अक्ल और भैंस / फणीश्वरनाथ रेणु
जब अखबारों में 'हरी क्रान्ति’ की सफलता और चमत्कार की कहानियाँ बार-बार विस्तारपूर्वक प्रकाशित होने लगीं, तो एक दिन श्री अगमलाल 'अगम’ ने भी शहर का मोह त्यागकर, खेती करने का फैसला कर लिया। गाँव में, उनके चार-पाँच बीघे जमीन थी जिन्हें बटाईदारी पर उठाकर, अगमलाल जी 'अगम’ आज से सात साल पहले ही गाँव छोड़कर जिला के सदर शहर में आ बसे थे। चूँकि उनके नाम के साथ उनका 'उपनाम’ भी लगा हुआ था, इसलिए शहर के लोगों को यह जानने में देरी नहीं लगी कि 'अगमजी’ एक साहित्यिक प्राणी हैं। एक मित्र से किसी वकील की मुहर्रिरी करने की पैरवी करवाई तो वकील साहब ने उनके उपनामयुक्त नाम पर ही एतराज किया-एक ही साथ दो नाम रहना गैरकानूनी है। और जिसका नाम ही गैरकानूनी हो वह कानूनी कारबार कैसे कर सकता है ?’’
….एक सेठजी के घर बच्चों को पढ़ाने का टप्पस लगाया तो सेठजी भी उनके नाम और उपनाम से भड़के। पूछा क्यों जी ? गाणा-वाणा तो नहीं बजाते हो ?…नहीं जी, हमें ऐसा मास्टर नहीं चाहिए। चारों-ओर से हारकर आखिर एक दिन 'अगम’ जी अपने नाम की कुर्बानी करने को तैयार हो गए। अपने नाम के अतिरिक्त अंश को कतरकर अलग करना चाहते थे कि नौकरी दिलाने वाले देवता अचानक प्रसन्न हो गए, मानो। एक पुराने प्रेस में प्रूफ देखने की नौकरी मिल गई और तब से अगमलालजी 'अगम’ अपने अखण्ड नाम के साथ ही प्रूफ देखते हुए साहित्य सेवा में संलग्न थे। किन्तु इस हरी क्रान्ति की हवा ने अगम जी के हृदय को ऐसा हरा बना दिया कि उन्हें चारों ओर हरी-हरी ही सूझने लगी। और अन्ततः एक दिन शहर छोड़कर बोरिया बिस्तर समेत गाँव वापस आ गए।गाँव के लोगों ने जब अगम जी के ग्राम प्रत्यागमन का समाचार कारण सहित सुना, तो उन्हें खुशी नहीं, अचरज हुआ। कई निकट के सम्बन्धियों और शुभचिन्तकों ने उन्हें नेक-से-नेक सलाह देकर शहर वापस भेजना चाहा। किन्तु 'अगम’ जी की आँखों के आगे सदैव उन्नत किस्म के गेहूँ की बालियाँ झूमती रहतीं, 'शंकर मकई’ के भूरे-भूरे बाल लहराते रहते। और जब आँखों में नींद आती, तो अपने साथ नए किस्म के उन्नत सपने ले आती-आलू की ढेरी, ऊख के अम्बार और हरे चने और मटर की मखमली खेती वाले सपने ! सो 'अगम’ पर किसी की सलाह का कोई असर नहीं हुआ और वे उत्साहपूर्वक अपने जीवन की 'प्रूफ रीडिंग’ यानी भूलों को सुधारने में लगे गए।खेती करने के लिए सबसे पहले हल, बैल और हलवाहे की आवश्यकता होती है। हल और बैल तो खरीद लिए गए। किन्तु हलवाहा की समस्या जटिल प्रतीत हुई। अव्वल तो आजकल गाँव का सबसे निकम्मा आदमी ही हलवाही करता है। निकम्मा अर्थात् जिसे 'घर-घरहट’, 'छौनी-छप्पर’ और 'कोड़-मकान’ का कोई 'लूर’ नहीं, जो गाड़ी बैल भी हाँक सकता-ऐसे फूहड़ आदमी के लिए गाँव में हलवाही के सिवा और कोई धन्धा नहीं। ऐसे लोग, किसी भी गाँव में, आजकल बहुत कम ही मिलते हैं। एकाध हुए भी तो ऐसे लोगों को गाँव के बड़े-बड़े किसान बहुत पहले से ही चारा पानी खिलाकर यानी 'अग्रिम पारिश्रमिक’ (कर्ज नहीं) देकर अनुबन्धित कर लेते हैं, सो बहुत खोज ढूँढ़ करने के बाद, गाँव का सबसे अपाहिज और काहिल पुरुष बिल्लू दास-अगम जी कि किस्मत में आकर जुटा। बहुत 'खुशामद-दरामद’ और प्रलोभन के बाद नित्य सुबह-शाम एक गिलास गर्म चाय पिलाने की शर्त पर बिल्लू महाराज राजी हुए। 