अगिनदेहा, खण्ड-15 / रंजन

Gadya Kosh से
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अठ्ठाईस वर्षीय मतवाला का पूरा नाम था प्रभाष चन्द्र झा मतवाला। गंगा पार का यह रंगकर्मी पूरे इलाके़ में मतवाला के नाम पर मशहूर था।

पूरे छह फ़ुट का क़द और छरहरा बदन। वकालत पास कर लेने के बावज़ूद भी उसने अब तक वकालत शुरू न की थी। उसकी नस-नस में नाटक, मंच और अभिनय भरा था।

यूं तो उसने दर्जनों नाटक लिख कर निर्देशित किया था लेकिन सारे नाटक प्रकाशित नहीं थे।

आज उसका महत्त्वाकांक्षी नाटक 'पैसा' छप कर तैयार हुआ था जिस पर कोले दा ने कहा,

-'ऐसे सुक्खा-सुक्खी नहीं देखेंगे' , आँखों चमकाते हुए रज्ज़ू से कहा, 'तुमने मतवाला की पहली किताब निकाली है। नई दुल्हन का घूंघट यूं ही उठ जाएगा क्या?'

कोले दा की दलील पर रज्ज़ू के साथ-साथ मतवाला भी हँस पड़े। रासो बाबू के प्रेस से बाईं डिंग होकर 'पैसा' नाटक की पहली प्रति आई थी। मतवाला बेहद ख़ुश थे। उन्होंने ही रज्ज़ू को लेकर स्टूडियो में पहली प्रति दी थी और इसी वक़्त कोले दा भी आ गए.

अब यह तो ज़बरदस्त मौक़ा था, कोले दा क्या चूकने वाले थे? दोनों को हँसते देख, उन्होंने फिर कहा-'इसमें हँसने वाली क्या बात है? सिर्फ़ चाय पर टरख़ाने का इरादा है क्या?'

रज्ज़ू ने हँसते हुए कहा-'आप मुझे क्यों पकड़ते हैं कोले दा, नाटककार को कहिए. किताब का लेखक क्या मैं हूँ, जो आप मुझसे ख़र्चा करवाना चाहते हैं?'

कोले दा का मुँह खुला लेकिन शब्द निकलने के पूर्व ही मतवाला ने हाथ उठा दिए-'मेरे पास तो सिर्फ़ भांग की गुल्ली का जोगाड़ है कोले दा, कहिए तो तुरंत पेश करूं।'

-'आप भी मतवाला जी, कोले दा कहने लगे,' छोड़िए! आप से तो कहना ही बेकार है। ' उन्होंने मतवाला को छोड़ रज्ज़ू से कहना शुरू किया-

-'क्या कहते हो? होगा कुछ?'

-'क्या चाहते हैं कोले दा? आप तो व्हिस्की के सिवा और किसी प्रसाद से संतुष्ट होंगे नहीं।' रज्ज़ू ने मुस्कुरा कर कहा।

-'अब अगर आज भी नहीं पीएंगे तो बताओ कब पीएंगे?'

-'ठीक है सर! आज आपकी दावत पक्की।' रज्ज़ू की बात पर ख़ुश हो गए कोले दा। उन्होंने हँसते हुए फिर पूछा-'बोर तो नहीं करोगे। तुम कोक की चुस्क़ियां मार कर बोर करते रहते हो। आज यह नहीं चलेगा।'

-'अब यह तो कोई बात नहीं है; रज्ज़ू ने प्रतिवाद किया,' आपके रंग-पानी का हमने कभी विरोध नहीं किया है। कभी कहा? कि आप व्हिस्की मत पीजिए. फिर जिनको परहेज़ है उससे ज़िद क्यों करते हैं? '

-'देखिए...देखिए मतवाला जी! क्या कहता है?' कोले दा अपने रंग में आ गए, -'नक़ली शराफ़त का चोग़ा पहनता है यह। अरे, हमलोग तो जो करते हैं, ताल ठोक कर खुल्लम-खुल्ला करते हैं।'

मतवाला ने रस लेना शुरू कर दिया। उन्होंने कोले दा से कहा-'आपका मतलब है रज्ज़ू जी छुप-छुपा कर व्हिस्की पीते हैं?'

-'अरे व्हिस्की की बात नहीं है।' कोले दा ने कहा

-'तो किसक़ी बात है कोले दा?'

-'अब यह तो मतलवाला जी आप इसी से पूछिए, क्या-क्या रास रचा कर आया है।' कोले दा की बात पर रज्ज़ू चौंका। उसने उन दोनों की बातों में

व्यवधान डालते हुए कोले दा से प्रश्न किया-'क्या मतलब है आपका?'

कोले दा के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहाट थिरकी-'मतलब भी हमीं से पूछते हो? अरे इंजीनियर की बेटी से...दोस्ती करके, दोस्तों से छिपाते हो? और तुम क्या समझते हो ख़ुद नहीं बताओगे तो हमको पता नहीं चलेगा?'

रज्ज़ू हैरान हो गया। कोले दा जिस लहजे में कह रहे थे, मतवाला भी चौंके और क्षण भर की चुप्पी छा गई. अपने काऊंटर पर इस मामले का ज़िक्र होना रज्ज़ू को अखरा। वह मित्रो से छिपाना नहीं चाहता था लेकिन इस प्रकार खुले आम बातें करना उसे पसंद नहीं था। एक तो उसके स्टाफ़ ने डेवलप किये हुए फ़िल्मों को चोरी-छिपे देख ही लिया है, उसे विश्वास था। ऊपर से कोले दा इस विषय पर उसी के काऊंटर पर बात करेंगे तो अंदर से सारे स्टाफ़ कान लगा कर सुनेगा। वैसे वह हैरान था कि कोले दा तक ख़बर कैसे पहंुची।

उसने धीरे से कहा-'इस जगह यह डिसकस मत कीजिए और एक बात जान लीजिए कोले दा, मैं ऐसा कुछ नहीं करता जिसे छिपा कर किया जाए, या जिसे ख़ुद मेरा दिल न स्वीकारे।' वह क्षण भर रुका। कोले दा तो रज्ज़ू की बातें सुनते हुए मुस्कुरा रहे थे। लेकिन मतवाला हैरान थे।

रज्ज़ू ने फिर कहा, -'अभी मैं ख़ुद उलझन में हूँ। किसी भी निर्णय पर पहुंचने के पूर्व मैं ख़ामख़ा ढिंढोरा नहीं पीटना चाहता। वैसे एक बात तो बताइए, आपको बताया किसने?'

-'अब यह जानकर क्या करोगे?'

-'और छिपा कर आप क्या करेंगे?' रज्ज़ू ने कह कर कोले दा को एक बार घूरा, फिर कहा-'अच्छा छोड़िए अभी इस बात को, फिर कर लेंगे। अब आप हुक्म कीजिए, आज की पार्टी कहाँ लेंगे।'

-'नटराज में!'

कहते ही कोले दा खुलकर हँसे।

और तीनों की बैठकी नटराज के केबिन में शुरू हो गई.

-'क्या मंगाएं कोले दा?' रज्ज़ू ने पूछा तो कोले दा ने रम पीने की फ़रमाइश कर दी। रम की एक पूरी पिंट मंगाई गई और रज्ज़ू ने अपने लिए कोका कोला मंगा लिया।

-'अब ये पैंतरा छोड़ो,' कोले दा ने कहा, 'अपने कोक में ही एक पैग डालो। देखो, कितना मज़ा आता है।'

-'आप तो कोले दा,' रज्ज़ू ने कहा, -'मुझे पहले यह बताइये कि बेबी के साथ मेरा नाम आपने कैसे जोड़ा?'

कोले दा ने जवाब न देकर रम की बोतल को उठा कर उसे उल्टा किया और हथेली से दो बार उसकी पेंदी थपकी, फिर उसे सीधा कर उसकी सील तोड़ी और मतवाला से पूछा-'डालें आपका?'

-'डालिये!' मुस्कुराए मतवाला

-'और तुम्हारा?' कोले दा ने रज्ज़ू से पूछा तो उसने इंकार में सर हिलाते हुए अपने गिलास में कोक भर लिया।

कोले दा ने रम के बोतल की ढक्कन में थोड़ी रम डाली और रज्ज़ू से कहा-'लो सिर्फ़ इतना ही डालते हैं तुम्हारे गिलास में।'

-'मैंने कहा न, मुझे नहीं चाहिए.'

-' इतना भी कट्सी नहीं है तुम में। साथ बैठे हो तो...दो बूंद तो लेना ही होगा।

-'कोले दा! मुझे आप तो कम से कम कट्सी मत सिखाइये। दुकान पर आपने जो मेरे प्रति मुँह फाड़ा वह क्या कट्सी थी आपकी? ख़ामख़ा ही...आपने क्यों कहा कि मैंने रास रचाया? जानते क्या हैं आप इस बारे में? और एक बात कह देना ज़रूरी है, सुन लीजिए! बेबी के विषय में हल्की बात मुझे अच्छी नहीं लगती।'

रज्ज़ू भावावेश में आ चुका था, -'उसने आपको लिफ्ट न दी जबकि फ़्लर्ट करने की आपने कोई कोशिश न छोड़ी।'

-'क्या कहते हो?'

-'ठीक कहता हूँ मैं...छोड़िए पैग बनाइये आप अपना।'

कोले दा ने पता नहीं क्या सोचा, लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें बेहद ग़ुस्सा आया और कोई वक़्त होता तो वे कब के उठ गए होते लेकिन मौक़ा नाज़ुक था। रम की आधी बोतल सामने पड़ी थी। करते क्या वे? और उन्होंने फिर वही किया जो ऐसे मौके़ पर वे हमेशा करते थे। पूरी बेहयायी से हँस पड़े और हँसते-हँसते ही उन्होंने अपने और मतवाला के गिलास को रम से आधा-आधा भर दिया।

-'क्या कर रहे हैं गुरू...इतना कड़ा?' मतवाला ने प्रतिरोध में कहा।

-'यह क्या व्हिस्की है?' कोले दा ने मतवाला को समझाना शुरू कर दिया-'गुड़ का पानी है मतवाला जी...गन्ने से बनता है। फौज में तो लोग पानी भी नहीं मिलाते, यहाँ तो पानी के लिए आधा गिलास खाली है।' कह कर उन्होंने रज्ज़ू को देखा, -'दो कोका-कोला मंगा लो तो उसी को मिक्स कर दें। टेस्ट ही चेंज हो जाता है।'

कमाल आदमी है यह। रज्ज़ू ने सोचा। चमड़ी इतनी मोटी है कि किसी बात पर शर्मिन्दा ही नहीं होता। ठीक है पीने दो इसे, थोड़ी चढ़ जाएगी तो आज दिल खोल कर ख़बर लूंगा इसकी।

रज्ज़ू ने दो कोक मंगा लिया। कोले दा ने रम में कोक डालते हुए निश्चय किया, दो-चार दौर हो जाने दो, फिर नशे के बहाने पानी उतारता हूँ मैं। बेटा, काली बिल्ली बन कर मेरा रास्ता ही काट गया।

कोले दा ने 'चियर्स' कह कर अपना गिलास उठाया। मतवाला और रज्ज़ू ने अपने-अपने गिलास उठाए और तीनों को आपस में सटा कर तीनों ने एक साथ 'चियर्स' कहा।

कोले दा ने बेहद बड़ा घूंट भर कर चौथाई से ज़्यादा गिलास खाली कर, बुरा-सा मुँह बनाया और मुट्ठी भर बफर्स उठा कर मुँह में भर लिया। मतवाला ने छोटा घूंट लेकर नाक चढ़ाई.

-'रज्ज़ू जी एक ख़ाली गिलास मंगाइये।'

-'क्या हुआ?' रज्ज़ू के पूछने पर मतवाला ने कहा-'मुझसे इतना कड़ा नहीं चलेगा।'

एक अतिरिक्त गिलास आ गया। मतवाला ने कोक मिश्रित थोड़ी रम डाल कर, पानी से उसे भर दिया और घूंट लेकर संतुष्टि भरे स्वर में कहा, -'अब ठीक है। पता नहीं, कोले दा कैसे पी लेते हैं...कुछ खाने के लिए नहीं मंगाइयेगा क्या?'

-'हां भाय, कुछ चिकेन-विकेन मंगाओ न,' कोले दा ने मुस्कुरा कर रज्ज़ू से कहा, -'इस बफ़र्स से क्या होगा?'

