अगिनदेहा, खण्ड-13 / रंजन

Gadya Kosh से
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कोले दा ने बेचैनी में सारी रात काटी. आँखों में नींद नहीं, दिल में बेचैनी और दिमाग़ परेशान। बेबी की तस्वीर का हर फ्ऱेम उन्हें बेचैन कर रहा था। रज्ज़ू तो बड़ा सीधा-सादा बनता था...मासूम! यह तो विश्वासघात किया उसने। भारती को पता चलेगा तो...और काजल जान जायेगी तो...बड़ा धुरंधर निकला अपना रज्ज़ू, यह तो सरासर भीतरघाती निकला और बेबी ने कैसे खिंचवाई ऐसी तस्वीरें? रज्ज़ू ने क्या सिर्फ़ फ़ोटोे ही खींचा होगा? नहीं... सांसें फूलने लगीं कोले दा की। बेटे ने मज़ा भी लिया होगा जम कर और सोचते-सोचते कोले दा ईर्ष्या की आग में तपने लगा। सारी रात उसकी कल्पना में कुत्सित विचार कौंधते रहे। लेकिन अपनी कल्पना में बुने काल्पनिक दृश्यों पर वह मुस्कुराने की जगह, सारी रात जलता रहा, अपनी छाती पीटता रहा।

उसे कैसे भी उन निगेटिवों का प्रिंट हासिल करना होगा। कल तो मौक़ा भी था। रज्ज़ू था नहीं। मतवाला के साथ जो रासो बाबू के प्रेस में गया तो पूरे

आधे घंटे के बाद लौटा। राजेन्दर चाहता तो इस अर्से में सभी फ़िल्मों का कान्टैक्ट प्रिंट निकाल सकता था। शुरु में तो वह घबड़ाता रहा, बाद में झिझकते हुए जब वह तैयार भी हुआ तो समस्या यह खड़ी हुई कि कान्टैक्ट पिं्रट्स के लिए सारे फ़िल्मों को स्ट्रिप्स में काटना ज़रूरी था और फिर भाई जी को वह क्या कहेगा? बस इसी कारण यह मामला उस समय फँस गया। कोले दा बहुत तड़पे लेकिन राजेन्दर मजबूर था। फिर भी उसने वादा किया कि जब भी उसे मौक़ा मिला, चुपचाप कोले दा का काम कर देगा। बदले में कोले दा ने भी उसे वचन दे दिया, उसकी माँ का पोटर््रेट दो दिनों में वह बना देंगे।

अब पता नहीं राजेन्दर देगा या नहीं। रज्ज़ू भी तो इतना बेवक़ूफ़ नहीं है कि वह निगेटिवों को यूं ही छुट्टा छोड़ देगा। फ़िल्मों को सुखाने की मजबूरी न होती तो वह डार्करूम में उसे टांगता भी नहीं, सीधे अपनी जेब के हवाले कर देता या अपने काऊंटर में ताला बंद कर रखता। क्या होगा अब?

राजेन्दर से मग़जमारी कर काऊंटर के सामने कुर्सी पर बैठा-बैठा वह इसी फ़िक्र में मरा जा रहा था कि रज्ज़ू, मतवाला के साथ वापस आ गया। कोले दा सोच रहे थे, वह सीधा डार्करूम जाकर तमाम फ़िल्मों पर कब्ज़ा करेगा। लेकिन रज्ज़ू तो

सीधे अपने काऊंटर में आ बैठा और गप्प मारने लगा।

-'कोले दा!' मतवाला ने बैठते ही कोले दा से कहा, 'गुरु! अपने नाटक का एक कवर तो बना दीजिए.'

-'क्यों नहीं बनायेंगे मतवाला जी. अपना तो धंधा ही यही है। नाम बताइये नाटक का।' कोले दा ने मुस्कुरा कर कहा।

आज उनकी जेब भी ख़ाली थी। मोटर साइकल में कल ही उन्होंने एक लीटर पेट्रोल डलवाया था। कवर डिज़ाईन के नाम पर कुछ तो एडवांस ले ही लेगा आज। कोले दा की आँखों में चमक आ गई. एक लीटर तो पेट्रोल ले लेगा और बाक़ी पैसों से व्हिस्की का एक क्वाटर ख़रीदेगा। पैसों की कड़की में, लम्बे समय से व्हिस्की की जगह देशी पी रहा है। आज तो व्हिस्की ही पीयेगा वह। यह सोच कर ही ख़ुश हो गया वह।

-'कमाल है गुरु!' मतवाला बिगड़ा, 'अरे, अपना नाटक' पैसा 'छप रहा है। आपको पता नहीं है?'

नाराज़गी ज़ाहिर कर कुछ क्षण वह रुका फिर मुस्कुराया-' और गुरु यह

धंधे वाली क्या बात कह दी आपने। मतवाला की जेब में पैसा होता तो क्या रज्ज़ू जी छपवाते इसको? आप भी कोले दा गज़ब करते हैं। अब क्या मतवाला से पैसे लीजिएगा आप? '

कोले दा कुछ कहते कि बीच में रज्ज़ू ने मतवाला को रोका-'आप तो मतवाला जी खामखा दिमाग़ लगा रहे हैं। कवर डिजाईन तो सोचा हुआ है...आज ही बन जाएगा। फिर भी आप कहेंगे तो कोले दा से बनवा लेंगे। लेकिन एक बार देख तो लीजिए, क्या बनाता हूँ मैं?'

-'तुम बनाओगे डिज़ाईन?' कोले दा बोले

-'भोला ऽ ऽ।' रज्ज़ू की आवाज़ पर भोला अंदर से आया तो रज्ज़ू ने उसे चाय के लिए कहा, फिर उसने राजेन्दर को बुलाकर, फ़ील्ड कैमरे में एक कट फ़िल्म लोड करने का निर्देश दिया और दोनों मित्रो को अंदर स्टूडियो में ले गया।

एक सपाट टेबल पर रज्ज़ू ने काले रंग का कार्ड बोर्ड रखा। दोनों तरफ़ से उसने स्टैण्ड लाईट खड़ा कर, रिफ्लेक्टर की दिशा कार्ड बोर्ड पर कर दी।

मतवाला उत्सुकता से रज्ज़ू की कार्यवाही देख रहा था और कोले दा अंदर ही अंदर ताव खा रहे थे।

-'अब डिजाईन का काम भी ख़ुदे करोगे?' कोले दा ने रज्ज़ू से कहा-'प्रेस में क्यों दे दिए, ख़ुद ही लिख कर फ़ोटोे-स्टेट करवा लेते। रासो बाबू का पैसा बच जाता।'

