अगस्त दो हज़ार सैंतालिस / दीर्घ नारायण
आकार में काफी बड़ा है यह सुरंग। लम्बाई कहाँ तक है पता नही चल पाया है पर उम्मीद है शाम तक रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि यह कहाँ जाकर खत्म होता है। इसकी उँचाई तो भूतहा किस्म की है। देखने से तो लगता है मर्द के माथे पर है पर बस्ती की बड़ी से बड़ी सीढ़ी लगाकर भी कोई छत को छू नहीं पाया है। होता कुछ यूँ है कि उछलकर या सीढ़ी में चढ़कर जैसे ही छत छूने पर होता है तो छत धीरे-धीरे अपने-आप और ऊपर की ओर खिसकती जाती है पर हैरत यह है कि ऊपर खिसकता हुआ दिखता नहीं है। विज्ञान को फेल कर देने वाली बात कि नंगी आँखों से तो नजदीक दिखती है पर दूरबीन से बहुत दूर! सुरंग की दीवारें भी किसी अदृश्य धातु की जान पड़ती हैं देखने में तो कागज या प्लास्टिक की जान पड़ती हैं जबकि बस्ती के कुछ लोगों ने हथौड़ा और कुल्हाड़ी चलाया तो वही दीवार कहीं स्टील तो कहीं चटटान में बदल गई फौरन! ऑटोमेटिक! यह तो सचमुच हैरान और परेशान कर देने वाली बात है कि अब तक लाखों लोग इस सुरंग में प्रवेश कर चुके हैं दिन-रात इसके रहस्यमयी गन्तव्य की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन अंदर दाखिल लोगों का कहना कि जैसे-जैसे अन्दर लोगों की भीड़ बढ़ रही है सुरंग भी अपना आकार बढ़ाती जा रही है। संभव है कि देश के सभी आमजन अन्दर समा जाएं। सभी इसके अंदर प्रवेश किए जा रहे हैं सभी को इसका रहस्य जानने की उत्सुकता है क्योंकि सुरंग आमजनों की बस्तियों के नीचे से निकाली गई जान पड़ती है। इन्हीं बस्तियों के नीचे
सैकड़ों-लाखों नाले-जाले भी तो अभी-अभी उजागर हुई है जो सामने वाले साहब पाड़ा के अन्दर अन्तर्धान हो जाती है।
हां साहब पाड़ा! बस्तियों के आगे आमजनों की आँखों के सामने का खूबसूरत संसार। इसी दुनिया में बसी एक अलग दुनिया। साहब पाड़ा में झाडू-पोछा करने वालों की माने तो धरती पर उतरा या बसाया गया स्वर्ग। दुनिया की सभी सुविधाओं से परिपूर्ण उत्कृष्ट जीवनशैली में समाहित! भव्य कोठियों बंगलों एवं गगन चुम्बी महलों से चौंधियाते रहने वाला साहब पाड़ा। दिन-रात मस्ती उमंग उल्लास व आनन्द में डूबे रहने चाले विभिन्न वर्ग-समूहों का अधिवास-निवास साहब पाड़ा। वहाँ रहने वाले लोगों की आँखो में गजब का आत्मविश्वास और चेहरे से टपकता दर्प। रंग पेन्ट करने वाले रहीम मिस्त्री की बातों में विश्वास करें तो उनकी जिन्दगी बुराईयों से भरी और नापाक हरकतों से पटी है पर धन सत्ता और ताकत के विशाल आवरण व चमक में दफन!