-'अमेरिकन सिस्टम में मंगा लीजिए. मतवाला जी का मैं दे दूंगा।' रज्ज़ू ने कोले दा से कहा तो उनका जायक़ा ही बिगड़ गया।

मुँह बिगाड़ कर उन्होंने कहा-'आज की पार्टी का होस्ट कौन है? तुम! फिर अमेरिकन सिस्टम कैसे चलेगा। आज का तो सारे पेमेन्ट तुम्हीं को करना होगा, चिकन मंगाओ या चना। जो मर्जी मंगा लो।' कह कर उन्होंने इस बार गिलास को आधा कर दिया। बफर्स फिर से मुँह में डाला और सिगरेट की फ़रमाइश कर दी।

सिगरेट भी आ गई. सात पैग वाली पाइंट में, दो पैग रम बची थी। कोले दा ने होशियारी दिखाते हुए, डेढ़ पैग अपने गिलास में डाल ली और आधा पैग मतवाला के लिए छोड़ दिया।

-'आप ही लीजिए गुरू,' मतवाला ने कोले दा से कहा, 'इस बचे हुए माल को आप ही सलटा लीजिए. मुझे और नहीं चलेगा।'

मन प्रसन्न हो गया कोले दा का। पहले दौर में उन्होंने ढाई पैग गटका था। पांच पैग से कम में उन्हें मज़ा नहीं आता, जबकि इस बार उन्होंने अपने गिलास में डेढ़ पैग ही डाला था। बचे हुए आधे पैग को मिला देने से उनका कोटा फुल...पांच पैग पूरा। चुस्की मार कर उन्होंने फिर से हिसाब लगाना शुरू कर दिया। हिसाब में गड़बड़ी थी। कोले दा ने सिगरेट जला ली। फेफड़ों में धुँआ भर कर, बचे हुए धुँए को नाक के रास्ते बाहर किया। पहले दौर में उन्होंने ढाई पैग लिये थे, दूसरे में डेढ़। कुल चार ही तो हुए और अगर मतवाला अपने वचन पर क़ायम रहा तो आधी और। फिर भी तो...

-'आप में यही बीमारी है गुरू,' मतवाला ने कोले दा से कहा-'पीते ही गंभीर हो जाते हैं आप।'

फिर से हँसे कोले दा-'यही तो फ़र्क़ है, लुच्चों में और हममें। वह लोग पीने के बाद उछलने लगता है। गालियों की बौछार निकाल कर नशे का आनंद लेता है और हम कलाकार लोग जितना पियेंगे, उतना ही गंभीर हो जाऐंगे।'

कोले दा की बात पर दोनों को हँसी आ गई लेकिन कोले दा गंभीर रहे। अचानक उन्होंने रज्ज़ू से पूछा-'इंजीनियर की बेटी को ख़राब करके ही मानोगे क्या? तुम्हें पता नहीं है, तुम्हारी वजह से हम अब वहाँ मुँह दिखाने तक के क़ाबिल नहीं रहे।'

-'मैंने ख़राब किया है उसे? रज्ज़ू बिगड़ा, मैं चाहता तो...' आगे उसने और कुछ न कहा लेकिन कोले दा ने बात पकड़ ली।

-'हां हां आगे बोलो, तुम चाहते तो...रुक क्यों गए? बता दो, तुम चाहते तो क्या कर लेते। बेबी ने तो ख़ुद को बिछा दिया था, तुम थे कि परोसी हुई थाली ठुकरा कर आ गए क्यों?' कोले दा ने ऐंठी हुई आवाज़ में व्यंग किया और आगे कहा, -'तुम्हें पता है? उसने हमको दर्जन बार प्रपोज़ किया है। मरती है मेरे ऊपर। जब जाते हैं, कोई न कोई बहाना कर सटी रहती है मेरे पास और हम ध्यान नहीं देते हैं। अरे तुम क्या चाहते... हम चाहते तो उसे अपनी जेब में लिए फिरते लेकिन अपनी इज्ज़त है कि नहीं? हम क्या इतने हल्के हैं कि फँस जायें तुमरी तरह? ज़्यादा ठहरते भी नहीं हम तुम्हारी तरह। तुम तो जाकर पूरे दस दिन रुक गए उसके पास। फँस गए हो उसके रूप जाल में! अरे वह तो बच्ची है अभी। दुनियादारी भी नहीं जानती। तुम तो बच्चे नहीं हो? कुछ ऊंच-नीच हो गया तो किसको मुँह दिखाओगे और फिर भारती का क्या होगा? क्या पोज़ीशन बचेगा उसका?'

