अक्शीरा / प्रेम गुप्ता 'मानी'
उस दिन मौसम बहुत साफ़ और खुशनुमा था...आकाश भी एकदम खुला-खुला सा। उसकी शख़्सियत को ढकने वाले काले बादलों के टुकड़े जाने कहाँ दुबके हुए थे। गुनगुनी धूप ने बगीचे को एक अलग तरह की रंगत दे रखी थी। फूलों ने जवानी की दहलीज़ पर पाँव रख दिया था। उनकी खुश्बू से पूरा वातावरण ही नहीं, बल्कि तन-मन भी महक उठे थे।
हमेशा कि तरह वह और अरशद एकदम तड़के, सूरज के उगने से पहले वहाँ आ गए थे। उन्होंने एक घण्टा वॉक किया, हल्की-फुल्की एक्सरसाइज़ की और फिर बगीचे में ही बनी पत्थर की बेंच पर बैठ गए।
आसपास बेइन्तहा शोर था, पर वे दोनों अपनी ही बातों में खोए हुए थे। अरशद न जाने क्यों ज़िन्दगी को समझना और समझाना चाहता था...एक नए सिरे से, "अरे यारऽऽऽ...ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को समझना बहुत मुश्किल है। इसको जितना भी सुलझाने की कोशिश करो, आदमी उतना ही उलझता चला जाता है।"
उसने अरशद की बात को गम्भीरता से लिया तो था, पर बाद में, "सच कहते हो अरशदऽऽऽ, ज़िन्दगी, केवल ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा ही नहीं उलझा है, बल्कि यह एक ऐसी पहेली है, जिसे हल करना मुश्किल है...पर यार...छोड़ो इन बातों को। हम लोग एन्जॉय करने आए हैं...बस्स वही करो।"
और बात हँसी में आई-गई हो गई।
बात कोई खास नहीं थी पर न जाने क्यों अरशद समाज के दिन-ब-दिन बदलते माहौल से चिन्तित-सा था। वह उसे समझाने की बहुत कोशिश करता था, पर वह बदलते मौसम की तरह कभी गम्भीर हो जाता तो कभी हल्के-फुल्के ढंग से उड़ा देता, पर अब...?
वह सच में ज़िन्दगी के फ़लसफ़े में उलझ कर रह गया था। उस समय अगर वह अरशद की बात को गम्भीरता से लेते हुए समाज की नब्ज़ पर निगाह रखता तो कम-से-कम यह दिन तो न देखना पड़ता। पर अब क्या हो सकता था...वक़्त उसके हाथ से फिसल गया था।
उसने अपने को रोकने की बहुत कोशिश की पर रोक नहीं पाया। लगा, जैसे किसी ने उसके पैरों पर पहिए बाँध कर कहा हो, "भाग सालेऽऽऽ...भाग...कितनी दूर भाग सकता है, ज़रा हम भी तो देखें।"
पल गँवाए बिना ही वह भागा और फिर दूसरे ही क्षण उसके पैरों का ही नहीं, बल्कि पूरे शरीर का सन्तुलन गड़बड़ा गया। भीड़ शोर मचाते उसके पीछे थी और वह अपने भीतर बेइन्तहा सिहरन के साथ इस तरह भाग रहा था जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो।
भागते-भागते ही उसने चारो ओर निगाह दौड़ाई। अनजाने ही वह चिकनी...काली...कोलतार-सनी सड़क का ढलानी रास्ता छोड़ कर घने जंगल की ओर निकल आया था। यद्यपि उसके पीछे का शोर थम गया था, पर फिर भी वह तब तक भागता रहा, जब तक घने पेड़ों के बीच नहीं आ गया।
बचपन से ही उसने सुन रखा था कि खुंख्वार जानवरों से भरे जंगल का अन्धेरा उससे भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक होता है, पर यह क्या, उस समय उसे ज़रा भी डर नहीं लगा। इंसानी नरभक्षी और समाज के अन्धेरे से ज़्यादा ख़ौफ़नाक और क्या हो सकता है...?
उस घने...काले...अन्धेरे से घिरे जंगल में बेख़ौफ़ खड़े दरख़्तों और उनके तन से लिपटे हरे रेशमी धारियों वाले पत्तों से छन कर आती रोशनी की एक महीन-सी रेखा ने उसकी आँखों का स्पर्श किया तो उसका मन एक अनजानी राहत से भर गया, पर दूसरे ही पल वह धड़ाम से लिसलिसी ज़मीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा। पैरों ने पूरी तरह जवाब देकर खड़े होने से भी इंकार कर दिया था।
गिरते ही वह सहम गया। उसे लगा जैसे दुनिया से कटा-सा वह जंगल भी अब उसके लिए सुरक्षित नहीं रहा। पता नहीं कब किसी उन्मादी को उसके यहाँ छिपे होने की भनक लग जाए और वह उसकी ज़िन्दगी छीन ले। कितनी मुश्किल से तो अपनी घुटती साँसों के साथ यहाँ आया है। उसने अपने भीतर भरते ख़ौफ़ से बचने के लिए ज़मीन पर दोनों हाथ टेक कर उठने की कोशिश की, पर दूसरे ही क्षण उसकी चीख से आसपास के पेड़ थरथरा उठे। उनकी डाल पर बैठे पक्षी घबरा कर उड़ गए और वह...?
काश! वह भी पक्षी होता...पर वह हो नहीं सकता था। इंसानों की तरह पक्षी क्रूर नहीं होते। वह भले ही क्रूर नहीं था, पर इंसान तो था। इस लिए अपनी जात के चलते उसका पूरा वजूद खून से लिथड़ा हुआ था। उसने बमुश्किल अपना मुँह दबा कर चीख को रोका पर भीतर की चीख ने आसपास एक सन्नाटा-सा बुन दिया था। उस सन्नाटे के बीच उसने अपने आप को घिरता हुआ पाया।
गुज़रे वक़्त का उसके पास कोई हिसाब नहीं था, पर जब उसे होश आया तो एक मासूम बच्चे की तरह चिंहुक कर फटी-फटी आँखों से चारो ओर देखने लगा। यह वह कहाँ आ गया है? सलमा...निकहत...ज़ुनैद, अब्बा-अम्मी...आपा...भाई-भाभी जान...सब कहाँ हैं? इतने ढेर सारे उदास, अजनबी चेहरों के बीच उसके अपने चेहरे कहाँ हैं...?
