अगिनदेहा, खण्ड-14 / रंजन
श्रीवास्तव आज ख़ुश था। लिविंग में फ्रेश होने के बाद, अपने गाऊन में ही वह अपने टैरेस गार्डेन पर जा पहुंचा। आज अपनी कॉफ़ी यहीं पीयेगा वह। रामरतन ने किचनेट सम्हाल लिया था और काजल अपने बॉस के साथ ही ऊपर आ गई थी।
गोधूली का उजियारा फैला हुआ था और हवा में ठंढक बढ़ गई थी। श्रीवास्तव अपनी कुर्सी पर जम चुका था और शांत बैठा कॉफ़ी की चुस्कियां ले रहा था। भारती के दोस्त के चले जाने की वजह से बेबी किस क़दर उदास और परेशान हुई, यह उसे पता था। मैडम ललिता से उसे पूरे विस्तार में सारी जानकारी मिली थी। साड़ी पहनने की उसकी इच्छा पर वह ख़ूब हँसा था। वह जान चुका था कि उसकी बेटी किसी इमफै़चुएशन में नहीं, प्रेम में थी।
बहुत अच्छा था यह। वह ख़ुद तो अब तक लड़के से नहीं मिला था लेकिन अपने ऑफ़िस की खिड़की से उसने कई बार उसे, भारती के साथ आते-जाते ज़रूर देखा था। उसका मिड्ल क्लास का होना सबसे अच्छी बात थी। वह जानता था उसके फिनांस के कारण लड़के पर उसका और बेबी का डोमिनेंस बना रहेगा और बेबी सुखी रहेगी। अन्यथा अपने स्तर की सोसाइटी में अगर वह अपनी बेटी का रिश्ता पक्का करता तो वह ख़ुद बिल्क़ुल अकेला हो जाता।
-'क्या बात है सर! आपने कॉफ़ी छोड़ दी।' काजल की बात पर उसका
ध्यान भंग हुआ। दो-चार शिप लेने के बाद वह कॉफ़ी के जग को भूल गया था। उसने सर घुमाया तो बुरी तरह चौंका। काजल के साथ, साड़ी पहने बेबी, खड़ी मुस्कुरा रही थी।
श्रीवास्तव ने नख से शिख तक अपनी बेटी का मुआय़ना किया। शुभ्र श्वेत रेशमी साड़ी में लिपटी उसकी बेटी, ताजे़ गुलाब की तरह खिली-खिली लग रही थी। उसके होंठ तो मुस्कुराहट में फैले थे लेकिन आँखों में उदासी का समुंदर भरा था।
श्रीवास्तव उठ कर खड़ा हो गया। उसके हाथ बेबी के कंधे पर गए. उसने बेबी को करीब किया और उसके माथे को चूम लिया।
-'देखो काजल, कितनी ग्रेसफ़ुल लग रही है मेरी बेटी!' काजल ने कुछ नहीं कहा। वह खड़ी मुस्कुराती रही और बेबी नज़रें झुकाए मौन खड़ी रही। श्रीवास्तव ने बेबी का हाथ पकड़ा और अपने पास, दूसरी कुर्सी पर उसे बैठा कर उसने काजल से कहा-'प्लीज़! एरेंज सम स्नैक्स विद स्ट्रांग कॉफ़ी।'
काजल ने सहमति में सर हिलाया और मुस्कुराते हुए चली गई. श्रीवास्तव ने फिर बेबी को देखा। उसके दिल में बेटी के लिए स्नेह और ममता का उफान उठा। वह मुस्कुराता रहा। उसकी नज़रें बेबी पर गड़ी रहीं और बेबी नज़रें झुकाए मौन बैठी रही।
अपनी झुकी हुई नज़रों के बावज़ूद भी बेबी को अहसास हो रहा था कि उसके पिता की आँखों उसी पर जमी हैं। धीरे-धीरे उसकी पलकें खुलीं और नज़रें उठीं। उसने ठीक सोचा था। श्रीवास्तव उसे ही देख रहा था।
नज़रें मिलते ही श्रीवास्तव ने हँस कर कहा-'डोंट बी साय, डार्लिंग... यह ड्रेस तुम्हें बेहद सूट करता है। बिल्क़ुल प्यारी-सी गुड़िया लगती हो। बट व्हाय यू आर सो सीरियस? बात क्या है?'