साहेब पाड़ा की विशिष्ट पहचान है इसके चारों तरफ की जादुई दीवारें। हां एक अदृश्य ऊँची किलेनुमा गढ़ में बंद दुनिया। जादुई दीवार के अंदर रचा-बसा रमणीय संसार। एक ऐसी ऊँची दीवार जो दिखती नहीं। अन्दर की दुनिया में रहने वाले जब चाहें जिधर से मन करे बाहर आ-जा सकते हैं। पर अंदर में उनकी सेवा में लगे बाहरी दुनिया के लोग नियत काल व स्थान से ही अन्दर प्रवेश पाते हैं दिनभर अपनी सेवा के बदले निर्धारित मजूरी लेकर। अदृश्य होने के कारण अभेद्य है यह दीवार। बाहरी दुनिया के किसी लोगों को यह दीवार दिखाई नहीं देती है पर जब किसी ने छूने धक्का देने या नजरें गड़ाकर पहचानने का प्रयास
किया है तो यह दीवार अपने फौलादी स्वरुप में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो उठा है। सो विज्ञान की परिभाषा से परे एक अभेद्य दीवार। कानून की मोटी-मोटी किताबों व इसके व्याख्याताओं विश्लेषकों निर्णायकों व पालनहारों की दृष्टि में ऐसी कोई दीवार नहीं है सिर्फ लोगों का दृष्टि- भ्रम या विभ्रम है। साहब पाड़ा के अन्दर बढ़ई का काम करने वाले जनकधारी माली का काम करने वाले सरजू और उनके जैसे अन्य कई पिछले दसियों साल से अन्दर की अजब-गजब कहानी सुनाते रहे हैं। कहानी सारांश यही कि उन साहेब लोगों को किसी ने आज तक कोई धन्धा-पानी करते देखानहीं पर सभी के सभी हैं धन कुबेर। सभी के घरों में लक्ष्मी की कृपा झरती रहती है। ऐसी कोई कोठी- बंगला नही जहां दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं ऐशो-आराम ना हो। (वहाँ के बहुतेरे पुरुष व नौजवान विविध स्त्री-सुख तथा नारी व नवयुवती पौरुष-सुख में डूबे रहते हैं अंदर दिहाड़ी पर काम करने वाले ऐसा कहते हैं।) बस्ती की चायदुकान में करीम ड्राईवर और रेंचो लोडर दावे के साथ कहते हैं कि किसी भी साहब लोगों की गाड़ी से पैसा सोना-चांदी-हीरे-जवाहरात उतरते कभी नहीं देखा गया है पर सभी के घर अकूत धन-दौलत से भरे पड़े हैं। आया का काम करने वाली तारा कहती है उन साहब लोगों को घरों में पैसे आते कभी नहीं देखा है लेकिन सभी कोठियों में नोटों की गडिडयाँ सजी पड़ी हैं। सचमुच वह एक अचरज की दुनिया है जहाँ न जाने किस विधि या थ्योरी से धन-दौलत की बरसात होती रहती है। हां एक मायने में साहब पाड़ा रहस्यमय नहीं है कि वहाँ कौन-कौन निवास व उल्लास करते हैं। बस्तियों के बुजुर्गों को तो पहले से पता है अब तो नौजवान भी जानने लगे हैं कि सत्ता व तंत्र की सवारी करने
वाले अधिसंख्य व्यक्ति जो भद्रजन कहे जाते हैं अन्दर की स्वर्गमयी दुनिया के वासी हैं मसलन हरिशचंद्र मंत्री व अन्य अनेकानेक मंत्री रामकिशन उद्योगपति-लक्ष्मण पूँजीपति व अन्य सैकड़ों उद्योगपति- पूँजीपति बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान के मालिक दयामल व हजारों अन्य बड़े वणिक जनप्रतिनिधि युधिष्ठर प्रसाद व अन्य शासन-प्रशासन से जुड़े सैंकड़ों अधिकारीगण कृष्णा राव जैसे बड़े इन्जीनियर एवं उसके समकक्ष व अधीनस्थ हजारों इंजीनियर हृद्य रोग विशेषज्ञ डा0 राजी बजाज व अन्य हजारों चिकित्सा विशेषज्ञ नामी ठेकेदार भोले-शंकर व राज्य स्तरीय-राष्ट्र स्तरीय हजारों ठेकेदार राम स्नेही व अन्य सैकड़ों बाहुबली- रंगदार वरिष्ठ वकील इन्साफ सिंह व अन्य सैकड़ों प्रसिद्ध वकील की- बोर्ड से शेयर बाजार को नचाने वाले कृपा निधान मेहता व उनके दसियों-सैकड़ों सहयोगी-सखा। हाथों में तराजू थामे व आँखों में पटटी बँधी न्याय मूर्ति के संरक्षण में फलने-फूलने