अगली सदी का शोधपत्र / सूर्यबाला
एक समय की बात है, हिन्दुस्तान में एक भाषा हुआ करती थी। उसका नाम था हिन्दी। हिन्दुस्तान वेफ लोग उस भाषा को दिलोजान से प्यार करते थे। बहुत सँभालकर रखते थे। कभी भूलकर भी उसका इस्तेमाल बोलचाल या लिखने-पढ़ने में नहीं करते थे। सिपर्फ कुछ विशेष अवसरों पर ही वह लिखी-पढ़ी या बोली जाती थी। यहाँ तक कि साल में एक दिन, हफ्रता या पखवारा तय कर दिया जाता था। अपनी-अपनी पफुरसत वेफ हिसाब से और सबको खबर कर दी जाती थी कि इस दिन इतने बजकर इतने मिनट पर हिन्दी पढ़ी-बोली और सुनी-समझी? द्ध जाएगी। निश्चित दिन, निश्चित समय पर बड़े सम्मान से हिन्दी झाड़-पोंछकर तहखाने से निकाली जाती थी और सबको बोलकर सुनाई जाती थी।
ये दिन पूरे हिन्दुस्तान में बड़े हर्षोल्लास वेफ साथ मनाए जाते थे। बच्चों से लेकर विशिष्ट अतिथि और आयोजनों वेफ अध्यक्ष तक इस भाषा में बोली जानेवाली कविता, निबन्ध् अथवा भाषणों का रट्टा मारा करते थे। चूँकि उस दिन रिवाज वेफ मुताबिक आना-जाना, उठना-बैठना तथा हार पहनाना आदि सबकुछ हिन्दी में होता था, अतः अनुवाद की निरंकुश अपफरा-तपफरी और बेचैनी मच जाती थी। पलक झपकते शब्द-वेफ-शब्द, वाक्य-वेफ-वाक्य दल-बदल लेकर कायापलट तक कर जाया करते थे। देखते-देखते 'प्रपोजल' 'प्रस्ताव' में, 'रिक्वेस्ट' 'प्रार्थना' में, 'प्लीज' 'कृपया करवेफ' में, 'थैंक' 'दन्यवाद' में और 'स्पीच' 'बाषण' में बदल जाते थे।
देखते-देखते परंपरा, संस्कृति, भाषा, संस्कार, समृ (साहित्य, आदर्श, राष्ट्रीयता, कटिब (, एकसूत्राता आदि शब्दों का टै्रपिफक जाम हो जाया करता था। इनाम पर इनाम, तमगे पर तमगे बाँटे जाते थे। इस एक दिन, हिन्दी लाभ और मुनापफे की भाषा हो जाया करती थी। इसका संपूर्ण व्यक्तित्व छूट और 'भव्य सेल' की चकाचौंध् से जगमगा उठता था। लेकिन यह छूट सिपर्फ इन्हीं दिनों वेफ लिए थी। बाकी दिनों, बात बिना बात हिन्दी बोलने, इसे खर्च करने वेफ जुर्म की सजा हर बेरोजगार, दकियानूसी और पिछड़े आदमी को भुगतनी पड़ती थी।
चूँकि यह भाषा समूचे हिन्दुस्तान की गरिमा की प्रतीक थी, इसलिए इसे वातानुकूलित ऑपिफसों की एयरटाइट पफाइलों में बंद करवेफ रखा जाता था। सरकार की तरपफ से इसकी सुरक्षा वेफ कड़े निर्देश थे। जेड क्लास सुरक्षा चक्रों वेफ बीच, संसद की बैठकों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि 'माननीय सभासदों! माननीय अध्यक्षजी!' वेफ अतिरिक्त सबकुछ अंग्रेज़ी में हो। इसलिए कुछेक सिरपिफरों को छोड़कर सारे प्रस्ताव अंग्रेज़ी में ही प्रस्तावित और खारिज किए जाते थे। सारी-की-सारी योजनाएँ और बड़े-से-बड़े स्केंडल अंग्रेज़ी में ही किए जाते थेऋ जैसे बोपफोर्स। सिपर्फ कुछ विशेष प्रकार वेफ स्केंडल हिन्दी में होते थे, जैसे प्रतिभूति घोटाला। जो अहिंदी भाषी थे वे कम अंग्रेज़ी बोलते थे, जो हिन्दीभाषी; पैदाइशीद्ध थे, वे ज्यादा। क्योंकि उन्हें अपने पद की गोपनीयता की तरह ही अपनी भाषा की गोपनीयता बनाए रखने की चिंता सर्वोपरि थी।
उस सदी में पूरे देश में गणतंत्रा लागू होने पर भी तथा सभी संभव प्रकार वेफ घोटालों की पूरी छूट होते हुए भी हिन्दी वेफ मामले में सरकार वेफ स्पष्ट अनुशासित और कड़े निर्देश थे कि खबरदार! हिन्दी को कोई छूने न पाए. यह संपूर्ण राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न है। अतः साक्षात्कारों तथा स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों वेफ अध्ययन तक हिन्दी वेफ जरिए जो पहुँचने की कोशिश करेगा उसका प्रमोशन, परीक्षापफल, पफाइल, आवेदन, अनुरोध्, प्रार्थना तथा सारे अटके पड़े काम हमेशा वेफ लिए अटवेफ रह जाएँगे। वह लोगों द्वाराहेय दृष्टि से देखा जानेवाला उपेक्षा का पात्रा होगा।
