अगन-हिंडोला / भाग - 5 / उषा किरण खान
"सूबेदार हुजूर की सलाह पर चलना बेटे उन्होंने तुम्हारे ना चीज अब्बा हुजूर को रोहतास, सहसराम टाँडा का इलाका दिया है पाँच सौ घुड़सवार भी दिए हैं। यह जागीर छोटी नहीं है। सब तुम्हीं को तो देखना है।" - कहते कहते उनका गला भर आया। बेशक यह जागीर छोटी नहीं है, फरीद को यह बहुत बड़ी भी नहीं लगती। हाँ खूबसूरत ज़रूर लगती, पथरीली जमीन पर उगे ऊँचे-ऊँच पेड़, साल सागौन सिरीश के बेहद लाल फालसइ और नीले फूलों वाले, कल-कल करती नदियाँ और आगे का मैदानी इलाका। सभी खूबसूरत हैं, एक साड़ी बाँधें जूड़े में मौसमी फूल टाँके काली चिकनी युवतियों की हँसी बेहद दिलकश लगती। अब तक दिलकशी का यह नजारा इनकी घुड़सवारी पर हावी नहीं हुआ। अब तक तो अपनी ओर इनका ख्याल ही नहीं भटका। जमाल खाँ के जीते जी फरीद जौनपुर आए और तालीम पाने लगे। फरीद पढ़ने लिखने में अव्बल रहे। उन्होंने पूरी तरह से काफिया को पढ़ा उसकी टीका तक पढ़ डाली इस तरह फरीद व्याकरण के जानकार हो गए. किताबों में उसने गुलिस्ताँ, बोस्ताँ और सिकंदरनामा को पढ़ा। फरीद ने इतिहास की किताबों को भी पढ़ना पसंद किया। फरीद अरबी फारसी के अलावे हिंदवी पढ़ना और लिखना सीखा। इतना अधिक पढ़ने के बाद उन्हें राजकाज की सूझबूझ हो गई. जहाँ के मालिक वे हैं उस जगह की रियाया को किताना जानते हैं कि उनके अपने हो सकें, यह सब उन्हें सूझने लगा। फरीद अपने आप को सूबेदारी के लिए तैयार कर रहे थे। कई साल बीत गए थे, परंतु चंद कोस पर बसे हसन सूर न तो फरीद से मिलने आए न उन्हें बुला भेजा। मुन्नी बाई जो बूढ़े होते हसन की नई नवेली दासी बीवी थी उसने देखा कि हसन सूर रात दिन फरीद की यादों में खोए रहते हैं, उसे अपना वारिस बनाना चाहते हैं अक्सर भड़काती रहती।
"खान साहब मेरे आका, बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।"
"मैं आपकी बातों का बुरा क्यों मानूँगा?" - वृद्ध हसन सूर ने मुन्नी बाई को खींचकर सीने से लगाते हुए कहा। उनके हाथ उसके गुदाज बदन से उठखेलियाँ करने को लरज रहे थे।
"हटिए, आप मुझमें ही मसरूफ रहिए उधर आपका बेटा आपके खिलाफ बगावत कर बैठेगा।" - नकली गुस्से से मुन्नी बाई कहतीं।
"तो क्या करूँ आप हैं ही इतनी दिलकश। चार-चार बच्चों की अम्माँ होने के बाद भी कमसिन दीखती हैं।" - हसन सून ने और कस कर चिपटा लिया मुन्नी बाई को।
"उधर फरीद।"
"क्या फरीद?" - हसन सूर अब और न रुक सका अपने होठों से उसकी बोलती बंद कर दी। मुन्नी बाई ने अपने शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ दिया। मन ही मन बड़बड़ा रही थी - जो करना है कर आज तो मैं अपने बेटे सुलतान के लिए सहसराम की जागीरी पक्का कर लूँगी। रंगरंस में अबचूब होते हसन सूर ढलान पर आए. मुन्नी बाई ने जाम पेश कर दिए. हसन के सीने पर सिर रखकर तिरछी आँखों से मानो उन्हें घायल-सी करती बोल उठी - "हम एक दूसरे में खोए हैं, फरीद को आपसे कोई दरेग ही नहीं है क्यों न सुलेमान को ताल्लुका सौंप देते हैं?"