वाले विद्वजनों व कतिपय न्याय-देवों के आलय भी साहब पाड़ा मे मिल जाऐंगे पर थोड़े अंतर के साथ कि ऐसे लोगों के घर अदृश्य आवरण से घिरे होते हैं। गोया इन घरों को जादुई घर कहना उचित होगा बड़ी-बड़ी आँखें भी इन्हें देखने- पहचानने में धोखा खा जाती हैं। ये जबरदस्त दृष्टिभ्रम पैदा करती हैं क्योंकि प्रथम दृष्ट्या न्यायजनों की ये कोठियां आमजनों की बस्तियों के साथ-साथ दिखती हैं परन्तु वास्तविकता में साहब पाड़ा के ही मुख्य व प्रभावी ठिकाने होते हैं। साहब पाड़ा के सामने यानि कि चारों ओर आमजनों की बस्तियाँ- कालोनियाँ बसी हैं बल्कि यूँ कहिए पसरी हैं दूर-दूर तक अनन्त-अथाह। गणित के साधारण अनुपात की भाषा में कहें तो साहब पाड़ा के एक बंगला अनुपात एक लाख झोपड़ियाँ-कोठरियाँ-खोलियाँ। इन बस्तियों के
बिल्कुल बाहरी भागों में दूरस्थ इलाकों में फैले हैं करोड़ों किसानों खेतिहर मजदूरों की झोपड़ियाँ कच्चे-पक्के मकान। किसान व उसके खेत- खलिहान के बालसखा मजदूर अर्थात जो तीन सौ पैंसठ दिन जी-तोड़ मेहनत करके देश का अन्न-भंडार भरते हैं और पुरुस्कार स्वरुप मिला है धंसा पेट और पिचका गाल। साहब पाड़ावालों ने इन्हें अन्न-दाता की उपाधि से विभूषित कर रखा है उसी उपाधि की नशा में वे सभी अपनी दुर्दशा में भी आनंदित हैं कभी साहब पाड़ा के वैभव पर प्रश्न चिन्ह लगाने का ख्याल भी नहीं आया। कभी किसी कोने में सुगबुगाहट हुई भी तो कई प्रकार के सुगन्धित पर नशीले फुहारों से शान्त करा दिया है साहबपाड़ा वालों ने। इन विशाल मानव-खंडों के मध्य भाग अर्थात बाहर से दूसरे और साहब पाड़ा की तरफ से तीसरे परिवलय में स्थित है शहरी मजदूर-झाडू- पोंछा-बर्तन-ठेला-रिक्शा वाले व इसी श्रेणी के इनके अन्य करोड़ों बंधु सखा। दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करके जो कुछ भी अर्जित करते हैं उसीपर भाव-विभोर व आत्म-मुग्ध दिन-रात तरंगित कि ठीक-ठाक कमा लेते हैं। उनके अंदर आशा की दीर्घ-किरण टिमटिमाती रहती है (पर कभी बुझती नहीं) कि वे भी तरक्की की ओर बढ़ रहे हैं और उनके भी दिन बहुरेगें। इस मानव समूहों में बाहर से तीसरे और अन्दरुनी घेरे से दूसरे वलय में स्थिर बैठे हैं छोटे व मझोले वणिक मध्यम दर्जे के नौकरी पेशा वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के छोटे-मोटे कार्यकर्ता एवं विविध निजी कारोबार-पेशा से जुड़े सामान्य आय अर्जन वाले समूह। ये जनसमूह विभ्रम के विशाल आवरण तले मग्न हो जीवन-यापन करते चले जाते हैं कि वे बाहरी दुनिया के चैथे व तीसरे मानव परिवलय कोचलाते-नचाते
हैं। वे विराटरुप से मन-मोदित हैं कि उनसे बाहर स्थित जन-समूह उनके कस्टमर व क्लाइन्ट हैं। और सबसे बड़ा मति-विभ्रम कि साहब पाड़ा के साहेबान उनके मार्फत ही देश दुनिया पर शासन-प्रशासन करते हैं। बस्तियों-कालोनियों के अन्दरुनी संकुल में उछल-कूद मचाते विविध समूह हैं। मसलन मझौले व वृद्धि की ओर अग्रसर बड़े व्यवसायी सबल ठेकेदार उच्च अधिकारी वर्ग से एक पायदान नीचे के अधिकारीगण। भले ही इनकी संख्या बाहर के तीनों मानव परिवलय की तुलना में नगण्य हैं पर विशाल जनसमूह को साम-दाम-दंड-भेद से अपने वशीभूत रखते हैं| वस्तुतः ये सीमित संकुल साहब पाड़ा के मुखैाटे हैं साहब पाड़ा वाले इन्हीं मुखौटे के मार्फत आमजनों से मुखातिब होते हैं। सरल शब्दों में साहब पाड़ा का शासन-दंड। एक अदृश्य सत्य कि शासकों ने इसी संकुल के नीचे से जाला डालकर बाहरी तीनों मानव परिवलय को अपने