अक्ल के परदे पीछे कर दे / ममता व्यास
मारीशस की धरती पर डोडो नामक एक बड़े पक्षी की प्रजाति निवास करती थी। तीन फीट लम्बे 10 से 18 किग्रा के ये पक्षी बहुत भले थे और इंसानों के बहुत करीब आने की और करीब ही रहने की चाहत रखते थे। दोस्ताना रखना उनका स्वभाव था। लेकिन इंसान ने डोडो को कभी नहीं समझा। जब इंसान इस टापू पर पहुंचा और उसने 64 साल में ही डोडो को दुर्लभ होने के कगार पर पहुंचा दिया। 16 वी और 17 वीं सदी के बीच डोडो का नामोनिशान मिट चुका था। इंसान की निर्ममता देखिये कि उसने उस भोले पक्षी का नाम "डोडो" यानी भोंदू रख दिया।
जब ये न उड़ सकने वाला डोडो इस दुनिया से हमेशा के लिए चला गया तब भी अकलमंद इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन एक विशेष बात हो गई। उस दिन से एक ख़ास प्रजाति के पेड़ों ने उगना कम कर दिया या लगभग बंद कर दिया।
ईश्वर ने उसे उड़ने के लिए नहीं, इंसानों के करीब रहने के लिए ही बनाया था और वो इंसानों का प्रेम पाने के लिए ही डोडो धरती पर आया था। लेकिन हमारी अकलमंदी, बेरुखी और अनदेखी से डोडो की सम्पूर्ण प्रजाति नष्ट हो गयी। पर उसके विरह में एक ख़ास जाती के पेड़ों ने अपना जीवन नष्ट कर लिया।
बात पहली नजर में साधारण सी लगती है लेकिन इसमे गहरा दर्शन छिपा हुआ है... और कुछ चुभते सवाल भी।
इस पूरे ब्रम्हांड की हर छोटी-बड़ी चीज एक दूसरे से कनेक्ट है, गहरे में जुडी हुई है। बाहर से अलग-अलग दिखने वाली चीज़े भीतर से कहीं बहुत महीन तारों से जुडी होती हैं। छोटी-सी, सामान्य-सी, साधारण-सी चीज भी उस असाधारण से जुडी है। उस परम सत्ता का अंश है, हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम सभी ये बात जानते हैं और यकीन भी करते हैं।
हम सभी इस पर्यावरण के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। एक छोटी-सी तितली के पंख फड़-फडाने से कहीं बहुत दूर किसी देश में बारिश हो सकती है। कौन-सी बूंद किस रेत के कण से जुडी हैं कौन-सी कली कब किसके लिए चटकेगी, कौन जाने? कौन किसका हिस्सा है, कौन किस कारण से जुड़ता है; कौन किस कारन से बिखरता है; किस कारन से मिटता है... कौन जाने? कोई नहीं जानता! फिर हम कैसे अपने साथ घटने वाली किसी भी घटना को नकार सकते हैं या सिरे से खारिज कर देते हैं? उससे भागने लगते हैं। बचने की कोशिश करने लगते हैं। हर छोटी से छोटी घटना अपने साथ वजह लेकर जन्मती है। हमारा कोई बस नहीं इस पर। फिर हम क्यों अनदेखी करते है, क्यों सहज नहीं रहते। और जो सहज, सरल और निर्मल होते हैं उन्हें हम डोडो या भौंदू समझ लेते हैं। क्यो?
क्या प्रेमिल हो जाना, प्रेमी बन जाना, दोस्ती का हाथ बढ़ा देना या किसी के करीब रहने की, संग की साथ की आकांक्षा करना डोडो हो जाना है? क्या यह भोंदूपन की निशानी है?