घबरा कर उसने उठने की कोशिश की, पर उठ नहीं पाया। पूरा शरीर जैसे बेदम था। सारा दिन भागता भी तो रहा था...एक पल भी तो कहीं थमा नहीं था। पूरे शरीर की ताकत निचुड़ जाती कि तभी जंगल ने उसे थाम लिया था। पर जंगल की ज़मीन की वह लिसलिसाहट...? अंधेरे की वजह से वह देख भले ही न पाया हो, पर महसूस तो किया ही था। वह महसूसना उसके लिए कितना ख़ौफ़ से भरा था, ये वह बयान नहीं कर सकता, पर उसके आँखों की छितराई पुतलियाँ तो सब कुछ कह रही थी।
गिनगिना कर उसने अपने पूरे बदन पर हाथ फिराया और दूसरे ही क्षण चौंक गया। यह क्या, वह तो पूरी तरह साफ़-सुथरा था। खून से सने रात वाले कपड़े भी उसके शरीर पर नहीं थे...और नहीं था वह काला अन्धेरा। आसपास का माहौल खुशनुमा तो नहीं था, पर चहल-पहल के साथ सूरज की किरणें चहलकदमी कर रही थी।
उसने अपने दिमाग पर ज़ोर डालने की कोशिश की तो नसें तड़क उठी। उसे बहुत ज़्यादा तो नहीं, पर हल्का-हल्का-सा याद था। किस तरह मौत के मुँह से बच कर वह भागा था। उसका घर...उसके अपने...सब पीछे छूट गए थे। वह कायर नहीं था। अपनों को छोड़ कर वह दो कदम भी नहीं चल सकता था, पर जब ज़िन्दगी मौत में तब्दील होने लगे तो...? उसने याददाश्त पर बड़ा ज़ोर लगा कर पूरे घटनाक्रम को याद करने की कोशिश की, पर भीतर की नीम बेहोशी ने थोड़ा बहुत धुँधला-धुँधला तो कर ही दिया था। उसने अपनी दोनों हथेलियों से सिर को पकड़ लिया और फिर बुक्का फाड़ कर रो पड़ा।
उसे यूँ रोता देख कर दो-चार लोग उसके पास जुट गए। सान्त्वना के मरहम ने घाव की टीसन को कम करने की पुरज़ोर कोशिश की, "चुप हो जाओ भाई... अब तुम्हें ही खुद को सम्हालना है। जो होना था, हो गया। इस देश ने हमें बहुत कुछ देकर सब कुछ छीन लिया।"
"इस देश ने नहीं...कुछ बदज़ातों ने छीना है। शैतान तो हर देश में मिलेंगे न...फिर हम अपने देश को ही दोष क्यों दें...?"
थोड़ी दूर बैठा एक शख़्स यह सुनते ही तड़प कर ज़मीन पर लोट गया, "देश को दोष क्यों न दें...? सरकार चाहती तो बहुतों को बचा भी सकती थी, पर। हायऽऽऽ, दरिन्दों ने मेरी बीवी, बच्चे को तो जीते-जी आग के हवाले कर ही दिया था...मेरी छः महीने की मासूम बच्ची को भी नहीं बख्शाऽऽऽ।"
बहुतों की आँखें अपनों को याद करके फिर से छलक आई... । माहौल काफ़ी ग़मगीन होकर बिगड़ता कि तभी कुछ कार्यकर्ताओं ने भीड़ को तितर-बितर करते हुए गर्म चाय से भरा कुल्हड़ उसके हाथों में थमा दिया, "चलो भाई... सब लोग चाय पी लो।"
एक-दो लोग उन्हें समझाने लगे, "देखो, जो कुछ हो गया, उसे भूलने की कोशिश करो। शैतान तो हर युग में, हर जाति में रहे हैं और उन्होंने इंसानों को नुकसान ही पहुँचाया है, पर अब हमें ही यह कोशिश करनी होगी कि आगे से ऐसा कुछ न हो।"
उसने सच में अपने को सम्भालने की कोशिश की पर संभाल नहीं पाया। फफक ही पड़ा अपने परिवार के लिए... । रोज़ इसी वक़्त सलमा उसे चाय देती थी और अम्मी के हाथों की बनी वह मिर्च-प्याज़ की पकौड़ियाँ। कितने चाव से छुट्टी के दिन पूरा परिवार एक साथ बैठ कर खाता था। कभी-कभी पड़ोस के मिश्रा जी भी आ जाते थे और फिर पूरा घर एक खुशनुमा चहकन से भर जाता था...पर आज...?