स्थायी पर अदृश्य पाश में बाँध रखा है। इस मानव संकुल की स्थायी विशेषता है इसकी संरचना का अस्थिर होना वो इसलिए कि इस संकुल में जन्मा या अवतरित हुआ हर शख्स स्वप्नजीवी होता है कालोनियों से उछलकर साहब पाड़ा में जगह बनाने के ख्वाब में जीने वाला। तदानुकूल वह दिन-रात प्रयास करता है एक आकस्मिक उछाल की एक ऐसी उछाल जो उसे साहब पाड़ा के अन्दर स्थापित कर दे। इस मानव-संकुल में दिन-रात पैदा हो रहे सैकड़ों विक्षोभ का ही परिणाम है कि चारों मानव परिवलय अनवरत उद्वेलित उद्विग्न और अशांत हैं। अगर रहस्य उजागर हो तो दिन के उजाले जैसा स्पष्ट हो पड़ेगा कि साहब पाड़ा वालों ने अपने अदृश्य जालों को इसी मानव संकुल के हाथों से विशाल जन-समूहों में डाल रखा है एक ऐसा सूक्ष्म जाल जिससे बाहर
निकलने के कई रास्ते दिखते तो हैं पर वस्तुतः सभी के मुँह अदृश्य रुप से सिले हैं। अब बात रही सुरंग की तो इसकी खोज या अवतरण किसी साजिश या भंडाफोड़ अभियान के तहत नहीं हुआ है। हुआ यूँ कि जनसमूह के चैथे यानि सबसे बाहरी परिवलय मे रहने वाले धनराज किसान की माली हालत ढे़र सारी योजनाओं व घोषणाओं और खुद उसके तमाम प्रयासों के बावजूद साल दर साल गिरती जा रही थी। साहब पाड़ा की चकाचौंध को वह बचपन से ही निहारता आ रहा था टकटकी लगाकर बिना कोई प्रश्न किए जवानी में उसे विश्वास दिलाया गया था कि दो बच्चे ही पैदा करोगे तो सुखी रहोगे। सो उसके दो बच्चे ही हैं। निजी महंगे स्कूलों में पढ़ा नही पाया सरकारी स्कूलों में पढ़ाई हुई नहीं। सो लोक निर्माण विभाग में एक लड़का लगा है कैजुअल लेबर के तौर पर। एक लड़की पड़ी है दहेज का इंतजाम हो तो शादी निपटे। घर मुख्यमार्ग में है सो साहब पाड़ा से लेकर चैथे परिवलय तक के सभी पुरुषों (वयनिरपेक्ष) के चक्षु भेदन का शिकार होती रहती हैं। हां तो सुरंग की बात फिर पिछड़ रही है। गलती से धनराज ने एक दिन अपने संकुल में रहने वाले जाहिद ठेकेदार (जिसे वह नियमित रुप से शुद्व अनाज पहुँचाता रहा है) पूछ लिया था कि आखिर इन साहब पाड़ा वाले बिना मेहनत किए कुदाली- खुरपी-फावड़ा चलाए बगैर दिन-दुनी रात-चैगुनी धन कुबेर कैसे बनते जा रहे हैं। तो जाहिद ने कान में फुसफुसाया कि इनके घरों की मिटटी के नीचे धन-सम्पदा की खान है। इस साल सूखा पड़ा था खेतों में कोई अनाज नहीं उग पाया। धनराज बैठा तो नहीं रह सकता था सो लग गया अपने उत्तरी खेत की खुदाई करने कि कहीं उनकी मिटटी के नीचे भी खान दबा पड़ा हो
सात दिनों की मेहनत रंग लायी सौ फीट लम्बा और बीस फीट गहरा गडढ़ा खोदने के बाद उसकी कुदाल किसी धातुनुमा वस्तु से टकराई। उसकी बांछे खिल उठीं कि कोई बड़ा खजाना हाथ लग गया। पर बात फैल गई। परिणाम बाहरी परिवलय की पूरी जनता दूसरी वलय के आधे जनगण तीसरे वलय के एक चौथाई नागरिक खदान के चारों ओर जम गई आशा लालसा और निराशा का मिला-जुला भाव लिये। हाँ कुछेक सज्जन चौथे मानव-संकुल से भी बीच-बीच में फुदक पड़ते थे व्यंग्यपूर्ण हास्यमुख-मुद्रा लिए। पाड़ावासी तो सीधे सड़क से पूर्व की भाँति तीव्र गति से निकल लेते थे यान में बिना ब्रेक दिए नाक के नीचे घृणित हँसी लिए और काले चश्मे के नीचे आँखें तिरस्कार पिये। धनराज के खेत में मिले खजाने की खबर से कुबेरचंद भी उछल पड़ा था। कुबेरचंद यानि बस्ती के बाहरी परिवलय में स्थित मजदूर। एक बेटा है बचपन में कुपोषण के शिकार से अर्द्ध-अपंग। तीसरी वलय के एक अधिकारी के घर लगा है लंगड़ा-लंगड़ा कर अन्दर-बाहर पेट-भात पर