अक्षरों के साये / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 3
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
यह सब होता रहा-पर नज़्में-मुझ पर जैसे बादलों सी घिरतीं और बरस जातीं-उस वक्त पंजाब की कहानी लगी
तकदीर उठी-रकाब में पैर रखा पोठोहार को घोड़े के पैरों में कुचलती पूरे पंजाब को देखने लगी...
उसके घोड़े की आवाज़ सुन कर धरती आकाश चौंक गए भारत-मां का दिल कांपने लगा अब मेरी आबरू का क्या होगा...
क्या किसी ने वह बेटा नहीं जना जो इस घोड़े की लगाम पकड़ ले ! क्या कोई मदारी नहीं जो काले नाग को कील ले !
ऊंचे लंबे खेत थे-हरे भरे खलवाड़े में आग किसने लगा दी आग की लपटों पर- लोग सान चढ़ने लगे..
पांच दरियाओं के पानी गर्म तेल से बहने लगे...
खेतों के बीज हाथों से छूट गए हांडियां पकाती हुई कलछियां फूट गईं कुएं में मटकी की रस्सी टूट गई कलाइयों की चूड़ियां-टूट गईं...
इस पेड़ का क्या होगा ? इस छाया का क्या होगा ? नफरत के कीड़े-तो ज़ड़ में लगे हैं और राही-रास्ता भूलने लगे हैं...
कैसी हवा चलने लगी- राजा ! तू कैसा राज करेगा कि आने वाली सदी तक एक राख-सी उड़ने लगी..
राजा ! तू कैसा राज करेगा सिर पर कोई आकाश न रहा पैंरों के नीचे ज़मीन न रही...
मैं अक्षरों में भी भीगती रही- आंसुओं में भी भीगती रही लिखती रही...
उस मज़हब के माथे पर से यह खून कौन धोएगा... जिसके आशिक-हर गुनाह मज़हब के नाम से करते राहों पर कांटे बिछाते हैं ज़बान से ज़हर उगलते जवान खून को बहाते हैं और खून से भरे हाथ मज़हब की ओट में छिपाते हैं...
तहज़ीब की लाश- बाज़ार में रुलने लगी और हर गुनाह की बात- मज़हब के माथे पर लगने लगीं... उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...
उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...
मेरी मां की कोख मजबूर थी- मैं भी तो एक इन्सान हूं आजादियों की टक्कर में उस चोट का निशान हूं उस हादसे का ज़ख्म जो मां के माथे पर लगना था और मां की कोख को मजबूर होना था...
मैं एक धिक्कार हूं- जो इन्सान की जात पर पड़ रही.. और पैदाइश हूं-उस वक्त की जब सूरज चांद- आकाश के हाथों छूट रहे थे और एक-एक करके सब सितारे टूट रहे थे...
मैं मां के ज़ख्म का निशान हूं मैं मां के माथे का दाग हूं मां एक जुल्म को कोख में उठाती रही और उसे अपनी कोख से एक सड़ांध आती रही कौन जान सकता है एक जुल्म को, पेट में उठाना हाड़-मांस को जलाना
पेट में जुल्म का फल रोज-रोज़ बढ़ता रहा... और कहते हैं- आज़ादी के पेड़ को- एक बौर पड़ता रहा... मेरी मां की कोख मजबूर थी
अगर आपके पास पूर्ण रचना है तो कृपया gadyakosh@gmail.com पर भेजें।
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |