अगली बार / शम्भु पी सिंह

Gadya Kosh से
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चार साल से सुलेमान राजापुर के कलेक्टेरियेट से जुड़ा है। जब भी जिले में कोई आपदा आई उसने सरकारी फरमान को तामील करने में कोई कोताही नहीं बरती। शुरुआत तो 1989 के दंगे से हुई जब अचानक सुरेश बाबू का फोन आया-"तुम एक साल से कुछ काम देने की बात करते रहे हो। अभी मौका है। राजापुर के इलाके में दंगा हो गया है। रोहिनपुरा सबसे अधिक प्रभवित है। कलक्टर महोदय का आदेश है कुछ भी करो, किसी को काम पर लगाना हो कोई बात नहीं। टेंडर और एप्रूवल की औपचारिकता बाद में भी हो जाएगी। हर हालत में पीड़ित तक मदद पहुँचाओ। इसलिए जितनी जल्द हो तुम रोहिनपुरा के इलाके में जाओ। प्रशासन की टीम वहाँ उपलब्ध है। मैं फोन कर देता हूँ जो भी जरूरत है उन तक पहुँचाओ। ऑफिस का खर्चा काटकर जो भी तुम्हारा बिल होगा उसका भुगतान कर दिया जाएगा।" सुरेश बाबू सुलेमान के पड़ोसी हैं और राजापुर के एसडीएम भी। भरोसा तो करना ही था। लेकिन पता नहीं अचानक की इस विपदा पर क्या जरूरत आन पड़ी, व्यवस्था तो करनी ही होगी। एसडीएम ने यह भी साफ कर दिया कि जिलाधिकारी महोदय का स्पष्ट आदेश है कि काम किसी मुस्लिम बिरादरी के लोगों को ही देना है। सरकार की साख का सवाल है। किसी हिंदू पर शायद लोग भरोसा न कर पाये, क्योंकि रोहिनपुरा की आधी-से-अधिक मुस्लिम आबादी का पलायन हो चुका है। अतः बहुत सोच-समझकर ही मैंने यह काम तुम्हें देने का फैसला किया है। तुम्हें काम भी मिल जाएगा और कलक्टर साहब की नजर में मेरी साख भी रह जाएगी। सुलेमान ने पैसे के इंतजाम से सम्बंधित सवाल भी करना चाहा, लेकिन एसडीएम साहब ने पूरी बात सुनी ही नहीं। सीधा फरमान जारी कर दिया।

"पैसे-वैसे की चिंता मत करो। दो लगाओ, चार नहीं, दस पाओगे। ऐसे मौके पर किए गए खर्च का कोई ऑडिट नहीं होता। तुम जो भी बिल दोगो उसे पास कर दिया जाएगा। राज्य सरकार का भी काफी प्रेशर है। किसी भी हालत में पीड़ित तक सहायता पहुँचाई जाए। पूरी जिम्मेदारी कलक्टर साहब की है। तुम जानते ही हो कि कलक्टर साहब के मैं बहुत करीब हूँ। उनके घर से दफ्तर तक सारी जिम्मेदारी मैं ही संभालता हूँ। यहाँ तक कि साहब के घर की जरूरतों का भी ध्यान मुझे ही रखना पड़ता है। पैसा तुम्हारा डूबेगा नहीं। इसकी पूरी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। लेकिन ध्यान रखना रसद पहुँचाने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। एक का पांच कर लेना, लेकिन पीड़ित तक जरूरत की चीजें अवश्य पहुँचाना। सिर्फ बात रसद की नहीं है, रहने की भी व्यवस्था करनी है। टेंट आदि की भी जरूरत होगी। सारा इंतजाम करना है।" सुरेश बाबू की सारी हिदायतें स्पष्ट संकेत दे रही थीं कि आज नहीं तो कभी नहीं। यही कारण था कि सुलेमान सिर्फ हाँ कहने को मजबूर था। उसके पास कोई दूसरा चारा नहीं था। यदि बिजनेस में अपने आप को स्थापित करना है तो पूरी ताकत लगानी पड़ेगी और साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेना पड़ेगा। सवाल यह भी था कि सुलेमान के पास खर्च का कोई ब्यौरा नहीं था और न ही कोई सरकारी आदेश। डर भी