स्नेह और ममता से सिक्त श्रीवास्तव के स्वर ने, पता नहीं बेबी पर क्या असर कर दिया कि उसकी आँखों सजल हो गईं। पानी भर आया उनमें और श्रीवास्तव के देखते ही देखते बेबी की आँखों की कोर से दो बड़ी बूंदें गालों पर ढलक पड़ीं।
बर्दाश्त न कर सका श्रीवास्तव। बेटी की आँखों में आँसू! तड़प कर उठा वह और बेटी को उठा कर कलेजे से चिपका लिया। उसी अवस्था में उसने पुचकारते हुए बेबी से कहा, -'टेक इट ईज़ी बेटा...टेक इट ईज़ी एण्ड बताओ मुझे... तुम्हारी प्रॉब्लेम क्या है?'
गर्मा-गर्म स्ट्रांग काफ़ी और स्नैक्स लिए इसी वक़्त काजल आई. दोनों की अवस्था देख मुस्कुराई और चुपचाप टेबल पर कॉफ़ी और स्नैक्स रख कर लौट गई. न बेबी को पता चला न श्रीवास्तव को।
बेबी के कंठ अवरुद्ध थे, बोल न फूटे। श्रीवास्तव और भी व्यग्र हो गया-'देखो, ऐसे ना करो...मुझे बताओ तो सही, व्हाट आई हैव टू डू फ़ॉर यू. आई प्रोमिस, जो चाहोगी वही होगा।'
बेबी ने बगै़र कुछ कहे अपनी नज़रें उठा कर पिता को देखा। उसकी आँखों में आश्चर्य था, उसके पिता को कैसे पता? भ्रमित हो गई वह। नहीं यह संभव नहीं है। उसके पिता कुछ नहीं जानते, नहीं तो स्पष्ट कह दिया होता।
बेबी की आँखों को, शायद पढ़ लिया श्रीवास्तव ने। -'मुझे पता है डार्लिंग! आई एम फ़ुल्ली अवेयर विद योर अफ़ेयर एण्ड इन फै़क्ट आई बीकेम हैप्पी टू नो दि डेवलपमेंट्स। डोंट वरी। आई विल हैण्डल द थिंग्स।'
श्रीवास्तव ने बेटी के गालों को थपथपाया और कहा-'नाऊ गिव मी ए स्माईल...गिव।'
लेकिन बेबी के अधरों पर मुस्कान नहीं आई. श्रीवास्तव ने अपनी हथेली की अंगुलियां मोड़ कर एक खुली अंगुली को खड़ी कर उसके माथे से लगाया-
-'ये देखो, तुम्हारी हँसी यहाँ अटकी है।' उसने धीरे-धीरे अंगुली को नीचे सरकाना शुरू करते हुए कहना जारी रखा-'ये यहाँ आई...अब यहां...यहां...' नाक के कोर पर आकर उसकी अंगुली रुकी-'शाबाश...हँसी यहाँ तक आ गई. अब हँसेगी मेरी बेटी.'
और सचमुच वह खिलखिला पड़ी। श्रीवास्तव ने उसे भींच कर कलेजे से लगा लिया।
-'वन्डरफुल!' सक्सेना की चहकती आवाज़ पर श्रीवास्तव चौंका। दोस्त को देख कर हँसा और बेबी से अलग होकर उसने सक्सेना का स्वागत किया। तीनों बैठ गए तो श्रीवास्तव ने देखा। कॉफ़ी फिर से ठंढी हो चुकी थी।
-' मामला क्या है, सन सेट के बाद कॉफ़ी? और कहते ही वह ज़ोरों से हँस पड़ा। सक्सेना के भद्दे मसूढ़े पूरी तरह नुमायां हो गए.
सक्सेना ने अभी तक ध्यान नहीं दिया था। जैसी ही उसका ध्यान बेबी की साड़ी पर गया, वह चौंका और अचानक उसके ठहाके पर ब्रेक लग गए. उसके जबड़े खुले रह गए और आँखों की पुतलियां फैल गयीं।
-'यार श्रीवास्तव! आज तो कमाल पर कमाल हो रहा है...अपनी बेबी साड़ी में?' और कहकर वह फिर से हँसने लगा। हँसते हुए ही उसने बेबी की कलाई पकड़ी और चाहा कि उसे प्यार करे, लेकिन उसे आश्चर्य हुआ जब बेबी ने अपनी ओर से उदासीनता दिखाते हुए अपनी कलाई छुड़ा ली।
-'बेबी नाराज़ है, आज? ...क्यों श्रीवास्तव! इज ऐनी थिंग रांग?'
