अगनपथ / उत्तम कांबले / पृष्ठ 1
इंडिया टुडे में प्रकाशित समीक्षा
यह दलित पत्रकार उत्तम कांबले की मराठी से अनूदित आत्मकथा है, जिसमें उनके जीवनकाल का विस्तृत और सिलसिलेवार वर्णन है. एक व्यक्ति और पत्रकार के रूप में कांबले की यात्राकथा की इस पुस्तक में ज्यादातर वैसे प्रसंग हैं जो ऐसे संघर्षशील तबके के जीवन में अमूमन आते और घटित होते रहते हैं. यूं यहां सामूहिक कम और व्यक्तिगत संघर्ष ज्यादा है.
एक दलित मजदूर परिवार में जन्मे कांबले का बचपन भयंकर अभाव में गुजरा. यूं उनके पिता भारतीय सेना में थे, लेकिन उनका वेतन कम था और पारिवारिक भार बड़ा. इस कारण बालक कांबले को अपनी ढेर सारी बाल-सुलभ इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए हाड़तोड़ मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती थी.
जंगल जाकर बबूल के पेड़ से गोंद निकालने जैसे कई छोटे-मोटे काम भी करने पड़ते थे. उस पर से रात को सोने के लिए खटमलों से भरे समाज-मंदिर में जाना पड़ता था. ऐसे हालात में पढ़ाई जारी रख पाना निश्चय ही कठिन काम था. छात्रावास, छात्रवृत्ति सुविधा के अलावा सश्रम-उपार्जन के साथ पढ़ाई की व्यवस्था ही कॉलेज-जीवन में उनके लिए सहायक सिद्ध हुई.
बी.ए. करने के बाद कांबले ने समाज नाम के अखबार के जरिए पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ाए. एक प्रशिक्षु के तौर पर वे अखबार में आए थे. कार्यालय सहायक, प्रूफ रीडर, आवाज लगाकर अखबार बेचने वाले हॉकर आदि की भूमिका निभाते हुए उन्होंने पत्रकारिता की एबीसीडी सीखी. फिर उपसंपादक, सहायक संपादक आदि जैसे पदों से होते हुए एक दिन संपादक के पद पर आसीन हुए. ढेर सारे विद्वान-लेखक-विचारक, नेता-पत्रकारों के संपर्क में आए और जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, फ्रांस आदि कई देशों की यात्राएं कीं. आज सकाळ मीडिया समूह के मुख्य संपादक हैं, लेकिन अनकहा सच यही है कि इस कॉर्पोरेट मीडिया में संपादक का कोई सोच बनने की गुंजाइश नहीं है.
मोटे तौर पर इतनी ही बातें हैं इस पुस्तक में, लेकिन इन प्रमुख घटनाओं के साथ छोटी-छोटी आनुषंगिक घटनाओं और छोटे-छोटे ब्यौरों की मार्फत लेखक ने जो अपना मुकम्मल रेखाचित्र प्रस्तुत किया है, वह महत्वपूर्ण है. पठनीय और विचारणीय भी. खासकर मां, दादी, पिता, चाचा और शिक्षकों के बारे में उनके विचार और पुस्तकों को लेकर ललक. प्रथम पुस्तक खरीदने का प्रसंग तो इस पुस्तक का श्रेष्ठ अंश है.
गौरतलब है कि हिन्दी में दलित-विमर्श का जो उभार पिछले करीब दो दशकों से दिखाई दे रहा है, इसे अपने यहां मराठी के दलित-लेखन का प्रभाव माना जाता रहा है. यह प्रभाव कहानी-कविता तक सीमित नहीं रहा. आत्मकथाओं के माध्यम से उस समाज की सचाई उजागर करने का जैसा प्रयास मराठी में शरण कुमार लिंबाले (अक्करमाशी), दया पवार (अछूत/बलूत), लक्ष्मण गायकवाड़ आदि की मार्फत शुरू हुआ, उसका हिंदी के दलित-लेखन पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा.
ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, सूरजपालसिंह चौहान, श्यौराज सिंह बेचैन आदि की आत्मकथाएं श्रेष्ठ उदाहरण हैं. लेकिन उत्तम कांबले की यह आत्मकथा इसलिए विशेष उल्लेखनीय हो जाती है कि यह एक दलित पत्रकार की संघर्षगाथा है. खासकर तब जबकि अपने यहां पत्रकारिता में निर्णय ले सकने वाले अधिकांश पदों पर आज भी सवर्णों का कब्जा है. ऐसी परिस्थिति में कांबले की यह आत्मकथा नई पीढ़ी के लिए विशेष महत्व रखती है.
कांचा ऐलय्या के अनुसार,
आत्मकथा एक ऐसा लेखन है जो व्यक्तिगत अनुभव से उपजा हो, आश्चर्यजनक रूप से सचाई को सामने लाता हो!.. अंबेडकर और पेरियार ने दलित बहुजन समाज के रोजाना के अनुभवों को वाणी दी है और उन पर लिखा है. इस लिहाज से देखें तो तमाम खूबियों के बावजूद इस आत्मकथा की कई सीमाएं हैं. एक तो इनके संघर्षों-कथाओं में जिन समस्याओं-संकटों की चर्चा हुई है, उनमें से अधिकांश आर्थिक अभावों के कारण उत्पन्न होते हैं.
स्कूल में पानी का घड़ा छूने पर मिली सजा, भोजन के एकाध प्रसंग आदि छुआछूतजन्य दलित-विशेष की समस्याओं जैसे प्रसंग इस पुस्तक में बहुत ही कम हैं. दूसरे, इसमें सफलताओं की भरमार है. व्यापक दलित समाज के सामूहिक संघर्ष और उनकी तत्कालीन स्थितियों का जिक्र यहां लगभग नगण्य है. दलित चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में कहें तो
दलित आत्मकथा अतीत की सिर्फ स्मृतियां नहीं हैं. ये समाज-व्यवस्था की अमानवीयता को समझने का स्त्रोत भी हैं...
लेकिन अगनपथ उस व्यापक समाज-समुदाय को समझने का वैसा स्त्रोत न बनकर, एक व्यक्ति की जय-कथा लगती है.
इस पुस्तक की भाषा और घटनाओं की प्रस्तुति अखबारी-लेखन की तरह सहज-सपाट होने के बावजूद नहीं खटकती, अगर अनुवाद की भाषा हिंदी की प्रकृति के अनुकूल रहती.
मैंने मेरे कंधे को हाथ लगाकर देखा तो हाथ खून से भरा हुआ था'
जैसे अटपटे वाक्य पाठ-प्रवाह में बाधा डालते हैं. फिर भी, पत्रकारिता जगत् में दलितों के प्रवेश की इस आरंभिक यात्रा की चर्चा और स्वागत जरूरी है, ताकि आने वाली दलित युवा पीढ़ी को अपने संघर्ष पथ में संबल मिले.
(इंडिया टुडे 30 नवंबर 2011 अंक में प्रकाशित समीक्षा)
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