अगर वो उसे माफ़ कर दे / अर्चना पेन्यूली

Gadya Kosh से
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मीठी नींद के झोंको में रेखा ने सहसा महसूस किया कि दरवाज़े की घंटी बज रही है। हल्के से आँखे खोली और सामने रैक पर रखी डिजिटल घड़ी में समय देखा - पौने पाँच हो रहे थे। यह इतनी सुबह कौन घंटी बजा रहा है? सुखद, गुदगुदे बिस्तर पर सुबह की नींद का मज़ा ही कुछ और है, फिर आज रविवार भी है, सोचते हुए वह अलसायी-सी लेटी रही। दरवाज़े की घंटी निरंतर बजती गई - हरेक बार और अधिक तेज़ी से। अंतत: वह बिस्तर से उठी। अपने कमरे से निकल कर गेलरी में आई। बगल के कमरे में यों ही झाँका- ईशा निश्चिंत सो रही थी। कौन होगा दरवाज़े पर? दूध वाला या फिर बाई...। मगर इतनी सुबह...। असमंजस से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और जितनी भी चिटकनियाँ लगी थी, खोल दी।

सामने सी.आर.पी.एफ़. के दो ऑफ़िसर गंभीर भाव लिए, विमूढ़ से खड़े, हाथों में केप। रेखा ने हैरत भरी प्रश्नात्मक दृष्टि से उन्हें देखा। जवाब में उनके आँखों में आँसू उमड़ आए। “रवि. . .ठीक तो है न?” वह बौखलाई-सी बोली। उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली। आँसू बंद आँखों से बह कर गालों में धुलकने लगे। दर्द की कई रेखायें उनके चेहरों पर उभर आई। “क्या हुआ रवि को?” रेखा चीखी।

कमांडर पंत ने आगे बढ़ कर रेखा का कंधा पकड़ लिया। उनके साथ सुपरिंटेंडेंट कमांडर गुप्ता भी आगे बढ़ आए। “मैडम. . .रवि. . .हमारे बीच नहीं. . .। कल रात बोडो आतंकियों ने रवि को. . .” “हा-आ. . .” एक दर्दनाक चीख रेखा के कंठ से निकल गई। खुले मुँह पर हाथ चला गया। पुतलियाँ विस्मय से फैल गई। वह गिरने-सी होने लगी कि पंत व गुप्ता ने उसे सँभाल लिया। उसे सँभालते हुए दोनों ड्रांइगरूम में आए। रेखा की दबी आवाज़ अब वीभत्स चीख़ों में बदल गई थी। ईशा अपने कमरे से उठ कर आँखे मलते हुए ड्राइंगरूम में आई। सी.आर.पी.एफ़. अधिकारियों के बीच अपनी माँ को रोते-बिलखते देख एक पल के लिए उसका माथा ठनका। फिर उसने भी पूछा, “क्या हुआ पापा को?” जवाब में रेखा की चीख़ें और प्रबल हो गई। पंत और गुप्ता भी अपने आँसू पोछने लगे। “नहीं. . .नहीं. . .” ईशा चिल्लाई। “पापा को कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने का वादा किया था। वो मर नहीं. . .” बुदबुदाते हुए वह नीचे फ़र्श पर लुढ़क गई।

पंत और गुप्ता रेखा को छोड़ कर ईशा को सँभालने लगे। ख़बर ने उसे बेहोश कर दिया था। “मैडम, आप रोना छोड़िए और बेटी को सँभालिए,” पंत बोले। मगर रेखा चेहरे को हथेलियों से ढक कर करुण क्रंदन करती रही। पंत व गुप्ता के चेहरों पर परेशानी के भाव और अधिक उमड़ आए। ईशा को उठा कर दीवान पर रखा व उसके मुख पर ठंडे पानी के छींटें मारे मगर उसकी बेहोशी नहीं टूटी। तत्काल डाक्टर को घर बुलाना पड़ गया।

डाक्टर ने ईशा की पल्स देखी, ब्लडप्रेशर चैक किया, इंक्जेशन उसे लगाया। एक तरफ़ निर्लिप्त बैठी रेखा से बोला, “आपकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अपने ग़म को भूला कर बेटी को सँभालिए। पिता की मौत का गहरा सदमा लगा है उसे। किशोर अवस्था. . .। ऐसे में अगर आपने भी उसे सहारा नहीं दिया तो. . .।”

चेहरे से हथेलियाँ हटा कर रेखा ने ईशा के सुंदर व मासूम चेहरे की तरफ़ देखा। बेहोशी में डूबी हुई उसकी लंबी व छरहरी देह। रवि से उसे बहुत लगाव था। तीन दिन बाद उसका पंद्रहवा जन्मदिन था और रवि ने घर पहुँचने का वादा किया था। जैसी-तैसी जगह, चाहे कितनी भी संवेदनशील पोस्टिंग में रवि रहा हो ईशा के जन्मदिन पर वह अवश्य घर पहुँचता था।

रेखा को अपनी बेटी पर तरस आने लगा। किशोर अवस्था की नादान आयु में ही पिता से वंचित हो गई। रेखा को अपनी किशोरावस्था का समय सहसा याद आ गया । कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है। वह भी सिर्फ़ पंद्रह साल की थी जब उसके पिता हार्ट अटैक से अकस्मात गुज़र गए थे। कैसा थरथराता प्रतीत हुआ था सब। पिता का वजूद बेटी के जीवन में सबसे सबल रिश्ता होता है उसका ज़िंदगी से मिट जाना। ख़ैर उसके दो बड़े भाई थे, जिनका साया उसके लिए पिता से भी बढ़ कर था। ईशा का तो कोई भी नहीं- न भाई न बहन। “ओह भगवान” सिहरते हुए रेखा ने ईशा को भींच लिया। उसके स्वयं के लिए भी अब ईशा के सिवाय कौन रह गया है? “यहाँ दिल्ली में आपके रिश्तेदार वगैरह कोई हैं?” कमांडर पंत पूछ रहे थे। “मेरे भाई व माँ यहाँ बसंत कुंज में ही रहते हैं। मगर इस वक्त वे सभी बद्रीनाथ की तीर्थ यात्रा पर गए हुए है। परसों तक पहुँच जाएँगे। परसों यहाँ सभी को पहुँचना था, रवि को भी। तीन दिन बाद ईशा का जन्मदिन है।” हताशा में वह फिर से विलाप करने लगी। “नहीं, नहीं मैडम, खुद को सँभालिए,” पंत ने उसे विलाप करने से रोका। “ईशा की ख़ातिर खुद को सँभालिए,” गुप्ता बोले। रेखा ने अन्यमनस्क हो एक पल उन्हें देखा, फिर ईशा को और अपने आँसू पोछने की चेष्टा की। स्थिति उसे पति की मौत पर रोने भी नहीं दे रही थी। बेटी के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का बोध एकाएक उसे बहुत अधिक भारी लगा।

पूरा दिन ईशा दीवान पर बेहोश-सी लेटी रही। ग्लूकोज़ उसे लगाना पड़ गया था। कितने ही लोग रेखा के पास अफ़सोस प्रकट करने आ रहे थे। किसने उन्हें ख़बर दी, उसे नहीं मालूम। पंत व गुप्ता किससे खाना बनवा कर उनके लिए लाए, उसे कुछ मालूम नहीं। वह बस लगातार ईशा के बगल में खामोश बैठी उसे चढ़ती ग्लूकोज़ की बोतल को निहारते हुए रवि के संग बिताए दिनों की यादों में खोई रही।

शाम को जब ईशा की बेहोशी टूटी तो इस दारुण क्षणों में भी खुशी की हल्की लकीरें उसके चेहरे पर छा गई। “पापा?” ईशा बोली। वह ईशा का मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से बोली, “तेरे पापा एक वीर व साहसी इंसान थे। उन्होंने आसाम में बोडो आतंकवादियों का सामना करते हुए अपनी जान दी है। वो देश के लिए शहीद हुए है बेटा। लोग शहीदों की मौत पर गर्व किया करते हैं, अफ़सोस नहीं,” कहते हुए वह उठी और रसोई में जाकर चाय बनाई। खुद भी पी और बेटी को भी पिलाई। “चल, उठ ईशा नहा-धोले,” वह उसे पुचकारते हुए बोली। “तेरे पापा को सुस्ती कभी पसंद नहीं आती थी।”

पापा का नाम सुनकर ईशा उठ गई। दोनों माँ-बेटी ने ब्रश किया, नहाए और कपड़े बदले। घर में एकाएक कुछ पलों के लिए सन्नाटा छा गया था। अफ़सोस प्रकट करने वालों का ताँता थम गया था। पंत व गुप्ता न जाने कहाँ ग़ायब हो गए थे। “तेरे पापा का पूरे देश में गुणगान हो रहा होगा। ख़बरों में उनकी बहादुरी के विषय में बताया जा रहा होगा। गर्व कर तू खुद पर कि तू ऐसे पिता की संतान है। वो एक महान इंसान थे। तू बेटा अपने पिता की तरह बनने की कोशिश करना बहादुर और निडर,” ईशा को प्रेरित करते हुए रेखा ने टीवी ऑन किया और ख़बरों वाला चैनल लगा दिया। अधिकतर ख़बरें अभी हाल में हुए चुनाव के ऊपर थी। फिर इधर-उधर की कुछ अन्य सामान्य ख़बर बताई गई। अंत में ख़बर संवाददाता ने कमांडर रवि शर्मा का नाम लिया तो रेखा व ईशा के दिलों की धड़कने बढ़ गई। एकटक स्क्रीन पर नज़रें गड़ाए सुनने लगे। वर्दी पहने हुए रवि की तस्वीर स्क्रीन पर उभरी तो रेखा व ईशा की थमी सिसकियाँ एक बार फिर उमड़ गईं।