-'ओह नो! रादर देयर इज ए गुड न्यूज़ फॉर यू.'
श्रीवास्तव ने मुस्कुराते हुए ज्यों ही कहा बेबी ने नाराज़ होकर कहा-'पापा!'
-'ओ. के., ओ. के. माई डीयर! नहीं बताऊँगा इसे। हैप्पी?'
सक्सेना को पता चल गया था कि भारती का दोस्त जा चुका है और इस जानकारी से उसे बहुत राहत पहुँची थी कि चलो जान छूटी. आज इसीलिए वह बेहद सज-धज कर पहुँचा था लेकिन यहाँ तो सारे मामला ही उल्टा था। उसकी उत्सुकता, आकुलता में बदल गई. उसने उतावले होकर पूछा-
-'क्यों सस्पेंस दे रहे हो, बात क्या है आख़िर?'
बेबी तो मौन बैठी रही और श्रीवास्तव अपने दोस्त की व्यग्रता का आनंद उठाता, मुस्कुराता रहा।
रामरतन और काजल ने मिलकर अपने बॉस और सक्सेना के लिए ड्रिंक्स लगा दिया और बेबी को उसकी पसंद 'टोमैटो क्रीम सूप' सर्व कर दिया।
-'ड्रिंक बनाओ भाई.' सक्सेना को शांत बैठा देख श्रीवास्तव ने कहा।
सक्सेना ने हथियार डाल दिए-'ओ. के., कीप योर सस्पेंस विथ यू.' और ड्रिंक्स बनाने लगा।
चीयर्स के साथ दौर शुरू हुआ तो बेबी ने आँखों ही आँखों में अपने पिता को जता दिया कि वह अब और नहीं रुकेगी। श्रीवास्तव ने भी कोई ज़िद न की और बेबी उठ कर चली गई.
किचनेट के पास से गुज़रते हुए उसने काजल दी से अनुरोध किया कि उसका डिनर उसके रूम में सर्व करा दिया जाए.
उधर दूसरे दौर में ही श्रीवास्तव के पेट में दर्द हुआ और उसने सारे सस्पेंस निकाल कर मुक्ति पाई और फिर हँसने लगा।
तो मामला इस हद तक आ पहुँचा है। सक्सेना ने सोचा, सारी गोटी ही ग़लत हो रही है। गंभीर हो गया वह।
सक्सेना को गंभीर होते देख श्रीवास्तव ने पूछा-'क्या सोचने लगे?'
-'सोचने दो मुझे...मैं बेटी की ही बात सोच रहा हूँ।' कह कर वह मौन हो गया।
श्रीवास्तव, आनंद में अपनी व्हिस्की चुसकता रहा और सक्सेना के माथे पर पड़े बल को देखता-मुस्कुराता रहा।
कोले दा की बेचैनी का कोई अंत न था। स्टॉक में बची तीनों सिगरेटें उन्होंने एक के बाद एक फूंक दी थीं। रोज़़ तो सुबह-सबेरे का नाश्ता करके अपने स्टूडियो में व्यस्त हो जाते थे लेकिन आज उन्होंने फ़िक्र करने और जलते रहने के अतिरिक्त और कुछ न किया था।
-' इतना अंतरंग हो गया यह बेबी के, कि... बस यही सोचते और सर
धुनते, दोपहर हो गई. भोजन का वक़्त हो चुका था। रोज़़ तो ख़ुद निकाल कर खा लिया करते थे लेकिन आज तो रविवार था। अवकाश के दिनों में उनकी पत्नी ख़ुद इन्हें स्टूडियो से बुला कर ले जाया करती थी। आज इन्होंने नाश्ता भी नहीं किया था। सुबह सिर्फ़ एक चाय पी थी और पत्नी थी कि अब तक उसने स्टूडियो में झांका तक नहीं।
एक तो हैंगओवर के कारण सुबह से सर में तेज दर्द था ही, ऊपर से राजेन्दर ने इनके दिल में दर्द भर दिया। घण्टों बेबी की तस्वीरों में उलझे रहे, सिगरेट फूंकते रहे, चिन्ता करते रहे। अब जोरों से भूख जग गई थी और भूख की जलन में बाक़ी सारी फ़िक्रें काफ़ूर होने लगीं।
अब क्या आज भी खाने के लिए उसे ख़ुद कहना होगा? उन्हें पत्नी पर
क्रोध आने लगा। सवेरे से एक बार भी इधर नहीं आई. एक ग्लास पानी तक नहीं पूछा उसने। कोले दा ने स्टूडियो में पड़े जग से निकाल कर एक गिलास पानी पिया। पेट में उठ रही भूख की जलन तुरंत समाप्त हो गयी। ठीक है, यहीं रहूँगा मैं। देखता हूँ कब आती है? नहीं आई तो आज खाने की ऐसी-तैसी. देखा जाएगा। जलन शांत हो गई थी, भूख को भी भूल गए और सारी चेतना पत्नी पर केन्द्रित हो गई. इन दिनों व्यवहार बदल गया है उसका। ठीक से बात भी नहीं करती आज कल।