एक फिल्म है जिसमें एक लड़की है जो घर की मालकिन है। घर का नौकर उसे जान की हद तक प्रेम करता है। लड़की सारी फिल्म में उसे भोंदू ही समझती है, अनदेखा करती है और कहती है "दुनिया थूकेगी मुझ पर जो तुझसे प्यार किया"
लड़का एक दिन लड़की की ख़ुशी के लिए जान देने को तैयार हो जाता है लेकिन वो कहता है "तुम खुद को कहीं की अप्सरा मत समझना, तुम कोई विशेष नहीं हो, तुम्हे प्यार करता हूँ ये मेरा टेलेंट है। तुम्हारी जगह कोई और होती तब भी मैं इसी शिद्दत के साथ प्यार करता"
क्या किसी को प्रेम करना हमारा टेलेंट है? हमारा हुनर है? क्यों कर बैठते है हम प्रेम किसी एक से? क्या खोजते है उसमे? उसे या खुद को? क्या वो दुनिया में सबसे खूबसूरत है इसलिए? प्रसिद्द है इसलिए? किसी विशेष गुण के कारण? किसी ख़ास हुनर की वजह से? या हमने ही उसे पूज-पूज कर देवता बना दिया। किसी घाट के गोल पत्थर को शालिग्राम कह दिया।
क्या मनोविज्ञान है खुद ही प्रेम करते जाने का?
प्रेम करना हमारा स्वभाव होता है। आत्मा की अतल गहराइयों में कहीं बहुत गहरे में सोता होगा प्रेम, ना जाने कब से कितनी सदियों से लेकिन कोई उसे अपनी नन्हीं छुअन से जगा जाता है। तो झरना फूट पड़ता है। कोई आपकी उंगली पकड़ कर आपको आत्मा के भीतर बहुत गहरे में लिए जाता है। प्रेम नगर की सैर कराता है... आप दूसरे के माध्यम से खुद को खोजने चल पड़ते हैं। गोया वो टार्च जलाता है और हम अपने बिखरे सामान समेटते हैं। जैसे यादें, सपने, अहसास इत्यादि। वो यक़ीनन ख़ास होता है लेकिन हम उसे "सबसे खास" बना देते हैं क्योंकि उसने हमें बहुत गहरे में छुआ है इसलिए।
ओशो कहते हैं सिर्फ देह से जुड़कर तुम कई चीजे चूक जाते हो, कुछ महान… कुछ रहस्यात्मक… क्योंकि तुम्हारी गहराई के बारे में तुम्हे पता ही नहीं होता तुम सिर्फ सतह पर जुड़ते हो, और दूसरे को भूल भी जाते हो। लेकिन जब कोई तुम्हारी आत्मा को छूता है तो तुम्हे खुद की गहराई पता चलती है। किसी दूसरे के द्वारा ही तुम अपने को जानते हो... अंतस में सचेत होते हो। गहन सम्बन्ध में ही, किसी के प्रेम में ही तुम खुद को खोज पाते हो। उस छुअन को तुम सदियों तक याद रखते हो। हर प्रेम अनोखा है, उसकी प्यास अनोखी, उसके अंदाज अनोखे, उसकी खोज अनोखी है। हम सब अपनी खोज में चलते जाते हैं दूर कहीं बहुत दूर...
इसलिए, हम खुद के लिए ही प्रेम करते है। खुद को खोजने के लिए। किसी को प्रेम करना हमारे हिस्से का प्रेम है। हमारा हिस्सा है और हमारा ही किस्सा भी। हमारी प्यास और हमारे अंदाज भी। इसमे इर्ष्या, उम्मीद और पाने की बात ही नहीं।
तो अब सवाल ये कि इस तरह से बेशर्त प्रेम करना क्या डोडो यानी भोंदू हो जाना है?
कतई नहीं, हम हमारे प्रेम के गोंद से रिश्तों को चिपकाते हैं हमारे लिये। अपनी मर्जी से, हम लोगों को पसंद करते हैं। प्यार करते हैं, ईमानदारी से कोई मिलावट नहीं इसमें।
अब आखरी सवाल कि जब सभी अपने प्रेम की खोज में हैं या खुद की खोज में हैं सभी को तलाश है, दरकार है तो फिर हर चेहरा क्यों उदास है? क्यों प्यासे हैं लोग? जबकि सागर भी आस-पास है। फिर महसूस क्यों नहीं कर पाते प्रेम को; उसके आनन्द को, उर्जा को, शक्ति को?