"क्या कहा सुलेमान को?" - सीने से बोझ की तरह हटा है... हसन सूर ने चौंक कर कहा।
"आपने देखा नहीं सुलेमान का क्या कद निकल आया है। मसें भीग रही हैं, वह जवान हो रहा है। अभी से साथ रखकर सिखाएँगे तो आगे जागीर सँभालेगा।"
"आपका कहा ठीक है मुन्नी बाई, सुलेमान जवानी की दहलीज पर है घुड़साल के कारिंदे ने इतिल्ला की थी कि चेरो खातूनों को वह अक्सर छेड़ता है। शिकायतें आई हैं। आप उन्हें समझा दीजिएगा कि ऐसा न करें, ये चेरो बड़े खूँखार होते हैं। किसी राजा, जागीरदार की ताब न तो कभी सहा है न सहेंगे। इनसे मिल-जुलकर रहना हमारी हिफाजत के लिए ज़रूरी है।" - हसन सूर के उपर से मुन्नी बाई के इश्क का सुरूर उतर गया था। सुनकर मुन्नी बाई का मन भी बुझ गया। हसन सूर ने भाँप लिया।
"आप अपना मन छोटा न करें, हमने आपको आगाह किया है गौर फरमाइएगा। सुलेमान हमारा अजीज बेटा है। हम अपनी औलाद की हिफाजत के लिए ही यह सब कह रहे हैं। यह कोई अच्छी मिसाल तो नहीं पेश करेगा कि औरत की वजह से चेरो भड़क जाएँ वे हमारा बिगाड़ते क्या हैं? जंगल में रहते हैं हमें शहद और जड़ी बूटी पहुँचाते हैं। शिकार खेलने में मदद ही करते हैं।" - मुन्नी बाई ने कुछ न कहा। मुँह फेर कर सो गई. सबा बेगम की दासी बनकर आई थी उनके बच्चों की देखभाल करने। जाने सबा को कौन-सी दवा पिलाई कि वह बिस्तरे से लग गई और चल बसी. अधेड़ हसन सूर की ब्याहता बन गई लेकिन तौर तरीका अब भी ऊपरी बीवी वाला ही रहा। हसन सूर को अपने कब्जे में रखने का सारा हथकंडा अपनाती। अब बेटे को जागीर दिलाने पर आमादा थी। कभी किसी कामुक समय में हसन सूर ने कसमें खाई थीं कि तुम्हारे बेटे जवान होंगे तो परगने की कमान उनके हाथों में दे दूँगा। मुन्नी बाई उस लिजलिजे वक्त को पकड़ कर बैठी थी कि जागीर हाथ से न जाय।
जमाल खाँ ने अपने बेटे नसीब खाँ और फरीद को सूबा बिहार की ओर भेजा। फरीद सूर और नसीब खाँ दरियाये गंग के किनारे किनारे चल रहे थे। घोड़ों को पानी के लिए वे रुकते, उनका काफिला रुकता और वे तंबू लगाकर आराम करते। नसीब खाँ आराम करता पर फरीद खाँ दरिया किनारे रहने वाले गाँवों में घूमने चला जाता। गाँव के बाशिंदों से बात मुलाकात करता। उनके तौर तरीके, उनके खानपान, उनके सुख दुख की जानकारी लेता रास्ते में घने जंगल आए जिधर से रास्ता बनाकर चलना मुश्किलों भरा था। धूप गरमी और पानी की कमी से जूझना पड़ा। पटना तक पहुँचते पहुँचते फरीद ने देखा कि कहीं तो खुला आसमान है जहाँ सर पर कोई साया नहीं, खुद के तंबू गाड़ो तो रहो। कहीं जंगलात हैं जहाँ राहजनी का खुलेआम डर सता रहा था। चुनार का खूबसूरत परकोटा दूर से ही दिखाई पड़ने लगा था। नसीब खाँ की सलाह पर इनका काफिला चुनार से दूरी बनाकर चले रहा था। विंध्याचल की पहाड़ियों में जगह जगह मठ मंदिर दिखाई पड़े, नंग घडंग साधु संत, नजूमी फकीर मिले। अपनी आदत के अनुसार फरीद ने पड़ाव डालने के बाद झुंड में बैठे लोगों से उनकी सलामती पूछी।
"आप लोग यहाँ किस तरफ से आए हैं?"