कहाँ खो गई वह चहकन...? पल भर में उसका घरौंदा यूँ उजड़ जाएगा, ऐसे तो उसने कभी सोचा भी नहीं था।
काफ़ी देर निःशब्द रो लेने के बाद जब उसने खुद को संभाला तो नसों में तेज़ी से दौड़ता बेसब्र खून भी संभल कर अपनी गति पर आ गया। अब वह बहुत कुछ धैर्यपूर्वक याद कर सक्ता था...अपनी पिछली ज़िन्दगी के बारे में। खौफ़नाक भीड़ में कब और कैसे अपनों का हाथ छूट गया और वह अकेला रह गया...इन अजनबी लोगों के बीच में। इन सबके सामने अगर उसका दम भी घुट गया तो शायद किसी के मुँह से एक 'आह' भी न निकले। वह ही पड़ा रहेगा इस दुनियावी क़ब्रिस्तान में एकदम निःसहाय-सा...और उसके अपने लोग...? उन्हें तो शायद क़ब्रिस्तान भी नसीब न हो।
सहसा, भीड़ भरे मेले में अपने परिवार से बिछड़ गए बच्चे की तरह वह तड़प कर ज़मीन पर लोट गया और चीख-चीख कर रोने लगा।
यद्यपि उसके चारों ओर फिर लोगों का जमावड़ा हो गया था और तरह-तरह की आवाज़ों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया था, पर वह था कि सिर्फ़ अपनों की आवाज़ सुनने के लिए तड़प रहा था। पर अजनबी आवाज़ें थी कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही थी, "जब से आया है, एकदम बेहाल है...रो-रो कर इसका बुरा हाल है।"
"अपनों से बिछड़ कर तो कोई भी अधमरा हो सकता है।"
"जितनी बुरी तरह से बर्बाद हुआ है...ख़ुदा किसी को न करे।"
"अरे भाई... ख़ुदा का क्या दोष...? यह सब तो हैवानों का किया-धरा है। उन्हें तो बीच चौराहे पर पत्थर से कुचल-कुचल कर मारना चाहिए... ।"
"अरे, कैसी बात करते हो...? फिर उनमें और हमारे बीच क्या अन्तर रह जाएगा...? अरे भाई... कानून है न...उन्हें सज़ा ज़रूर मिलेगी।"
"क्या ख़ाक सज़ा मिलेगी।" एक तल्ख़ आवाज़ हवा में तैरी और फिर गुम हो गई... ।
कोई कुछ और कहता कि तभी एक मरियल-सा युवक पूरी तरह जोश में भरा हुआ आया और पालथी मार कर उसकी बगल में बैठ गया, "अरे मियाँ...न ख़ुदा को दोष दो न हैवानों को...ये सब तो नेताओं का किया-धरा है। दो क़ौमों को आपस में भिड़ा कर ये अपना वोट बैंक भरते हैं। इन्हें राजगद्दी यूँ ही नहीं मिल जाती। रियाया को घाव भी यही लोग देते हैं और मरहम भी यही लगाते हैं।"
"और ये मीडिया वाले कम हैं क्या...? नन्हीं-सी चिंगारी को शोला कैसे बना देना है, कोई इनसे सीखे।"
वह एकदम बेजान-सा पड़ा सबकी बातें सुन रहा था, पर पास बैठे एक बुजुर्ग से रहा न गया। वह चीख ही पड़े, "बन्द करो बकवास। इस तरह के ग़ुनाह के तो हम भी ज़िम्मेदार हैं। हम ही तो चुनाव के वक़्र्त सब कुछ भूल कर इन्हें सिर पर बैठा लेते हैं और जब जीत कर ये अहसानफ़रामोश-मतलबी बन्दे अपनी चालों से हम सब को क़ौम के नाम पर बँटवारा कर के लड़वाते हैं, तब जाकर हमें होश आता है और तब हम एक-दूसरे को दोष देने लगते हैं। अब बन्द करो ये नाटक और अपनी-अपनी आगे की ज़िन्दगी के बारे में सोंचो।"
बुजुर्ग काफ़ी उम्रदराज़ थे पर उनकी बातों में काफ़ी दम था। जंगली भीड़ से बचते हुए वे और उनका पोता तो यहाँ तक आ गए थे पर उनका बेटा, बहू और दो पोतियाँ पीछे छूट गई थी। इतना सब होने के बावजूद उन्होंने अपना हौसला नहीं छोड़ा। देश के बँटवारे का जो मंज़र उन्होंने देखा था, उसके आगे तो यह कुछ भी नहीं था।
बुजुर्ग की बात सुन कर सब खामोश हो कर अपनी जगह बैठ गए... । आवाज़ों ने उसका पीछा छोड़ा तो यादें आकर सामने खड़ी हो गई। पर फिर भी उसे दिमाग़ पर ज़ोर देना पड़ा, ये याद करने के लिए कि आखिर उस रात हुआ क्या था...?
यद्यपि कुछ समय से शहर में एक अजीब तरह का तनाव बिखरा हुआ था। हर शख़्स एक दूसरे से कटा-कटा-सा था। उसके मोहल्ले का मिजाज़ भी गर्म था, पर चूँकि उसका परिवार वहाँ अर्से से था और अब्बू का एक अनकहा दबदबा था, इसी लिए उस माहौल से उनका परिवार भयभीत नहीं था। आसपास के लोग सब अपने से थे...फिर अपनों से कैसा ख़तरा...?
उसके घर से सटा डॉ.मिश्रा का घर था और फिर उसके बाद अवस्थी जी का। तीनो ही परिवार पढ़े-लिखे आधुनिक विचारधरा के लोग थे। दूसरों की तरह उनके यहाँ जात-पाँत का कोई भेदभाव नहीं था। आपसी मेलजोल व प्यार के चलते ही तीनों मकानों की छतें इस तरह बराबर की गई थी कि फ़ुर्सत के क्षणों में जनानियाँ छत के रास्ते एक-दूसरे के घर आ-जा सकें या छत पर ही चारपाई बिछा कर गप्पें मारते हुए हवा या धूप का मज़ा ले सकें और उनके बच्चे भी धमा-चौकड़ी मचा सकें। घर के मर्द तो अक्सर शाम को सामने वाले पार्क में निकल जाते पर उसके घर में पर्दा होने की वजह से औरतें हर वक़्त यूँ बाहर नहीं निकल पाती थी, इसी लिए छत एक तरह से उनकी मनोरंजन की जगह थी।
सलमा डॉ. मिश्रा और अवस्थी जी को चाचाजान कहती थी और उनके बेटों को भाईजान। इन लोगों से पर्दा न करने पर अब्बू ने कभी एतराज़ नहीं किया था। मिश्रा जी और अवस्थी जी भी उसे सगी बेटी-सा ही समझते थे। उनके बड़े बेटे का जब ब्याह हुआ था तब मड़वा गड़ाई के दिन सलमा औरतों के हुज़ूम के बीच ढोलक की थाप पर इस कदर नाची थी कि न्योछावर करते-करते चाची के हाथ थक गए थे। दूसरी औरतों ने भी गले लगा कर कहा था, "बेटी-बहुएँ हों तो ऐसी... ।"