पड़ा है अर्थात सिर्फ भर पेट भेाजन मिलता है मजदूरी नहीं। दो जवान बेटी हैं बल्कि अभी एक ही है। छोटी वाली पन्द्रह वर्षीया को छह महीने पहले कुछ लोगों ने दिन-दहाड़े गाँव के बगीचे से उठा लिया था। थाने में रिपोर्ट हुई थी। अन्दरुनी वलय के कुछ गणमान्य लोगों की मध्यस्थता में थाने पर कुबेरचंद को समझा दिया गया है कि बच्ची बड़ी हो रही है सो अपने किसी दोस्त-गोस्त के साथ चली गई होगी मन ठंडा हो जाएगा तो जल्दी ही लौट आवेगी। बड़ी बेटी अठारह वर्षीया भाग्यवती पिछले दो साल से चौथे वलय क्षेत्र के एक रौबदार अधिकारी के दफ्तर में अस्थाई परिचारिका के रुप में लगी है। पर घरवालों को पता तक नहीं है कि वह
कितनी बड़ी अभागी है एक साल में वह आफिसर उसे दो बार अपने महिला मित्र चिकित्सक के पास ला चुका है उसके पेट में प्रकट किए गए ठोस-द्रव्य गोले को गलाने के लिए। सो अपंग बेटे के मन की अपंगता दूर करने और भाग्यवती को सौभाग्यवती बनाने का सपना लिए कुबेरचंद भी कूद पड़ा जमीन खोदने। चूँकि उसके पास इन्दिरा आवास वाले नकली पक्का घर के अलावा अपनी कोई जमीन नहीं थी सो उसने घर के पिछवाड़े वाली सरकारी जमीन ही खोदना शुरु कर दिया। नतीजा आशाजनक रहा। जल्द ही ठोस धातुमय पदार्थ उसके फावड़े से टकराया वो भी थोड़ी कम ही गहराई पर। फिर तो उसके वाले गडढ़े के पास भी दुनिया उमड़ पड़ी। द्वितीय वलय यानि शहरी गरीब निम्न व निम्न मध्यवर्गीय आबादी वाली बस्तियां। रेल चलाने वाले हिम्मत सिंह का घरनुमा टीन षेड भी यही है। गर्भाशय कैंसर से पत्नी स्वर्ग सिधार चुकी है। इलाज के दरम्यान डाक्टर बीमारी का राज बहुत पहले ही खोल चुका था। पर मृत्यु-बेला में हित-पड़ोसी को बताना पड़ा कि पेट में जोर का दर्द उठा और प्राण त्याग दिये जाहिर सी बात है कि हिम्मत सिंह के पास आधा किलो सोने के बराबर पैसे का इंतजाम नही हो सकता था। (चौथे वलय मे रहने वाली उनकी मालकिन यानि डिप्टी कलक्टर की पत्नी ने उसे बताया था कि मात्र आधा किलो सोना बेचने से उसके कैंसर का खर्च पूरा हो गया था)। पत्नी सिधार गई गम भुला दिया क्योंकि दुनिया थमती नहीं है। ये क्या बाईस वर्षीय बेटा का लीवर खराब हो गया है हेपेटाइटिस की लम्बी शृंखला के मझले शैतान के प्रहार से। जग जाहिर है उसका जवान बेटा चन्द दिनों का मेहमान है। दूसरा बेटा सोलह वर्षीय सज्जन छेड़खानी के आरोप में बच्चा-जेल में बंद है। यह बात दिगर है
कि युवती से छेड़छाड़ साहेब पाड़ा के एक रसूखदार के बेटे ने किया था। उस बड़े साहब ने हिम्मत सिंह को पटाया एक लाख में सो बड़े साहब के बेटे के बदले में सज्जन को जुर्म कबूल कराया गया। अस्तु मौजूदा जानलेवा परिस्थिति में खुल जा सिमसिम की आँधी में हिम्मत सिंह ने भी अपनी झोंपड़ी के पीछे वाली परती जमीन खोदनी शुरु की शरीर की सारी ताकतझोंकते हुए दो-तीन पड़ोसी को योजना-लाभ में शामिल करते हुए। शहरी जमीन थी सो थोड़ा ज्यादा समय लगा पर धातु की खनकदार आवाज से उन सभी के कान फिर मन-मस्तिष्क झंकृत हो उठा। तीसरे वलय क्षेत्र में रहने वाले साधुचरण तो हाईस्कूल से प्रधानाध्यापक पद से सेवा निवृत्त हैं पर उच्च शिक्षा प्राप्त पुत्र व तकनीकी शिक्षाग्रस्त पुत्री सम्मानजनक नौकरी पाने के पीछे दोड़ते-दौड़ते तय उम्र-सीमा के अंतिम छोर पर खड़े हैं। पेंशन प्राप्ति का शेष इतना नहीं है कि कालेज में औसत दर्जे का लेक्चरार पद झपटने का पार्श्व- शुल्क की जुगत हो। पुत्री को एक मंत्रालय में तकनीकी मैनेजर के पद पर आसीन कराने