अगर ताजमहल में अस्पताल बन गया होता / गोपालप्रसाद व्यास

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ताजमहल और जो हो, प्रेम का प्रतीक, हरगिज नहीं है, क्योंकि आप किसी भी भले और बड़े आदमी से पूछ लीजिए, वह यही कहेगा-प्रेम पार्थिव नहीं होता। ताजमहल में तो पत्थर ही पत्थर हैं। ऐसा भी कहीं नहीं कहा गया कि लाल पत्थर क्रांति का और सफेद पत्थर प्रेम का प्रतीक होता हो, क्योंकि व्यवहार में देखा गया है कि गोरे-चिट्टे श्वेत रंग वालों में और चाहे जो गुण हों, प्रेम के कीटाणु उनमें प्रायः नहीं पाए जाते। अगर क्षमा करें तो मुझे आपसे एक बात और कहनी है। वह यह कि पति-पत्नी के बीच जो प्रेम की कल्पना करता है, उसके अक्लमंद होने में कम-से-कम मुझे तो संदेह है। प्रेम उड़ने वाले कबूतरों से तो हो सकता है, पर चौबीस घंटे, घर में विराजमान रहने वाली कबूतरी से नहीं। आप ही बताइए, जो सुबह-सवेरे चादर खींचकर बिस्तर से उठा दे, थोड़े से पैसे देकर ढेर-सा सामान लाने के लिए झोला पकड़ा दे, पैसे-पैसे का हिसाब ले और आने-आने के लिए जान दे, जो न चाय पीने दे, न सिनेमा देखने दे, न किसी से मिलने-जुलने दे, न लिखने दे, न पढ़ने दे, उससे कहीं प्रेम हो सकता है? लेकिन यह जो प्रेम नाम का पदार्थ है, वह हरगिज़ नहीं हो सकता। हमें मालूम नहीं कि बेचारे शाहजहां को मुमताज महल से कितना प्रेम था, क्योंकि महलों और हरमों की बातें बाहर ज़रा कम ही आती हैं। गरीबों के प्रेम के किस्से तो अफसाने बन जाया करते हैं, पर बड़े आदमियों के लिए मोहब्बत फसली आम की तरह हुआ करती है।

चूसा और गुठली फेंक दी। आम को निरखते रहना, उसकी तारीफ के पुल बांधना कि वह किस पेड़ का और किस बगीचे का है-उसके गुण गाना, अहा ! वह आम का वृक्ष कितना विशाल होगा? जिस मंजरी में से यह आम फूटा है वह कितनी महकी होगी? माली ने किस यत्न से इसको डाल से उतारा होगा? वह कितना ऊंचा कलाकार होगा? पाल ने किस ममता और स्नेह से इसे गदगदाया होगा। मंडी में आया होगा तो इसने किस तरह हजारों को ललचाया होगा? और वाह रे आम ! तू, तू ही है। अब ये हैं न बे-सिर पैर की बातें। आपको आम खाने से मतलब या पेड़ गिनने से? बड़े लोग मोहब्बत नहीं किया करते। उन्हें इश्क से नहीं, हुस्न से लेना होता है। वह सीरत पर नहीं, ज़रा-सी देर के लिए सूरत पर रीझते हैं।