सहसा उसका मन तिक़्त हो गया। कहने को तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, पर जब वक़्त पड़ता है तो सब साथ छोड़ जाते हैं। इलाके में सैकड़ों मकान थे। खुद उसकी कालोनी में एक के बाद एक सटे हुए कम-से-कम बीस मकान तो थे ही और सभी से उसके परिवार के पारिवारिक सम्बन्ध थे। पर जैसे-जैसे तूफ़ान का रुख़ उनके इलाके की ओर होने लगा, सबने धीरे-धीरे रास्ता नापना शुरू कर दिया था। अर्से से वहाँ रहने के बावजूद चार मकानों के वासी एकदम अकेले पड़ने लगे थे। रात के अन्धेरे में रोज़ कहीं-न-कहीं कोई वारदात होती और करने वाला जाने कहाँ गायब हो जाता। हर कोई एक-दूसरे को शक़ की नज़र से देखने लगा था। भाई जान भाभी को छोड़ने हफ़्ते भर पहले ही उनकी मायके की ओर गए थे और फिर उनकी कोई ख़बर नहीं मिली। शहर में कर्फ़्यू लग चुका था...घर का फोन खराब था। पड़ोस से फोन लगा कर थक गए थे, पर भाई-भाभी का कुछ पता नहीं चल रहा था। उसने तो धैर्य नहीं खोया, पर सलमा इस क़दर ख़ौफ़ खा गई थी कि कभी अब्बू के सामने एक लफ़्ज़ न बोलने वाली वह उनके बुरी तरह पीछे ही पड़ गई थी कि घर छोड़ कर किसी महफ़ूज़ जगह पर चलें, पर कहाँ...? खुद उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था तो रो पड़ी, "अब्बूऽऽऽ...कुछ कीजिए... । हम इस तरह नहीं मरना चाहते।"
अब्बू ने लम्बी-चौड़ी दलील देकर सलमा को तो चुप करा दिया, पर वह जानता था कि उनकी ये दलील खुद को भ्रम में डालने का एक बहाना भर था। माहौल की नज़ाकत अब्बू भी पहचानते थे पर अपने इस घर से, घर के सामान से, उसकी एक-एक ईंट से अब्बू को जो लगाव था, उसे वह किसी तरह नकार नहीं पा रहे थे...पर साथ ही उन्हें अपने परिवार से भी गहरा लगाव था। सबका ज़र्द होता चेहरा देख उन्होंने कई बार सबसे राहत कैम्प में चले जाने को कहा, पर उन्हें यूँ छोड़ का जाने को कोई भी तैयार नहीं था...और इधर वे अपनी ज़िद...अपने मोह के कारण घर नहीं छोड़ पा रहे थे।
अब्बू की वह ज़िद जहाँ उन्हें भीतर ही भीतर दुविधा में डाली थी, वहीं परिवार के लोग दहशत और एक अन्जानी आशंका से पल-पल मर रहे थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। एक तरफ़ पड़ोस में रहने वाले लोगों के साथ का विश्वास होता था, पर दूसरे ही क्षण अविश्वास की एक महीन रेखा उसे काटती निकल जाती। सामने मौत हो तो कई बार अपने भी साथ छोड़ जाते हैं।
और आखिरकार उनका यह अविश्वास विश्वास पर भारी पड़ ही गया। दो दिन पहले ही उनके परिवार के साथ वे लोग भी रात के अन्धेरे में छत पर बैठे थे। चारो तरफ़ चुप्पी छाई हुई थी। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। लग रहा था जैसे कहने को कुछ बचा ही नहीं था। दिल के किसी कोने में दंगाइयों का भी भय था, इसी से आवाज़ और भी दबी हुई थी। पर कहीं कुछ भी दब नहीं पाया था। रात के सन्नाटे को कुछ चीखों ने इस कदर आवाज़ दी कि मौत भी काँप गई... ।
उसकी गली से बिल्कुल पिछली ही गली में आबिद का घर था। आबिद और उसके अब्बा कुछ दिनों पहले ही बिजनेस के काम के सिलसिले में कलकत्ता गए थे, पर माहौल की गर्मी को भाँप कर वहीं किसी रिश्तेदार के यहाँ रुक गए। आबिद की बीवी और बच्चे कहीं पनाह नहीं पा सके थे। दंगाइयों ने न केवल उनके घर को लूट कर उसे आग के हवाले किया, बल्कि उसके साथ ही उस घर के बाशिन्दों को भी आग में झोंक दिया। ज़िन्दगी ने अपना दरवाज़ा बन्द किया तो मौत ने बाँहें खोल कर उन्हें शरण दी। आबिद के जलते हुए मकान की आँच उस दिन पूरे मोहल्ले ने महसूस की, पर अवस्थी और मिश्रा जी ने कुछ इस कदर महसूस किया कि इस घटना के दूसरे ही दिन वे बिना किसी को कुछ बताए घर में ताला डाल कर कहीं चले गए... । उनके इस तरह से जाने पर अब्बू बुरी तरह टूट गए... । टूट क्या गए, खामोशी की एक ऐसी परत चढ़ गई उनपर जिसने उनको पूरी तरह लपेट लिया था। इन लम्हों में सलमा ही नहीं, बल्कि अम्मी ने भी उनका पूरा साथ दिया था। मौत से पहले ही मरघट के सन्नाटे ने घर को अपने घेरे में ले लिया था।
सहसा वह फ़फ़क पड़ा। सलमा का वह ज़र्द चेहरा...अम्मी की सूनी आँखें और डगमगाती चाल। आबिद के घर लगी हुई उस आग की आँच उसके घर तक पहुँच गई थी। अम्मी ने रात के गहरे अन्धेरे में अब्बू के खामोश चेहरे को बहुत देर तक निहारा था और उसके बाद खुद खामोश हो गई थी।
उसे लगा था अम्मी कहीं पगला न जाएँ। सलमा भी उनके लिए डर गई थी। अपन भय छिपा कर उसने अम्मी को समझाने की कोशिश की थी, "अम्मी, आप फ़िक्र न कीजिए... अब्बू से हम फिर बात करते हैं। अगर होगा तो आज ही रात इन्तज़ाम करके किसी महफ़ूज़ जगह या कैम्प के लिए ही निकल जाएँगे। खुदा कि मेहरबानी से हम सब सलामत रहेंगे। अम्मीऽऽऽ...प्लीज़...आप खुद को सम्हालिए... ।"
हमेशा चटर-पटर बोलने वाली अम्मी की खामोशी से अब्बू का विश्वास भी डगमगा गया था...जिसे बरसों से पोस-पोस कर उन्होंने बड़ा किया था और फिर अपनी रुह तक में बसा लिया था। अब्बू को अपनी अमीरी पर बल्कि इस बात पर गर्व था जिसे वे अपनी सम्पन्नता के बल पर ही अंजाम दिया करते थे। आसपास के ज़रुरतमंद लोगों को वह कर्ज़ ही नहीं देते थे बल्कि मुसीबत पड़ने पर रात-बिरात उनकी हर तरह से मदद भी किया करते थे। घर में भी चार-पाँच नौकर बरसों से थे। सिर्फ़ वही नहीं, बल्कि उनके परिवार भी उनके बल पर पलते थे। अब्बू उन्हें नौकर नहीं, घर का एक सदस्य ही समझते थे। हाल में जब दंगाइयों ने उनकी फ़ैक्ट्री में आग लगा दी तो मजबूरी में अब्बू को फ़ैक्ट्री के मज़दूरों के साथ ही उन्हें भी अलग करना पड़ा।
अब्बू ने उन्हें ढेर सारी सौगातें और रुपए देकर कहा था, "तुम लोग अब अपने-अपने घर चले जाओ और हमें हमारे हाल पर छोड़ दो।"
"पर मालिक।"
"मालिक-वालिक कुछ नहीं बेटा...तुम लोगों ने इतने बरस जात और मज़हब सबसे परे हट कर हमारी ख़िदमत की। न कभी तुम लोगों ने सोचा कि हम मुसलमान हैं, न कभी हम लोगों ने तुम सब को हिन्दू मान कर कुछ सोचा। हम लोगों में तो इंसानियत का नाता रहा है। इसी लिए तो ये मज़हब के नाम पर हो रहे बँटवारे का हम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा।"
"मालिकऽऽऽ...जीवन भर फ़र्क नहीं पड़ेगा। आपने हम सबको एक पिता कि तरह प्यार दिया है, बदले में क्या हम आपको कुछ भी नहीं दे सकते...? चलिए... आप सब हमारे साथ हमारे गाँव चलिए... । देखते हैं, कौन आप लोगों को हाथ लगाता है...?"