“कमांडर रवि शर्मा की कल रात अज्ञात कारणों से बड़े रहस्यमय तरीके से हत्या हो गई है। कहा जाता है कि बोडो संगठन की एक महिला आतंकवादी रेशमा से उनके नाजायज़ संबध थे। दो साल से रेशमा कमांडर शर्मा की रखैल बन कर रह रही थी. . .” रेखा व ईशा ने एक-दूसरे को अवाक देखा। मुँह दोनों का आश्चर्य से फिर खुल गया। इतने में कमांडर पंत कहीं से कमरे में प्रविष्ट हुए। टीवी बंद करते हुए दुखी स्वर में बोले, “क्यों सुन रहे हो यह ख़बर?” मगर ख़बर संवाददाता का बोला वह वाक्य उनके कानों में पड़ गया- “कहा जा रहा है कि कमांडर शर्मा से रेशमा को एक बच्चा भी है. . .।”

रेखा ने अपना सिर पकड़ लिया। सभी कुछ सांय-सांय करने लगा था। पति की मौत की ख़बर ने उसे इतना दहलाया नहीं था जितना कि इस ख़बर ने दहला दिया था। रवि के किसी अन्य महिला से जिस्मानी संबंध. . .इतना ही नहीं उससे औलाद भी, इतना बड़ा विश्वासघात उसके साथ? रेखा को सहसा सभी कुछ अंजान व अजनबी प्रतीत होने लगा। यहाँ तक कि खुद का वजूद भी एक भ्रम लगने लगा। यह बात उसके सामने अब स्पष्ट थी कि रवि केंद्रीय रिज़र्व पुलिस कर्मचारियों की आतंकवादियों के साथ होती मुठभेड़ में नहीं मरा था। न वह देश के लिए शहीद हुआ था। एक आतंकवादी गिरोह की महिला से नाजायज़ संबंध होने के कारण किसी दूसरे आतंकवादी गुट ने आपसी रंजिश में उसकी जान ले ली थी। “मेरे पापा के कोई और बच्चा नहीं है, सिर्फ़ मैं ही हूँ,” कहते हुए ईशा बिस्तर पर फिर लुढ़क गई थी। कमांडर पंत उसे फिर सँभालने लगे थे. . .। सभी कुछ इतना सहमा लग रहा था कि जैसे बम विस्फोट उनके घर में ही हुआ हो और वह सब वहाँ लाशें बन गए हो।

कमांडर पंत अब रेखा से नज़रें चुराने लग गए थे। रवि की हरकतों ने संभवत: सी.आर.पी.एफ. के सभी कर्मचारियों के चेहरों पर शर्म का धब्बा लगा दिया था। थोड़ी देर में उनके मातहत गुप्ता भी पहुँच गए, साथ में उनकी पत्नी भी थीं। दोपहर का खाना रसोई में अभी अनछुआ पड़ा था और उनकी पत्नी फिर खाना बना कर ले आई थीं। एक प्लेट पर खाना परसते हुए मिसेज़ गुप्ता बोलीं, “रेखा जी, कुछ खाइए। अभी बहुत कुछ आपको सँभालना है।”

रेखा को लगा जैसे वह कह रही हैं कि अभी बहुत कुछ आपको और देखना है। ताक़त रखिए झेलने की। मिसेज़ गुप्ता की ज़िद से रेखा ने थोड़ा-सा दाल का सूप पी लिया, जबरन एक फुलका गोभी की सब्ज़ी के साथ भी खा लिया। ईशा ने कुछ भी खाने से स्पष्ट इनकार कर दिया। विस्फारित नज़रों से वह सभी को देख रही थी। माँ से अधिक भौंचक्की बेटी थी। रात तकरीतबन बारह बजे एक वैन घर के आगे रुकी। रेखा की माँ, भाई व उनकी पत्नियाँ घबराए हुए से घर में दाखिल हुए। बौखलाई नज़र से उन सभी ने रेखा व ईशा को देखा। ऑफ़िस के लोगों ने उन तक सूचना पहुँचा दी थी जिससे वे अपनी तीर्थ यात्रा स्थगित करके आ गए थे। उनको देख कर रेखा की जान में जान आई। भाइयों की बीवियाँ ईशा की तरफ़ बढ़ीं, भाई व माँ रेखा की तरफ़। माँ रोते हुए बोली, “यह क्या हो गया रेखा? मेरी तरह तू भी विधवा. . .।”

कमांडर पंत, गुप्ता व उनकी पत्नी अपने दायित्व को समझते हुए रेखा के पास ही थमे हुए थे। अब वहाँ परिवार के लोग पहुँच गए तो लगा कि एक राहत दल पीड़ित स्थान पर पहुँच गया है। उनकी ज़िम्मेदारी ख़तम। उन्होंने वहाँ से विदा ली।