रज्ज़ू ने कुछ नहीं कहा। वह स्टैण्ड पर लगे फ़ील्ड कैमरे के बेलों को पूरी तरह खोल कर लम्बा कर रहा था।

कोले दा ने फिर कहा, -'छोड़ो यह झंझट...कल ही बनाकर ले आते हैं तुम्हारा डिज़ाईन।'

कोले दा की बात पर न रज्ज़ू ने कुछ कहा, न मतवाला ने। रज्ज़ू ने काऊंटर से सिक्के निकाल कर कार्ड बोर्ड पर पसार दिये और कैमरे के ग्राउण्ड ग्लास में उसे कम्पोज़ कर फ़ोकस करने लगा।

ख़ुश होकर मतवाला ने मुस्कुरा कर कहा-'कमाल किया रज्ज़ू जी...आप के आईडिया का जवाब नहीं है।' मतवाला ने कोले दा के कंधे पर हाथ रख कर उनसे कहा-'देखिए गुरु क्या आईडिया है रज्ज़ू जी का।'

मतवाला ने ग्राऊण्ड ग्लास के कम्पोज़ड फ्ऱेम में चमकते सिक्कों को देखा और बच्चों की तरह ख़ुश हो गया। रज्ज़ू ने लेंस कैप लगाया। प्लेट लोड करके उस पर काला कपड़ा डाला और कैप खोल कर फ्ऱेम एक्सपोज़ कर लिया।

-'चलो राजेन्दर, डेवलप कर लो।' रज्ज़ू ने राजेन्दर को निर्देश दिया और दोनों मित्रो के साथ बाहर आया। मतवाला और कोले दा के बैठते ही, चाय लेकर भोला हाज़िर हो गया।

-'चाय पीजिए, कोले दा। ... बनने दीजिए...आप को भी अच्छा लगेगा यह डिजाईन।' रज्ज़ू ने कह कर चाय की चुस्की ली।

कोले दा का मूड ऑफ़ था। -'एक सौ का नोट दो' उन्होंने रज्ज़ू से कहा, -'आज पर्स घर पर ही भूल आए. कल एक लीटर तेल खरीदे थे, रिस्क नहीं लेंगे। आज एक लीटर डालना ज़रूरी है।'

-'पेट्रोल क्या सौ रूपये लीटर हो गया है कोले दा?' रज्ज़ू ने हँसते हुए पूछा।

-'तुम नहीं समझोगे...आज गला भी सूख रहा है।'

रज्ज़ू मुस्कुराया लेकिन मतवाला ने ठहाका लगा दिया। उसकी हँसी थमी तो उसने कोले दा से पूछा-

-'गुल्ली लीजिएगा गुरु?'

मतवाला भांग का शौक़ीन था। रोज़़ शाम भांग की गुल्लियां गटकता, फिर मैदान जाता। शाम हो गई थी और वह चाय ख़त्म कर गुल्ली के लिए उठने ही वाला था। उसने सोचा, आज चित्राकार को अपनी गुल्ली खिला देनी चाहिए. लेकिन कोले दा ने इंकार कर दिया-

-'आपका गुल्ली आपको ही मुबारक...हमको नहीं पचता है आपका भांग-वांग।'

-'क्यों गुरू, दारू के तो आप टैंकर हैं। व्हिस्की न मिले तो मसालेदार से भी परहेज़ नहीं करते आप, फिर मेरे भांग की गुल्ली आपका क्या बिगाड़ेगी? नखरा छोड़िए...लीजिएगा? ... बोलिए. एक बार टेस्ट तो कीजिए...भूल जाइयेगा अपनी दारू और व्हिस्की।'

कोले दा ने मतवाला को जवाब न देकर रज्ज़ू से पूछा-'देते हो सौ रुपया?'

-'ले लीजिएगा जाते वक़्त' कह कर रज्ज़ू थोड़ा झिझका फिर कहा-'पहले का भी आपने लौटाया नहीं है कोले दा।'

हँस पड़े वे-'देखो भाय, यह सौ-पचास कोई उधार नहीं लेते हैं हम। हमसे क्या कोई लेता नहीं है? बोलो? तो क्या हम लिख कर सौ-पचास का हिसाब रक्खेंगे? कभी लिये होंगे तुमसे भी...इतना याद रहता है क्या?' कहकर कोले दा मतवाला से मुख़ातिब हो गये-'आंय हो मतवाला जी! देखिए इसको, कितना गरीब हो गया है।' फिर अपनी ही बात पर हो...हो कर हँस पड़े-'चलो निकालो सौ रुपया, अब नै रूकेंगे।'

कोले दा ने सुलझे हुए इकॉनामिस्ट की तरह, सौ रुपये में अपनी सारी ज़रूरतें पूरी कर लीं। पूरे पचास रुपये का तो उन्होंने पेट्रोल डलवाया और आने वाले दो-तीन दिनों के लिए निश्ंिचत हो गए. अब बचे हुए पचास रुपये का अगर उन्होंने व्हिस्की का क्वार्टर ख़रीद लिया तो चखने तक के पैसे नहीं बचने वाले, ऊपर से चामर््स सिगरेट की एक डब्बी भी ख़रीदनी थी। इसीलिए उन्होंने व्हिस्की का ख़्याल छोड़ दिया। तीस रुपये में उन्होंने मशालेदार संतरे की पूरी बोतल खरीद ली। दस रुपये की एक डब्बी सिगरेट और दो रुपये का चखना खरीदा, फिर भी आठ रुपये बच गए जिसे उन्होंने मुस्कुराते हुए अपनी जेब के हवाले कर लिया।

शहर के मुख्य बाज़ार में वह स्कूल था, जिसके प्रवेश द्वार की बग़ल में गोविंद की दुकान थी, जहां वह बगै़र लाइसेंस के दारू बेचता था और मज़े की बात यह

थी कि सड़क के पार, दूसरी तरफ़ पुलिस लाईन के क्वार्टर बने थे। अब गोविन्द की कहानी फिर कभी। यूं भी बच्चों के स्कूल के पास और पुलिस की आँखों के सामने वह इतने मजे में दारू बेचता था तो यह मामला वाक़ई बेहद दिलचस्प था और मुझसे एक स्वतंत्रा कहानी की वाजिब मांग भी करता था लेकिन अभी इतना ही ज़िक्र करना ज़रूरी है कि कोले दा ने उसे लम्बे समय से उसी झांसे में रखा था, जिसमें राजेन्दर फँसा था। फ़र्क इतना ही था कि अपने स्वर्गीय पिता के वायल पेंटिंग की एवज़ में, कोले दा अभी तक पूरे पांच सौ रुपयों की व्हिस्की उससे लेकर डकार चुके थे और अब परेशान होकर गोविंद ने अपने हाथ उठा लिये थे। उसने साफ़-साफ़ कह दिया था-या तो कोले दा पेंटिंग देकर बाक़ी पैसा की व्हिस्की ले लें नहीं तो उसके पैसे क्लीयर कर दें। पेंटिंग वह और किसी से बनवा लेगा।