धारा प्रवाह बोलते रहने से कोले दा की शक्ल पर तनाव छा गया। नशे के पुट में उनके शब्द भी लड़खड़ाने लगे।

रज्ज़ू के सामने कोले दा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उजागर हो गया। मतवाला जी नहीं होते तो वह कोले दा की एक-एक परत खोलता। बेबी ने किस तरह कोले दा के 'जानकी कुटीर' में प्रवेश पर आपत्ति दर्ज की थी और ख़ुद काजल भाभी ने क्या कहा था। वे सारे शब्द रज्ज़ू की समझ में मूर्त हो गए. क़ासिम भाई के पास जाकर कोले दा ने, किस प्रकार भारती का पत्ता साफ़ करने का असफल प्रयत्न किया, इस पर भी तो दो-टूक कहना चाहता था लेकिन उसे लगा यह अवसर ऐसी बातों के लिए उपयुक्त नहीं था। कभी जब भारती सामने होगा तभी वह कोले दा को नंगा करेगा।

कोले दा ने बची हुई आधे पैग को गिलास में डाला और बगै़र कुछ मिलाये, गटक गया। आग की पतली लकीर-सी उसके गले से गुज़रती छाती तक को चीर गई और उन्होंने इस आग का उत्सव मनाते हुए एक नई सिगरेट जला ली।

जमाना गुज़र गया था रम पिये। विगत महीनों से किसी प्रकार जोड़-तँगड कर, मसालेदार माल्टा का ही जोगाड़ होता था। आज एक लम्बे अंतराल के बाद जो रम मिला तो कोले दा ने स्पीड दिखा दी और यहीं मार खा गए. पांच पैग तो उनका फुल कोटा था ही और आज तो इन्होंने साढ़े चार पैग ही गटका था लेकिन गटा-गट गटकने का नतीजा यह हुआ कि उनके दिमाग़ में रम ने ज़ोरदार किक् मारी। फिर भी इस झटके को वे आसानी से सम्हाल जाते लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें यूरिनल जाने की मजबूरी हो गई. देर से उन्होंने रोक रखा था और अब पूरा ब्लाडर भर कर कष्ट देने लगा तो वे उठे और केबिन से बाहर निकलते हुए लड़खड़ाये।

-'सम्हलिए गुरू,' मतवाला ने तुरंत उठ कर उन्हें पकड़ा।

-'आप क्या समझते हैं, हम नशे में हैं? अरे टेबल में पैर फंस गया था। छोड़िए, पेशाब करके आते हैं।'

झूमते हुए कोले दा आगे बढ़ गए. रज्ज़ू और मतवाला उन्हें देखते रहे फिर वे पूरे हॉल को पार कर जब यूरिनल में चले गए तो दोनों निश्चिंत हो गए.

-'क्या कहानी है, रज्ज़ू जी?'

मतवाला ने गंभीरता से पूछा तो कुछ क्षण रज्ज़ू शांत रहा फिर उसने शुरू से पूरी कहानी सुनानी शुरू कर दी।

-'तो क्या सोचा है आपने' मतवाला ने पूरी बात सुनकर उत्सुक होकर पूछा।

-' मैं क्या सोचूंगा। मैं तो ख़ुद उलझ गया हूँ। ...ये कोले दा को क्या हुआ?

-'अंदर गिर-पड़ तो नहीं गए?'

रज्ज़ू तेज़ी से उठा-'चलिए देखते हैं।'

यूरिनल के अंदर नजारा ही अलग था। कोले दा की पूरी पैंट तर थी और फिर भी वे खड़े-खड़े पैंट की चेन खोलने का असफल प्रयत्न कर रहे थे।

बड़ी मुश्किल से दोनों ने कोले दा को सहारा देकर केबिन के अंदर लाकर बैठाया।

-'इनकी तो हो गई छुट्टी' मतवाला ने रज्ज़ू से कहा, अब घर कैसे जाएंगे।

-'ऐ मतवाला जी.' कोले दा की झुकी गर्दन ऊपर उठी। उन्होंने कहा-'बचा हुआ नीट मार लिया था न...साले ने किक् मार दिया। नशा थोड़े चढ़ा है! अभी चाहें तो दो चार पैग और मार सकते हैं हम। हाँ तो रज्ज़ू, अब बेबी को शक्ल मत दिखाना। बहुत बेइज्ज़ती हो चुकी है तुम्हारी...जाना मत वहां। इंजीनियर के सामने सारी पोल खुल गई है। वह बेटा तो आँख फाड़े तुम्हारे करतूतों को देख कर तुमको सबक़ सिखाने के लिए बेताब होगा।'