हेतु मंत्री जी की अजीब शर्त से आँखे झुक गई थीं कि बचिया को एकाध बार राजधानी तो घुमा लाओ पहले। सो अंधविश्वासी नहीं होने के बावजूद साधुचरण भी लग गया शहर में खाली पड़े अपने एकमात्र कीमती जमीन के टुकड़े को खोदने। शीघ्र ही प्रभु-कृपा पर पहली बार विश्वास पैदा हुआ जब चमकीली धातु उसके लगाए मजदूर की गैंती से टकराने लगी। चौथे वलय के लोगों ने अपने यहां ऐसी कोई खदान होने की सम्भावना को सिरे से नकार दिया था। बाहरी तीनों वलयों के कुछ लोगों की सलाह (जो उनके घरों-दफ्तरों में अधीनस्थ थे) को उन लोगों ने यह
कहकर अनसुना कर दिया था कि वे सभी अच्छे खाते-पीते घर से हैं सो उन्हें खदानों में छिपे माल की जरुरत नही है और यह भी कि ईश्वर की दया से जो उनके पास है वही काफी है। खुदाई में मिली खानों की खनक जबरदस्त प्रभावोत्पादक था। उन खानों में मिली धातुनुमा पदार्थों से फावड़े-कुदाल-गैंती टकरा रहे थे तो नजदीक के साहब पाड़ा ही नही दूर तलक देश व प्रदेश की राजधानियों में भूकंप के झटके महसूस किए जा रहे थे। स्वभावतः सरकार व उनके महकमों से जुड़े उच्चासीन लोगो के कान खड़े हाने लगे। परिणामतः पूरा का पूरा सरकारी तंत्र मय फोर्स खानों को चारों ओर से घेर कर खड़ी हो गई कि धरती के अंदर मिले हर खजाने पर सरकार का हक होता है। पर लोगों का शक भी वाजिब था कि इससे पहले देश-प्रदेश में जब-तब मिले सोने-चांदी की खदानों छिपे खजानों के मिलने पर इतनी भारी पुलिस फोर्स तो नहीं लगायी गई। दाल में कुछ काला वाली बात जंगल की आग की तरह बस्तियों में फैल गई। विशाल जनसैलाब खदानों की तह तक जाने के लिए दिन भर उमड़ती रही। सरकार ने भी देश की पूरी पुलिस फोर्स और मिलिट्री ताकत झोंक दी। पर जन समूह खदानों का राज जाने बगैर पीछे हटने का तैयार नहीं थी......... ‘‘देश को बर्बादी से बचाना है जैसे जुमले के जोर पर सरकारी तंत्र का दांव सफल रहा कि जनता की मांगे मान जाती है पर देश की सुरक्षा के मद्देनजर आगे की खुदाई सरकारी एजेंसी द्वारा की जाएगी साथ ही विविध जांच एजेंसियां जांच व प्रगति रिपोर्ट सौंपेंगी और जनतंत्र के हित में जनता के कुछ नुमाईंदे भी वहाँ रह सकेगें।
सरकार ने जनता को भरोसे में लेकर अपने दक्ष एजेंसी के माध्यम से खुदाई का कार्य आरम्भ किया बा-होशियार की मुद्रा अख्तियार करते हुए। एजेंसी ने खुदाई कार्य आगे बढ़ाया धीरे-धीरे पर पूर्ण कौशल के साथ। खुदाई की गति से कई गुणा जन-जन की व्यग्रता और अधीरता बढ़ती जा रही थी और उसके विपरीत अनुपात में बढ़ रहा था शीर्ष तंत्र में बैठे बड़ों का परिहास। वो कुटिल परिहास वस्तुतः खुदाई के परिणाम का पूर्वानुमान ही था।स्वभावतः खुदाई का नतीजा रहा सिफर! और इसका अंतिम परिणाम रहा साहेब पाड़ा के लोगों की मुख-मुद्रा में कुटिल मुस्कान और चौथे वलय में एक तृप्ति भाव। हुआ यूं कि खुदाई होते- होते तीनों खदानों में पूर्व में मिले-दिखे-खनके धातु सदृश्य पदार्थ की प्रकृति अचानक बदल गई और उसकी जगह साक्षात तौर पर दिखा ऑप्टीकल फाइबर सरीखे कुछ जालीदार-छलनीनुमा पाइप। चूँकि उन जालीदार पाइप का जाल विकट और बोझिल तरीके से चारों दिशाओं में फैली थी इसलिए तीनों वलय के आमजनों ने शुरू में तो अपने पंडितों का कहा मान लिया था कि ये द्वापर या त्रेता युग के पीपल-बरगद के बड़े-बड़े वृक्षों के जड़ अवशेष होंगें। कुछ स्वयंभू विद्वानों ने इस जालीनुमा संसार की व्याख्या इस रुप में भी की कि धरती माता के नीचे बैठे कछुए के उपर कलियुग में उग आए बाल हो सकते हैं और जोकि आने वाले समय में आम जनता के लिए शुभ हो सकते हैं। यह सब कुछ उस समय की बात है जब जनमानस की घ्राण शक्ति चरम पर थी। सो तीनों परिवलय के जन-जन तक एक सत्य प्रवाहित हो चुका था कि अन्दर कुछ रहस्य छिपा है। फिर तो चारों ओर से यह आवाज उठने लगी थी कि नीचे दबे रहस्य से पर्दा उठाया जाए। देखते ही देखते गगनभेदी नारे उठने लगे-जालभेदो! जाले के नीचे पहुँचों।