तो चखना में दो रुपयों के उबले चने लेकर कोले दा ने गोविंद को इशारा किया। उसने कोले दा की बोतल से अलमुनियम के गिलास में संतरा भर कर कोले दा को पकड़ा दिया और बोतल को अच्छी तरह बंद कर, अख़बार में लपेट कर सामने रखते हुए अपना तक़ाज़ा फिर से दुहरा दिया।

कोले दा ने एक ही सांस में पूरा गिलास पलक झपकते ख़ाली कर दिया।

कोले दा की यही आदत, गोविंद को अच्छी लगती थी। क्या मजाल कि कोई राह चलता इनको पीता देख ले। ये कब गिलास उठाते और कब उसे ख़ाली कर देते, कोई पकड़ न पाता, जबकि कई पुलिसिए गोविंद पर इस बात को लेकर नाराज़़ थे कि वह खुले आम, बीच सड़क पर ग्राहकों को दारु पेश करता है।

बहरहाल कोले दा, अब अपनी मस्ती में सड़क किनारे खड़े मोटरसाइकिल के पास आए और उबले चने खाकर तृप्त होने लगे।

झटके में ग्लास ख़ाली करने के कारण पेट में पहुँचे, दारु ने किक् मारी और कोले दा तरंग में आ गए.

-'गोविंद।' उन्होंने मोटरसाईकिल पर बैठ कर आवाज़ लगाई तो काऊंटर से निकल कर गोविंद इनके पास आया।

गोविंद के तक़ाजे़ को उस समय इन्होंने हल्के में ले लिया था लेकिन तरंगित होते ही इन्हें अपनी बेइज्ज़ती का अहसास हो आया।

गोविंद के आते ही इन्होंने अपनी खुंदक निकालते हुए कहना शुरु किया, -'आंय जी गोविंद! एक बात कहते हैं, तुम जो रोज़़-रोज़़ अपने पेंटिंग का तक़ाज़ा करने लगे हो...तुम क्या समझते हो...हम तुमरा टण्डेल हैं? तुमरे घर पर पेंटिंग लाकर पहुँचाएँगे? तुमरे दुकान पर दारु क्या पी लेते हैं... तुम हमको हल्का आदमी समझ लेते हो?'

गोविंद ने प्रतिवाद में मुँह खोला ही था कि कोले दा बिगड़े, -'पहले हमको कहने दो...जानते हो कि नै...इंग्लैण्ड और अमेरिका से मेरे पास पेंटिंग बनने आता है। सब साला हमको सरे बुलाता है। एक-एक साल के बाद नम्बर आता है तब हाथ लगाते हैं...और तुम हमको।'

अब गोविंद को बरदाश्त न हुआ। उसने कोले दा को रोका, -'फ़ाल्तू गप्प नै करिए कोले दा। बहुत इज्ज़त-बात हो गया आपका। भला चाहते हैं तो मेरा पैसा दीजिए और पेंटिंग का झांसा छोड़िए. बहुत देखे हैं आपके जैसा आर्टिस्ट...हमको नै बनवाना है पेंटिंग-फेक्टींग। जो ठगाना था ठगा गये।'

कोले दा की सारी तरंग एक ही झटके में उतर गयी। उनकी समझ में तुरंत आ गया, इस समय गोविंद से उलझना ठीक नहीं। मूड में है इस वक़्त। ज़्यादा बात बढ़ी तो कहीं हाथ न उठा दे। कलाकार तो थे ही। मौक़े की नज़ाकत भाँप कर उन्होंने पैंतरा बदला। मुस्कुराते हुए उन्होंने गोविंद के कंधे पर अपना बायां हाथ रख कर कहा, -'यही मुश्किल है तुमरे साथ। दो बात बोलो तो हत्थे से उखड़ जाते हो। ...अरे तुमको क्या हम जेनरल आदमी में गिनते हैं? तुम तो भाय है मेरा...बुड़बक, समझवे नै करते हो तुम...जाव दोकनदारी देखो अपना। जल्दीए तुमरा काम भी कर देंगे...अरे जेनरल कैनवस पर करना होता तो कभीए बनाए रहते, बुड़बक...कलकत्ता से मंगाए हैं स्पेशल कैनवास...पांच सौ साल तक हिलेगा नै...विक्टोरिया मेमोरियल में देखे हो? सब पेंटिंग आज भी चकचक करता है...उसी कैनवास पर तुमरा काम करेंगे। आने तो दो...तुम तो तुरन्ते पिनक जाते हो...समझते-बूझते तो हो नहीं। नाके पर गुस्सा।'

-'आप कोले दा...' गोविंद ढीला पड़ा तो उन्होंने फिर उसकी बात काटी -'जाव दुकानदारी करो जाके. हमतो तुमरा भाय हैं...दूसरे से ऐसे फन्-फ्न करोगे तो दुकानदारी चलेगी भला? ...बोलो? ...जाव बैठो काऊंटर पर।'

इस बार बगै़र कुछ कहे गोविंद चला गया। कोले दा ने चैन की सांस ली।

साला बेहूदा...दिल ही दिल में कोले दा, वहीं बैठे-बैठे बड़बड़ाए, पूरे गिलास के नशे का कबाड़ा हो गया। अब घर चलो सीधे, वहीं दो घंूट लेकर मूड ठीक करना होगा। यहाँ तो इस बेहूदे ने मूड का सत्यानाश कर दिया और कोले दा ने बड़बड़ करते हुए मोटरसाईकल स्टार्ट की।

घर पर इनका दूसरा दौर चला और सोने के पूर्व तीसरा। नशा ज्यों-ज्यों चढ़ता गया, इनकी बेचैनी बढ़ती गई. बेबी की शक्ल सजीव हो गई. उसका बदन और बदन के सारे अवयव प्रत्यक्ष होने लगे। इनकी साँसें धौंकनी की तरह चलने लगीं और हमारे कोले दा बिस्तर पर बेचैनी से करवटें बदलते रहे। बीबी कब की सो चुकी थी और इनकी आँखों से नींद गायब। धीरे से ये उठे। अलमारी के पीछे छिपा कर रखी बोतल निकाली और उसे मुँह से लगाकर तलछट तक पी गए.

