अगले जनम, मोहे उनकी बिटिया ही कीजो! / सुषमा गुप्ता
आदरणीय रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी, मेरे जीवन में जो स्थान रखते हैं, उसको सीमित शब्दों में समेटना ऐसा ही है, जैसे विस्तृत आकाश को किसी शीशे के ग्लोब में दिखाना। जितनी उपमाएँ हैं, सबकी सब कम पड़ जाएँगी, फिर भी मुझसे उनके व्यक्तित्व को किसी में भी समेटा नहीं जा सकेगा। आज से ठीक पाँच साल पहले मैं उनसे तब मिली थी, जब मेरे बड़े भाई की मृत्यु को बस एक महीना हुआ था। हरियाणा साहित्य संगम का आयोजन था पंचकूला में, और मैं बेहद खराब मानसिक स्थिति से जूझती हुई मन को सँभालने की जद्दोजहद में उस आयोजन में गई थी कि कुछ समय खुद को दे सकूँ और सँभल सकूँ। वहीं मेरी मुलाकात काम्बोज भैया से हुई। हाँ, मैं तब से ही उन्हें भैया बुलाती हूँ। पहली मुलाकात में ही उन्होंने इतना स्नेह दिया कि 'सर' जैसा औपचारिक शब्द उनके लिए निकल ही नहीं सका।
मुझे याद है तब दिल्ली से पंचकूला जाते हुए ट्रेन में मैं गुमसुम उदास बैठी थी खिड़की के पास। सुशीला राणा जी ने ही बहुत अपनेपन से ज़ोर देकर मुझे साहित्य संगम में चलने के लिए राज़ी किया था, ताकि मैं खुद को दुःख से थोड़ा उबारने के लिए समय ले सकूँ। उन्हीं के द्वारा काम्बोज भैया ने मेरे निजी जीवन में गुज़रे हादसे के बारे में जाना। लौटते समय ट्रेन मे भी अपनी सीट से उठकर मेरा हाल पूछने आए कि मुझे कुछ ज़रूरत तो नहीं। इतना वात्सल्य था उनकी आवाज़ में कि मेरा मन भर-भर आता रहा ऐसे स्नेह पर। काम्बोज भैया यूँ तो मेरे पिता की उम्र के हैं, पर उस दिन से ही वह जैसे मेरे बड़े भाई बन गए। और फिर धीरे-धीरे भाई, पिता, सखा, मार्गदर्शक, टीचर, सब कुछ। उसके बाद से समय-समय पर वह मेरा और मेरे परिवार का कुशलक्षेम पूछने के लिए फोन भी करते रहे। घोर निराशा के उन दिनों में उन्होंने मुझे अपने बच्चे जैसा सँभाला। मैं अचंभित थी, अवाक् थी, कभी-कभी तो यक़ीन ही नहीं कर पाती थी कि सच में दुनिया में इतने सुंदर लोग भी हैं, जो बिना किसी स्वार्थ के किसी के लिए इतना कर सकते हैं! हालाँकि इसकी झलक मैंने साहित्य संगम में ही देख ली थी। हरियाणा के कॉलिजों के ढेरों विद्यार्थी थे, जो हरियाणा साहित्य अकादमी की लेखन कार्यशालाओं में काव्य और विभिन्न गद्य विधाओं का प्रशिक्षण ले चुके थे। कुछ तो इनके आसपास इतने स्नेह से इकट्ठा थे कि भरोसा ही नहीं हो रहा था कि ये उनके रक्त संबंधी नहीं; बल्कि हरियाणा के कॉलिज के विद्यार्थी हैं। यह सब कोंपले उनके प्रोत्साहन से खिली थीं। उन्होंने ऐसे हज़ारों बच्चों की प्रतिभा को निखारा है, जो जीवन के अभावों के चलते आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। साहित्य के क्षेत्र में भी यही काम उन्होंने निस्वार्थ रूप से किया है। उनके लिए व्यक्ति से ज़्यादा हमेशा रचना श्रेष्ठ रहीं। अच्छी रचना चाहे जिसकी भी हो, उन्होंने हमेशा उसे आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। साहित्य संगम में बच्चों का उनके प्रति प्रेम देखते बनता था। और इतने सालों में उनके सा्न्निध्य और स्नेह से मैं समझ पाती हूँ कि क्यों वे बच्चे उनको आत्मीयता से पापा बुलाते हैं।