दरअसल हमने अपने ज्ञान का बुद्धि का बहुत विकास कर लिया है हम बहुत अकल्मन्द हो गए हैं इसलिए छोटी बातों में अपना कीमती समय बर्बाद करना नहीं चाहते। किसी ने क्या खूब कहा है "अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मैकदे में आ"
लेकिन हमारे अहम्, अभिमान के कद बहुत बड़े हैं वहाँ से प्रेम, दोस्ती जैसी चीजे बहुत छोटी दिखती हैं। हमने अपनी अकल पे परदे भी लगा रखे हैं ताकि वो सुरक्षित रहे कोई छोटी चीज उसे आकर नष्ट नहीं कर दे। हम जानते है जिस दिन भी किसी दरार से या "की-होल" से प्रेम झांक गया, उसी दिन हमारी सारी अक्ल, सारी अकड़ धरी की धरी रह जायेगी। सारे ठाट-बाट फीके पड़ जायेगे। इसलिए हमने अक्ल पर मोटे-मोटे परदे डाल दिए। अपनी आँख, नाक, कान सब पर्दों में छिपा कर रखते हैं। कोई हवा प्रेम-सन्देश न ले आये इसलिए आँख बंद। कोई प्रेम पुकार हमें विचलित न कर दे इसलिए कान बंद। कोई फूल न महक जाये इसलिए नाक बंद, कोई सांस हमारे दिल को ना धड़का जाए, इसलिए जिरहबख्तर पहन लेते हैं हम।
अब इतनी चौकसी, इतने पहरे, इतने परदों के बाद, इतने घूँघट के बाद कोई डोडो, कोई भौंदू की क्या मजाल कि वो तनिक भी ठहर पाए। वो तो आखों में आसूं लिए, होठों पे बेबसी की मुस्कान लिए चुपचाप एक दिन चला जायेगा ही।
कभी -कभी सोचती हूँ, जिस तरह से प्रेम के प्रतीक पक्षी, पेड़ और कई जीव जिनमे अब मधुमक्खियों की बारी है, नष्ट हो रहे हैं, रूठ के जा रहे हैं बिना कुछ कहे, इनके पलायन करने का कारण विज्ञान आज तक नहीं खोज पाया और न वो इन घटनाओं इन नातों और संबंधों को ही समझ पाया।
इसलिए वो सहज स्वीकार नहीं करता। लेकिन एक दिन जब उसकी खोज पूरी होगी उस दिन जरुर स्वीकार करना होगा लेकिन तब तक इंसान कितना नुकसान कर चुके होंगे इस धरती का, प्रेम का, इस नुक्सान की भरपाई कौन कर सकेगा? कहीं ऐसा न हो कि एक दिन बिना कुछ कहे, ख़ामोशी से ऐसे ही किसी दिन हमारी अकलमंदी, हमारी अनदेखी, हमारे अनमनेपन, बेरुखी से आहत होकर …. प्रेम न चला जाये डोडो पक्षी की तरह दुखी होकर।
शायद, इंसान को उस दिन भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, प्रेम की करुण पुकार, उसका अलविदा कह जाना, कभी भी हम सुन ही नहीं सकेगे। हमारी अकल के पर्दों पे अब कोई हमें दस्तक सुनाई नहीं देती है।
लेकिन प्रेम के इस धरती से चले जाने के बाद फूल किसके लिए खिलेगे? न कोई तितली उड़ेगी न आसमान में इंद्र-धनुष दिखेगा। न किसी पत्ती पे कोई ओस से प्रेम-पत्र लिखा जायेगा।
फिर किसी चट्टान पे कोई घास नहीं उगेगी न कोई लहर किनारों को आ-आ कर छुएगी।
याद रहे, प्रेम बहुत स्वाभिमानी है और तुनक मिजाज भी। वो खुद कभी अकल के परदे पीछे नहीं करता है न कभी घूँघट के पट खोलता है। वो दरवाजे पे दस्तक बन के दम तोड़ सकता है लेकिन कभी कोई दरवाजा नहीं तोड़ता, वो परदों के घूँघट के बाहर सदियों तक इन्तजार कर सकता है लेकिन परदे नहीं खींचता। जब हमने लगाएं हैं ये अहम् और अभिमान के परदें तो हटाने भी हमें ही होगे न, भला परदों के पीछे से कभी चाँद दिखता है क्या? प्रेम छूता है क्या...