और बीवियों की शक्ल- तौबा-तौबा ! सुबह-सुबह जमादारिन जैसी, दिन चढ़ते भटियारिन जैसी, दिन ढलते आम मुख्तयारिन जैसी और रात होते-होते सिंह सरदारिन जैसी। आप कहते हैं प्रेम। बेचारा पति जुबान तक तो खोल नहीं पाता, प्रेम क्या खाक करेगा? प्रेम करने के लिए मियां, डेढ़ हाथ का कलेजा चाहिए, सवा बालिश्त का भेजा चाहिए और चाहिए ढेर सारी फुरसत। अगर आप बीवी वाले हैं तो यह अच्छी तरह जानते होंगे कि शादी करने के बाद आदमी के भेजे और कलेजे वैसे ही गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सिर से सींग। बीवी इन तीनों में से एक चीज बेचारे शौहर के पास नहीं छोड़ती। आप फुरसत से टांगें फैलाकर बैठ तो जाइए घर में। वे लंतरानियां सुनाएगी कि होश हिरन हो जाएंगे। ज़रा भी रंगीनी जताइए तो घूर-घूरकर देखने लगेगी-यह आदमी इठलाता क्यों है? गाता-गुनगुनाता क्यों है? यह क्या किसी के चक्कर में है? काटो इसकी गांठ-'द्रव्येषु सर्वेवशः'। 'जिसके हाथ लोई, उसका सब कोई', 'पैसा नहीं है पास-मेला लगे उदास'। बीवियां अगर ठान लें तो रंगीनी तो रही दूर, मियां, शेव बनाने को ब्लेड भी मयस्सर नहीं हो सकता। इसलिए मैं नहीं मानता कि पति और पत्नी के बीच कभी प्रेम भी हो सकता है या मुमताज महल और शाहजहां के बीच भी कभी वैसा ही प्रेम रहा होगा, जैसा लैला-मजनूं, हीर-रांझा, सोहिनी-महिवाल, शीरी-फरहाद, ढोला-मारू के बीच रहा था। प्रेमी तो प्रिय के वियोग में आंसुओं का महल खड़ा करता है, पत्थरों को चुनने या चुनवाने की फुरसत उसे कहां होती है, ताजमहल शाहजहां के वैभव का प्रतीक है। यह भले ही सच हो, पर मैं नहीं कहता। यह उसकी यशलिप्सा का जीता-जागता उदाहरण है, ऐसा कहने में भी रुचि नहीं। मैं तो सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि ताजमहल और जो भी हो, प्रेम का प्रतीक नहीं। जब प्रेम का प्रतीक नहीं है तो क्यों प्रेमियों की सैरगाह के रूप में चालू रहने दिया जाए? क्यों वहां जाकर चांदनी रात में आहें भरें? और देख-देखकर ताज के सूने में एक-दूसरे को बांहें भरें? क्यों पुलिसवालों का काम बढ़ जाए। क्यों आगरा के गुंडों को शोहरत मिले? इससे तो अच्छा यह है कि ताजमहल में कोई अस्पताल खोल दिया जाए।

कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में अस्पताल खुल गया होता तो क्या होता? जब राष्ट्रपति भवन में नुमाइश लग सकती है, जब राजाओं के पुराने महलों में होटल और सरकारी दफ्तर खुल सकते हैं, जब आज की असूर्यपश्या मुमताज महल जैसी रानियां घर-घर जाकर वोट की भीख मांग सकती हैं तो ताजमहल में अस्पताल क्यों नहीं खुल सकता? जब मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बन गईं और मस्जिदों को तोड़कर मंदिर बना दिए गए तो आप नहीं चौंके। जब लोगों को दीवाने बताकर जेल भेजा गया और जेली बाद में मंत्री बन गए, आप नहीं अचकचाए। जब हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी और बनाकर मिटा भी दी गई, आपको कुछ नहीं हुआ। तब फिर ताजमहल को अस्पताल बनाने में आपको क्या हिचक है? कितनी बढ़िया जगह है ताजमहल। जमुना का किनारा, चारों तरफ बाग-बगीचों का नज़ारा। कदम-कदम पर चलता हुआ फव्वारा कि देखते-देखते तन-मन का सारा दुःख-दर्द दूर हो जाता है। ऐसी उपयोगी जगह को सिर्फ मौज-मजे़ के लिए और सैर-सपाटे के लिए खुला छोड़ देना हद दर्जे की मूर्खता है। आगरा में जब दिमाग के पागलों का इलाज हो सकता है, तो दिल के दीवानों का इलाज क्यों नहीं हो सकता? हमारी राय में ताजमहल को दिल के माकूल इलाज के लिए आज ही उपयुक्त करार दे देना चाहिए। कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में दिल के दर्द का इलाज चालू होगया होता तो देश के नौजवान और नवयुवतियों का कितना भला होता? कितनी विदेशी मुद्रा सरकार को इस अस्पताल से मिल गई होती? संसार में तब आगरा का नाम पागलखाने के लिए ही नहीं, आशिकों के इलाज के लिए भी मशहूर होगया होता।

