक्षा हेतु हारे-थके अपन के सामने समर्पण करते चले जाते है।

हताशा के इस दौर में लड़की ने पिता का वैवाहिक प्रस्ताव बिना किन्तु-परंतु के स्वीकार कर लिया था। परिवार, कैरियर, कठोर पारिवारिक नियंत्रण और हाई-प्रोफाइल जॉब-लालच ने व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को दरकिनार कर दिया था। थोड़ा बौद्धिक क्षमता का व्यक्ति क्या इस तरह की पराधीनता स्वीकार कर पाएगा?

पिता ने इस विवाह में दिल खोल कर ख़र्च किया और इसमें दूसरे लड़के और उसकी माँ का मुंह बंद कर दिया। इस लड़के के पिता नहीं थे। पिता वापस लखनऊ आए और लड़की को नौकरी छोड़नी पड़ी पिता-माता के साथ देने के लिए. वे दोनों आश्वस्त थे अब की बार सब ठीक होगा।

लेकिन सुख लड़की के पास नहीं आता था वह उसके बारे में सोचती भी नहीं थी। उसने दुख रहित जीवन की कल्पना करके ही अपनी सहमति दी थी। दूसरे लड़के के पास आने पर लड़के में सुख की भरमार थी किन्तु उसे चैन का अहसास भी नहीं मिला। यह लड़का सिर्फ़ अपनी माँ के विषय में सोचता था। कभी उसके दुख सुख के विषय में जानने के आवश्यकता नहीं समझी। वह अपना सुख लेकर उसके पास दुख छोड़ जाता। वह उससे अलग होना चाहती थी किन्तु वह उससे अलग नहीं हो पाती थी, क्योंकि रास्ते बंद थे। इसलिए वह एक अजीब गुस्से में तनी रहती। जब कभी माँ या पिता का फ़ोन आता तो शिकवा शिकायत नहीं सिर्फ़ भर्रायी आवाज़ से स्वागत करती।

मरता कोई नहीं है, किन्तु ज़िन्दगी में जानबूझकर बुराई मोल लेना, क्षोभ पछतावे की जनक होती है। उसी का शिकार हो गई थी वह। लेकिन वह ढीली पड़ चुकी थी। उसके मनोहर व्यक्तित्व का लोप होता जा रहा था। लड़की के मन में कुछ ऐसी तश्वीरे फैल गई थीं जो उसके मन के कुत्सित लोक में जाने कब से छिपी पड़ीं थी। वही कहीं एक घर और उसका अहाता उसे दिखता ... एक लड़का दरवाज़े पार खड़ा उसके स्वागत में उत्सुक है, किन्तु वह उलझन में है, कुछ झझकती है। कुछ पूछती है, जिज्ञासा और कौतूहल से भरे जीवन में झूज पड़ने का साहस नहीं है किन्तु अपने सम्मान को पुनर्स्थापित करने हेतु वह उसके ओर चली आई।

किन्तु इसके बावजूद जब वे जुडते है तो उनके बीच एक गहरा पर्दा पड़ा रहता है। दो समयों का अंतराल था जिसमें अतीत की भावना और आगामी की चिंता और दुश्चिंता चेतना और संस्कार दोनों संचित होते है। अंतर के केंद्र में सिमटा हुआ वैविध्य की विभिन्न सतहें विद्यमान रहती है।

ये दूसरे के दिन थे। दूसरा मांस का भूखा था और माँ का गुलाम। उसके भीतर अकसर एक अंधी वासना उठती थी जिसका लड़की के मन से कोई रिश्ता नहीं था। वह उसे जब चाहे आपने पास घसीट लेता। अपनी चालीस सालों के भीतर दबोच लेता और वह खिंच आती। बिल्कुल एक कबूतर की तरह बाज के सीने से। तब उसे पहला याद आता जो पूछता था ‘सेक्स करेंगी ?’...और उसकी स्वीकृति पर ही आगे गतिमान होता। उसे लगता कि वासना और वेदना एक ही तरह से व्यवहार करते है। इस वासना में तृप्त नहीं आती थी बल्कि अपने प्रति वेदना, करुणा उभरती थी।

वेदना और वासना की अधिकता आत्मविश्वास की कमी और निस्साहयता को जन्म देती है। दोनों बाहरी दुनिया द्वारा आरोपित होती है। वेदना और वासना आत्मा को कुचल देती है। इन सब से निजात अपनी भीतर समाई तेजस्विता के प्रतिकरण से ही होता है। उसमें तेजस्विता की कमी नहीं थी। जिसके कारण उसमें ताकत और हिम्मत बची हुई थी। लेकिन ताकत और हिम्मत हमेशा साथ नहीं देती हैं। बाहर मकड़ी के जाले समान फैले चक्रव्यूह से पार पाना आसान नहीं है। उसे ख़ुद ही कुछ करना पड़ेगा।