था कि एक टेलीफोन कॉल पर किए गए वादे का क्या वजूद। यदि कल सुरेश बाबू बदल गए या उनकी नहीं चली तो फिर किए गए खर्च का क्या होगा? लेकिन सोचने-समझने का इतना समझ कहाँ था। इसलिए सुलेमान ने सबसे पहले क्षेत्र का मुआयना करना उचित समझा। बाइक उठाई और चार किलोमीटर दूर दंगा प्रभावित रोहिनपुरा में पहुँच गया। जरूरतों को बाद में देखा जाएगा की सोच के साथ पीड़ित इलाके में पहुँचते ही सुलेमान के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। आधी-से-अधिक आबादी पलायन कर चुकी थी या दंगाइयो का शिकार हो चुकी थी। जो लोग रह गए थे, वे सरकारी स्कूलों में खुले आसमान के नीचे किसी अनहोनी की आशंका से डरे-सहमें या फिर अपनों की तलाश में व्यस्त थे। दो कमरे के स्कूल में पांच सौ से अधिक आबादी डेरा जमाये हुए थी। ऐसे एक दो नहीं, दस से बारह स्कूलों, सामुदायिक भवनों की हालत एक जैसी थी। सुलेमान की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इतनी बड़ी आबादी तक उसकी जरूरत की चीजों को कैसे मुहैया कराया जाए। लेकिन कोई चारा भी तो नहीं था। मरता क्या नहीं करता। समस्याओं के तात्कालिक समाधान की सोची। अपने संपर्कां के सहारे जहां-तहाँ से सामग्री जुटायी जाने लगी। टेंट-तंबू, भोजन सामग्री, बच्चों के लिए दूध, बिस्किट की व्यवस्था पड़ोस के गाँव के अपने रिश्तेदारों के सहयोग से प्राप्त की गई। धर्म-बिरादरी वालों का भी प्रशासन को सहयोग मिला। माजरा स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार की गिरती साख का था। बीच-बीच में विभिन्न दलों के नेताओं ने भी आबाजाही जारी रखी। उनकी खातिरदारी में भी सुलेमान ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। जी-जान से पीड़ितों की तीमारदारी में लग गया। यह अलग बात थी कि इस कार्य में सेवा भाव कम, अपना बिजनेस चमकाने का अवसर अधिक दिखाई दे रहा था। बीच-बीच में एसडीएम साहब भी दौरा कर सुलेमान की तैयारी का जायजा ले लिया करते। सुलेमान की तैयारी और पीड़ितों तक सुविधाएँ उपलब्ध कराने की तत्परता ने उसे जिलाधिकारी की नजर में भी पहचान बना दी। बीवी के जेवरात और रिश्तेदारों से मदद के नाम पर जमा किये पैसों से भी बात नहीं बनी तो साहूकार से कर्ज लेकर सुलेमान ने अपनी साख बचाई। दंगा का प्रभाव तो सालों तक रहा, लेकिन दो महीने के अंदर प्रभावित परिवारों को प्रशासन ने सुरक्षित जगह पर पहुँचा दिया या उन लोगां ने अपने बचे रिश्तेदारों की मदद से अपना ठिकाना स्वयं ढूँढ़ लिया। आपदा के इस राहत कार्य ने सुलेमान को प्रशासन में एक पहचान दिला दी। साढ़े दस लाख के दिए गए बिल को प्रशासन ने ह-ूब-हू पास तो कर दिया, लेकिन सुलेमान के हाथ में साढे़ सात लाख ही आये। शेष रकम सुरेश बाबू ने ऑफिस खर्च के नाम पर सुलेमान से यह कहकर वापस ले ली कि साहब से बात करने के बाद इसमें से भी कुछ राशि तुम्हें वापस कर दी जाएगी। उक्त राशि की वापसी के लिए सुलेमान ने कई बार मिन्नतें की-