पत्नी पर अंदर ही अंदर भड़ास निकालते-निकालते अंतड़ियों में पहुँचे एक गिलास पानी की तासीर समाप्त हो गई और फिर से भूख जग गई और इस बार की भूख ने इनके निश्चय को पूर्णतः धरासाई कर दिया। मजबूर होकर वे स्टूडियो से निकले। पत्नी जूठे बर्त्तन उठा रही थी।
तो इसने खाना खा भी लिया। ग़ुस्सा छलक पड़ा कोले दा का-'पैंतरा!' पत्नी से कहा उन्होंने, -'तो अब हम घर का सबसे फ़ाल्तू आदमी हो गए...क्या? एक दाना नहीं डाला है सुबह से और तुम हो कि...ठीक है, सब समझते हैं, दो पैसा कमाने क्या लगी कि तुम्हारा दिमाग़ ही आसमान पर पहुंच गया।'
न जाने और क्या-क्या कहते कोले दा कि पत्नी ने उन्हें रोक दिया। बेहद शांत स्वर में उसने कहा-'खाबार राखा आचे... खेये ना।' (खाना रखा है...खा लो।)
ग़ुस्से के अतिरेक में उनके मुख से शब्द नहीं निकल पा रहे थे कि तभी उनकी पत्नी ने भावशून्य चेहरे के साथ अपने हाथ धोए और तौलिए से भींगे हाथों को पोछने लगी। पत्नी पर कोई प्रतिक्रिया होती न देख कोले दा का क्रोध और बढ़ गया। गुस्से में थरथराते वे पत्नी की ओर बढ़े। उनकी पत्नी को शायद इस बात का आभास हो गया। वह पलटी, अपनी भावशून्य निगाहें उठा कर उसने कोले दा को देखा और कहा-'थेमे जा ओखाने...आमी जानी तुमी की चाए छो...किन्तू थेमे आमार कोथा सोनो आर तुमी निजेर मोन के जिज्ञासा कोरो, केनो आमी ए रोकोम होलाम? केनो आमी तुमार केयर कोरी ना?' (रूक जाओ वहीं। मैं जानती हूँ तुम क्या चाह रहे हो। लेकिन रुक कर मेरी बात सुनो और अपने दिल से पूछ कर मुझे बताओ, क्यों मैं ऐसी हो गई. क्यों, मैंने तुम्हारी परवाह करनी छोड़ दी?)
कहते-कहते उसके भाव बदलने लगे। भावशून्य आँखों में घृणा उभर आयी और उसके स्वर उत्तेजित हो गए. उसने आगे कहा,
-'सोकाल थेके, सोन्धे पर्यन्तो की कोरो? आर जा किछू कोरो तार थेके कि पाओ? ... ठीक आछे, मेने निलाम तुमार दिन भालो जाच्छे ना... तोबे की आमी आर तूमी दू जोने मिले समस्यार समाधान की कोरते पारि ना?' (सुबह से शाम तक करते क्या हो? और जो कुछ करते भी हो तो उससे मिलता क्या है? ...चलो माना तुम्हारे दिन ठीक नहीं चल रहे हैं। तो क्या हम और तुम मिलकर समस्या का हल नहीं ढूंढ सकते?) जोल खाबार बानिए तुमा के खाइये दिछी। खाबार बानीए रेखे जाई. फिरे जखन आसी, तुमी थाको ना। ओनेक रात पर्यन्तो जेगे थाकी तुमार अप्पेखा कोरे, आमी शुए पोड़ी, तोखुन तूमी नेशाए मग्नो होए बाड़ी फेरो। ' (नाश्ता बना कर तुम्हें खिला देती हूँ। खाना भी बना कर मैं रख जाती हूँ। लौट कर आती हूँ तो तुम गायब रहते हो। देर रात तक इंतजार करती जब सो जाती हूँ, तब तुम नशे में चूर घर आते हो।)
पत्नी का चेहरा आवेश में लाल हो गया था। उसकी बातों की धार और भी बढ़ने लगी। उसने कहा-'जानो तूमी? बिछानाए तूमी जोख़ून शोओ आमार घूम भेंगे जाए आर तूमार निश्शासेर दुर्गन्धे आमार बोमी पाए. कैमोन कोरे शोई तुमार काछे, तुमी की जानो? इच्छा त होए घर थेके बेरिए जाइ. तुमी तो नाक डाकते-डाकते घुमीए पोरो आर आमी आमार नाक टा बोन्दो कोरे तुमार नाकेर डाक आर नेशार गोंधे आमी एपास-ओपास कोरते थाकी।' (जानते हो? बिस्तर पर तुम्हारे लेटते ही मेरी नींद खुल जाती है और तुम्हारी सांसों से निकलती बदबू के भभूके से मुझे उल्टियाँ-सी लगने लगती हैं। कैसे सोती हूँ तुम्हारे पास, तुम्हें क्या पता? जी तो करता है, कमरे से ही बाहर चली जाऊं। तुम तो खर्राटे ले-लेकर सो जाते हो और मैं अपनी नाक पर हाथ धरे तुम्हारी बदबू और खर्राटों के बीच...)