कह कर वे लोग अब्बू का पैर पकड़ कर रो दिये थे, "चलिए मालिक...दो-चार ज़रूरी चीज़ें ले लीजिए... । हमारे साथ चलिए... हम कुछ-न-कुछ इंतज़ाम कर ही लेंगे।"
उन्हें इस तरह रोता देख कर अब्बू भी रो पड़े थे, "बच्चोंऽऽऽ...इस परिवार की तुम सब ने बहुत ख़िदमत की है। मरते दम तक हम ये बात नहीं भूल सकते। हम सब ज़िन्दा रहे तो तुम सबको फिर बुला लेंगे। तुम चारों ही तो हमारे बच्चों जैसे हो।" कहते हुए उनकी आवाज़ रुँध गई थी। आगे वह बोल नहीं पाए थे।
भरे दिल से चारो नौकर चले गए तो अपने घर का मोह न त्यागने वाले अब्बू उसी वक़्त तैयारी में जुट गए। उन्होंने घर के सामने वाले पार्क के पीछे रहने वाले गुप्ता जी से निपट अन्धेरे में मुलाक़ात कर गुज़ारिश की, "गुप्ता जी, आप तो सरकारी नौकरी में हैं...किसी तरह सरकारी गाड़ी का इंतज़ाम करके हम लोगों की ज़िन्दगी बचा लीजिए... ।"
अपने अब तक के जीवन में उसने अब्बू को कभी किसी के आगे इस तरह से गिड़गिड़ाते हुए नहीं देखा था। अचानक ही वह फफक पड़ा, "अब्बूऽऽऽ।"
गुप्ता जी ने पूरा आश्वासन दिया था और वे दोनों किसी तरह छुपते-छुपाते घर लौट आए थे पर भीतर दाखिल होने के दौरान ही पास में एक भीषण धमाका हुआ। उस धमाके से किसी भागते हुए शख़्स के चीथड़े ही नहीं उड़े बल्कि उनकी आस की भी चिन्दी-चिन्दी उड़ गई... । आपा तो इस कदर ख़ौफ़ज़दा हो गई कि अम्मी के सीने से लग कर फपक पड़ी, "या अल्लाहऽऽऽ...ये किस ग़ुनाह की सज़ा है...? अब्बू और भाई अगर आने में ज़रा भी देर कर देते तो उस आदमी की जगह।"
उसने आपा को सम्हालने की पूरी कोशिश की, "नहीं आपा...इस तरह मायूस मत होइए... । इस देश में न हिन्दू बुरा है न मुसलमान। बस मज़हब के नाम पर कुछ लोग अपनी रोटी सेंकते हैं और अपना पेट ही नहीं, घर भी भरते हैं...और उनका पेट भी उनके घर की तरह इतना बड़ा होता है कि पूरे देश को आग लगा कर भी रोटी सेंके तो भी नहीं भरेगा।"
सहसा, उसने इतनी ज़ोर से खंखारा कि सब लोग उसी की ओर देखने लगे। उसने भी सबकी ओर देखा और फिर ज़मीन पर थूक कर बड़बड़ाया, "साऽऽऽले...गन्दगी के कीड़े...कब किसके भरोसे को खा जाए, कुछ पता नहीं। ऐसे गन्दे लोगों के कारण ही तो भरोसा डगमगाता है। अब्बू ने भी कितना भरोसा किया था उन पड़ोसियों पर...लेकिन उन हरामज़ादों ने क्या किया...? दूबे ने तो पहले ही मना किया था कि उस गुप्ता पर भरोसा न करना, बड़ा कमीना आदमी है। जो अपने माँ-बाप का न हुआ, वह तुम्हारा क्या होगा...? अरे, बूढ़े माँ-बाप को मरने के लिए एक सस्ते से आश्रम में छोड़ आया कमीना।"
दूबे ने तो और भी बहुत कुछ कहा था पर अब्बू ने उसे आपसी जलन समझ कर नज़रअन्दाज़ कर दिया था। काश, उसने ही अब्बू को रोक लिया होता। जिसके मन में अपने माँ-बाप के लिए मोह नहीं, वह और किसी के लिए भला क्या सोचेगा।
पर वह अब्बू को रोकता भी तो कैसे...? पुरानी सोच के अब्बू रिश्तों पर बहुत भरोसा करते थे। अपने मज़हब के साथ ही उन्हें दूसरे मज़हब भी उतने ही प्यारे थे। उनकी निगाह में ईश्वर और अल्लाह दोनों एक थे। नाम बदल जाने से पालक नहीं बदल जाता।
ज़िन्दगी कभी दूसरों के भरोसे नहीं चलती। उसे खुद सहेजना-सँवारना पड़ता है। काश, अब्बू समय रहते ये फ़लसफ़ा समझ जाते।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे के वक़्त वह सब छोटे और नासमझ थे। अब्बू ने उस समय सही फ़ैसला लेकर सबकी ज़िन्दगी को सहेजा-सँवारा ही नहीं था बल्कि ज़्यादातर रिश्तेदारों के चले जाने या वहाँ रहने के बावजूद हिन्दुस्तान नहीं छोड़ा था। वे शुरू से यहीं थे...उनकी पैदाइश भी यहीं की थी। उन्होंने बचपन में बहुत कुछ देखा था, पर उनके अब्बू और अम्मी ने अपनी जन्मभूमि से जो प्यार करना सिखाया था, उसे वे कभी नहीं भूले। मज़हब के नाम पर बँटवारा उन्हें पसन्द नहीं था। यही वजह थी कि वे दिल से हिन्दुस्तानी थे। इस देश ने उन्हें बहुत कुछ दिया पर...पर कुछ स्वार्थी तत्वों ने एक झटके से सब कुछ ख़त्म कर दिया।
सहसा वह चिंहुक पड़ा। स्मृतियों ने उसे इस कदर बेचैन कर दिया कि गालों पर बहते आँसुओं का सबब जानने में भी उसे वक़्त लगा।