"साहब साहूकार का ब्याज लगाकर आठ लाख तो मेरे खर्च हो चुके हैं। दो महीने का समय दिया है। यदि एक-दो लाख भी कमाई नहीं हुई तो भला गुड़ बेचकर साव कहलाने से क्या फायदा।" लाख आरजू-मिन्नत के बाद भी सुरेश बाबू हमेशा बातों को कल पर टालते रहे। महीना बीत जाने के बाद भी जब तीन लाख का कोई संतोष जनक जबाब नहीं मिला तो एक दिन सुलेमान ने कलक्टर साहब से मिलने की ठानी। परिचय तो पहले ही हो चुका था। एसडीएम साहब के माध्यम से लेन-देन की जानकारी भी हो चुकी थी। सोचा जब पैसे पर ही काम मिलना है तो क्यों नहीं सीधे कलक्टर साहब से ही बात कर ली जाए। सुलेमान के नाम पर जिलाधिकारी ने भी मिलने का समय दे दिया। मिले भी। लेकिन जैसे ही सुलेमान ने अपनी बात रखनी चाही जिलाधिकारी ने इशारे से बैठने को कहा। कमरे में कुछ और लोग भी उपस्थित थे। फिर कुछ कहना चाहा तो इशारे से चुप रहने का संकेत मिला और चपरासी को चाय लाने का इशारा भी। जब अन्य सभी लोग कमरे से बाहर चले गए तो कलक्टर सुलेमान से मुखातिब हुए। सुलेमान अपने तीन लाख की नाजायज वसूली की शिकायत लेकर आया था। लेकिन जिलाधिकारी की आवभगत और उनकी इशारेबाजी ने बहुत कुछ बोलने की इजाजत नहीं दी। कलक्टर ने तब तक एसडीएम को भी बुलवा लिया था। सुलेमान की चाय अभी समाप्त भी नहीं हुई थी, बगल की कुर्सी पर सुरेश बाबू विराजमान थे। एसडीएम को अपने बगल में देख सुलेमान की बोलती बंद हो गई। दोनों अधिकारियों को समझते देर नहीं लगी कि सुलेमान क्या कहने आया है। इस बीच टेलीफोन की घंटी बजी और जिलाधिकारी बात करते हुए खड़े हो गए। उन्होंने एसडीएम को सुलेमान से बात करने का संकेत करते हुए जरूरी कॉल के कारण कमरे से बाहर जाने लगे। जाते हुए एसडीएम को हिदायत दे गए कि अपने विश्वासपात्र को समझा दीजिए कि इनकी जरूरत हमें कल भी पड़ेगी। हम रिश्ते को महत्त्व देते हैं। रिश्ता बना रहेगा तो पैसा आता जाता रहेगा। आज यदि दंगा में इनकी जरूरत पड़ी है तो कल बाढ़ और सूखे में भी पड़ेगी। जरूरी नहीं कि सूखा पड़े, तभी सूखे की घोषणा होगी, वर्षा होगी, तभी बाढ़ आएगी। बाँध काटने से भी बाढ़ आती है और जहाँ तक दंगे की बात है तो यह कभी अपने-आप नहीं होता। दंगा कराया जाता है। यदि बिजनेस करना है तो अगली बार का इंतजार करें। सारी भरपाई कर दी जाएगी और अगली बार का फिर अगली बार। यह सिलसिला तो चलता ही रहेगा। डीएम द्वारा एसडीएम को दी जा रही हिदायत सुलेमान को सुनाई दे रही थी। जब तक सुलेमान कुछ सोच पाता डीएम दरवाजे तक जा चुके थे। अचानक उनके पैर ठिठके। पलट कर पीछे मुड़े और सीधे सुलेमान से-

"आप माइनोरिटी से हैं, इसलिए हमने आपको तरजीह दी। इतना काम तो हर कोई भी कर देता। लेकिन हमारी साख पर बट्टा लग सकता था। इसलिए एसडीएम के कहने पर माइनोरिटी के बीच मैंने आपको भेजने का फैसला किया। इंतजार कीजिए अगली बार का।" वे कमरे से बाहर निकल गए। सुलेमान किंकर्तव्यविमूढ़-सा कभी जाते डीएम तो कभी दरवाजे के पास व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेरते एसडीएम को देखता रहा। अब अगली बार...? कहाँ दंगा होने वाला है। तब तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा। सोचा पूछ ही लूं कि अभी जगह बता दीजिए तो राहत सामग्री की तैयारी अभी से शुरू कर दूं। लेकिन तब तक डीएम और एसडीएम कमरे से बाहर जा चुके थे। चपरासी पर्दा हटाकर बाहर निकलने का इशारा कर रहा था।