अक्करमाशी / शरण कुमार लिंबाले / पृष्ठ 1
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सशक्त अनुवाद: डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे
शरणकुमार लिबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ दलित लेखको द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में अपना अलग ही स्थान रखती हैं; क्योंकि वह कबीर की तरह न इस जाति का था, न उस जाति का। असामाजिक, अनैतिक संबंधों से उत्पन्न अवैध संतति की, सवर्ण पिता और अछूत माता की संतति की इस व्यथा-कथा का सशक्त अनुवाद डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने किया है। उनका कहना है-
‘‘इस छोटी सी उम्र में इस युवक ने जो कुछ भोगा है, झेला है, वह मात्र उसका नहीं, अपितु अस्तित्व की तलाश में भटकने वाले उसके जैसे लाखों-करोड़ों का है।..श्री शरण के प्रश्न एक व्यक्ति के नहीं हैं, अपितु हमारी संपूर्ण परंपरा, धर्म, जाति, नैतिक मानदंड अर्थात् व्यवस्था की क्रूरता से जुड़े हुए हैं।’’
इन दलित आत्मकथाओं में जीवन का यथार्थ पहली बार इतने उग्र रूप में सामने आया। जैसा कि डॉ. भालचंद्र नेभाड़े ने कहा है,
‘‘दबाए गए मानव-समूहों को समाज के केंद्रस्थान में लाने का महत्कार्य ऐसे लेखकों के द्वारा संपन्न होता है, अत: इनका स्वागत करना चाहिए।’’
दलित साहित्य का मूल आदिस्वर है अस्मिता की पहचान, अस्मिता की खोज। कई दलित आत्मकथाओं के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुए हैं, लेकिन गौर करने की बात है कि कई बार इन्हें ‘उपन्यास’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।
आत्मकथा एक बार ही लिखी जा सकती है शायद। हजारों वर्षों के अन्याय, अत्याचार, विषमता की कहानियाँ कब तक दोहराई जा सकती हैं ? नया दलित लेखक अब इस पूँजी के चुकने का अनुभव करने लगा है। नवशिक्षित दलित युवक अनजाने में या स्वाभाविक रूप से मध्यवर्ग में शामिल हो रहा है। समकालीन जिंदगी की बिलकुल ही नई स्थितियों से गुजरते हुए उसे जीवन के नए साक्षात्कार और नए अर्थ प्रतीत हो रहे हैं। इन स्थितियों का चित्र इधर की नई दलित कथाओं में उभर रहा है। सामाजिक अभिसरण की प्रक्रिया में फिर अस्मिता के प्रश्न नया रूप धारण करने लगे हैं।
बाबा नागार्जुन ने एक बार स्त्री-जन्म लेकर अवैध संतान उत्पन्न करने की कामना की थी। कवि उस दर्द को अनुभव करना चाहता था। अवैध संतान का, वह भी निम्न अछूत जाति की माँ के गर्भ से उत्पन्न होने का दर्द क्या है, इसे शरणकुमार ने अपने ही जीवन में अनुभव किया और कठोर संघर्ष के बाद अपनी रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान प्राप्त किया। अपनी यातना-यात्रा को ‘अक्करमाशी’ में बताने के बाद उन्होंने समकालीन अनुभवों के लिए कहानी का माध्यम स्वीकार किया।
महाराष्ट्र में दलित साहित्य आंदोलन ने अब दूसरे दौर में प्रवेश किया है। उसका क्षेत्र व्यापक हो रहा है, उसमें अन्यान्य जनजातियों का भी लेखन आने लगा है। संघर्ष के साथ आत्मसंघर्ष और विद्रोह के साथ, आत्मनुसंधान की भी प्रतीति होने लगी है। पहले दौर में विद्रोह, संघर्ष, आवेश, निषेध की प्रवृत्तियाँ प्रबल थीं। नारेबाजी और अपशब्द का जहर भी था।
साहित्यिक आंदोलन मूलत: दलित पैंथर के सामाजिक आंदोलन का अनुगामी था। दलित कवि ‘मैं’ की शैली में नहीं, ‘हम’ की शैली में बात करता था। वह वास्तविक अर्थ में ‘प्रतिनिधि’ कवि था। सामूहिक मानस को अभिव्यक्त करता था। कहानियों में भी सामाजिक अन्याय और अत्याचार के चित्र विषमता के विरोध में खड़े हो जाने की प्रेरणा देते थे। कविता और कथा के पश्चात् आत्मकथाओं का दौर आया-उसमें ‘मैं’ शैली के बावजूद अपने बचपन के सामाजिक-आर्थिक विषमता के अनुभव दलितों के प्रतिनिधि के अनुभव ही होते थे।
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