बेटा रज्ज़ू! ऐश करके आया है इस बार...बेबी को क्या छोड़ दिया होगा यूं ही? मशालेदार दारू की तरंग पर उनकी कुत्सित वासना की जलन, हावी होती गई और गली के आवारा कुत्तों की तरह हाँफते-भौंकते-लार टपकाते, अपने बिस्तर पर वापस लेट कर वे इसी चिन्ता में पड़े रहे कि बेबी की बहती गंगा में वे ख़ुद कैसे डुबकी लगायें।

सबसे पहले तो ज़रूरी यही है कि रज्ज़ू की लाईन काटी जाए...यह बेवक़ूफ़ राजेन्दर का बच्चा अगर फ़ोटोे ला दे तो कमाल हो जाएगा।

कोले दा मुस्कुराए. ख़्यालों में उन्होंने देखा। बेबी को वे, फ़ोटोे की झलक दिखा रहे हैं। उसकी आँखों लाज की बोझ से झुक गई हैं और कोले दा ने अपनी बाहों में उसे भर लिया है। एक बार कसमसा कर आख़िर उसने ख़ुद को ढीला छोड़ दिया और... और...

इस ख़्याली-पुलाव ने मस्त कर दिया उन्हें और फिर वे कब सोये पता नहीं।



बेबी से मिल कर ललिता जब ऑफ़िस में वापस आई तो श्रीवास्तव बड़ी बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था। रज्ज़ू के बारे में, मैडम ने अपनी पूरी रिपोर्ट उसे दे दी थी। सब कुछ जानकर वह ख़ुश भी हुआ और संतुष्ट भी। ललिता ने पूरे विस्तार में श्रीवास्तव को सारी बातें बताईं। उसने कहा-'हमारी बेबी की शादी अगर इस लड़के से हो जाती है तो मेरी निगाह में इससे अच्छी और कोई बात हो नहीं सकती; लेकिन इस मामले में कई पेंच हैं। यह तो निश्चित है कि हमारी बेबी को वह बेहद प्यार करता है लेकिन दोनों की सोच और जीवन स्तर, एक दूसरे के बिल्क़ुल कन्ट्रास्ट हैं। वह बेचारा सीधा-सादा फ़ोटोेग्राफ़र है और अपना छोटा-सा स्टूडियो चला कर ख़ुश है। उसकी माँ है और एक विवाहिता बहन। ज़ाहिर है वह अपनी माँ को छोड़ कर, आपकी' जानकी कुटीर'में रहने को कभी राज़ी नहीं होगा। ऊपर से बेबी का जीवन स्तर, उस मिड्ल क्लास लड़के से बिल्क़ुल डिफ़रेंट है और वह इस बात को समझता भी है। फिर दोनों के मेंटल लेवल भी बिल्क़ुल डिफ़रेंट हैं। सर! मैंने खुल कर उससे बातें की हैं। एवरी आसपेक्ट मैंने डिस्कस किया है। ही इज़ वेरी इमोशनल एण्ड इन्ट्रोवर्ट। सेन्सेटिव भी इतना है कि क्या कहूँ? बट सर! आई मस्ट से, ही इज़ ए नाईस एण्ड पायस पर्सन।'

श्रीवास्तव सारी स्थिति समझ चुका था। ललिता से उसने ख़ुद को तो शेयर न किया लेकिन उसने तय कर लिया कि बेबी अगर वाक़ई सीरियस है तो वह बाक़ी सब हैण्डल कर लेगा। लड़का अगर उसके पास रहने को राज़ी न हुआ तो वह अपने पैसे से उसकी स्टैटस ही बदल डालेगा ताकि उसकी बेटी को कोई कॉम्प्लेक्स न हो।

-'क्या सोचने लगे सर?' श्रीवास्तव को ख़ुद में खोया देख, ललिता ने जब पूछा तो वह मुस्कुराया।

-'तुमने अपनी बात कन्क्लूड कर दी है और एकार्डिंग टू योर फ़ाइंडिंग्स देयर आर थ्री मेन हर्डल्स। फ़र्स्ट इज़ द मिड्ल क्लास स्टैटस ऑफ़ द व्वाय। सेकेण्डली द डिफरेंस ऑफ़ थिंकिंग लेवल। थर्ड एण्ड दी लास्ट, बट मोस्ट इम्पॉटेंट बात यह है कि बेबी क्या वाक़ई सीरियस है? प्यार करती है उससे? या केवल इमफै़चूएशन है उसका? अभी उम्र ही क्या है उसकी...बच्ची है वह। यह जानना बेहद ज़रुरी है कि हाऊ डीप हर इन्वाल्वमेंट इज़। यू कैन डू इट बेटर। मिलो बेबी से एण्ड रिपोर्ट मी इन डीटेल।'

अपनी बात कह कर उसने सामने पड़े बीयर के कैन की तरफ़ निगाहें फेरीं तो मैडम ने झट कैन खोल कर साफ़ चकमक ग्लास में बीयर डालनी शुरु कर दी। फिर मुस्कुराया श्रीवास्तव। कितनी एफ़ीसियेंट है मैडम! सोचा उसने। वह कब क्या चाहता है, इसकी टेलीपैथी हो जाती है इसे। मैडम के लिए प्रशंसा के भाव से भर गया वह।

बीयर डालने का अंदाज़़ इतना पेशेवराना था कि मैडम ने गिलास में झाग पैदा ही नहीं होने दिया। पहली घंूट भर कर श्रीवास्तव ने होठों पर जीभ फेरी और फिर से कहने लगा-

-'लिसन टू मी, इफ़ दे बोथ हैव फ़ालेन इन लव विद इच-अदर, दैन नो क्वेश्चन एराइजे़ज़ ऑफ़ देयर मेंटल डिफ़रेंसेज। डिफ़रेंट थॉट्स में प्यार नहीं होता, इमफै़चूएशन हो सकता है, सेक्स हो सकता है...प्यार नहीं, इसीलिए मैडम! अगर तुम्हारी फ़ाईंडिंग्स को मैं एक्सेप्ट कर लंू कि बेबी को वह लड़का प्यार करता है तो...' और श्रीवास्तव ने बात अधूरी छोड़ कर ललिता की आँखों में झांका मुस्कुराया। बीयर का एक लम्बा घूंट लेकर फिर से कहना शुरू कर दिया-'रही बात उसके मिड्ल क्लास स्टैटस की...अगर वह मेरा दामाद बनने के बाद यहाँ रहने से इंकार करता है तो कर दे...आइ विल नौट माईंड इट। अरे वह जब मेरा दामाद बन गया तो ऑटोमेटिकली उसका स्टैटस बदल गया। आई विल इन्वैस्ट फ़ौर हिम।'

इस बार मैडम ने अपने बॉस को रोका।

-'यही प्राब्लेम है सर! मैं समझती हूँ, ही विल नॉट एक्सेप्ट योर फ़िनांस टू चेंज़ हिज़ बिजनेस एण्ड स्टैटस।'

श्रीवास्तव ने बीयर का गिलास ख़ाली किया और हँस पड़ा-'फ़ॉल्स आइडियोलॉजी है यह। आई विल सी, व्हेन आई विल क्रास दी ब्रिज। अभी इस छोटी-सी बात पर डिस्टर्ब होने की ज़रूरत नहीं है। तुम बेबी से मिलो और अभी मिलो।'

मैडम ने सहमति में सर हिलाया और-'ऑल राईट सर! आती हूँ मैं।' कह कर उठ गई.