एक दबी हुई खामोशी, एक असहजता वातावरण में। सभी लोग बुरी तरह चकित अचंभित। रेखा का बड़ा भाई, विनोद चुप्पी तोड़ते हुए बोला, “हमें रवि के विषय में सभी कुछ पता चला। उस लड़की रेशमा से उसके संबंध. . .। तुझे क्या कभी उस पर शक नहीं हुआ?” पूछते हुए उसके चेहरे पर एक झुंझलाहट थी। रेखा ने इनकार में गर्दन हिलाई। छोटा भाई, राकेश बोला, “कुछ तो कभी. . .। कालाइगाँव से कभी कोई ऐसा फ़ोन. . .या तूने कभी वहाँ फ़ोन किया हो तो किसी औरत का स्वर. . .?” रेखा को सहसा ध्यान आया कि वह कभी खुद रवि को फ़ोन नहीं करती थी। कालाइगाँव, आसाम वह लगभग तीन साल पहले पोस्ट हुआ था। हमेशा वह ही उन्हें फ़ोन करता था। यह नियम उनके बीच हमेशा बना रहा था। जब भी उसकी संवेदनशील इलाकों में नियुक्ति होती थी, फ़ोन हमेशा वह ही किया करता था। आज यहाँ, कल वहाँ के चक्कर में उसके अतेपते का तो रेखा को ख़ास पता ही नहीं रहता था।

समय कितना भी जटिल हो, बीत जाता है। रवि का गोली दगा शरीर ताबूत में दिल्ली पहुँचा। उसकी अंत्येष्टि हुई और अन्य धार्मिक रस्में भी। रेशमा से उसके कैसे ही संबंध रहे हो मगर उसकी वैध पत्नी रेखा थी, कानून व समाज दोनों की नज़र में। उसकी मौत का मुआवज़ा, पेंशन, संपत्ति आदि सभी पर सिर्फ़ रेखा का हक था। मगर लोग खुल कर उसे सांत्वना नहीं दे पा रहे थे। वह खुल कर रो भी नहीं पा रही थी। रवि के रेशमा से संबंधों की चर्चा उसके सभी परिचितों के बीच बड़ी ज़बरदस्त तरह से हो रही थी। उसके कॉलेज, जहाँ वह अर्थशास्त्र की लैक्चरर थी, के स्टाफ़ के लोग भी इस संदर्भ में परस्पर खुसर-पुसर करते थे। मीडिया ने काफ़ी खुल कर इसका प्रचार कर दिया था। सभी की बेधती, खामोश दृष्टि उससे पूछ रही थी कि क्या उसे अपने पति पर कभी शक नहीं हुआ?

'नहीं, नहीं,' उसे कभी अपने पति पर कोई शक नहीं हुआ। कालाइगाँव जब से रवि पोस्ट हुआ था, तीन साल के दरमियान वह छ: बार दिल्ली घर आया था। उसे ज़रा भी चेतना नहीं हुई कि उसका पति कहीं कोई गुपचुप प्रेम संबंध बना रहा है। वह अचरज करने लगी कि अपने ये क़रीबी लोग कितनी ही बातें हमसे गोपनीय बनाए रखते है। एक दशक से अधिक समय रवि के साथ गुज़ारने के बावजूद वह उसे कितना कम जानती थी, कहीं उसकी बेटी भी उसे किसी धोखे में तो नहीं रख रही. . .? अपनों से उसका विश्वास उठने लगा था।

रवि से हुई अंतिम मुलाक़ात का स्मरण रेखा ने कई बार किया। उस सुबह वर्दी पहने उसने बड़े सामान्य तरह से उससे व ईशा से विदा ली थी। कहा था कि कालाइगाँव में पोस्टिंग के सिर्फ़ कुछ ही महीने शेष बचे है। अगली पोस्टिंग वह हेड क्वार्टर दिल्ली की लेगा। ईशा का हाई स्कूल का बोर्ड है। वह घर में रह कर ईशा को गाइड करना चाहता है। उसने यह भी कहा था कि उसकी ले-दे कर एक ही तो बेटी है। ईशा के जन्मदिन में वह ज़रूर घर पहुँचेगा।

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क्या वजहें थी कि रवि ने किसी दूसरी औरत से प्रेम संबंध बनाए? इस अफ़वाह में कितनी सच्चाई है? क्या रेशमा नामक कोई औरत वास्तव में अस्तित्व रखती है? प्रश्न रेखा के मस्तिष्क पटल पर कोलाहल मचा रहे थे। फिर एकाएक उसने एक निर्णय ले लिया - कालाइगाँव जाकर अपनी आँखों से सभी कुछ देखने का। कमांडर पंत को उसने फ़ोन किया। “मैं कालाइगाँव उस जगह जाना चाहती हूँ जहाँ रवि रहते थे।” “अरे मैडम, आप इन किन चक्करों में. . .।” “नहीं,” रेखा ने कमांडर पंत को आगे कहने से रोक दिया। “मेरे लिए वहाँ जाना बहुत ज़रूरी है। तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।”


