अक्षय घोषणा-पत्र और 'कृष्णायन' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 जनवरी 2018
आज कृष्णाराज कपूर का 88वां जन्मदिन है। मध्यप्रदेश के शहर रीवा में जन्मी कृष्णा अपने घराने का केंद्र रही हैं। सारा जीवन सितारों के बीच रहकर सामान्य बनी रहीं और अपनी जमीन उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। उनको अपने जीवन में जितने उतार-चढ़ाव देखने पड़े उतने तो किसी फिल्म की पटकथा में भी नहीं आते। तूफानों के बीच और आंधियों के बाद भी उन्होंने स्वयं को स्थिर रखा। 'मेरा नाम जोकर' की बॉक्स ऑफिस पर असफलता के बाद के सन्नाटे में उनकी प्रार्थना के स्वर ही एकमात्र ध्वनि थे। उनके व्यक्तित्व के उजास से सारे आर्थिक अंधेरे दूर हुए। उनके आदतन इश्क में डूबे रहने वाले प्रेमल हृदय पति पर सहनायिकाओं का दिल जाता था परंतु कृष्णाजी भलीभांति जानती थीं कि उनके पति का अन्यतम प्रेम सिनेमा माध्यम से है और सारी फिल्में उन्होंने प्रेम-पत्र की तरह गढ़ी हैं। राज कपूर नायिकाओं को जिस मोहक छवि में ढालते थे, नायिकाओं को स्वयं की उस छवि से प्रेम हो जाता था परंतु वे छवि के माध्यम से रचयिता से प्रेम करने लगती थीं। सृजन प्रक्रिया की इस जटिलता से कृष्णाजी वाकिफ रहीं और कभी विचलित नहीं हुई। राज कपूर के पूरे अफसाने की हकीकत कृष्णा कपूर ही रहीं। भले ही वे टूटीं नहीं परंतु यह मानना कि उन्हें दु:ख नहीं हुआ, सर्वथा गलत होगा। उन्हें बेहद कष्ट हुआ परंतु कर्तव्यबोध के कारण उन्होंने उसके असर से सबको अनभिज्ञ रखा। 'आवारा' के लिए लिखी शैलेन्द्र की पंक्तियां, 'ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नज़र' कृष्णाजी की पीड़ा और प्रार्थना को अभिव्यक्त करता है। यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ कि उपरोक्त गीत में शब्द 'हंसती' या 'हस्ती' है। संभवत: गायन में यह धुंध जान-बूझकर रखी गई।
राज कपूर को दावत देने का जुनून था। संध्या से शुरू होकर अलसभोर तक चलने वाली दावतों में, दावत के बाद राज कपूर लुढ़के हुए ग्लास, फर्श पर छितरी खाली बोतलें और अधखायी रकाबियों के बीच कहीं कोई सिलसिला या तारतम्य खोजते रहते थे। अपने मेहमानों में वे अपने पात्र खोजते रहते थे। यह अजीब बात है कि उन्होंने अपना फोकस कभी नहीं खोया। फुर्सत के समय वे अपने मित्रों से कहते 'आओ फिल्म फिल्म खेले' या दृश्यों की अंताक्षरी खेलें।' एक दृश्य एक व्यक्ति सुनाए अौर दूसरा उसी सिरे को पकड़कर अगला दृश्य सुनाए। बहरहाल इसे व्यक्तित्व का राग कहते हैं, जिनके दोनों अर्थ हैं- संगीत और व्यक्तित्व का दोष।
राज कपूर की इन भव्य दावतों की सारी व्यवस्था कृष्णा कपूर करती थीं। वे मेहमानों के ड्राइवरों की भोजन व्यवस्था भी स्वयं देखती रहीं। यह व्यवस्था बहुत थकाने वाली होती और कृष्णाजी को पंद्रह दिन पहले ही काम शुरू करना होता था। सबसे बड़ी जवाबदारी यह थी कि उन मेहमानों पर नज़र रखना, जो अधिक शराब का सेवन कर रहे हैं, क्योंकि वे किसी से भिड़ना चाहते हैं। मन में बसा सारा दोष शराब के बहाने बाहर निकलता है। दावतों के कुरुक्षेत्र में युधिष्ठिर को दुर्योधन बनने में देर नहीं लगती। एक बार शम्मी कपूर और फिरोज खान में कहा-सुनी हो गई। दोनों एक-दूसरे को जान से मारने की धमकी देते हुए बाहर चले गए। उनके पीछे अनहोनी को टालने गए लोगों ने देखा कि दोनों गले लगकर रो रहे हैं। दावतों में ड्रामेबाजी उभरकर सामने आती हैं।
एक बार कृष्णा कपूर को एक शल्य चिकित्सा के लिए ले जाया जा रहा था। उन्होंने एक परिजन से कहा कि उनके ऑटोग्राफ ले ले, क्योंकि वे 'थिएटर' जा रही हैं। पूरे परिवार में सबसे जबर्दस्त हास्य बोध कृष्णा कपूर के पास है। वे ही खानदान की असली जोकर हैं। परिवार में आपसी विवाद सुलझाने के लिए भी उन्हें ही बुलाया जाता है। वे कभी किसी को दोषी नहीं मानतीं, ना ही कभी किसी को दंड देती हैं। मानवीय कमजोरियों को वे सहिष्णुता से देखती हैं। उनकी सहिष्णुता की एक हकीकत यह है कि उनके पुत्र ऋषि कपूर और नीतू के विवाह पर नरगिस एवं सुनील दत्त आमंत्रित किए गए। 1956 में 'जागते रहो' के एक दृश्य के लिए आखिरी बार नरगिस आरके स्टूडियो अाई थीं। इस तरह वे लंबे समय बाद लौटीं। राज कपूर हतप्रभ रह गए। वे केवल हाथ जोड़े खड़े रहे।
कृष्णा कपूर ने दत्त दंपत्ति का स्वागत किया। वे और नरगिस बतियाते रहे। कृष्णा कपूर ने नरगिस से कहा कि वह अपने मन में कोई मलाल नहीं रखें, क्योंकि उनके पति इतने प्रेमल हैं कि वे नहीं होती तो कोई और होता। विगत को बोझ की तरह लेते हुए कपास के ढेर की तरह मानना चाहिए। बहरहाल, मुद्दा यह है कि कुछ वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश सरकार ने रीवा में भूमि पूजन किया था और वे अपने प्रदेश में जन्मीं कृष्णा कपूर के नाम पर मनोरंजन परिसर बनाना चाहते थे। कपूर परिवार के दो सदस्य रीवा आए थे। इसकी कोई जानकारी नहीं है कि घोषणा कागजी ही रही या सचमुच वहां मनोरंजन परिसर का निर्माण हुआ। सरकार के हाथ लग गया है द्रौपदी का अक्षय-पात्र जिससे घोषणाएं सतत प्रवाहित होती हैं। घोषणा-पत्र कभी खाली नहीं होता।