अगर कविता में 'माने' न होते / गोपालप्रसाद व्यास
अगर कवि की कविता में अर्थ न हो, तो बहुत से अनर्थ होने से बच जाएं। जैसे भंवरों को रातभर कमलों में बंद रहना न पड़े। बेचारे राजहंसों को दूध और पानी अलग-अलग करने की परेशानी न उठानी पड़े। चकोरों को जबरन चिनगारियां न चुगनी पड़ें। चातकों को विरहिणियों का कोपभाजन न बनना पड़े। सृष्टि के ये महत्त्वपूर्ण प्राणी कविता से निकलने वाले विशिष्ट अर्थों के कारण पीड़ित हैं।
यह कविता से निकलने वाले अर्थ की ही कृपा का फल है कि शीतल चंदन अंग पर चर्चित होकर भी दाह उत्पन्न करता है। क्यारियों में महके हुए गुलाब अंगारों जैसे सुलगते हैं और पूर्णमासी का सुधावर्षी चंद्रमा अपनी किरणों से अमृत नहीं, गरल बरसाता है।
यदि कवि की कविता में अर्थ न हो तो फरहाद को शीरीं के लिए पहाड़ न काटने पड़ें। मजनूं को लैला के लिए पत्थर न खाने पड़ें। राम को सीता का पता खंजन, शुक, कपोत, मृग और मीनों से न पूछना पड़े और कृष्ण को राधा की ख़ातिर कभी सपेरा, कभी मनिहारिन, कभी फुलवा बेचने वाली न बनना पड़े। इतना ही नहीं, यदि कवि की कविता में अर्थ न हो तो हिंदुस्तान का टनों कागज, मनों स्याही और अपरिमित परिश्रम नष्ट होने से बच जाए। स्कूलों और लाइब्रेरियों में बहुत-सी अलमारियों का खर्च बच जाए। स्कूलों के बच्चे तो कविताएं रटने से बचें ही, अध्यापक भी उसके खींच-खींच कर अर्थ लगाने से बच जाएं। तब साहित्य का इतिहास भी इतना भारी-भरकम न रहे। समालोचकों का भी सिरदर्द हल्का हो ले। तब निश्चय ही संपादकों को कविताएं छाटंने में जो व्यर्थ समय गंवाना पड़ता है, उसकी भी बचत हो जाए।
फिर एक बड़ा काम और भी हो, सारा झगड़ा अर्थ का ही तो है। कविता से अगर अर्थ निकल जाए तो फिर संगीत और काव्य में जो बहुत दिनों से वर्गभेद चला आता है वह दूर हो जाए और ये दोनों समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर सही रूप से विकसित हो सकें। जब संगीत, कला, चित्रकला और मूर्तिकला बिना अर्थों के समाज में समादृत हो सकती हैं, तब काव्य-कला क्यों नहीं हो सकती?
वैसे यह बात है भी व्यर्थ कि कविता में अर्थ देखे जाएं। क्योंकि कविता कभी किसी को सीधे अर्थ देती भी नहीं। अब आप देखिए कि कविता जूही की कली पर है और अर्थ उसके कुछ के कुछ निकल रहे हैं। कविता लिखी हुई कुकुरमुत्तों पर है और लोग समझ रहे हैं कि इसका संबंध हमसे है। बात मधुशाला की कही जा रही है, अर्थ यज्ञशाला के लगाए जा रहे हैं। गीत पनघट पर है और व्याख्या वेदांत की हो रही है। जलाया आकाशद्वीप जा रहा है, अर्थ आशा-निराशा के झूले में झूल रहा है। इन सब बातों से सहज सिद्ध है कि कविता का वह अर्थ नहीं होता जो लगाया या बताया जाता है। असल में कविता का अर्थ वह होता है जो अक्ल में नहीं आता। जब अर्थ के साथ यह दिक्कत है तो क्यों व्यर्थ उसके चक्कर में पड़ा जाए? अच्छे कवियों ने कभी अर्थ की चिंता नहीं की या यों कहें कि वे कभी अर्थ के