कमांडर पंत ने रेखा का जोरहाट तक एयर टिकट बुक करवा दिया। जोरहाट से बस द्वारा उसे कालाइगाँव पहुँचना था जहाँ अरबिंदा उसे लेने आने वाला था। वह आसामी युवक रवि का ड्राइवर था। रेखा जैसे ही बस से उतरी चपटी नाक वाला अरबिंदा उसके नाम का पोस्टर लिए उसकी प्रतीक्षा में खड़ा था। वह चुपचाप उसकी तरफ़ बढ़ी। वह जीप से उसे सी.आर.पी.एफ़. के गेस्ट हाउस में ले आया। रेखा स्नान वगैरह करके तरोताज़ा हुई। मेस में जाकर थोड़ा खाना भी खाया। तत्पश्चात अरबिंदा से बोली, “तुम रेशमा को जानते हो?” उसने सहमति में गर्दन हिलाई। “मुझे उसके घर ले चलो। जानते हो न उसका घर?” सहमति में गर्दन हिलाते हुए हल्के से बोला, “जीप में बैठिए, मैडम।” जीप चलाते हुए वह अपनी टूटी हिंदी में बोला, “भौत दूर है साब की उन घरवाली का घर. . .। शहर के दूसरे कोने में।” रेखा के दिल में हठात एक स्पंदन हुआ। अरबिंदा रेशमा को रवि की घरवाली मानता था। 'ओह किस्मत क्या-क्या दिन दिखाने थे. . .' वह बुदबुदाई। फिर ख़ामोश वह खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी। कितना भिन्न प्रतीत होता है अपने देश का यह भूभाग। यहाँ के लोग, भाषा सब कुछ कितना अलग है। ऐसा लगता है जैसे हम किसी दूसरे द्वीप में पहुँच गए हों। एक कसक-सी उसके दिल में उठने लगी कि वह कभी रवि के जीवनकाल में इधर क्यों नहीं आई। दिल्ली में रहते हुए वह सोचा करती थी कि हिंदुस्तान बस उसके आसपास की दुनिया है। लेकिन नहीं हिंदुस्तान में तिब्बत, मणीपुर अरुणाचल प्रदेश ऐसे कई इलाके हैं जो आज भी देश की मुख्य धारा से एकदम विलग हैं।

जीप शहर के भीड़-भड़क्के से दूर किसी ग्रामीण इलाके की सुनसान सड़कों पर दौड़ने लगी थी। सुरम्य प्रकृति व सरसराती निस्तब्धता। रेखा विचारों की उधेड़बुन में थी कि एक सुंदर उपवन के बीच बनी कॉटेज के सामने अरबिंदा ने जीप रोक दी। रेखा ने कॉटेज को निहारा - हरे पेड़ों से घिरी छोटी-सी कॉटेज सुंदरता का प्रतीक थी। एक अजनबीपन रेखा को डस गया। फिर भी वह कॉटेज की तरफ़ बढ़ी। “मैं आऊँ, मैडम?” अरबिंदा ने पूछा। “नहीं तुम यहीं इंतज़ार करो,” वह बोली और आगे बढ़ ली।

ज़िंदगी भी अजीब क्षणों को लेकर आती है. . .। दरवाज़े के पास वह काफ़ी देर तक खड़ी रही, हिम्मत ही नहीं हो रही थी खटखटाने की। अंदर से किसी शिशु के रोने की आवाज़ आ रही थी। इतनी दूर आकर वह रेशमा से बिना मिले तो जाएगी नहीं, सोचते हुए उसने हल्के हाथों से दरवाज़ा थपथपाया। एक औरत ने दरवाज़ा खोला, गोदी में कुछ माह के शिशु को पकड़े। जैसे ही उस औरत ने रेखा को देखा, विस्मय के भाव उसके चेहरे पर प्रकट हुए, फिर वह एकाएक दरवाज़ा बंद करने लगी। रेखा ने तुरंत दरवाज़ा पकड़ लिया।

उस औरत ने ज़्यादा ज़ोर नहीं लगाया, बल्कि झिझक कर पीछे हट गई। रेखा दरवाज़ा धकेल कर अंदर दाखिल हो गई। सामने दीवार पर उसे अपनी सास की बड़ी से फ़ोटो टँगी नज़र आई। फ़ोटो पर बनावटी फूलों का एक बड़ा-सा हार भी टँगा था। रेखा ने घूर कर अपनी सास की तस्वीर को देखा। पिछले साल ही उसकी सास का देहांत हुआ था। उसने अपने घर में सास की कोई फ़ोटो कभी नहीं टाँगी। उसकी अपनी सास से ऐसे संबंध ही नहीं थे। मगर रेशमा के घर में टँगी सास की मुसकुराती तस्वीर रेशमा से उनके संबंधों को बयाँ कर रही थी।

रेखा ने कमरे में दृष्टि दौड़ाई। पूरा कमरा केन की वस्तुओं से सजा था। लकड़ी के कैबिनेट पर रवि व रेशमा की प्रेम मुद्राओं में खिंची तमाम तस्वीरे सजी थी। एक फ़ोटो में रवि, रेशमा और उनका बच्चा, जो कि रवि की गोद में था। यह फ़ोटो एकदम नई होगी, क्योंकि बच्चा जो अब रेशमा की गोदी में था मात्र दो-तीन महीने का लग रहा था। ईशा की भी फोटो लगी थी। वहाँ सभी के फ़ोटो मौजूद थे, सिर्फ़ रेखा की छोड़ कर। रेशमा एक तरफ़ दूर खड़ी थी, गोदी में अपना बच्चा पकड़े। “बैठो,” रेखा ऐसे बोली जैसे वह उसका घर हो और रेशमा उसकी मेहमान हो।

