अक्ल-दाढ़ / हरिशंकर राढ़ी
मेरे लिए यह शारीरिक से अधिक मानसिक स्वास्थ्य की चिंता का सबब है। जबसे मेरे दंत चिकित्सक महोदय ने घोषित किया कि मुझे अक्ल दाढ़ निकल रही है, मैं परेशान हो गया हूँ। अब इस उम्र में पहुँचकर अक्ल जैसी नाज़ुक किंतु ख़तरनाक चीज से सामंजस्य कैसे बिठा पाऊँगा? बिना आदत के चंदन लगाने से मूड़ पिराता है। अक्ल और तकनीक के उपयोग सीखने की एक उम्र होती है। जब बाक़ी दाढ़ों ने जाने का मन बनाया तो इन महोदया के आगमन का मुहूर्त निकला और उस पर तुर्रा यह कि पूरी तरह आने से पहले दर्द का हरकारा भेज दिया।
मैं उन विभूतियों में नहीं हूँ, जिनके दूध के दाँत टूटते ही अक्ल की दाढ़ आ जाती है। पूत के पाँव पालने में दिखने के बजाय अक्ल की दाढ़ दिखने लग जाती है। ऐसे लोग स्कूल का मुँह देखे बिना ही सबसे बड़े ज्ञानी बन जाते हैं। खुदा-न-खास्ता स्कूल चले जाएँ तो स्कूलवाले भी लोहा मान लेते हैं। उन्हें पता तो होता नहीं कि जनाब के पास जन्मजात अक्ल की दाढ़ है। सामान्य दाढ़ चबाने के काम आती है, यह तो अक्ल की दाढ़ है! पता नहीं क्या-क्या चबा जाएगी!
अभी तक अक्लवालों को बड़ी हसरत से देखता आया हूँ। ईश्वर भी किसी को देता है तो छप्पर फाड़कर देता है और किसी की चमड़ी उधेड़ लेता है। समय रहते थोड़ी-सी अक्ल मुझे भी दे देता तो उसका कौन-सा खजाना खाली हो जाता? कम से कम इतना तो दे देता कि अपनी ज़रूरतें अपनों से कह लेता। सही होने पर भी अपनी ग़लती स्वीकार न कर लेता। अपने काम का श्रेय उनको तो न लेने देता! उन्हें तो इतना दे दिया कि बिना कुछ किए ही सबका श्रेय लिए जा रहे हैं। रोटी-भाजी तो छोड़िए, ऐसी और इतनी अक्ल दाढ़ दे दी कि आदमी, आदमीयत, मजहब, भाईचारा और सम्बंधों को चबाए जा रहे हैं। इतना चबा ले रहे हैं, फिर भी न अपच हो रहा है और न जुगाली की ज़रूरत पड़ रही है।
कुछ लोगों को अक्ल की दाढ़ दो-चार ठोकरें खाने के बाद आ जाती है। पता नहीं अक्ल और ठोकरों में क्या अंतर्सम्बंध है! शायद किसी-किसी की अक्ल भी धक्कापलेट होगी, पुराने मॉडल की गाड़ियों की तरह। लेकिन जिनके अक्ल की दाढ़ सही समय पर आ जाती है, वे सही जगह पकड़ लेते हैं। अक्ल वाले प्रशासनिक अधिकारी, आयकर और पुलिस की सेवा छोड़कर राजनीति की सेवा में आ जाते हैं। वैसे असली अक्ल की दाढ़वाले वहीं मिलते हैं। वहाँ उनकी अक्ल दाढ़ को चबाने को मिलता ही रहता है। कुछ तो देश ही चबा जाने की क्षमता पैदा कर लेते हैं।
जिनके अक्ल की दाढ़ सही समय पर नहीं आती, उन्हें दुनिया चूतिया कहती है। तमाम भाषाओं में इस स्थिति के लिए अनेक शब्द ईजाद किए गए, लेकिन ‘चूतियापा’ का मुकाबला कोई कर ही नहीं पाया। प्रायः यह एक स्थायी गुण होता है, जिसमें इसका स्वामी मस्त पड़ा रहता है। चूतियापा ऐसी प्रवृत्ति है, जिससे छुटकारा पाना आजीवन असंभवप्राय होता है। बुढ़ापे की संतान और बुढ़ापे का ज्ञान दुखदायी होता है। इससे अच्छा इसका न आना ही है। मान लिया थोड़ी अक्ल आ भी गई तो क्या मैं उसका उपयोग अक्लमंदी से कर पाऊँगा? उम्र तो सारी कटी इश्क-ए-बुताँ में मोमिन, आखिरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होगें?
मेरे तो अभी अक्ल दाढ़ ही आ रही है, कुछ लोगों के पेट में दाढ़ी आ जाती है। सुना है कि ऐसी कोई सीटी स्कैन या अल्ट्रा साउंड मशीन बनी ही नहीं जो पेट की दाढ़ी स्कैन कर ले। न सौ अक्ल दाढ़वाले और एक पेट में दाढ़ीवाला। जिसके पेट में दाढ़ी आ जाती है, वह लोकतंत्र में भी राजा बन जाता है और बना रह जाता है।
अपने दंत चिकित्सक ने बताया कि अक्ल दाढ़ को निकाल पाना मुश्किल है। यह तो मैंने भी देखा है कि अक्लवालों को निकाल पाना मुश्किल होता है। सरकारें बदलती रहती हैं, उनका मंत्रीपद बचा रहता है। अफसर बदलते रहते हैं, अक्लदाढ़ वालों का परिक्रमापथ अडिग रहता है। सारे दाँत निकल जाते हैं, अक्लदाढ़ बनी रहती है। नकली दाँतों के बीच जीभ को घूमने में सुभीता रहता है। वह कुछ का कुछ बोल सकती है। लेकिन अपना दुख तो यही है कि इस अक्लदाढ़ का मैं क्या करूँ? इसका तो कोई ग्राहक भी नहीं और हो भी तो अपने पास बेचने का हुनर कहाँ?