"हम बहुत दूर पूरब से आए हैं। देवी पूजक हैं, दर्शन को आए हैं आप सैनिक जान पड़ते हैं साहेब?"
"हाँ, हम सिपाही हैं। कितने दिनों से निकले हैं घर से?"
"महीना भर तो हो गया।"
"रसद पानी लेकर चले क्या?"
"थोड़ा बहुत लेकर चले बाकी देवी की आस। राहजनी भी होती है सो धन लेकर चलना कठिन है साहेब। एक समय था जब लोग बाग फसलें काटकर घर से निकलते हैं। हमारे जैसे चंद जिद्दी लोग ही निकलते हैं अब।" -
एक व्यक्ति ने कहा, "आप सैनिक हैं और हमारी तरह के दिखाई पड़ते हैं इसीलिए कहते हैं, कई सूबे में जजिया के कारण भी गरीब लोग घर से नहीं निकल पाते। जिनके पास उतना धन हों वे ही तो निकलें तीरथ पर।" - दूसरे ने कहा।
"देखिए, तभी तो हम हरबे-हथियार लेकर तीरथ करने निकलते हैं कि लूट की न जाएँ।" - तीसरे ने कहा
"आपको नहीं पता होगा साहेब कि सुदूर जगन्नाथ की यात्रा दर्शन के लिए जाने वाले भक्त यात्री गाँव में अपना श्राद्ध खुद करके निकलते है कि लौटना हो पाएगा या नहीं। रास्ते भर गाते-बजाते माँग कर खाते बढ़ते जाते हैं।" - एक व्यक्ति ने कहा।
"आप सुनकर परेशान हो गए साहेब। सच्चे मुसलमान हैं, तभी तो हमारी बात सुनकर दुखी हो गए. जाइए सो जाइए आप भी। हम अपने भजन कीर्तन में लगें।" - एक वृद्ध ने कहा।
फरीद उठकर अपने काफिले की ओर चले - पीछे झाल-मृदंग और चिमटे बजाकर उन यात्रियों ने पहले देवी गीत गाए फिर जगन्नाथ यात्रा के गीत दुहराए
"जगरनथिए हो भाई, दानी सन अमरुक लोक जग में कोई ना
घर में घरनी रोवे भइया बाहर बूढ़ी माई
रस्ते रस्ते बहिनी रोवे, भइया तीरथ जाई
जगरनथिए."