वह थोड़ा-सा वक़्त उसे एक लम्बे अर्से-सा लगा। गुप्ता जी से आश्वासन पाकर उम्मीद की एक हल्की-सी किरन ने सबके चेहरे का हौले से स्पर्श कर लिया था। कैम्प में पता नहीं खाने को ठीक से मिले, । न मिले...यह सोच कर अम्मी और सलमा रसोई में घुस गए थे।
बाहर, बैठके में अब्बू न जाने क्यों बेहद बेचैन से थे। उन्होंने कुछ सहेजने के लिए उसे इशारा किया ही था कि तभी किसी ने निशाना ताक कर एक बड़ा-सा पत्थर उनके घर पर फेंका। पत्थर खिड़की का शीशा तोड़ता हुआ सीधा अब्बू के सिर पर लगा थ। ज़ोर से चीख कर अब्बू वहीं लोट गए। रसोई में जलती गैस छोड़ कर अम्मी और सलमा भी दौड़ी आई। तब तक खून से अब्बू का झक्क सफ़ेद कुर्ता भी लाल हो चुका था और वह...?
उसके तो जैसे होश ही फ़ाख़्ता हो चुके थे। तो क्या आबिद, असलम, अरमान के बाद दंगाइयों की निगाह उसके आशियाने पर भी पड़ गई थी...?
वह अवाक खड़ा ही रह गया...अब्बू को सम्हालने का होश भी नहीं था। सलमा ने जल्दी से अब्बू की चोट पर मरहम-पट्टी करके उसे झिंझोड़ा, तब कहीं जाकर जैसे वह होश में आया, "आप लोग परेशान न होइए बिल्कुल। यह किसी शरारती बच्चे का भी काम हो सकता है। बस अब कुछ समय की ही तो बात है। रात को गाड़ी आते ही हम लोग शिविर में तो पहुँच ही जाएँगे...ठीक न...? बस्स...आप लोग तसल्ली रखें।"
उल्टे उसी को समझा कर सलमा ने नन्हे ज़ुनैद को कस कर सीने से चिपटा लिया। गैस बन्द करके अम्मी भी आकर अब्बू के पास आकर बैठ गई थी।
आकाश से उतर कर शाम जैसे-जैसे नीचे झुक रही थी, उन सबका ख़ौफ़ भी बढ़ रहा था। कुछ लोगों के आश्वासन के बावजूद घर के बाहर एक बड़ी-सी भीड़ थी। यह भीड़ कब भेड़ियों की शक़्ल अख़्तियार कर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता था।
अम्मी एकदम बेचैन हो गई थी। मना करने के बावजूद उन्होंने खिड़की की झिरी से देखा और फिर गश खाकर गिर पड़ी...और वह...? उसे लगा जैसे गहरे पानी के भँवर में उसके परिवार की नाव फँस गई है और बहुत तेज़ी से गोल-गोल घूम रही है। बचने का कहीं कोई रास्ता नहीं बचा है। नाव को ढेर सारे मगरमच्छों ने चारो ओर से घेर लिया है। ऊपर से संयत पर भीतर से काँपता हुआ बैठा वह बचने का रास्ता तलाश ही रहा था कि तभी उसके गेट पर बल्लम-लाठियों की धड़ाधड़ चोट पड़ने लगी। लोगों के भीतर का शैतान पूरी तरह जागृत हो गया था और अब किसी भी पल उन्हें नुकसान पहुँचा सकता था।
भयानक शोर शराबे से पूरे घर के प्राण जैसे हलक में आ गए। अम्मी तभी से गश खाकर पड़ी थी। सदमे और चोट से अब्बू की हालत भी ठीक नहीं थी। उनके विश्वास को जो ठेस पहुँची थी, उसने उन्हें क्षण भर में ही ख़त्म कर दिया था, तिस पर बूढ़ा, आशक्त शरीर। अपनी हिफ़ाज़त करने में अक्षम। ऐसा इंसान अपने परिवार की रक्षा क्या करेगा...?
उन सबकी हालत देख कर सलमा और आपा दोनों जड़ हो गई थी। उन्हें मानो मौत के कदमों की आहट साफ़ सुनाई दे गई थी। पल भर में जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया था...उनकी हिम्मत...अब्बू का विश्वास...अम्मी का हौसला और बच्चों की मासूमियत...सब कुछ।
वह सब एकदम से जड़ हो जाते कि तभी उनके मोहल्ले के सशक्त नेता चौधरी साहब ने अपनी छत से हवाई फ़ायर करते हुए भीड़ को ललकारा तो भीड़ को छँटने में पल भर भी नहीं लगा। इधर भीड़ छँटी, उधर मौत के भय से कहीं दुबक गई ज़िन्दगी छलाँग मार कर बाहर आ गई और तब अब्बू का भी मृत विश्वास फिर से जी उठा। सलमा और आपा के चेहरे का ख़ौफ़ हल्के से सरका और ज़िन्दगी ने बहुत हल्के से घर में दस्तक दी। रसोई फिर मसालों की खुश्बू बिखेरने लगी। गुप्ता जी ने अब तक गाड़ी का भी इंतज़ाम कर दिया होगा...बस्स, हल्का-सा अन्धेरा और घिर आए, फिर वे सब चुपके से गाड़ी में बैठ कर निकल जाएँगे। गुप्ता जी ने खुद साथ जाने का वादा किया है।
वह जल्दी-जल्दी झोले में कुछ ज़रूरी सामान रखने लगा था। सामने तख़्त पर अम्मी और अब्बू बैठे पथराई आँखों से सब को देख रहे थे। उनकी आँखों के कोर में ठहरी आँसू की चंद बूँदें उनके दुःख को बयान कर रही थी। कितनी मुश्किलों का सामना करके यह आशियाना बनवाया था...मोहल्ले में वह दूर से ही अपनी शानो-शौकत का बखान करता है...पर अब...?