आगे और कुछ न कह सकी वह। उसकी आँखों सजल हो गईं, आँसू की बूंदें गालों पर ढलकीं। फिर वह फूट-फूट कर रोने लग गई.
श्रीवास्तव ने जम कर खाना खाया और सक्सेना अपनी पूरी कोशिश के बावज़ूद भी, उसे तीसरे पैग के बाद चौथा पिला न सका; जबकि उसने अपने पांच पैग के नॉर्मल कोटे के बाद भी दो बड़े पैग गटके.
ड्रिंक सेशन के दौरान श्रीवास्तव हर समय चहकता रहा और सक्सेना अपनी हार का मातम मनाता रहा। बेबी के वाक्य 'द बायोलॉजिकल डिमांड इज़ नॉट कनसनर््ड ओनली विद द मेल जेन्डर' ; उसके अंदर बजता रहा। लेकिन उसका दिल यह मानने को तैयार न हुआ कि यह मामला केवल 'बायोलॉजिकल नीड' था। यह तो सरासर इमोशनल नीड बन चुका था। बेबी के साड़ी पहन लेने मात्रा से यह ज़ाहिर हो चुका था। बेहद बुरा हुआ यह। सक्सेना को इस बात पर भी हैरानी हो रही थी कि मिड्ल क्लास के लड़के के साथ बेबी के अफ़ेयर पर उसे कोई परेशानी नहीं थी, बल्कि वह ख़ुश था।
ड्रिंक सेशन आम दिनों की अपेक्षा पहले ही निपट गया था और श्रीवास्तव पूरी उमंग में जब अपने बेडरूम पहुंचा, उस वक़्त रात के सिर्फ़ ग्यारह बजे थे।
अपने क्लायंट्स के बेडरूम की फ़र्निशिंग के लिए, वह हमेशा गहरे और डार्क कलर्स की सिफ़ारिश करता। वह कहा करता कि बेडरूम थोड़ा अंधेरा-अंधेरा रहने से नींद अच्छी आती है लेकिन ख़ुद अपने लिए, उसने ऐसा नहीं किया था।
उसके पर्दे़, झालर, बेड-शीट, तकिए और यहाँ तक कि वॉल युनिट से लेकर फर्श और सोफ़ासेट तक; सभी शुभ्र सफे़द थे। यह बड़ी अजीब बात थी कि अपने ऑफ़िस को इसने पूरी तरह, पॉलिश की हुई लकड़ियों से बनवाया था। सोफ़े से लेकर पर्दे़ तक सारे शेड्स डार्क थे और अपना बेड रूम...?