- फरीद की पीठ पर स्वर लहरी की सहलाहट थी। इबादत की मुद्रा में बैठकर उसने अल्लाहताला से विनती की - "या परवरदिगार, मुझे हिम्मत बख्श, मेरे उपर अपनी इनायत बरसा। हमारे पुरखों के हाथों में मक्का शरीफ ले जाने को छड़ी बख्शी थी, हमारे पुरखों को कैस की पदवी दी थी, मेरे हाथों में एक छड़ी दे दे, हिंदोस्तान की बादशाहत दे दे हम दिखा देंगे कि कैसा होता है सच्चा मुसलमान।" - तारों भरे आसमान की ओर देखता रहा फरीद, कोई संकेत नहीं आया आसमान से, पर इबादत में उठे उसके हाथ भर गए इनायत से - वह कोई गैरमुनासिब ख्वाब देख रहा था? नहीं, कभी नहीं। खुली आँखों से ख्वाब देखने वाले, अपने कदमों को जमीन पर टिकाकर रखने वाले, सर अल्लाह की इबादत में झुकाने वाले ही राज करते हैं इसमें अचरज की गुंजाइश कहाँ है। तमाम तारीख भरा पड़ा है ऐसे किस्सों से कि कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता। "तुम देर रात गए पैर मोड़कर क्यों बैठे हो फरीद मियाँ?" - अचानक नींद से जगे नसीब खाँ ने देखा मशाल के झुटपुटे में कोई चुपचाप बैठा आसमान देख रहा है। वह फारिग होकर आया और फरीद को देखकर पूछ बैठा।
"मैं आसमान की ओर देखकर पाक परवरदिगार का शुक्रिया अदा कर रहा था कि उन्होंने हमारे पुरखों को हिंदोस्तान जैसे धनवान देश में भेजा। यहाँ अनाज, फल और आबदार नदियाँ हैं, मेहनती इनसान हैं तभी तो पश्चिम से हम मंसूबे बाँधकर आते हैं।" -फरीद ने गहरी आवाज में कहा।
"हिंदोस्तान की शहंशाही के ख्वाब देख रहे हो क्या?"
"ख्वाब देखे जा सकते हैं फिलहाल मुझे सहसराम जाना चाहिए. अगर रोहतास का किला, खवासपुर टाँडा सहित दोनों जागीरें अब्बा हुजूर मेरे हवाले करते हैं तब मैं दिखा दूँगा कि कैसे रियाया को खुश रखा जाता है कैसे अमन चैन से बसर की जा सकती है यह बेशकीमती जिंदगी।"
"तुम्हारे अब्बा को यह करना ही चाहिए. तुम उसके सबसे बड़े बेटे हो। तुम जहीन हो पढ़े लिखे हो, ताकतवर सिपाही हो तुमसे बढ़कर कौन होगा जो उनकी जागीर सँभाले।"
"उनकी मर्जी मेरे आका।" - इनकी बातचीत में कब सुबह हो गई पता ही न चला। कहीं दूर से अजान की आवाज सुनाई पड़ी तब ये वुजू कर बैठ गए नमाज पढ़ने। नाश्ते के बाद लश्कर उठाने का वक्त आ गया था कि झाड़ी में सरसराहट सुनाई पड़ी। हल्की फुफकार भी सुन रहे थे फरीद। घनी झाड़ी चीर कर आगे बढ़े तो देखा एक चूहे को भयंकर नाग ने पकड़ रखा था, उसकी पूँछ अब भी छटपटा रही थी पर यह क्या नाग खुद जुंबिश खा रहा था, उसे एक नेवले ने दबोच लिया था, उन सब के पीछे, तनिक हट कर एक सियार घात लगाए बैठा था। एक साथ यह नजारा देख फरीद सकते में आ गया। पैर पीछे हटाकर लौटने लगा कि एक धीमी इनसानी आवाज सुनाई पड़ी।
"आप लौट जाइए हुजूर, ये कभी भी पलट सकते हैं बड़े खतरनाक हैं - एक बहेलिया पेड़ पर चढ़ा तीर कमान साधकर बैठा था। फरीद हौले हौले कदम धरता बाहर निकल आया। दुनिया को बनाने वाले ऐ मेरे मालिक तेरी अदा ही निकाली है क्या हिसाब लगा रखा है अपने उपर कोई निशान नहीं छोड़ता। लाव लश्कर चल चुके थे। फरीद अपने घोड़े पर सवार हुआ। नसीब खाँ के साथ अनमने भाव से बातें करता बढ़ा जा रहा था। घनघोर जंगल से निकलकर चौड़े पाटवाली दरिया के किनारे किनारे चलने लगा। अगले पड़ाव तक आने पर चौकन्ना हो उठा। कहीं से आवाजें आ रही हैं।