झिझकते हुए रेशमा उसके सामने बैठ गई। काले रेशमी बाल, गोरा रंग. . .वह एक जवान व सुंदर औरत थी, मुश्किल से उसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस की प्रतीत हो रही थी। रेखा पूरे चालीस साल की। रवि उससे सिर्फ़ एक साल बड़ा था। एक लंबी साँस भरते हुए रेखा ने पूछा, “तुम्हें मालूम है कि मैं कौन हूँ?” “हाँ मैंने आपकी फ़ोटो देखी हुई है,” वह सिर झुकाए हुए बोली। उसकी गोदी में बच्चा रोने लगा। वह अपना कुर्त्ता ऊपर करके उसे दूध पिलाने लगी। “यह लड़का है?” उसने पूछा। “हाँ।” “कब हुआ?” “तीन महीने पहले।”

रेखा अनायास ही सोचने लगी वह व रवि हमेशा दूसरे बच्चे की चाह में रहते थे। कभी रवि की संवेदनशील पोस्टिंग की वजह से उनके बीच विछोह बना रहा था तो कभी यों ही. . .समय बीतता चला गया। ईशा चौदह साल की हो गई। और वह चालीस की, जहाँ औरत को गर्भ धारण करने से पहले काफ़ी सोचना पड़ता है। रेशमा धीरे से बोली, “मुझे मालूम है कि आप यहाँ क्यों आई हैं?. . .आप जानना चाहती हैं कि मेरे रवि से संबंध. . .” कहते हुए उसकी आँखें भर गई। रेखा को उस पल लगा कि रवि केवल रेशमा का ही मर्द था। उसका अपना कोई नहीं। “वह बहुत अच्छे इंसान थे,” वह रूँधे स्वर में बोली। ``हूँ. . .अच्छे इंसान।” रेखा के जले दिल से कटाक्ष उभरा। “एक बेवफ़ा पति की पत्नी होने से बेहतर तो विधवा हो जाना है। “आप उन्हें जैसा भी मानती हो मगर वो मेरे लिए एक बहुत अच्छे इंसान थे,” रेशमा बोली। फिर एकदम तटस्थ भाव से अपनी कहानी सुनाने लगी. . .।

उसका परिवार आसाम व नागालैंड की सीमा पर डीमापुर जिले का रहना वाला था। पुलिस को उन पर शक था कि उनका संबंध डीएचडी, डीमा हलीम डोगा आतंकवादी गिरोह से है जिनका लक्ष्य डीमासा जनजातियों के लिए एक अलग राज्य, डीमाराजी बनाने का है। “हम पहाड़ी गाँवों के लोग कहाँ से आतंक फैलाएँगे? आतंकवादी तो पाकिस्तान के आई.एस.आई. के लोग है। पुलिस हम पर बेकार का शक करती है,” रेशमा अपनी कहानी सुनाते हुए बोली। एक शाम सुरक्षा दलों के जवानों ने उनके घर में आक्रमण किया कि उन्होंने अपने घर में आतंकवादियों को शरण दे रखी है। “वे हमारे रिश्तेदार थे, मेरी बहन के ससुराल वाले। अगर आपके किसी रिश्तेदार के आई.एस. आई. से संबंध है तो आपके उससे रिश्ते टूट तो नहीं जाएँगे?” उसने रेखा से पूछा। रेखा के पास कोई जवाब नहीं था। मगर वह देख रही थी कि रेशमा काफ़ी अच्छी हिंदी बोल रही थी। रवि से सीखी होगी।

केवल शक की बुनियाद पर सुरक्षा कर्मचारियों ने उसके परिवार के सभी सदस्यों को मार दिया। एक केवल उसकी जान बच पाई थी, रवि की वजह से। जब तक सुरक्षा दल के कर्मचारी रिवाल्वर गोली उसके सीने में उतारते रवि अपने दल का प्रतिनिधित्व करते हुए वहाँ पहुँच गया। उसने उसे बचाया व बाद में सुरक्षा प्रदान की। उसका सारा परिवार उसकी आँखों के सामने जल कर भस्म हो गया था। डीमापुर में रहने से उसका मन घबराने लगा था। वह वहाँ अपनी सारी संपत्ति बेच कर कालाइगाँव आ गई। और वहाँ कॉटेज लेकर रहने लगी। “वह बहुत अच्छे थे. . .वह बहुत अच्छे थे. . .” रेशमा बार-बार दोहराती जा रही थी। रेखा को समझने में देर नहीं लगी कि रवि व उसके बीच मानवता का रिश्ता धीरे-धीरे प्रेम में बदल गया था।