श्रीवास्तव अपने वर्किंग टेबल पर पहुंचा और अपने काम में उलझ गया।

मैडम जब वापस आई तो पूरे तीन घंटे गुज़र चुके थे। श्रीवास्तव का दिल अपने काम पर एकाग्र न हो सका था। कम्प्यूटर के स्क्रीन पर डिज़ाईनों से खेलते हुए उसकी एकाग्रता बार-बार बाधित होती रही थी। आख़िर तंग आकर उसने कम्प्यूटर बंद कर दिया। फ्रि़ज से बीयर का एक नया केन निकाल कर वह सेन्ट्रल सोफ़े पर बैठा ही था कि हँसती-मुस्कुराती मैडम ने प्रवेश किया।

श्रीवास्तव के हाथ से बीयर का केन लेते हुए ललिता ने कहा-'देयर इज वन इन्फ़ॉर्मेशन फ़ॉर यू सर! अपनी बेबी साड़ी पहनना चाहती है।'

श्रीवास्तव मुस्कुराया और मैडम गिलास में बीयर डालने लगी।


पूरे देश को चलाना शायद आसान हो-काजल ने सोचा, लेकिन 'जानकी कुटीर' की व्यवस्था सम्हालना आसान नहीं। देर रात तक उसके बॉस की टैरेस-गार्डेन पर तीमारदारी करना और सुबह-सबेरे ही बॉस के ऑफ़िस जाने के पूर्व उसके ब्रेक-फ्ऱास्ट तक में मौज़ूद रहना तो शायद बड़े झमेले का काम न था लेकिन बाक़ी की हाऊस कीपिंग में बड़े झमेले थे।

श्रीवास्तव सर तो ठीक नौ बजे सुबह अपने ऑफ़िस पहुंच चुके थे लेकिन काजल अभी तक फँसी थी। पर्दे से लेकर छोटे-छोटे नैपकिन तक की ख़रीदारी और साफ़-सफ़ाई. राशन-पानी की ख़रीदारी, नौकरों की तनख़्वाह से लेकर बाक़ी तमाम झमेले। यहाँ तक कि टैरेस गार्डेन से लेकर पोर्टिको तक में लगे प्लांट्स और बीज तथा गार्डेन-टूल्स तक की मार्केटिंग में उसे अपना सर खपाना पड़ता था। एक को निपटाती थी तो दूसरा काम सामने खड़ा हो जाता था। अभी-अभी उसने माली की ज़रूरतें समझ कर नर्सरी को फ़ोन किया था कि कारपोरेशन वाले 'जानकी कुटीर' का टैक्स लेने आ पहुंचे। काजल को दौड़ कर अपने विंग से पूरी फ़ाईल लानी पड़ी और कारपोरेशन वालों से निवृत होने में उसे पूरा एक घंटा लग गया। कई बार उसने चाहा था कि अपने बॉस से कह कर 'जानकी कुटीर' की मैनेजरी से मुक्त हो जाए, लेकिन चाह कर भी वह कभी कह न सकी।

आज सुबह से ही इस क़दर व्यस्त थी कि रज्ज़ू जी के अचानक चले जाने की परेशानी भी वह भूल गई. रात जब टैरेस गार्डेन की ड्यूटी भुगत कर अपने विंग में वापस लौटी तो उस वक़्त काजल बेहद थकी हुई थी।

भारती के स्टूडियो का दरवाज़ा अंदर से बंद था। बंद दरवाजे़ को देखकर एक बार वह मुस्कुराई. आज दोनों सवेरे ही सो गये। उसने सोचा, फिर अपने कमरे में चली गई.

काजल को रज्ज़ू जी के विषय में सुबह-सवेरे पता चला कि वे रात में ही अचानक चले गये। सुन कर उसे आश्चर्य तो हुआ लेकिन वक़्त नहीं था कि इस विषय पर ज़्यादा बात कर सके. झटपट उसने भारती के लिए चाय बनाई और श्रीवास्तव की लिविंग में चली आई. तब से अब तक वह एक के बाद एक काम में फँसती चली गई.

दोपहर हो गई तब जाकर उसने साँस लिया। भारती के लिए उसे खाना भी बनाना है और रज्ज़ू जी पर बातें भी करनी हैं। तमाम ख़्यालों में उलझी, कॉरीडोर को पार करते हुए जब वह बेबी के विंग के पास आई तो बेबी के कमरे का दरवाज़ा खुला था। उसके पांव अचानक ठिठक गये। शीशे के सामने खड़ी बेबी साड़ी की तरह, अपने शरीर पर बेडशीट बांध रही थी। उसने मुस्कुराते हुए दरवाजे़ पर दस्तक दी तो बेबी ने मुड़ कर चौंकते हुए काजल को देखा और फिर दोनों हँस पड़े।

बेबी ने बेडशीट उछाल दी और काजल के पास मुस्कुराती हुई आ पहुंची।

-'हो क्या रहा है?' काजल ने शरारती आँखों से पूछा।

-'साड़ी बांधना सीख रही थी, काजल दी।'

-'बुद्धू, मुझसे कहती...ठीक है आज मैं पहनाऊँगी तुम्हें। देखना, साड़ी में कैसा रूप निखर आएगा तुम्हारा।' कुछ क्षण रुक कर काजल ने बेबी के

कंधे पर हाथ रख कर कहा-'किसके लिए पहनेगी? रज्ज़ू जी के लिए?'

लजा कर सर झुका लिया बेबी ने तो काजल हँस पड़ी-'इतना बदल दिया है उसने तुमको? अब लजाना भी सीख गई...चलो अच्छा है, लेकिन उनके रहते क्यों नहीं पहनी?'

पूरी तरह चौंकी बेबी, -'उनके रहते का क्या मतलब? चला गया वह?'