आशिकों का इलाज ! हां, आशिकों का इलाज आज के समाज की बहुत जरूरी आवश्यकता है। हमारी सरकार मलेरिया के उन्मूलन पर करोड़ों रुपये खर्च करती है, लेकिन उसे पता नहीं कि मलेरिया मच्छरों से भी बड़ी तादाद आज हमारे देश में प्रेम के कीटाणुओं की है, लेकिन प्रेम के इन मच्छरों को पहचानने वाली खुर्दबीन अभी तक कहीं तैयार नहीं हुई। मलेरिया का बुखार तो तीन या पांच दिन में जाड़ा देकर उतर भी जाता है, मगर प्रेम का बुखार एक बार चढ़ा तो फिर उतरने का नाम ही नहीं लेता। उसे नष्ट करने वाली कोई कुनैन अभी तक नहीं बनी। यह मर्ज़ तो मरीज़ को लेकर ही जाता है।

देश के करोड़ों युवक-युवतियां वय प्राप्त होने से पहले ही प्रेम के कुंए में आंख मूंदकर कूद पड़ें। इश्क के जाल में फंसकर अपनी जान दे दें, दर्द से कलेजे को दबाए रहें, आसमान को आहों से गुंजाए रहें, सिसकियों से पड़ोसियों को जगाए रहें, आंसुओं से दामन तर-ब-तर बनाए रहें-यह किसी समाज के लिए, शोभा की बात है? जब पशुओं की बीमारी के लिए अस्पताल खुले हुए हैं तो प्रेमियों की बीमारी के लिए क्या कुछ नहीं हो सकता? जब संसार के हर रोग की दवा निकल आई है तो प्रेम के रोग की औषधि का आविष्कार नहीं हो सकता? कोई इस पर ध्यान दे तो, किसी को इस काम के लिए फुर्सत तो हो ! अजी, ये ऊंचे-ऊंचे बांध, बड़े-बड़े कारखाने, लंबी-चौड़ी योजनाएं सब बेकार हैं, अगर प्रेम के रोग का इलाज न हुआ तो इन्हें चलाएगा कौन? हमारे नौजवान तो इश्क की तपेदिक में पड़े जैसे-तैसे अपने बाक़ी जीवन की घड़ियां काट रहे हैं। कोई जीना ही नहीं चाहता। कोई इस पर मर रहा है, कोई उस पर जान दे रहा है।

जब सबने ही मरने की ठान ली है तो भाई मेरे, इन योजनाओं का क्या होगा? उनके दुःख को कौन झेलेगा? उनके सुख को कौन भोगेगा? इसलिए अगर देश को मज़बूत बनाना है, उन्नत करना है तो योजनाओं को अलग रखकर पहले प्रेम की बीमारी का इलाज करो। जैसे चेचक, हैजे या प्लेग के टीके निकले हैं, वैसे ही कोई प्रेम का नश्तर भी तलाश करो। जैसे बड़े-बड़े शहरों में अस्पताल खड़े हो रहे हैं, वैसे ही प्रेमियों के इलाज के लिए शफ़ाख़ाने खोलो। जब तक प्रेम के रोग की सफाई नहीं होगी, जब तक आशिकों की आह की दवाई न होगी, जब तक दिल के अनजान फफोले के लिए मरहम तैयार न होगा और जब तक प्रेमियों को रात में आठ घंटे खर्राटे भरने की सुविधा नहीं होगी, तब तक इस देश की दशा नहीं सुधर सकती।