अब्बू शायद कुछ कहते कि तभी गेट पर बड़ी ज़ोर का धमाका हुआ। किसी ने देशी बम का इस्तेमाल कर के ऊँचे और मजबूत मेन गेट तोड़ दिया था। धमाका इतना तेज़ था कि पूरे परिवार की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई। वह खुद घबरा कर गिरते-गिरते बचा।
अभी वे लोग कुछ और भी समझ पाते, संभल पाते कि तभी एक जनूनी भीड़ भयानक शोर के साथ भीतर घुस आई... और फिर उसके बाद चारो तरफ़ चीख-पुकार...अजीब-सा कोहराम था। घर की बत्ती पता नहीं कैसे गुल हो गई थी। शोर के कारण अपनों की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। अंधेरे में वह किसे ढूँढता...? अपनों के लिए कुछ न कर पाने की असमर्थता ने उसके भीतर दुःख का ऐसा अन्धेरा भर दिया कि वह खुद को भी नहीं ढूँढ पा रहा था। भीड़ ने उसके पूरे घर को तबाह कर दिया था। अपनों के साथ वह भी तबाह होता कि तभी अन्धेरे में दो हाथ बढ़े और उन्होंने उसे रसोई के कोने में बनी बड़ी-सी चिमनी के भीतर धकेल दिया।
आगे क्या हुआ, उसे नहीं पता। होश आया तो पुलिस के भारी बूटों की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह चीखना चाहता था, पर चीख नहीं पाया। पूरा शरीर इस कदर बेदम हो गया था कि लगा जैसे कभी शरीर में जान ही न रही हो। यद्यपि शरीर सुन्न था, पर दिमाग में एक बिजली-सी तड़क गई। वक़्त आने पर इन हैवानों को वह कतई नहीं बख़्शेगा जिन्होंने उसके जिगर के टुकड़े नन्हें जुनैद को भी नहीं बख़्शा और उसकी आँखों के सामने ही उसकी ज़िन्दगी छीन ली...और जिन्होंने उसकी आपा कि जवान, बेदाग़ जिस्म को भूखे भेड़ियों की तरह नोच खाया था। अब्बू-अम्मी के अशक्त देह तो एक धक्के से ही लुड़क गई थी...और उसकी सलमा। उसका दूध जैसा सफ़ेद जिस्म तो जैसे लकड़ी के काले धुँए से एकसार हो गया था।
सहसा वह फूट-फूट कर रोने लगा। इतना असहाय वह कभी नहीं हुआ था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। किसके सीने से लग कर रोए... ? भीतर दुःख इस तरह टीस रहा था जैसे किसी ने कलेज़े में बर्छी उतार दी हो। उसे तलाश कर पुलिस जब अपने संरक्षण में ले जा रही थी, तभी उसे जाने क्या सूझा कि उसने एकदम वहशियाना अन्दाज़ में एक पुलिस वाले की गर्दन दबोच ली, "साऽऽऽले...हरामज़ाऽऽऽदे...कुत्तेऽऽऽ...सारा खेल ख़त्म हो गया तो हमदर्दी जताने आ गए... । तुम लोग चाहते तो क़त्लेआम से इन हैवानों को रोक सकते थे...पर सालों...ऐसा करते ही क्यों...? दंगे की आँच से ही तो तुम जैसे लोगों की ऐशगाह रोशन होती है।"
गुस्से में वह और भी अपशब्द बोल रहा था कि तभी एक झन्नाटेदार तमाचे ने उसकी बोलती बन्द कर दी।
"अरे जाने दो यार...पागल हो गया है। जिस तरह इसका सब कुछ तबाह हो गया है, उससे कोई भी अपने होश खो देगा।"
"तो मैं क्या करूँ...?" चाँटा मारने वाला भी कम गुस्से में नहीं था, "यह जाकर उन नेताओं का मुँह क्यों नहीं नोचता जो दंगे की आँच में अपनी रोटी सेंकते हैं...?"
तरह-तरह की आवाज़ें थी जो अर्द्धबेहोशी में उसका पीछा कर रही थी।
"ठीक कहते हो यार...खुद ही आग लगाते हैं और खुद ही पानी डालते हैं। बीच में मारे जाते हैं हम। इधर पब्लिक गाली देती है और उधर उनका रोब-दाब सहो। हम लोगों की तो जैसे कोई ज़िन्दगी ही नहीं। अरे, कोई इनसे पूछे कि इतने भयानक दंगे में कोई सुनता है हमारी...? बिना फ़ोर्स के अकेले हम कुछ कर सकते हैं क्या...? अरे, हम भी जानते-समझते हैं, पर हमें भी अपनी ज़िन्दगी का मोह-वोह करने का हक़ है या नहीं...?"
बीच में क्या हुआ, उसे याद नहीं...पर आँख खुली तो वह शिविर में था। वहाँ का माहौल काफ़ी शान्त था...सान्त्वना का मरहम भी था, पर जाने क्यों उसके भीतर की आग ठण्डी नहीं हो पा रही थी।
वह काफ़ी देर घुटनों में सिर दिए अपनों को याद करके रोता रहा था। आसपास के कई लोग उसको समझा कर या तो ऊब गए थे या फिर अपने ही दुःख से इतना थक गए थे कि अब उनके पास ताकत नहीं बची थी कि उसके लिए कुछ कर पाएँ।
उस दिन की तरह, पर उससे अलग शाम फिर गहराने लगी थी। शाम के साथ अन्धेरा भी नीचे धरती पर उतरने की फ़िराक़ में था। सहसा उस शिविर में उसका दम घुटने लगा। उसे जाने क्यों लगा कि अगर कुछ देर वह और वहाँ रहा तो घुट कर मर जाएगा और बिना इंतक़ाम लिए वह मरना नहीं चाहता था।
उसने नफ़रत और गुस्से से चारो ओर देखा और फिर काली, कोलतार-सनी सड़क पर आ गया। हर कोई मानो अपने ग़म में डूबा हुआ था। किसी के पास फ़ुर्सत नहीं थी कि दूसरे की ओर देखे। वह इसी का फ़ायदा उठा कर चुपचाप बाहर आ गया था।
सहसा उसकी मुठ्ठियाँ तन गई। रात के इस भयानक सन्नाटे में अगर वह एक-दो लोगों का गला टीप दे तो...? तो दिल को कितना सकून मिलेगा और शायद आगे जीना आसान हो जाएगा। जिन्हों ने उसके अपनों को उससे छीना है, उन्हें मार कर उनके घर को दोज़ख़ में तब्दील कर देगा...या दोज़ख़ भी क्यों नसीब होने दे उनको...?