उसने दूसरे पर भी समर्पण नहीं किया था। उसकी माँ और उसमें दो जमानों का फ़र्क़ था। लड़के की माँ समय से 50 वर्ष पूर्व की बहु के रूप में देखना चाहती थी जो वह बन नहीं सकती थी। बुढ़िया ने बताया पाँच साल बीत जाने पर भी पहले वाली माँ बन न सकी थी। उसमें खोट थी। तुम से बड़ी उम्मीद है। लड़की को उसकी बात असंगत लगी, लेकिन उसने शालीनता से कहा, “हर दम खोट लड़की में ही नहीं होती लड़कों में भी होती है।“ लड़की ने प्रतिवाद किया।

वह बिगड़ गयी। “इसका क्या मतलब ? मेरे लड़के में खोंट है ? बेटे ! देखो बहु क्या कह रही है ?”

तकरार की परिणति सदैव लड़की के साथ हिंसा में बीतती थी। जिसे माँ बेटे दोनों अंजाम देते थे। परंतु लड़की डरती नहीं थी।

आखिरी बार उसने पुलिस बुला ली। वह हंस रही थी। उसके आगे के दाँत टूटे हुए थे। वह एक अजीब से तनाव में थी। चेहरा सूजा हुआ और शरीर कुछ-एक जगहों से टूटा-फूटा। कुछ अफ़सोस के साथ वह लड़के को देख रही थी। वह उससे कुछ कहना चाहती थी, लेकिन अब वह लड़की को कुछ सुनना नहीं चाहता था। उसे यह विचित्र-सा लगता था।

दूसरे के यहाँ से वह भाग आई। वह भागकर घर चली आई। बहुत देर तक बूढ़ी का चेहरा उसके पीछे पीछे भागता रहा । फिर अचानक ग़ायब हो गया और अपने पिता का चेहरा एक अजीब निगाहों से उसे निहारता मिला, जैसे कुछ पूंछ रहा हो?

लड़की वापस मुड़कर अपने शहर को चल दी। दूसरा भी कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला, ‘जा सकती हो फिर ना आने के वादे के साथ।‘ किन्तु यहाँ रहना है तो माँ के मन-मुताबिक। लड़की को उसकी बात असंगत लगी। लेकिन फिर उसे पहला वाकया याद हो आया उस वापसी को भी माँ-पिता ने ना पसंद किया था। लड़की डर-सी गई। लड़की के पैर ठिठक गए। किन्तु उसके पास लौटना नहीं था। उसने सोचा अब तुरंत चलना चाहिए।

पिता उसकी तरफ़ देखता रहा। वह परेशान था कि लड़की को क्या हुआ ?

“नहीं ! उसने सिर हिलाया।... क्या बात है ?”

“कुछ ख़ास नहीं।“ उसने लापरवाही दिखाई।

“कुछ भी नहीं ?” पिता-माँ दोनों को आश्चर्य हुआ।

“वह मुझे अपनी माँ के समय, माँ की तरह ढालना चाहता था। मैं 50 वर्ष पीछे का जीवन अपनाना नहीं चाहती थी।

पिता ने सिर उठाया । हैरत में लड़की को देखा। उसका चेहरा शुष्क गरमाई में तप रहा था। जिसमें लिखा था -लोग निर्वाह करते है, निभाते है, बूढ़े हो जाते है, फिर मर जाते है, किन्तु साथ नहीं छोड़ते।

माँ सचमुच उसकी ओर देख रही थी -उसकी क्लांत थकी आँखों में एक द्रवित-सा मोह झलक आया था। किन्तु पिता की कर्कश आँखों में बहुत ही निर्जन बीहड़ फैला था। एक क्षण के लिए वे विचलित हो गए। वे सहसा समझ ना सके कि क्या किया जाए, अब क्या होगा?

“इसका कोई फायदा होगा?” पिता ने चिढ़ते हुए कहा।

“लेकिन हम अपना रुख न्याय-अन्याय की तरफ़ न दे सके, सहन न कर सके तो...?” उसे लगा कि पिता के भीतर पाप-पुण्य, न्याय-अन्याय, प्रेम-वासना, ईश्वर-मनुष्य, झूठ-सच को समर्थन-प्रतिकार सब कुछ खो गए है। क्या कारण है यहाँ तक अपनी लाड़ली के प्रति भी ? क्या कारण है? वह अनभिज्ञ थी।

उसने डिवोर्स की प्रक्रिया स्वयं प्रारंभ कर दी थी। कानपुर पुलिस के सहयोग से उसने अपना घरेलू-हिंसा, मानसिक-प्रताड़ना का केस माँ-बेटे के विरुद्ध दाखिल कर के ही वह वापस पिता के घर लखनऊ आई थी।