ताजमहल प्रेमियों के इलाज के लिए बेहतरीन सेंटर बन सकता है। हमारा सुझाव है कि फिलहाल एक दर्जन प्रेमियों को परीक्षण के तौर पर ताजमहल में लाकर रखा जाए। ये बारह वर्ष से लेकर बासठ वर्ष तक की उम्र के हों। इनमें आठ प्रेमी तथा चार प्रेमिकाएं हों। इन प्रेमिकाओं को ताजमहल की चार सुर्रियों पर चढ़ा दिया जाए तथा एक-एक सुर्री के नीचे दो-दो प्रेमियों की खाटें बिछा दी जाएं। प्रेमिका ऊपर से कहे- 'हाय, मैं मरी' और प्रेमी नीचे से चिल्लाएं-' हाय, मैं चला।' प्रेमिका ऊपर से कहें-'एक नदी के दो किनारे मिलने से मजबूर'। प्रेमी नीचे से अलापे- 'तुम होकर मेरे पास, हाय कितनी हो मुझसे दूर'। सुर्री के नीचे ताला लगा दिया जाए और ऊपर जहां प्रेमिका खड़ी हो, वहां चारों ओर कांटेदार तार लगा दिए जाएं। प्रेमी के पैर चारपाई से बांध दिए जाएं और प्रेमिका के हाथ छतरी के खंभे से। पहले यह प्रयोग चौबीस घंटे के लिए किया जाए। इस बीच मरीज़ों को न खाना मिले, न पानी। उनसे कहा जाए कि हां, अब आहें भरो और ताजमहल को देखकर हिचकियां लो। ख़याल यह है कि चौबीस घंटे के इस उपचार से प्रेम के कीटाणु काफी काबू में आ जाएंगे। यदि इस डोज़ से लाभ न हो तो किसी एक प्रेमी और प्रेमिका के जोड़े का बिस्तर मुमताज महल और शाहजहां की कब्र की बगल में अलग-अलग लगा देना चाहिए और गुंबद के नीचे से उनसे कहना चाहिए कि हां, अब लगाओ आवाज़ें। एक कहे- 'हां, प्यारी'। दूसरा कहे- 'हां, प्यारे'। गुबंद से आवाज़ें टकराएं। नीचे लेटकर वही स्वर सुनाएं और नीचे फिर सदाएं जाएं-'हे प्यारी, हे प्यारे'। ये नज़ारे पूरे आठ घंटे तक चलने चाहिए। डॉक्टरों को पूरी हिदायत रहे कि रोगी कहीं आवाज़ लगाना बंद न कर दे। कहीं पानी न मांग जाए। हमारा विश्वास है, यह दूसरी डोज़ प्रेमियों के दिमाग को दुरुस्त करने में मुफ़ीद साबित होगी। लेकिन अगर बीमारी तीसरी स्टेज पर पहुंची हो तो उसका तीसरा इलाज इस प्रकार होना चाहिए। वह यह कि दोनों प्रेमी-प्रेमिका के बिस्तर ताजमहल की दोनों दिशाओं में लगा दिए जाएं- और उनसे कहा जाए कि वे दिन में ताजमहल के पत्थरों और रात में उनमें जड़े हीरों को गिना करें और सुना करें दिन में कौवों और रात में उल्लुओं की आवाज़ें, और जमुना-पार के गीदड़ों का शोर जो उन्हें प्रेम-डगर में 'वन्स मोर' करने से अवश्य ही खींच लाएगा और वे अपने वार्डरों से कह उठेंगे-"नो मोर, प्लीज नो मोर। हम प्रेम से बाज आए। भाड़ में जाए शाहजहां और ऊपर से उनकी मुमताज महल। हम प्रेम नहीं, काम करना चाहते हैं। मरना नहीं, जीना चाहते हैं। लेकिन इस पर भी किसी प्रेमी की अक्ल ठिकाने न हो तो उसे ताजमहल से कुछ दूर बिल्लोचपुरा में पागलखाने में तब तक के लिए भेज देना चाहिए, जब तक वह प्रेम के लिए दोनों कान पकड़कर तौबा न कर ले !

इसलिए हमारी समझ से ताजमहल को केवल पुरातत्व की विशेष कलाकृति मानकर, उसे संसार का आठवां आश्चर्य जानकर, उसको सींचे-सहेजे जाना ठीक नहीं। उसका जनता के लिए उपयोग होना चाहिए। यदि वास्तव में प्रेम की समाधि है, तो यहां प्रेमियों का इलाज होना चाहिए। अगर यह शाहजहां और मुमताज महल के प्रेम का प्रतीक नहीं है और सिर्फ मुमताज महल की आकस्मिक मौत और शाहजहां की बेबसी का नमूना है तो हर माशूका को यहां आकर अपनी मौत और हर आशिक को यहां आकर अपनी बेबसी का अहसास करना चाहिए। हमारा ख़याल है कि अगर प्रेम के रोग में माशूक को अपनी मौत और आशिक को अपनी बेबसी का ठीक-ठीक अहसास हो जाए, तो सौ में से निन्यानबे तक इस प्रेम के चक्कर में से निकल सकते हैं। ताजमहल नवयुवकों और नवयुवतियों के लिए यह शिक्षा और यह सुविधा सहज ही प्रदान कर सकता है। इसीलिए हमें ताजमहल को प्रेम-रोग के उपचार का एक अंतर्राष्ट्रीय अस्पताल बना देना चाहिए।