-'कल ही रात अचानक चले गये। आज रैली है। शायद भीड़ से बचने के लिए ही कल रात निकल गए या हो सकता है, घर से कोई समाचार आया हो। रात तो मुझे पता न चला और सुबह-सबेरे मुझे भागना था। अभी बात करूंगी तुम्हारे भैया से तो पता चलेगा।'

बेबी की चंचलता-उमंग और चेहरे की सारी ख़ुशी अचानक निचुड़ गई.

-'दुखी क्यों होती है पगली! पूरे दस दिनों तक रुके रहे। तुम तो जानती हो, आए केवल दो दिनों के लिए थे। अपना जी छोटा न कर। मैं हूँ न? ... अब और न रुकूंगी, फिर मिलती हूूं...चल।'

काजल ने बेबी के गाल थपथपाए और कॉरीडोर पर आगे क़दम बढ़ा दिए. बेबी, वहीं पत्थर की बुत बनी खड़ी रही।

हमेशा अपनी मस्ती में मस्त रहने वाला 'यंग मैन ऑफ़ सेवंटी सिक्स' अपनी कुत्सित कल्पनाओं के जाल में इस क़दर उलझा कि उसकी ज़िन्दगी ही बदल गई. अक़्ल थी, दौलत थी और सुख भोगने के लिए सेहत भी। ज़िन्दगी जीने का उसका अपना फ़लसफ़ा भी ऐसा था कि उसकी ज़िन्दगी में कोई कमी नहीं थी, लेकिन अक़्ल पर ऐसा पर्दा पड़ा कि वह बेचैन हो गया। अपने जिम में कसरत भी उसने ज़्यादा करनी शुरू कर दी। पहली मर्तबा एन्टी एजिंग क्रीम ख़रीदी। पहली-पहली बार मेन्स-पार्लर में फ़ेशियल करवाना शुरू कर दिया। पहनावे में और भी सजग हो गया और शीशे के सामने खड़े-खड़े मुस्कुराते रहने का नया शौक़़ चर्राया।

दिनचर्या ही बदल गई उसकी। कल जब श्रीवास्तव के ड्रिंक सेशन से उठा तो रात काफ़ी हो चुकी थी। श्रीवास्तव को विदा कर जब अपनी मस्ती में ख़रामां-ख़रामां वह नीचे आया तो टैरेस पर उतरने वाली सीढ़ियों पर न उतर कर उसके क़दम कॉरीडोर पर आगे बढ़ गए.

बेबी के बंद दरवाजे़ पर आकर वह रुका। चाहा दस्तक दे-दे लेकिन उसकी अक़्ल ने उसे इसकी इजाज़त न दी। उसके बढ़े हुए हाथ थमक कर रुक गए. कुछ देर वह यूं ही खड़ा नशे में झूमता रहा। फिर ख़ामख़ा ही उसने अपनी हथेली दरवाजे़ पर रख दी। दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था। थोड़ा खुल गया। पूरा कमरा अंधकार में डूबा था। वह मुस्कुराया। समझ गया बेबी सो चुकी है। हौले से वापस अपनी तरफ़ खींच कर उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। इस वक़्त वह कमरे में नहीं जाएगा। नींद में गाफ़िल बेबी, अचानक चौंक जाएगी। उसके होंठ फैले, चेहरे पर चौड़ी मुस्कुराहट फैली। वह वापस मुड़ा और झूमता हुआ ख़रामां-ख़रामां कॉरीडोर पार कर सीढ़ियों पर उतर आया।

पार्किंग में खड़ी अपनी 'आस्टीन' में बैठा। दरबान ने अदब से मुख्य द्वार खोल दिया और उसकी कार बाहर निकल कर सड़क पर फिसलने लगी।

उसके हाथ स्टेरिंग पर थे, नज़रें सड़कों पर और दिमाग़ बेबी पर। मुस्कुराता हुआ वह अपनी गाड़ी दूसरी गियर पर बेहद धीमी चला रहा था।

यह लड़का कहाँ से आ टपका? अब उसकी चेतना रज्ज़ू पर जा अटकी। कब तक जमा रहेगा यहाँ? जाता क्यों नहीं? ठीक है कल दिन में ही वह 'जानकी कुटीर' आएगा और इंटरव्यू लेगा उसका। इस बेहूदे को हटाना ज़रूरी है। उसके चेहरे पर फिर मुस्कान टपकने लगी। उसने निश्चय किया कि कल उसे घुड़की दे कर निकाल बाहर करेगा 'जानकी कुटीर' से।

इस निश्चय पर पहुंचते ही वह ख़ुश हो गया और अपनी गाड़ी तीसरी, फिर चौथी गियर में डाल कर रफ़्तार बढ़ा दी।


कोले दा की आँखों खुलीं तो सूरज सर पर चढ़ आया था। कोले दा का सर दर्द से फटा जा रहा था। उनकी समझ में आ गया, यह दर्द कल के संतरे का हैंग ओवर है। क्या करें कोले दा? बिस्तर से उठने की इच्छा ही नहीं हो रही थी लेकिन अलसाते हुए किसी प्रकार उन्होंने ख़ुद को बिस्तर से उतारा। आँखों में पानी के छींटे मार कर कुल्ला किया-मुँह धोया लेकिन सर के दर्द में कोई कमी नहीं आयी।

दारू का हैंगओवर दारू से ही उतरेगा, यह तो उन्हें पता ही था। उन्होंने रसोई की तरफ़ नज़रें उठाईं, पत्नी बर्त्तन साफ़ कर रही थी। वे निश्चिंत हुए; अभी देर तक फँसी रहेगी। अल्मारी के पीछे छिपायी हुई बोतल उन्होंने निकाली। यह तो पूरी ख़ाली है! देखकर कोले दा झुंझलाए. माल तो था इसमें! फिर ख़ाली कैसे हो गई बोतल? माल गायब! क्या करें अब? पत्नी से पूछ नहीं सकते, तभी उन्हें याद आया। रात ख़ुद ही उन्होंने आधी नींद में उठकर बोतल में मुँह लगाया था और तलछट तक ख़ाली करके आख़िरी बूंद तक को जीभ पर टपका डाला था।

-'अजी सुनती हो ऽ...,' उन्होेंने वहीं से पत्नी को आवाज़ दी। 'इ क्या भोरे-भोर घस्-घस् लगा रक्खी है। मेरा सर दर्द से फटा जा रहा है... एक चाय बना दो जल्दी से।'

पत्नी ने बगै़र हाथ रोके वहीं से कहा-'चा खेते की हौबे? ... नेबू चाटो नून दिए...' (चाय से क्या होगा? नीम्बू चाटो नमक डाल के) फिर बड़बड़ाई-'माथा तो फाटबेय।' (माथा तो फटबे करेगा।)

-'क्या कहा?' कोले दा पत्नी के पास जा पहुंचे। 'यह जो बड़बड़ा कर कुछ से कुछ कहती रहती हो...साफ़-साफ़ क्यों नहीं बोलती?'