'अगम’ जी ने सबसे पहले उनके नाम को 'प्रूफ रीडिंग’ करके सुधारा-बिल्लूदास नहीं, बिलोमंगल। बिलोमंगल जी गाँव के सर्वश्रेष्ठ आलसी माने जाते थे। किन्तु 'मुहूरत’ के दिन ही 'अगम’ जी ने उनके एक गिलास औरेंज पिकोदार्जिलिंग चाय पिलाकर उनकी सारी सुस्ती इस तरह दूर कर दी कि वे तत्काल ही इतने चुस्त हो गए कि उनके अंग-अंग फिल्मी गीतों पर डोलने लगे। हल जोतते समय जब गाँव के अन्य हलवाहे-मजदूर 'बिरहा-बारहमासा’ गाते तो बिलोमंगल जी के पैर 'मस्तानी महबूबा’ के तर्ज पर थिरकते रहते। इसी प्रकिया में एक दिन दाहिने बैल के पिछले पैर में 'फाल’ लग गया। 'अगम’ जी को यह नहीं मालूम था कि हल का फाल भी इतना खतरनाक हो सकता है कि जरा-सा लग जाने पर महीनों तक बैल लँगड़ा होकर बैठा रहे !खैर, शुभचिन्तकों और सम्बन्धियों से बैल और भैंसा मँगनी करके, 'अगम’ जी ने किसी तरह खेतों को तैयार करवाया। कस्बे से रासायनिक खाद खरीद लाए और 'बीज-वपन’ के लिए शुभ दिन देखकर गेहूँ की 'बोवाई’ हो गई। 'बोवाई’ के बाद दोनों अगम और बिलोमंगल इतने प्रसन्न हुए कि रात-भर मिल-जुलकर डुएट-भाव से-मिट्टी में सोना उपजाने वाले गीत गाते रहे। उसी दिन 'अगम’ जी ने अपने शहरी साहित्यिक मित्रों को कई लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखीं, जिनमें नई खेती के नए अनुभवों के आधार पर उन्होंने घोषित किया कि खेती करने में, कविता और चित्रकारी करने का आनन्द, एक ही साथ प्राप्त होता है।
कई दिनों तक स्वामी-सेवक 'बोआई’ के आनन्द में मग्न रहे। कि एक दिन सूर्योदय के एक घण्टा पहले ही एक शुभचिन्तक ने आकर दरवाजा पीटना शुरू कर दिया। सुबह के सुनहले सपने को खोकर 'अगम’ जी अत्यन्त अप्रसन्न हुए। शुभचिन्तक जी को भला-बुरा कहना चाहते थे किन्तु, इसके पहले ही शुभचिन्तक जी ने सूचना दी-तुम सोए हो ! जाकर देखो, तुम्हारे खेत में गेहूँ का एक भी दाना बचा भी है या नहीं।’’
'अगम’ जी समझ गए, सुबह-सुबह दिल्लगी करके चाय पीने आया है। वे बोले-क्यों ? गेहूँ के दाने कहाँ चले जाएँगे ?’’
शुभचिन्तक बोले-अरे जाकर देखो ना, हजारों हजार कौआ, मैना और दुनिया भर की चिड़ियों का झुण्ड तुम्हारे ही खेतों में पड़े हैं। गेहूँ के दाने चुग रहे हैं।’’
क्या सुबह-सुबह दिल्लगी करने आ गए ?’’-'अगमजी’ ने कहा।
मैं दिल्लगी करने नहीं आया, तुमको चेताने आया हूँ।’’
अगम जी ने तकिए के नीचे से 'गेहूँ की सफल खेती’ नामक पुस्तिका शुभचिन्तक के सामने फेंकते हुए कहा-मुझे इतना उल्लू मत समझना। मैंने गेहूँ की सफल खेती के बारे में एक-एक शब्द पढ़ लिया है और जहाँ-जहाँ 'प्रूफ’ की गलतियाँ थीं उन्हें शुद्ध भी कर दिया है। समझे ? इस किताब को खोलकर कहीं भी किसी अध्याय की किसी भी पंक्ति में खोजकर निकाल दो कि गेहूँ की 'बोआई’ के बाद 'चिड़िया-उड़ाई’ भी आवश्यक…।’’
शुभचिन्तक जी ने अप्रसन्न होकर जवाब दिया-तुम्हारी इस किताब में क्या लिखा है और क्या नहीं लिखा है-यह मैं नहीं जानता। सामने तुम्हारे खेत हैं। जाकर, खुद देखते क्यों नहीं कि खेतों में चिड़ियों के कितने अध्याय और कितनी पंक्तियाँ हैं…।’’
'बोआई’ के बाद सभी किसानों के हलवाहे-रखवाले, सूर्योदय के बहुत पहले ही खेतों पर चले जाते हैं। दुनिया-भर की चिड़ियों की टोलियाँ कचर-कचर करती हुई खेतों में उतरना चाहती हैं। किन्तु वे पटाखे छोड़कर तथा फटे कनस्तरों को पीट-पीटकर उन्हें उड़ाते रहते हैं-हा, हा-ए।
अगमलालजी 'अगम’ ने गाँव से बाहर जाकर देखा-सचमुच अद्भुत व्यापार ! …जो बात किताब के किसी पृष्ठ पर नहीं, वह खेत पर लिखी है…..आधुनिक कविता की पंक्तियों की तरह। और जिस तेजी से उन पखेरुओं के चोंच चल रहे थे, उतनी तेजी से किसी प्रेस में ऑटोमेटिक कम्पोजिंग भी नहीं होती होगी। एक ही घण्टा में सब गेहूँ चुनकर खत्म कर देंगे !…'अगम’ जी के अन्तर से पूरी शक्ति के साथ बस एक ही शब्द अनायास निकल पड़ा…'हा-हाय !’