सच कहूँ, तो मैं भी वही एक अनगढ़ बेतरतीब बच्चा ही थी, जिसे न तो साहित्य की समझ थी और न ही हिंदी का कोई बहुत ज्ञान। मैं यह बात भी सबको बताना चाहती हूँ कि चूँकि मेरी सारी शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई है, तो हिंदी में बहुत ही बचकानी गलतियाँ करती थीं। लिखते हुए मैं भी, आज भी कई बार कर जाती हूँ । भैया सदा से ही इतने सहज भाव से मुझे सिखाते समझाते रहे हैं, जैसे माता-पिता, अभिभावक एक छोटे बच्चे को अक्षर- ज्ञान देखकर समृद्ध करते हैं। धीरे-धीरे वह मेरे लिए भाई से बढ़कर, पिता से बढ़कर, ईश्वर तुल्य होते गए। मैंने भैया जैसा कर्मठ इंसान अपनी पूरे जीवन में नहीं देखा।
उनके खुद के जीवन में चाहे कितनी ही परेशानियाँ रहीं, राह घोर काँटों से भरी रही, पर वह निरंतर अपने कार्य में जुटे रहते हैं। घंटों बैठकर, लैपटॉप लिये जाने कितने लोगों के लिए, कितना कुछ करते हैं। लगातार काम में बने रहना जैसे उनके लिए साँस लेने बराबर है, जिसके बिना वे जी ही नहीं सकते। कभी-कभी मेरी आँखें भर आती हैं, उनसे बात करते हुए कि जाने ऐसे क्या ही पुण्य किए होंगे मैंने किसी जन्म में, जो इस जन्म में मुझे उनका आशीर्वाद और साथ मिला है। मैं तो वह नन्हा पौधा हूँ, जो जीवन की धूप में और इस साहित्य की अजीब किस्म के माहौल में कब का मुरझाकर खत्म हो गया होता, अगर काम्बोज भैया का आशीर्वाद और उनकी छाया न मिली होती। साहित्य के साथ-साथ निजी जीवन में जिस तरह से उन्होंने मुझे कठिन परिस्थितियों में संबल दिया है, सच में उसे शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। कितनी बार ऐसा हुआ कि बीमारी में उन्होंने झटपट मेरे लिए होम्योपैथी की दवाइयाँ भेजी, क्योंकि वे जानते हैं कि मुझे एलोपैथी सूट नहीं करती और मैं खुद से लेने में अभी शायद समय लगा दूँगी। कितनी बार ऐसा हुआ कि अपनी फिक्र छोड़कर उन्होंने मेरा ध्यान रखा।
मुझे याद है जब मैं पहली बार उनसे मिलने उनके घर गई थी, मैं और अतुल(मेरे पति) तब उन्होंने मुझे ऐसे अपनत्व से सहेजा, जैसे बेटी घर आती है, तब पिता स्नेह लुटाते हैं। उतना ही प्यार और बिल्कुल उसी तरीके से तोहफों से लाद दिया कि पहली बार बेटी घर आई है। मैं उस दिन वापसी में कार में बैठकर रो पड़ी थी कि कोई अजनबियों को भी ऐसे अपनाता है क्या!
बहुत सारी बातों के लिए दुनिया में हम कहते हैं कि 'शायद' ऐसा हो सकता है; पर काम्बोज भैया के लिए मैं यह बात 'यक़ीनन' और पूरे दावे से कह सकती हूँ की इस पूरी सृष्टि में उन जैसे इंसान बमुश्किल गिनती के होंगे और मेरी ज़िंदगी में तो यक़ीनन वह इकलौते ऐसे इंसान हैं, जो बिना किसी स्वार्थ के अपनी परवाह न करके दूसरों का जीवन सँवारने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर बैठे हैं।
मेरे रोम-रोम से उनके लिए ढेरों प्रार्थनाएँ निकलती हैं और ईश्वर से निकलती है यह विनती, याचना की तरह दोनों हाथ जोड़कर कि ..
हे ईश्वर, हे महादेव, अगले जनम, मोहे उनकी बिटिया ही कीजो!
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