दरअसल श्रीवास्तव का व्यक्तित्व समझ पाना ही आसान नहीं था। वह पूरी तरह एक बंद किताब था, लेकिन अपने बेडरूम में पहुंचते ही उसने आज अपनी बंद ज़िन्दगी की किताब का पहला पन्ना खोला। वॉल युनिट के लॉकर से उसने दस गुणा बारह इंच का एक अंडाकार, मेटल फ़ोटोे-फ्ऱेम निकाला जिसमें एक महिला की हँसती हुई तस्वीर थी।
श्रीवास्तव फ्ऱेम पकड़े अपने सोफ़े पर आकर बैठा। उसकी नज़रें फ्ऱेम के अंदर लगे फ़ोटोे पर जम गईंं। फ़ोटोे में उसका अतीत मुस्कुरा रहा था। यही थी जानकी, उसकी अब्याही पत्नी श्रीवास्तव की आँखों भर आईं, लेकिन वह रोया नहीं। एक भी बूंद उसने टपकने न दिया। अपनी आँखों को पोंछ कर वह उठ गया। फ़ोटोे फ्ऱेम उसने वापस उसी लॉकर में रखा और चेंजर पर अठहत्तर आर. पी. एम. का पुराना रिकार्ड चढ़ा दिया।
एच. एम. वी. का चेंजर और रिकार्ड, दोनों उसकी तरह बीते दिनों की चीज़ हो चुके थे लेकिन यही बीत चुके पल, उसके अपने थे जिनमें खो जाने से बेहतर उसकी ज़िन्दगी में और कुछ न था।
जानकी और श्रीवास्तव की कहानी फिर से दुहराई जा रही थी। तब श्रीवास्तव क्या था? ग़रीब-बेसहारा महत्त्वाकांक्षी नवयुवक। जानकी ही थी जिसने श्रीवास्तव के जीवन-संघर्ष में समर्थ सहारा बन कर साथ दिया। बेहद पैसे वाली थी वह। इंजीनियरिंग कॉलेज में श्रीवास्तव के साथ ही पढ़ती थी। अपने पैरों पर खड़ा होते ही, दोनों ने शादी का फ़ैसला कर लिया था। लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था।
दोनों के कुछ कमज़ोर क्षणों की भूल ने सारे खेल बिगाड़ दिया। जानकी गर्भवती हो गई और चोरी-छिपे एबार्सन की प्रक्रिया में श्रीवास्तव को उसने अकेला छोड़ दिया।
जानकी के गुज़र जाने पर जो कोहराम मचा, उससे जूझते-सम्हलते श्रीवास्तव को एक लम्बा वक़्त लगा। वक़्त के इन्ही लम्हों को जीता, खो गया वह पुरानी यादों में।
बेबी की ज़िन्दगी में खुशियाँ बिखेर कर वह अपनी आत्मा को सुख पहुंचाना चाहता था और अब वह घड़ी आ गई थी जब उसकी बेबी के पैरों में महावर सजेंगे, हाथों मेें मेंहदी लगेगी और उसकी बेटी दुल्हन बनेगी।
इसी लक्ष्य के लिए तो जी रहा था वह। लेकिन सक्सेना क्यों नहीं समझता? श्रीवास्तव को हँसी आ गई-मैटेरियलिस्टिक है वह। दुनियादारी की बातें करता है। स्टैटस की बात करता है। ललिता ने भी तो यही सवाल उठाया था लेकिन मेरी फ़ीलिंग्स को तुरंत समझ गयी वह। यह सक्सेना इमोशन को समझता ही नहीं। लाईफ़ को प्लेग्राउंड समझता है। उसकी फ़िलॉसफ़ी है प्लेज़र, जिसे परचेज करके ख़ुश रहता है वह।
ड्रिंक सेशन पर ज़ाहिर किए गये सक्सेना की एक-एक बात पर उसने सोचा। उसके नज़रिए पर सोच कर, अन्त में उसने अपने दिल से कहा-अपनी जगह वह भी ग़लत नहीं है। इन फ़ैक्ट जिसकी ज़िन्दगी में न लव है, न अफ़ेयर। न सेन्टीमेन्ट है, न फ़ीलिंग्स और न कोई इमोशन। उस आदमी के पास और कुछ हो न हो-कम से कम दर्द तो हर्गिज़ नहीं हो सकता। दर्द के लिए आख़िर एक अदद दिल तो चाहिए ही और सोचते ही, फिर से हँस पड़ा वह।
कमरे में आए उसे पौन घंटा हो चुका था। रात के पौने बारह बज चुके थे, लेकिन उसकी आँखों से नींद बहुत दूर थी। एक बार उसने सोचा, बेबी को देख आए. आज उसने उसके साथ डिनर भी नहीं लिया था। वहीं बैठ कर बातें करे उससे, लेकिन यह विचार उसने त्याग दिया। सो चुकी होगी, वह।
उसने फिर सोचा बाथरूम में एक शावर ले ले। नींद आ जाएगी उसे लेकिन इस विचार को भी उसने त्याग दिया और उसके क़दम वॉल युनिट में लगे बार कैबिनेट की ओर बढ़ गये।