कहानी ख़तम होने के बाद उनके बीच एक सन्नाटा छा गया। रवि के प्रति रेखा को और वितृष्णा होने लगी। उसने सिर्फ़ उसे ही धोखा नहीं दिया, बल्कि रेशमा की मजबूरी का भी फायदा उठाया। ``मैं आपके लिए कुछ पीने के लिए लाती हूँ,” रेशमा बोली और अपनी गोदी के शिशु को सोफ़े पर लेटा कर चली गई। रेखा ने बच्चे को देखा। कहा जाता है कि जितनी भिन्न प्रकृति के गुणसूत्र आपस में टकराते हैं उतनी सुंदर नस्ल पैदा होती है। शिशु विलक्षण सुंदर था। उसे देख कर कोई उसे बिना प्यार किए रह ही नहीं सकता था। वह यकायक रोने लगा। रेखा ने संभ्रम से इधर-उधर देखा, फिर उसे गोद में उठा लिया। बच्चा खामोश होकर अपनी गहरी काली आँखों से उसे घूरने लगा, जैसे कुछ मनन कर रहा हो। ऐसे ही गहन विचार रवि के चेहरे पर भी प्रकट हो जाते थे रेखा सोचने लगी।

रेशमा चाय बना कर ले आई। रेखा की गोद में अपना बच्चा देख एक पल के लिए ठिठकी, फिर उसके चेहरे पर भीनी मुस्कान तैर गई। “क्या नाम है इसका?” “मनु। उन्होंने ही रखा था।”

रेखा ने अपनी आँखों से सभी कुछ देख लिया था, सुन लिया था। अब वहाँ ठहरने का कोई औचित्य नहीं था। जब वह उसके घर से बाहर निकलने लगी तो रेशमा ने उसे रोक कर कुछ चीज़ें पकड़ाई जो रवि ने ईशा के लिए उसके जन्मदिन पर देने के लिए ख़रीदी थी। मालाएँ, कंगन व कानों के टॉप्स जिनमें उत्तरी-पूर्वी प्रदेश की नक्काशी व दस्तकारी की स्पष्ट झलक थी। “रवि कहते थे कि ईशा को गहनों का बहुत शौक है” रेशमा हँसते हुए-सी बोली। “उसके जन्मदिन पर रवि को ज़रूर पहुँचना था मगर यह हादसा. . .। पंद्रह की हो गई न ईशा?” रेशमा ने पूछा तो रेखा ने ठंडी साँस भरते हुए हामी भरी।

रेशमा ईशा का नाम लेकर उसके विषय में ऐसे बतिया रही थी जैसे वह उसे अर्से से जानती है। इसका अर्थ कि रेशमा के साथ रवि के रिश्तों में एक पारदर्शिता थी। वह निःसंदेह उससे सभी कुछ बाँटा करता था। और इधर अपनी जायज़ पत्नी से वह कितना कुछ छुपा कर रखता था। वह इस प्रदेश की हवा मिट्टी व रेशमा की गंध लेकर उसके पास पहुँचता था और वह कभी महसूस ही नहीं किया करती थी। कितना सतही था उसका रवि से रिश्ता। रेशमा उसे जीप तक छोड़ने आई। उससे विदा लेकर रेखा जीप में बैठ गई। न जाने क्यों रेशमा से मिलकर उसे एक हल्कापन महसूस हो रहा था, जैसे एक भारीपन, एक तनाव सिर से उतर गया हो।

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दिल्ली लौट कर रेखा की ठहरी ज़िंदगी ने रफ़तार पकड़ ली। उसने अपने कॉलेज जाना शुरू कर दिया था। ईशा भी अपने स्कूल की पढ़ाई में तल्लीन हो गई। रवि मर गया था मगर वह केस थमा नहीं था। जाँच-पड़ताल चल रही थी। कुछ न कुछ ख़बरों में उस केस से संबंधित आता रहता। रवि के साथ उल्फा, डीएचडी आतंकवादी गिरोहों की चर्चा हो जाती। रेशमा भी अफ़वाहों में उछल जाती। यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया था। रेखा के पास कोई चारा नहीं था, सिर्फ़ टीवी बंद कर देने के। वह अपनी ज़िंदगी को इन सभी से बहुत अधिक प्रभावित नहीं करना चाहती थी।

लेकिन, लगभग दो माह बाद, एक दिन रेशमा को टीवी स्क्रीन पर देख कर रेखा चौंक गई। वह पुलिस हिरासत में थी। पुलिस के अनुसार वह पहले से ही डीएचडी, डीमा हलीम डोगा आतंकवादी गिरोह से संबंध रखती थी, जिससे पुलिस उसके पीछे थी। फिर अभी हाल में उसने रवि के हत्यारों से बदला लेने के लिए कइयों को मौतों के घाट उतार दिया था। कुछ निर्दोष जाने भी ले ली थी। उसके बच्चे की भी चर्चा होती कि उसे देखने वाला कोई नहीं है। वह अभी फिलहाल किसी बाल कल्याण संस्था के हवाले है। बाद में सरकार फ़ैसला करेगी कि उसे कहाँ भेजा जाए। अकस्मात रेखा के सम्मुख उस मासूम बच्चे का चेहरा तैर गया. . .”मनु,” वह बुदबुदाई।