-'आर सौकाल-सौकाल तुमार सोंगे मुख लागिए दिन टा ख़राब कोरते चाइ ना।' (अब सुबह-सुबह मैं तुमसे मुंह लगाकर अपना दिन ख़राब नहीं करूंगी।) पत्नी ने बिगड़ कर कहा और बर्त्तन पर राख मलने लगी।

-'सब समझते हैं हम...छोड़ो चाय बना दो जल्दी से।'

-'गिए बोसो चुपचाप...आमार ऐखोन देरी लागबे।' (जा के बैठो चुपचाप...देरी लगेगी अभी।)

कोले दा की इच्छा हुई कि बाल पकड़ कर उठा ले अपनी पत्नी को और दे एक झापड़ लेकिन उसने ख़ुद पर ज़ब्त कर लिया और लौट कर कमरे में वापस आ गया।

'चामर््स' की डिब्बी में चार सिगरेटें बची थीं। छह सिगरेटें पी गया वह? उन्हें आश्चर्य हुआ। नशा ज़्यादा ही चढ़ गया था कल। सब गोविंद की बदमाशी है। साला अपनी दुकान पर आराम से पीने ही नहीं देता। गिलास उठाओ और झट से खाली कर दो। इसी से तो 'किक' मार देता है तुरंत दिमाग़ में। अरे दारू का क़ायदा है, चुस्की मार-मार कर पीओ. कुछ देर इसी तरह उसने गोविंद पर अपनी भड़ास निकाली। इस बीच उन्हें पता ही नहीं चला, कब उन्होंने सिगरेट जला ली थी। आराम से उन्होंने लम्बे-लम्बे कश लिए. आधी सिगरेट समाप्त हो चुकी थी। कोले दा ने एक लम्बा कश लिया और सारे धुँआं फेफडे़ में डाल लिया। फिर चौथाई बचे सिगरेट को बुझा कर वापस डिब्बी में रख लिया।

पत्नी चाय की प्याली लेकर आई और पास पड़े टेबल पर रख कर, बगै़र कुछ कहे तेज़ी से वापस चली गई.

कोले दा ने प्याली उठाई, जाती हुई पत्नी को देखा। साली का दिमाग़ बहुत चढ़ गया है आजकल। इसको आसमान से जमीन पर उतारना होगा, नहीं तो और चढ़ जाएगी माथे पर।

चाय पीकर उन्होंने फिर चामर््स सिगरेट की डिब्बी उठाई. चौथाई बची सिगरेट के टुकड़े को जलाने के पूर्व एक बार हिचका। बाथरूम में तो उसे फिर एक सिगरेट लगेगी ही। क्या करे? छोड़ दे इसे? बाथरूम में काम आएगी। लेकिन अभी तो प्रेशर भी महसूस नहीं हो रहा। बाथरूम जाने में थोड़ा वक़्त लगेगा और चाय पीने के बाद एक फूंक तो ज़रूरी ही है। चलो कोई बात नहीं स्टॉक में अभी तीन और है। बाथरूम में पूरी एक सिगरेट फूंकने के बाद भी, दो तो फिर भी स्टॉक में रहेगी ही और उन्होंने उंगलियों में पकड़े टुकड़े को फिर से जला लिया।

कोले दा की ज़िन्दगी में सिर्फ़ तीन फ़िक्रें थीं जिन्हें सुलझाने में इनका दिन गुज़रता था। वे थीं-दारू, सिगरेट और मोटर साईकिल का तेल। बाक़ी की ज़रूरतें तो पत्नी अपनी तन्ख़्वाह से पूरी कर ही देती थी।

अपनी तीनों फ़िक्रों से जूझते हुए इनको कोफ़्त होती सिर्फ़ अपनी 'जावा' मोटरसाईकल पर। पुराने ज़माने की 'जावा' का पेट बेहद बड़ा था और तेल पचाने की इसकी आदत भी इतनी ज़बरदस्त थी कि एक लीटर में बमुश्किल बीस किलोमीटर चलती थी। जबकि नये जमाने की मोटरसाइकिलें सत्तर से अस्सी किलोमीटर का फ़ासला तय कर लेती थीं। लेकिन ये करते क्या? नई खरीदने की फ़िलहाल कोई व्यवस्था इनके पास थी ही नहीं, इसीलिए मजबूरी में ठोक-पीट कर इसी से काम चला रहे थे।

दो ही लम्बे कश के बाद उनकी उंगलियां जलने लगीं तो झट जमीन पर फेंक चप्पल से मसल दिया। अब प्रेशर महसूस होने लगा था। डब्बे से एक नयी सिगरेट निकाल कर वे बाथरूम चले गए.

आज रविवार था। रज्ज़ू का स्टूडियो बंद था। इसीलिए कोले दा को सारे दिन घर में ही गुज़ारना था। यूं भी सारे दिन वे अपने स्टूडियो में ही गुज़ारते थे और शाम में 'जावा' पर रज्ज़ू से मिलने निकलते थे। कल ही उन्होंने पूरे पचास रुपयों का पेट्रोल भराया था। दो-तीन दिनों के लिए तो वे निश्ंिचत थे लेकिन उनकी आदत थी कि जिस दिन वे एक लीटर डालते थे, उसी दिन से अगले लीटर की फ़िक्र करने लगते।

बाथरूम से फ्रे़श होकर आए तो अपने बरामदे में राजेन्दर को देख कर कोले दा चौंके. राजेन्दर खड़ा-खड़ा मुस्कुरा रहा था। कोले दा उत्सुक हो गए. प्रिंट्स लेकर आया है क्या? मुस्कुरा रहा है तो ज़रूर लेकर आया होगा। लेकिन हाथों में तो कुछ है नहीं!

