अक्ल के दुश्मन / सुधा भार्गव
एक जंगल में विशाल वृक्ष था। उसकी टहनियां हरे–कोमल पत्तों से ढकी हुई थीं। बहुत से कबूतर उस पर बैठे सारे दिन चहचहाते और आनंद से रहते। एक दिन उसकी शाखाएँ आपस में रगड़ खाने लगीं जिनसे चिंगारियाँ निकलती दिखाई दीं।
उन्हें देख एक बूढ़ा कबूतर चिंता में पड़ गया। सोचने लगा–यदि लगातार दो शाखाएँ रगड़ खाती रहीं तो आग ज़रूर पैदा हो जाएगी जिससे आसपास पत्तों में आग लगने का डर है। फिर तो यह पूरा पेड़ जिस पर हमारा रहने का ठिकाना है जल कर खाक हो जाएगा।
उसने सारे कबूतरों को बुलाया और कहा-अब हम यहाँ नहीं रह सकते। कहीं और चल देना चाहिए क्योंकि किसी भी समय पेड़ आग की चपेट में आ सकता है।
समझदार पक्षियों ने बूढ़े पक्षी की बात को गंभीरता से लिया। आपस में कहने लगे-यह बूढ़ा काका हमारे भले की ही बात कहता है। मुसीबत आने से पहले हमेशा ही हमें सावधान किया है। न जाने उसे भविष्य के बारे में कैसे पता लग जाता है। -अरे भैया, इसने दुनिया देखी है। उसको जो ज़िंदगी का अनुभव है वह हमें कहाँ? अच्छा होगा बिना चूं-चपड़ किए इसकी बात मान लें।
वे शीघ्र ही उड़ान भर दूसरी जगह चले गए. मूर्ख कबूतर उन्हें उड़ता देख हंसने लगे—देखो–देखो डरपोक भागे जा रहे हैं। बूढ़े की तो बुढ़ापे के मारे अक्ल मारी गई है लेकिन इनको क्या हुआ! लगता है उसके साथ इनकी अक्ल भी घास चरने चली गई है। किसी के कहने भर से कोई ऐसे अपना घर छोड़ के जाता है! हम तो कहीं नहीं जाते।
मूर्ख वही डटे रहे। कुछ समय के बाद वास्तव में पेड़ ने आग पकड़ ली। धुएँ और लपटों से घिरे पेड़ पर बैठे कबूतरों का दम घुटने लगा। उड़ने के लिए छटपटाने लगे पर बचने का कोई रास्ता न दिखाई दिया। एक-एक करके सब आग में गिरकर भस्म हो गए. यदि उन्होंने बूढ़े अनुभवी की बात सुन ली होती तो मरने से बच जाते।