रवि ने उसके साथ छल किया था। चाहे परिस्थितियोंवश या उसकी कुछ मजबूरियाँ हो विश्वास व निष्ठा, विवाह के दो अनिवार्य तत्वों का उसने हनन किया था। वैसे उमर के इस मुकाम पर पहुँच कर वह समझने लगी थी कि चाहे कितना ही प्रयास कर लिया जाए जीवन के प्रसंग व कार्यभार बिल्कुल सही व सटीक घटित हो. . .यह संभव नहीं। घरबाहर व अपने-परायों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए कितनों का अनुचित व्यवहार हमें झेलना पड़ता है। कितने ही अन्याय हमें सहने पड़ते हैं। कितने समझौते व त्याग हमें करते पड़ते हैं। कई बार अपना वजूद भुला कर दूसरों के लिए जीना पड़ता है। अगर वह अपने स्वर्गवासी पति को माफ़ कर दे. . .? उसके बच्चे को एक स्थाई घर. . .? यह उसका दिमाग़ क्या सोच रहा है? अन्यमनस्क-सी वह फ्रिज की तरफ़ बढ़ी। पानी की बोतल निकाल कर गिलास लबालब भरा और सोफ़े पर बैठ कर ठंडे पानी के घूँट के साथ वह ठंडे दिमाग़ से वस्तुस्थिति पर मनन करने लगी. . .। घर से कोसों दूर सीमा पर बसे अंजान क़स्बों में रवि का कार्यस्थल रहता था। कई बार जटिल, नाजुक स्थितियों का उसे सामना करना पड़ता था। रेशमा की मदद करते-करते अगर उसका दिल फिसल गया तो कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं। आख़िर एक साधारण इंसान ही तो था वह। यह भी हो सकता है कि रेशमा ने खुद ही अपने को उसके सम्मुख समर्पित किया हो। फिर जान गँवा कर रवि अपनी ग़लतियों की सज़ा भी भुगत चुका है। आज ज़िंदगी उससे कुछ माँग रही है उसे पीछे नहीं हटना चाहिए।

एक ठोस निर्णय लेते हुए रेखा सोफ़े पर से उठी फ़ोन के पास पहुँच कर कमांडर पंत का नंबर घुमाया। उसका स्वर सुनकर कमांडर पंत बोले, “जी मैडम?” “मुझे रवि के बच्चे की कस्टडी चाहिए,” वह दृढ़ स्वर में बोली। कुछ पलों के लिए कमांडर पंत ख़ामोश बने रहे, फिर बोले, “मिसेज़ शर्मा आप ग्रेट हैं।”

एक बार फिर रेखा उन्हीं रास्तों से कालाइगाँव पहुँची। रेशमा से मिलने जेल गई। इन दो महीनों में वह एकदम पतली हो गई थी। मगर चेहरे पर वहीं कशिश अभी भी थी। इस बार रेखा ने उसे घूर कर देखा - ऐसा सुंदर व मासूम चेहरा मगर सिर में घातक जुनून। वह बोली, “मुझे फाँसी लगे या आजीवन सजा हो, मुझे चिंता नहीं। मुझे बस इत्मीनान है कि मैंने रवि को मारने वालों को मार गिराया है। बदला ले लिया है।” रेखा ने जब उससे उसके बच्चे की कस्टडी की बात की तो उसकी आँखों में अकस्मात आँसू भर आए। कुर्ते की बाँह से आँसू पोंछते हुए उसने सहमति में गर्दन हिला दी। उसे निहारते हुए रेखा सोचने लगी क्या है मनुष्य हृदय भी. . .। एक तरफ़ इतना कठोर कि लोगों के प्राण ले ले दूसरी तरफ़ इतना कोमल की एकदम से द्रवित हो जाए।

“मैं तुम्हारे बच्चे की अच्छी परवरिश करूँगी रेशमा।” उसका हाथ दबाते हुए रेखा ने उसे आश्वासन देने का प्रयत्न किया। रेशमा के चेहरे पर एक फीकी हँसी बिखर गई।

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रेखा ने अपने कॉलेज से एक लंबी छुट्टी ले ली। नई परिस्थितियाँ जो उत्पन्न हो गई थी। घर में एक अबोध शिशु आ गया था। उसे काफ़ी व्यवस्थाएँ करनी थी। फिलहाल तो घर में बच्चे से संबंधित तमाम वस्तुएँ बिखर गई थीं - पालना, प्राम, बोतलें, टेडी बियर्स. . .। ईशा छोटे भाई की देख-रेख में रेखा का पूरा हाथ बँटा रही थी। एक दोपहर रेखा मनु को बोतल से दूध पिला रही थी और ईशा बगल में बैठी मंत्रमुग्ध उसे निहार रही थी। पिता की मौत से जो अभाव उसकी जिंदगी में आया था, मनु उसकी पूर्ति कर रहा था। सहसा वह रेखा से बोली, “मम्मी, आप एक बहुत ही स्ट्रॉंन्ग व ग्रेट वूमेन हो। मुझे आपकी तरह बनना है. . .।”