लड़की को इस बात की तसल्ली थी कि अब वह जीवित रह सकेगी। अब उसे किसे से भी नहीं मिलना है। उसे लड़कों में आकर्षण खोता जा रहा था। विवाह के शौक ने तो आत्महत्या कर ली थी। उसे इस बात की तसल्ली थी कि वह अब किसी के प्रति जवाब देह नहीं है! वह महसूस करती है कि धर्म सत्ता और समाज सत्ता सब पुरुष पक्षधर हैं, परंतु उसे स्त्री द्रोही नियम अस्वीकार है। पिता की संशय-रोक-टोक-डांट से परे वह भटकना चाहती थी। पिता से अलग रहे। इस तरह ठंडे भावना-विहीन प्रस्तर पुरुष से क्या कहे, कुछ कहना-सुनना बेकार है?लड़की के भीतर अथाह संवेदना का गहराता सागर हिलोरे ले रहा था किन्तु तनाव पूर्ण चुप्पी,पैना और तिरिस्कारपूर्ण व्यवहार पिता का उसे विचलित करता कि असहिष्णु अधैर्य पिता से अलग रहे।

अब वह अपने घर के सामने बैठी है। साँझ का पता नहीं कब उत्तर आई थी, कब साँझ डूब गई थी? सब अंधेरे में खो गए थे। आसपास घरों की बत्तियाँ जल गई थीं। उसे लगा वह किसी दूसरे शहर में है। वह ना जाग रही थी ना सो रही थी। सोच रही थी। क्या यह संभव है कि वह पहले वाले लड़के के पास लौट चले? किन्तु अब संभव नहीं है क्योंकि उसने भी दूसरी शादी कर ली थी। उसकी दूसरी शादी सफल थी और लड़की की असफल रही थी। उसके जीवन से प्रेम प्यार स्नेह सब चुक से गए थे। अब वह किसी से प्रेम कर सकेगी ? स्वप्नों की धूँध छट चुकी थी।

वह नितांत निपट अकेली थी। जी, हाँ ! उसने इन बीते वर्षों कुछ नहीं कमाया, सिर्फ़ अकेलापन कमाया है। वह क्या करें ? कौन उसकी बात सुने ? वह अकेली रहेगी किन्तु कैसे ? विवाह नहीं करेगी । बहुत से लोग अनब्याहे रहते है। किन्तु ख़र्च तो अकेले का भी होता है ? अब तो कोई जॉब भी नहीं है।

उसे लगा कि वह अनाथ है। ...।फिर कुछ याद आया उसकी अंतिम कंपनी का मैनेजर काफ़ी सहयोग करता था, उसकी विपदाओं के निरूपण में। एक दूर का दिलासा था।

तुरंत से पेशतर वह उठी और उसने आपने काग़ज़ों को खँगाल डाला। वह कुछ देर इस उम्मीद में खड़ी रही कि अब मेरा चेहरा उसके जेहन में उभरेगा या नहीं ? लेकिन बदहवास मन तर्क से परे होता है। आख़िर में उसने चैन की सांस ली जब उसे उसका नंबर उसके मोबाइल में ही मिल गया।

उससे बात करते हुए वह अधिक विपन्न दिखाई दे रही थी। हालांकि उसके जॉब छोड़ने को लेकर वह बिफर गए थे। किन्तु वह उनसे कैसे कहती कि दूसरे विवाह की यह अनिवार्य शर्त थी, क्योंकि दूसरा व्यापारी था और कानपुर में ही उसे स्थापित रखना, रहना चाहता था। वे अब उस कंपनी में नहीं थे बल्कि किसी और प्रसिद्ध कंपनी में उप निर्देशक पद पर बंगलोर में पोस्टेंड थे। लड़की ने उन्हें अपनी विपदा बताई. वे उसकी वेदना, कष्ट से द्रवित हुए। तुरंत अपना प्रार्थनापत्र आदि प्रेषित करने को कहा। उसका काम बन गया जॉब मिल गई। नियुक्ति पत्र पाते ही वह चल दी।

लड़की ने जल्दी जल्दी सब तैयारी की बंगलोर जाने की। उसकी पागल-सी इच्छा थी कि तुरंत पहुँच जाए। पिता ने साथ जाने के सहयोग को उसने नकार दिया। “मैं अकेली ही जाऊँगी और अकेली ही रहूँगी। किसी को साथ देने की ज़रूरत नहीं है। मैं पूर्णतया अकेली हूँ।“ उसने कुछ हठीले स्वर में जवाब दिया। माँ को उसका इस तरह से बोलना, निकलना कुछ अपशकुन-सा लगा। वे हैरान से सन्न से रह गए। जैसे दिन में अँधेरा छा गया हो, आवाज़ रहित अंधेरा।