कल्पना कीजिए कि अगर ताजमहल में ऐसा अस्पताल खुल गया होता तो क्या होता? तब ताजमहल में कुछ दूसरे ही नज़ारे होते। वहां की नक्काशी के कुछ और ही इशारे होते। यहां के पेड़-पौधों, लता-कुंज, गुंबदों-मीनारों का कुछ अलग ही इतिहास होता। वहां के पंछियों की बोली बदल गई होती और उसे देखने को फारेन एक्सचेंज' यानी विदेशी मुद्रा भारत में खिंची चली आती। खोजी लोगों के दल तब हिमालय में यति ढूढ़ते ही नहीं, ताजमहल में सच्चे प्रेमी को तलाश करने के लिए अपने-अपने घरों से निकल पड़ते। चिकित्सा-शास्त्र में तब एक नया अध्याय जुड़ जाता। मनोविज्ञान के प्रेम-तत्त्व की पहली प्रयोगशाला के रूप में ताजमहल की दुनिया में ऐसी ख्याति फैलती कि संसार के वैज्ञानिक अंतरिक्ष की यात्रा भूलकर, भारत की यात्रा को उड़ पड़ते। कहते कि चंद्रमा में क्या रखा है। चंद्रमुखियों के मन की पर्तों तक पहुंचने की कोशिश की जाती। मंगल में पहुंचने तक आपस में दंगल क्यों किया जाए? जिन्होंने अपने जीवन को भरी जवानी में जंगल बना लिया है, उन प्रेमियों के दिल तक पहले पहुंचा जाए। संसार की संहारक शक्ति का ध्यान तब अणुबम से हटकर प्रेमनाशक कीटाणुओं या प्रेमवर्धक दूरमारकों की ईज़ाद में लगता-यानी दुनिया का नक्शा ही बदल गया होता। यानी आदम के बेटे को मिटाने के लिए ही नहीं, उसके कलेजे में कैंसर की तरह बढ़ते प्रेम के नासूर को कुरेदकर फेंकने के लिए तत्पर हो उठते। भले ही उन्हें इसके लिए खुद किसी के प्रेमपाश में फंस जाना पड़ता। क्योंकि महाकवि ग़ालिब के शब्दों में-

इश्क पर ज़ोर नहीं, है वह आतिश ग़ालिब।

जो लगाए न लगे और बुझाए न बने॥

पर लगाना और बुझाना तो तब होता, जबकि ताजमहल में अस्पताल बन जाता। अभी तो उसमें न ताज है, न महल, फालतू लोग वहां बेकार चहल-पहल किया करते हैं। दुनिया आज से भी ज्यादा मचल गई होती। लोग तब पत्थरों को देखने नहीं आते, वे देखने आते नवीनतम-कोमल प्रेमियों को और पत्थर-दिल प्रेमिकाओं को। वे सोचते, हमने कलकत्ता के चिड़ियाघर में गैंडा देखा है, दिल्ली में भालू के दर्शन किए हैं। लखनऊ का मुर्गा भी खूब है। अब चलो, ताजमहल में चलकर उस जंतु को भी देख आएं जिसे लोग 'प्रेमी' कहते हैं। सुनते हैं उसके भी आदमियों के-से हाथ-पैर हैं। आंख-कान हैं। मुंह-बोली है। पर उसका आचरण- देखकर भी नहीं देखता। सुनकर भी नहीं सुनता। उसे न सुध है न बुध। न उसे पागल कहा जा सकता है, न आदमी। न उसे रोगी कहा जा सकता है, न स्वस्थ। क्या अज़ब बात है, उसके रोने और गाने में कोई फर्क ही नहीं है।

ऐसे जंतु विशेष को देखने के लिए देश क्या, दुनिया उमड़ पड़ती। टिकट लग जाता। सरकार की आय बढ़ जाती।