उस सदी में कुछ बड़े-बड़े लोगों वेफ लिए ही हिन्दी बोलने का कोटा निर्धरित किया जाता था। कोई बड़ा लेखक, राजनीतिज्ञ, अपफसर या अहिंदीभाषी जब हिन्दी बोलता तो तालियाँ पिट जाती थीं, लोग 'साध्ु-साध्ु' कह उठते थेऋ लेकिन वही हिन्दी जब कोई सामान्य व्यक्ति बोलता तो वह उपहास, दया या उपेक्षा का पात्रा समझा जाता था। इसलिए प्रायः ऐसे लोग अपने देश में अंग्रेज़ी और विदेशों में जाकर हिन्दी बोल आया करते थे।
स्कूलों में भी इस भाषा पर कोई आँच न आने पाए, इसका पूरा ध्यान रखा जाता था और हिन्दी की सारी पढ़ाई अंग्रेज़ी वेफ माध्यम से करा दी जाती थी। आज की बात और है। आज तो हिन्दी भाषा का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है। हिन्दी है ही नहीं। हिन्दी इतिहास की, अतीत की भाषा हो चुकी हैऋ लेकिन पिछली सदी में जब वर्तमान की भाषा थी, तब भी सरकार और शिक्षाविदों ने ऐसी विधि् ईजाद कर ली थी कि बगैर हिन्दी का एक शब्द भी खर्च किए हिन्दी पढ़ा-लिखा दी जाती थी।
उन दिनों माताओं वेफ लिए सबसे ज़्यादा गर्व की बात यही हुआ करती थी कि उनका बच्चा सिपर्फ हिन्दी में पफेल हो गया। गोया हिन्दी में पफेल होना अन्य विषयों में पास होने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था।
हमारी नवीनतम शोध्ें बताती हैं कि कुछ ग़लत दस्तावेजों और पुस्तकों वेफ आधर पर हम हिन्दी को बीसवीं शताब्दी वेफ हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्क भाषा या मातृभाषा जैसा कुछ मान बैठते हैं। पर हकीकत तो यह है कि वह इनमें से कुछ भी नहीं थी। ये सारे तथ्य भ्रामक हैं।
शोध् बताती है कि दरअसल हिन्दी भाषा थी ही नहीं। ...वह खास-खास अवसरों पर पहनी जानेवाली पोशाक थी, लगाया जानेवाला मुखौटा थी। वह एक डपफली थी, जिसपर लोग अपने-अपने राग गाया करते थे। वह चश्मा थी, जिसे लगाकर अनुदानों, पुरस्कारों की छाया में सांस्कृतिक यात्राओं का सुख लूटा जा सकता था। वह एक सीढ़ी थी, जिसवेफ सहारे अकादमियों वेफ मंच तक चढ़ा जा सकता था।
और करेंसी नोट थी, जिसे विशिष्ट आयोजनों पर सार्त्रा, मार्क्स, ऑक्सर वाइल्टानस्टॉप, चेखव और कामू वेफ माध्यम से भुनाया जा सकता था। ...अपने देश की पिछली और अगली शताब्दियों वेफ गरीब कवि-लेखकों में इसे भुनाने की औकात नहीं थी। ग्लानि और लज्जाबश कबीर, सूर, तुलसी, रत्नाकर, भारतेंदु और महादेवी वर्मा, प्रसाद, निराला तक, नेपथ्य में छुप जाया करते थे, राजमार्गों से हट जाया करते थे।
दिक्कत सिपर्फ एक थी, हरेक वेफ अपने चश्मे थे-और एक का चश्मा जिस रंग को सही बताता था, दूसरा उसे पूरी तरह खारिज कर देता था।
डपफलियाँ भी सबकी अलग-अलग, जिसपर अपने राग गाते तो भी ठीक था, लेकिन बाद वेफ दिनों में सिपर्फ डुगडुगी पीटने लगे और इसी पफेरपफार में हिन्दी की डुगडुगी पिट गई और वह पूरी तरह इतिहास की भाषा हो गई. अपने देश वेफ लोगों द्वारा अपने देश की मिट्टी में विलीन हो गई.
दुःख है कि पिछली सदी की इस भाषा का कोई अवशेष नहीं रहा। इसलिए शोध छात्रों को कापफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उनकी सुविध वेफ लिए सूचना दी जाती है कि वे चाहें तो विदेशों वेफ कुछ विश्वविद्यालयों से हिन्दी से सम्बन्ध्ति कुछ सामग्री और सूचनाएँ उपलब्ध कर सकते हैं।