जाल काटने और उसके तह तक जाने में लग गये करोड़ों जनता। कुछ ही दिनो में नतीजा सामने था तीनो परिवलय के नीचे धरती के अंदर सुस्थापित थी विराठ-विकराल सुरंग! जनता की नजरों से अदृश्य एक ऐसी सुरंग जिसे दुनिया की बेहतरीन तकनीक से भी आगे की तकनीक से बनाया गया था। एक ऐसी तकनीक जिसका काट किसी मौजूदा तकनीक के वश में नहीं था। अगले कुछ ही घंटों में जनता सुरंग के एक छोर के किनारे थी। देशी पद्वति की माप से जनता ने यह सहज ही ज्ञात कर लिया कि सुरंग का छोर साहब पाड़ा के नीचे है और जिसका अच्छी तरह से बंद सा दिखने वाला मुंह साहब पाड़ा की ओर ही खुलता है। हालांकि सरकारी पद्वति की माप से यह मुँह बस्तियों की ओर खुला हुआ सा स्पष्ट दिख रहा था। सो सुरंग में अब तक दाखिल हो चुके लाखों बच्चों ने शोर मचाना शुरु कर दिया कि उसे अलीबाबा के चालीस चोर ने बनाया हेागा। परन्तु सुरंग का दूसरा छोर अब तक ज्ञात ना होना जनता की अधीरता बढ़ा रही थी और जन-बस्तियों में सनसनी फैला रही थी। वहीं चौथे वलय के लोगों के कान खडे़ होने और साहब पाड़ा का असहजरूप से मौन रहना बस्तियों में शक की बरसात कर रहा था। फिर तो करोड़ों जनता दिन-रात जुट गई है सुरंग का रहस्यमयी छोर ज्ञात करने। प्रथम और द्वितीय वलय के काफी लोग साहब पाड़ा के नीचे वाली मुँह पर इकटठा होकर साहब पाड़ा जाने के लिए शार्टकट रास्ता खोजने लगे ताकि उन्हें साहब पाड़ा में अपनी रोजी-रोटी हेतु सीधा रास्ता मिल सके। जादुई मुँह खोलने के अथक प्रयास के बावजूद तिलिस्मी द्वार तो नहीं खुल पाया, पर एक विस्फोटक खोज सामने थी- विशाल सुरंग की रुप-प्रकृति जैसी ही पच्चीस-तीस बड़ी-बड़ी सुरंग साहब पाड़ा के नीचे
आकर खुल रही थीं। फिर तो भीड़ ने चंद दिनो में ही ढूँढ निकाला कि सभी तीसों सुरंग देश के विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों से निकल कर आ रही हैं और इसके माध्यम से कुछ चीजें अज्ञात व अप्रत्यक्ष रुप में सीधे साहब पाड़ा में टपक रही है। फिर तो जनसैलाब तेजी से मुख्य सुरंग में आगे बढ़ने लगी है दिन-रात अंतिम छोर ज्ञात करने का जुनून लिए। सुरंग में लगातार आगे बढ़ने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है सुरंग में प्रवाहित हो रही एक अदृश्य पर शक्तिशाली प्रवाह। जादुई किस्म की एक अबूझ पर तेज प्रवाह जिसमें हवा के बहाव जैसा कुछ भी नहीं था और ना ही सुरंग में कुछ भी बहता-झूलता-झूमता हुआ दिखता था। पर जनता के शरीर में और विशेषतः मस्तिष्क में इस प्रवाह की तीव्र अनुभूति हो रही थी। इसका विनाशकारी परिणाम जल्दी ही सामने आया, कि सुरंग के असली छोर की ओर बढ़ रहे करोड़ों में से लाखों लोग पिछली रात को सुरंग के अंदर एकाएक मृत पाय गए। यह अत्यन्त ही डरावना रहस्य था कि मारे गए लोगों के शरीर में मृत्यु का कोई कारक लक्षण परिलक्षित नहीं हो रहा था। बस्तियों के कुछ प्रतिभाशाली छात्रों ने उस अज्ञात प्रवाह के अंदर तैर रही तरंग-स्वरुप माध्यम का डिकोडिंग किया तो धुंधला सा कुछ दिखा जो इस प्रकार था- बस्ती योजना गरीबों के लिए सबसिडी लोन किसान मजदूर और इन सभी को चारों ओर से अपने घेरे में लिए हुए दिख रहा था- ‘र’ और बजट। ऐसे कोड वर्ड के सामने आने से बस्तियों में उबाल-सा आ गया है। फिर तो नीचे सुरंग में जनता के पांव तेजी से आगे बढ़ने लगे हैं। आखिरकार आज वह घड़ी आ ही गई है। आज यानि पन्द्रह अगस्त दो हजार सैंतालिस! दिन के करीब एक बजे। सम्पूर्ण सुरंग को लांघते हुए जन सैलाब आखिर इसके अंतिम