-'आओ राजेन्दर' , कोले दा ने हँसते हुए कहा-'अंदर आ जाओ...' राजेन्दर आने लगा तो उन्हें लगा स्टूडियो में ही बैठना चाहिए, यहाँ श्रीमती जी आकर खेल बिगाड़ सकती हैं। उन्होंने राजेन्दर का हाथ पकड़ा-'चलो स्टूडियो में बैठते हैं।'

तीन कमरों के घर का एक कमरा इनका स्टूडियो था। दस गुणा पंद्रह फ़ुट के इस कमरे में एक खिड़की थी और इसी के पास स्टैण्ड पर पेंटिंग के लिए ईजल लगा था। उसी के पास एक ऊंचे टूल पर स्ट्रेचुला और रंग-ब्रश बिखरे पड़े थे। प्लास्टिक की दो कुर्सियाँ, एक अलमारी, एक टेबुल और फ्ऱेमों में स्टेªच किए कैनवासों के ढेर वगै़रह से पूरा स्टूडियो भरा था। सारे साज़ो-सामान पर गर्द की परत जमी थी। ज़मीन पर भी झाडू मारने और सफ़ाई करने की शायद, ज़रूरत महसूस नहीं की गई थी।

ऊपर छत में लगे लकड़ी के बीम से एक पंखा लटका था। दीवारों के उखड़ चुके प्लास्टर को दर्जनों पेंटिंग्स के द्वारा छिपाया गया था। कुल मिला कर पूरा स्टूडियो कोले दा की ही तरह बेतरतीब था।

प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठते ही कोले दा की आँखों में चमक आ गई. उन्होंने कुटिलता से मुस्कुराते हुए राजेन्दर से पूछा-

-'लाए हो क्या?'

- 'हाँ' राजेन्दर ने सकुचाते हुए हामी भरी।

-'अरे यार तो सस्पेंस काहे बना रहे हो! कहाँ है?' उतावले होकर उन्होंने कहा तो राजेन्दर कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। पेट के ऊपर की क़मीज में हाथ डाल कर उसने छह गुणा नौ इंच के कई प्रिंट्स निकाल कर कोले दा को दे दिये।

कोले दा की आँखों और भी चमकने लगीं। ज्यों-ज्यों वे उसे देखते गए उनकी आँखों की चमक त्यों-त्यों और भी बढ़ती गई. उनके मुस्कुराते होंठ और भी फैलते गए, मुस्कान और भी चौड़ी होती गई.

-'शाबाश!' अंत में उन्होंने कहा, 'अब देखना, कितना झटपट तुम्हारी माँ का पेंटिंग बनाते हैं! देखो कैनवस भी फ्ऱेम किया हुआ है, तुम बस एक दूसरा फ़ोटोे दे दो सिर्फ़।'

अब राजेन्दर के चौंकने की बारी थी। फ़ोटोे तो वह दे ही चुका था। अब दूसरा कहाँ से ला के देगा। एक ही तो फ़ोटोे था, जिसे उसने पूजा स्थान में रखा था। कोले दा ने खो दिया क्या?

-'क्या हुआ चुप काहे हो गए?' राजेन्दर को जवाब न देते देख, कोले दा ने पूछा-'कोई बढ़िया फ़ोटोे नहीं है क्या?'

रूआंसा हो गया राजेन्दर। बड़ी मुश्किल से उसने कहा,

-'फ़ोटोे तो दे ही चुके हैं आपको। वही तो इकलौता फ़ोटोे था मेरे पास।'

-'अरे तो इसमें इतना मूड ख़राब करने का क्या मतलब है? उसी से बना देंगे...घबराते काहे हो।'

राजेन्दर की रुकी साँसेे फिर से चलने लगीं। यानी फ़ोटोे शायद सुरक्षित है। फिर भी अपने इत्मीनान के लिए उसने पूछ लिया-

-'फ़ोटोे है कहाँ?'

अब घबराने की बारी कोले दा की थी। पूरा एक साल गुज़र गया था। अब पता नहीं, फ़ोटोे है कहाँ? है भी या नहीं? लेकिन कमाल था कोले दा का कि उन्होंने अपने चेहरे पर इन भावों को बिल्क़ुल नहीं आने दिया। ऐसे मौक़ों के लिए उनके पास एक फ़ार्मूला था। जब जवाब न सूझे तो ठठा कर हँस दो और उन्होंने यही किया। हँस पड़े ठठा कर। कोले दा हो...हो...कर हँसते रहे और राजेन्दर उनका मुँह ताकता रहा।

हँसी रुकी तो उन्होंने चौड़ी मुस्कान के साथ कहा, -'कमाल करते हो तुम भी, फ़ोटोे क्या यहाँ रखते हैं स्टूडियो में? और फिर इस हफ़्ते तो बना ही देंगे। अगले इतवार आ जाना...पेंटिंग रेडी. ...ठीक है?'

राजेन्दर से कुछ कहते न बना फिर भी उसने अपनी सारी होशियारी जुटा कर कहा-'देखिएगा कोले दा, अबकी मेरा काम हो जाए. वैसे भी मेरा मन घबरा रहा है। भाय जी, जान जायेंगे तो कान पकड़ के निकाल देंगे नौकरी से।'

बिगड़े कोले दा-'जान जाएगा? कैसे जान जाएगा वह? ...तुम बताओगे उसको? ख़ामख़ा घबराते हो। चलो, आना अगले इतबार। जाओ अभी।'

राजेन्दर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन अब वह कर भी क्या सकता था। तीर तो निकल चुका था हाथों से। मन मसोसता हुआ वह उठा। बेकार फँस गए हम...यह तो लुच्चा आदमी है...अब भगवान जाने माय का फ़ोटोे, है कि हेराया। क्या करे? मांग ले भाय जी वाला फ़ोटोे? बेकार का बखेड़ा हो गया तो...गया काम से...लेकिन मांगने से, दे देगा क्या...नहीं देगा और ऊपर से झगड़ा हो गया तो पेंटिंग भी नहींए बनाएगा। बड़े भारी मन से उसने आख़िर कहा,

-'ठीक है कोले दा, जाते हैं हम लेकिन आप इस बार मत मटियाइयेगा।'

कोले दा ने अपने चेहरे के भावों से आश्वत कर मुस्कुराते हुए उसे विदा कर दिया।

राजेन्दर के जाने के बाद उन्होंने अलमीरे से स्टैण्ड वाला मैगनिफ़ायर ग्लास निकाला। पैंतीस मिली-मीटर वाले निगेटिव का कान्टैक्ट प्रिंट बेहद छोटा था। यूं तो सारी तस्वीरें स्पष्ट थीं, फिर भी कोले दा ने कन्टैक्ट शीट के सारे फ्ऱेमों को मैग्नीफ़ाईंग ग्लास से देखना शुरू कर दिया। कोले दा ने देखा सारे प्रिंट्स धंुधले थे। बौखला गए वे...राजेन्दर ने बदमासी किया है क्या? सोचने लगे वे तभी उन्होंने गौर किया लेंस पर धूल जमी थी। उन्होंने पूरे स्टूडियो में अपनी नज़रें दौड़ाईं। कपड़े का कोई टुकड़ा नहीं दिखा तो अपनी क़मीज से ही कोले दा ने मैग्नीफ़ाईंग ग्लास को साफ़ किया।

सारे फ़ोटोे स्पष्ट हो गया। विजयी मुस्कान से भर गए कोेले दा।