किन्तु उनके 'हाय’ का कोई खास असर नहीं हुआ और हाथ की तालियों से जब पंछियों के एक पंख भी नहीं फड़के, तो उन्होंने एक ढेला उठाकर फेंका। ढेला खेत में गिरा, तो इधर चरती हुई चिड़ियाँ उड़कर उधर जा बैठीं और चुगने लगीं। अगम जी दौड़कर उस मेंड़ पर गए। तो पंछियों के दल उड़कर दूसरे तरफ बैठ गए। तब तक बिलोमंगलजी भी सहायता के लिए पहुँच गए थे। अगम जी को राहत मिली। पटाखे या कनस्तर तो थे नहीं इसलिए दोनों बहुत देर तक इस मेंड़ से उस मेंड़ पर दौड़कर-दौड़कर 'ढेलेबाजी’ करते रहे। सूरज बाँस भर चढ़ आया और पूस की सुबह का कुहासा तनिक छँटा और चिड़ियों के पेट भर गए तो वे स्वयं ही उड़कर बाँसों तथा पेड़ों की फुनगियों पर जा बैठीं।
उस दिन लौटकर 'अगम’ जी ने गेहूँ की 'सफल खेती’ नामक पुस्तिका के अन्तिम पृष्ठ पर नोट लिखा-बीज की 'बोआई’ के बाद ही…'चिड़िया-उड़ाई’ पर विस्तारपूर्वक एक अध्याय लिखकर पुस्तिका के अगले संस्करण में जोड़ दिया जाए।’’
नोट लिखने के बाद अगम जी ने बिलोमंगल से कहा-कल सूरज से दो घड़ी पहले ही खेत पर एक फूटा कनस्तर लेकर पहुँच जाना।’’
फूटा कनस्तर कहाँ से लावेंगे ?’’-बिलोमंगल का सवाल था।
कनस्तर ? तुमको कहीं फूटा हुआ कनस्तर भी नहीं मिलेगा ?’’
जवाब मिला-जी हमारी नजर में तो कहीं कोई फूटा कनस्तर नहीं पड़ा। आपने कहीं देखा हो तो कहिए ले आता हूँ-…हाँ सहुआइन की दूकान में साबुत कनस्तर जरूर मिल सकता है।’’
बिलोमंगल लौटकर एक रुपया में एक कनस्तर उधार ले आए। कनस्तर को अगम जी को कान के पास पीटकर परीक्षा देते हुए कहा…देखिए एकदम साबूत है।’’
कनस्तर की समस्या हल करने के बाद ही बिलोमंगल ने दूसरा सवाल पैदा कर दिया-लेकिन हमसे यह काम नहीं होगा।’’
क्यों ?’’
बिलोमंगल ने सर्वप्रथम कारण बतलाया, बात यह है कि बाबू साहेब कि हम ठहरे बैस्नव आदमी। भोरे-भोरे इतने प्राणी के मुँह का आहार छीनने का काम हमसे मत करवाइए।’’
अगम लाल जी को अचरज हुआ…क्या कहता है यह आदमी ! झुँझलाए,…तो क्या चिड़िया उड़ाने के लिए दूसरा आदमी रखना होगा ?’’
बिलोमंगल ने भी झुँझलाकर जवाब दिया, '…एक तो जाड़े का मौसम तिस पर सूरज उगने के दो घड़ी पहले ही उठना। इसके बाद, खेत पर पाँव-पैदल जाना। आजकल सुबह-सुबह ऐसी कनकनी वाली पछिया हवा चलती है कि देश क्या जीभ भी सुन हो जाता है…’’