छोर पर पहुंच ही गई है। आशा के विपरीत अंतिम छोर में कोई जादुई दरवाजा नहीं है। बल्कि इसका मुँह पूरा का पूरा खुला हुआ है। स्पष्टतः अंतिम छोर तो सुरंग का आरम्भ है। पर पूरी जनता आशंकित है कि यह खुला हुआ मुँह कहाँ खुलता है। पँच साहसी नवयुवक व अधेड़ -भगत आजाद सुभाष बल्लभ ओर जय प्रकाश को जिम्मेदारी दी गई कि सबसे सूझबूझ वाले उम्रदराज करमचंद के निर्देशन में यह ज्ञात करें कि इसका मुंह कहाँ खुलता है। इन सभी को रहस्य से पर्दा उठाने में देर नहीं लगी। उस विराट मुंह से होकर बाहर निकलते ही वे सभी एक विशाल भवन में दाखिल हुए हैं। इस विशाल गोलाकार भवन के बाहर बड़े-बड़े व गोलाकार कई खंभे हैं। चारों ओर नजरें दौड़ाई तो पाया कि इस विशाल भवन में वस्तुतः दो बड़े-बड़े गोलाकार और ऊँचे हॉल हैं। इनमें लगभग सात-आठ सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था है। वर्तमान में भी दोनों भवनों में लगभग चार सौ लोग बैठकर बहस सा कुछ कर रहे हैं। उन छः जनों के कानों में बार-बार आवाज आ रही है-बस्ती गरीब किसान मजदूर सब्सिडी बजट विकास और आवंटित आवंटित आवंटित उन छः जनों ने अंदर का हाल बयां कर दिया है जनता के सामने। जनता को समझते देर न लगी कि इस गोल-गोल भवन से और तीसेक अन्य जगहों से बस्ती और जन-जन के लिए भारी-भरकम बजट भेजा जाता रहा है लेकिन वे सभी आवंटन बस्ती को छूते हुए साहब पाड़ा में जाकर समाहित हो रहे हैं। यानि यह सुरंग इस गोल-गोल भवन और साहब पाड़ा के बीच एक गुप्त सेतु का काम करता रहा है। जनमानस की आँखो में क्रांति की चिंगारी धधक रही है। देखते ही देखते पूरा जन- सैलाब हथैाड़े-फावड़े-गैंती-कुल्हाड़ी-दरांते से लैस हो चुका है और पूरा सुरंग गगनभेदी नारों से थर्रा उठा है- काटो सुरंग काटो.......काटो सुरंग
काटो.......काटो सुरंग काटो.......काटो सुरंग काटो.......अरे काटो-काटो क्या बड़बड़ा रहा है साढ़े नौ बजने वाले हैं शेयर मार्किट खुल गया होगा बैंक खुलने वाले हैं- मुझे बांहों से झकझोरते हुए पत्नी ने जगा दिया है। धत तेरे की। मैं भी कौन सा मनहूस सपना देखने लगा भोर में। मेरी आँखे खुली। अरे बाप रे बाप! नौ बजने में तीन मिनट रह गए हैं। सब स्सालों का हिसाब मिलाते-देते रात के दो बज गए थे। अब फटाफट तैयार होने हैं। सबसे पहले शेयर मार्केट जाकर मंत्री जी का हिसाब हवाला के जरिए सुडान भेजना है। ओह गॉड! इतनी बड़ी रकम! चाहे तो एक क्विंटल सोना खरीदा जा सकता है। उसके सामने वाले मंत्री जी और सरकुलर रोड वाले प्रमुख सचिव का हिसाब भी तो हवाला के जरिए दुबई भेजना है। ओरे बाबा रेलवे के बड़े साहब और धाकड़ ठेकेदार साहब का माल भी तो बैंक के जरिए ठिकाने लगाने हैं। उसके बाद उन साहबों का भी....ये स्साले लुटेरे! दिन-रात सरकारी खजाना लूटने मे लगे हैं और मैं बुद्धु लगा हूँ इनका माल ठिकाने लगाने बदले में ये मुझे चटनी चटाते रहते हैं....ओह पहले मैं वाउचर तो भर लूँ तारीख चैदह माह अगस्त साल दो हजार तेरह.....।
कथादेश जनवरी 2016 मे प्रकाशित