अक्करमाशी / शरण कुमार लिंबाले / पृष्ठ 3
समीक्षा लेखिका : अनिता मिश्रा
समाज की निगाह में अमान्य संबंधों से जन्मी संतान को मराठी में 'अक्करमाशी' कहते हैं। अक्करमाशी हर समाज की सचाई है। इसी शीर्षक से प्रसिद्ध मराठी लेखक शरणकुमार लिंबाले ने यह किताब भी लिखी है। इसमें समाज में अछूत कहे जाने वाले और शोषित-पीड़ित तबके के लोगों की तकलीफ को बहुत संजीदगी और गहराई से बयां किया गया है।
यह दरअसल शरण कुमार लिंबाले के जीवन अनुभवों से निकली हुई किताब है। लेकिन उन्होंने 'अक्करमाशी' लिखते हुए इस बात का खयाल रखा है कि यह जीवन की न्यूनतम सुविधाओं से वंचित वर्ग की व्यथा-कथा बने। लेखक का कहना है,
'अक्करमाशी के रूप में, अछूत रूप में, दरिद्र के रूप में मैं जो भी जीवन जीता रहा, उसी को मैंने शब्द दिए हैं।' लेखक खुद एक दलित मां और सवर्ण पिता से जन्मी संतान हैं, जिसकी वजह से उसे अक्सर अपमानित होना पड़ता है। जैसा कि लेखक ने भूमिका में कहा है, 'जिन यादों को कहने की इच्छा हुई, जो यादें अधिक हरी हो जाती थीं, उन्हें ही मैंने कहा है।'
लेखक ने निजी जीवन के सच के बहाने उस समाज के सच को बयां किया है, जो सदियों से शोषण अपमान और पीड़ा की बुनियाद पर खड़ा है। शक्तिसंपन्न तबके द्वारा अपने ऊपर ढाए हर जुल्मोसितम को सहते हुए इस समाज की तकलीफ को इसके बीच का ही कोई शख्स प्रामाणिकता से लिख सकता था।
' अक्करमाशी' समाज के पीड़ित वर्ग की यातना को जिस तरह सामने लाती है, उससे पढ़ने वाले के मन की तमाम पूर्व मान्यताएं ध्वस्त हो जाती हैं। इसे पढ़ने के बाद कोई भी संवेदनशील पाठक इस वर्ग में रह रहे लोगों की तकलीफ के ऐन सामने खुद को खड़ा पाता है। सामाजिक विषमता के प्रति मन दुख और आक्रोश से भर जाता है।
दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी दो वक्त का खाना ना मिलना कितनी त्रासद स्थिति है, इसकी कल्पना करके भी रूह कांप जाती है। किताब में लेखक ने उन स्थितियों को सामने रखा है, जब उसे पग-पग पर महज इस वर्ग से आने के कारण अपमान सहना पड़ा, भूख के कारण जूठन तक खानी पड़ी।
किताब की सार्थकता इस बात में है कि यह पाठक को न सिर्फ विचलित करती है, बल्कि उसके मन में उन तमाम सवालों की भी गुंजाइश पैदा करती है, जिनके जवाब मिलने बाकी हैं। और इन्हीं सवालों के जरिए ऐसी स्थितियों से समाज के इस तबके को उबारने की प्रेरणा मिलती है। सूर्यनारायण रणसुभे ने इस किताब का मराठी से हिंदी में बहुत अच्छा अनुवाद किया है।
किताब के कुछ चुनिंदा अंश
अब वह अधपेट रहने लगा है। भूख के कारण खुद को बेचने लगा है। भूख के कारण ही औरतें वेश्या बनने लगीं और पुरुष चोरी करने लगे हैं।
बिरादरी दोस्ती से भी बड़ी होती है क्या? प्यास से भी बिरादरी बड़ी होती है क्या?...अब हम किस घाट का पानी पिएं? यहां पानी ही पानी का बैरी बन चुका है।
धर्म का दायरा बड़ा है या इंसानियत का? मनुष्य धर्म को विकृत करता है अथवा धर्म मनुष्य को? धर्म, जाति और बिरादरी को त्यागकर क्या मनुष्य जी नहीं सकता है?
उन्होंने खुद को बेचा है किसी और की ख़ुशी के लिए। रोटी के लिए मजबूर होकर उन्होंने खुद को नहीं बेचा था। रोटी के लिए थोड़े ही कोई जीता है? रोटी के पीछे भी एक विराट दुनिया होती है। रोटी के पीछे एक जीवन होता है। गांव के बाहर की बस्ती में वह जीवन कभी नहीं आया। रोटी भी सवर्णों के हाथ में थी और इस बस्ती की इज्जत भी। एक हाथ से उन्होंने इस बस्ती की भूख को मिटाया तो दूसरे हाथ से इनको भोगा।
इन रखैलों से जन्मे बच्चों को 'हक का पिता' नहीं मिलता। जमींदार को बाप कहने की हिम्मत उनमें नहीं होती, क्योंकि बाप-बेटों में अनंत दरारें होती हैं।
मां और धरती दो ही ऐसी इकाइयां थीं, जो किसी भी बात को अपने भीतर स्वीकार कर लेती हैं।
(नवभारत टाइम्स | Mar 4, 2012, 01.00PM IST)