वह सारी दुनिया को गाली देता, भीतर ही भीतर खौलता चला जा रहा था कि उस नीम अन्धेरे और सुनसान रास्ते पर यक-ब-यक ठिठक गया। किसी ने बड़े हौले से उसका कुर्ता खींचा था। उसने पलट कर देखा तो पाँचेक साल का एक बच्चा आँसू बहाता खड़ा था, "अंकलऽऽऽ...मेरे मम्मी-पापा खो गए हैं। आपने देखा है उन्हें...?"
वह उकड़ू होकर ज़मीन पर बैठ गया। बच्चे को सहलाने-दुलराने के लिए हाथ आगे बढ़ाया कि तभी उसके भीतर एक आग-सी जल उठी। बच्चे के गले में देवी दुर्गा का एक लॉकेट लटका हुआ था...तो...? तो क्या यह बच्चा उन हैवानों की उपज है जिन्होंने उसके कलेजे के टुकड़े को उससे छीन लिया है...? उन्होंने जब तरस नहीं खाया तो वह क्यों खाए... ?
उसकी आँखों में एक अजीब-सी वहशी चमक उभर आई... । अब्बू की वह सीख...बेटा, कोई भी मज़हब हमें अपना ईमान बेचने को नहीं कहता। हमारा मज़हब भी तो इंसानियत सिखाता है...एक-दूसरे की इज्ज़त करना सिखाता है। दूसरों को तकलीफ़ देना तो हैवानों का काम है और हैवान किसी कौम...किसी मज़हब के नहीं होते। इनकी कोई ज़ात नहीं होती। तुम सब हमारा खून हो। इसी लिए हमेशा याद रखना कि हैवानों से बदला लेने से ज़्यादा ज़रूरी है, ख़ुदा के नेक बन्दों को उनसे बचा कर रखना।
"भाड़ में जाए अब्बू आपका ईमान-धरम...आपने ये सब निभा के क्या पा लिया...? एक ग़लीज़ मौत...? नहीं अब्बूऽऽऽ, आज आपकी बात मान ली तो मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा। इन्होंने मेरा परिवार छीना है मुझसे। इन्हें माफ़ करके मैं अपनी नज़रों में गिर जाऊँगा।"
उसके हाथों की पकड़ सहसा बेहद सख़्त हो गई... । उसने नज़रों ही नज़रों में आसपास के सन्नाटे को तौला और फिर बच्चे को ऊपर हवा में उठा लिया। बच्चा भय से चीख पड़ा, "अंकलऽऽऽ...डर लग रहा है।"
उसे लगा जैसे जुनैद खुशी से चिल्लाया हो, "अब्बूऽऽऽ...ऊपर...और ऊपर। बहुत मज़ा आ रहा है। पर छोड़ना नहीं अब्बू...गिर जाएँगे।"
उसने घबरा कर हवा में टँगे बच्चे की ओर देखा और जैसे जड़ हो गया। बच्चा हाथ में चॉकलेट पकड़े हुए था और उसका मुँह चॉकलेट के शीरे से लिपटा हुआ था।
सहसा, एक सन्नाटा उसके भीतर उतर आया। लगा, जैसे जुनैद के हाथों में ढेर सारा शीरे से भरा कटोरा हो और उसका मुँह शीरे से लिथड़ा हुआ हो। अभी पन्द्रह दिन पहले ही तो अम्मी ने बनाया था उसके लिए... । घर में सभी को तो पसन्द था ही, पर नन्हा ज़ुनैद तो जैसे उसका दीवाना था। अम्मी कड़ाही में शीरा पकाना शुरू ही करती थी कि वह जाकर उनके पास ही बैठ जाता था...और फिर तरह-तरह के सवालों की बौछार शुरू...यह कैसे बनता है...? इसको इसमें क्यों बना रही...? हम बनाएँ...?
उसकी इन बातों पर निहाल होती अम्मी हँसती हुई वहीं से चिल्लाती, "इस नन्हें खानसामे को कोई यहाँ से हटाओ भई... वरना मैं पगला कर कुछ का कुछ बना दूँगी।"
वह भी हँसता हुआ ज़ुनैद को गोद में उठा कर बाहर आ जाता पर बाहर आकर भी वही ऊटपटाँग सवाल। हार कर वह उसे कहानियों में उलझा देता पर कहानी के दौरान भी वही शीरा। बन जाने पर सबसे पहले अम्मी उसी को देती और फिर वह इस तरह खाता कि पूरे मुँह पर पोत लेता।
बच्चा अब भी हवा में टँगा था। नन्हें ज़ुनैद को तो हँसाने के लिए इस तरह हवा में उठाता था, पर ये बच्चा...?
ऊँचा उठा कर पटक कर उसे मार भी देगा तो कोई नहीं जान पाएगा...अंकलऽऽऽ...छोड़ना नहीं...गिर जाऊँगा।
"अब्बूऽऽऽ...छोड़ना नहीं...डर लगता है।"
वह पेशोपेश में था। उसके हाथों में उसके जिगर का टुकड़ा ज़ुनैद कैसे...? नहीं...यह तो उसका ज़ुनैद नहीं। पर इसका पूरा मुँह कैसे शीरे में लिथड़ा हुआ है...? अभी-अभी तो खाया है न इसने शीरा। उफ़्फ़...वह क्या करने जा रहा था...?
अचानक उसने बच्चे को अपने सीने से चिपटा लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा। उसके अनजाने ही उस बच्चे का अक्स नन्हें ज़ुनैद में तब्दील हो चुका था।