पीछे नहीं दौड़े, बेशक वे इसलिए महाकवि कहलाए कि लोग उनकी कविताओं के अर्थ नहीं लगा सके। छायावाद हिन्दी में इसीलिए हावी होगया कि लोगों से उनकी कविताओं के अर्थ नहीं निकलते थे। आज की नई कविता इसलिए विशिष्ट स्थान प्राप्त कर रही है कि उसके रचयिताओं का अर्थ के लिए आग्रह नहीं है। हिन्दी में अमृतध्वनि छंद उसे कहते हैं जिसका बड़े से बड़ा पंडित आज कोई अर्थ नहीं निकाल सकता। इसी प्रकार आधुनिक युग में हिन्दी की सबसे श्रेष्ठ कविता यह है-
अड़म बड़म धड़म्
धतड़म् धतड़म्, धतड़म्
बादल गरजा, ताशे बाजे
पैसे लेकर कविजी ने कवि-सम्मेलन में कविता पढ़ी, तालियां पिटीं, जनता हंसी या "कुन्देन्दु तुषार हार धवला" सरस्वती सिर धुनकर रह गई। अब आप ही बताइए यह कविता बुरी है? नहीं ! तो फिर बताइए इस कविता का क्या अर्थ है? अर्थ अगर समझ में नहीं आया तो क्या अनर्थ होगया? कविता का अर्थ से क्या संबंध? कविता कविता है, अर्थ अर्थ है। अर्थ होता है 'निगेटिव' और कविता तो 'पोजिटिव' है ही। अब अगर दोनों तार आपने एक साथ पकड़ लिए तो करंट लग जाएगा न?
तो हे पाठको, कविता के अर्थ को पकड़कर नाहक क्यों करंट खाते हो? यदि कविता में माने न हों तो चंद पुराने लोग भले ही कुछ तानें सुनाने लगें, वरना आनंद ही आनंद है। न लिखने वालों को कष्ट, न पढ़ने वालों को मुसीबत, न सुनाने वाले को परेशानी और न सुनने वाले को हैरानी।
आदमी आज अर्थ का दास बन गया है। धर्म, समाज और राजनीति तीनों ही आज अर्थ से दूषित हो चुके हैं। हमें साहित्य को, कम-से-कम काव्य को तो अर्थ के प्रमाद से बचा ही लेना चाहिए।
यदि कविता में अर्थ न हो तो इससे अधिक कुछ नहीं होगा कि फिर हर कोई कविता लिखने लगेगा और कुछ खास लोगों की 'मोनोपॉली' टूट जाएगी। हमारा निवेदन है कि 'मोनोपॉली' किसी भी क्षेत्र में हो, टूटनी ही चाहिए। जब ज़मीन किसी एक की नहीं रही, जब संपत्ति किसी एक के पास इकट्ठी नहीं हो सकती, तब कविता के उत्पादन का अधिकार भी किसी एक के पास कैसे सुरक्षित रह सकता है? जब हम देश की अर्थ-व्यवस्था को संतुलित और उदार करने जा रहे हैं, अर्थ का ठीक से मूल्यांकन और वितरण करने जा रहे हैं। तब हमें काव्य के अर्थ को भी दुरुस्त करना होगा।
यदि काव्य में अर्थ न हो तो उससे शायद एक और हानि होने की संभावना है। उसका कवि-सम्मेलनों पर शायद कुछ असर पड़े। अर्थात जो लोग अर्थ को समझकर सिर हिलाते हैं, वे सिर हिलाने की जगह मुंह बिचकाने लगें। लेकिन इससे कवियों को निराश नहीं होना चाहिए। हमारे देश में बिन समझे सिर हिलाने वालों की तादाद कुछ ज्य़ादा ही है। बहुमत तो एक वोट का भी जीत के लिए काफी होता है। यहां तो हजारों की संख्या में असमझ सराहने वाले हैं। आज कविता में अर्थ नहीं, तर्ज़ देखी जाती है। कला नहीं, गला देखा जाता है। शब्द नहीं, संगीत की सराहना होती है। अस्तु, कविता में अर्थ न होंगे तो युग-धर्म का निर्वाह ही होगा। समय के साथ तरक्की ही होगी। कल्याण ही होगा।