कहते-कहते उन्होंने फिर अपनी गर्दन झुका ली। रज्ज़ू पर कोले दा की बातों की तत्काल प्रतिक्रिया हुई. उसने कोले दा को झंझोड़ते हुए पूछा-'क्या किया है आपने? कैसी पोल खोली है? ...कोले दा! तमाशा मत कीजिए और नशे की ऐक्टिंग भी मत करिये। आप जैसे टैंकर को चार-पांच पैग बेहोश नहीं कर सकता। मामला क्या है? ...बताइये।'

कोले दा ने फिर गर्दन उठा कर अपनी आँखों खोलीं। उन आँखों में धूर्तता भरी विजयी मुस्कान थी।

-'खाने के लिए कुछ मंगाओ. खाली पेट में रम पिला कर दोस्त बनते हो?'

अजब तमाशा है? रज्ज़ू ने सोचा, दारू पिलाओ. ऊपर से खाना खिलाओ. पहले ही कितने का बिल बना, पता नहीं, ऊपर से खाना। लेकिन इस परेशानी से बड़ी बात तो वह थी जो कोले दा ने अपने पेट में छुपा रखी थी।

अंत में उसने कहा-'ठीक है आ जाएगा खाना...लेकिन कहानी क्या है, वह बताइये पहले। क्या किया है आपने?'

-'क्या किया है हमने? हमने क्या किया? जो करना था वह तो तुमने किया। रास्ता काटा मेरा।' कह कर वे मौन हो गए और रज्ज़ू की आँखों में देखते ही मुस्कुराए फिर कहा, -'मासूम लड़की को फुसला-बहका कर नंगा-नंगा फ़ोटोे खींचा। बेइज्ज़त कर दिया उसको उसके बाप की नज़र में। बेटी का फ़ोटोे देख-देख कर सर नोंचता होगा अपना।'

रज्ज़ू तो मानो आसमान से जमीन पर आ गिरा। समझ गया वह। ज़रूर राजेन्दर ने मामले को लीक् किया है। लगा भी कैसा रहता है वह कोले दा के पीछे। लल्लो-चप्पो करता रहता है इनका। जेब से चाय पिलाता है रोज़़।

राजेन्दर की माँ के पोर्ट्रेट की सारी कहानी जानता था रज्ज़ू। तो उसी की बिल्ली ने काटा है उसे। रज्ज़ू को बेहद क्रोध आया राजेन्दर पर।


रात के आठ बज चुके थे। कोले दा और मतवाला के साथ, रज्ज़ू अपने स्टूडियो पहुंचा। मतवाला तो ठीक थे लेकिन कोले दा को पूरी चढ़ गई थी। स्टूडियो पहुंचते ही रज्ज़ू काऊंटर के अंदर बैठा और मतवाला और कोले दा सामने पड़ी कुर्सियों पर जम गए. राजेन्दर डार्करूम में था। उसे बुलाया गया। भाई जी के तेवर देख भोला समझ गया कि राजेन्दर ने कुछ ग़लत कर दिया है। भोला ने ही डार्करूम के दरवाजे को खटखटा कर दरवाज़ा खुलवाया। अंदर पहुंचते ही वह फुसफुसाया-'भाई जी ग़ुस्से में हैं, तुमको बुला रहे हैं बाहर।'

राजेन्दर का दिल धड़का-'कौन-कौन है बाहर'

-'मतवाला जी और कोले दा। लेकिन कोले दा पूरा टुन्न हैं।' भोला ने पोज़ देकर बताया।

'सत्यानाश,' राजेन्दर बुदबुदाया-'पी कर सब बता दिया।'

-'क्या बता दिया पी कर?'

-'तुम क्या समझोगे? चलो आज छुट्टी हो गया।' भोला की समझ में कुछ नहीं आया। घबड़ाया राजेन्दर डार्करूम के बाहर स्टूडियो में आया। नारायण एक कोने में बैठा निगेटिव रिट्च कर रहा था। स्टूडियो से ही काऊंटर का रास्ता था। राजेन्दर चुपचाप आकर काऊंटर के कोने में खड़ा हो गया।

देर तक तो रज्ज़ू उसके चेहरे पर उड़ती हवाईयां देखता रहा। उसकी शक्ल देखने के बाद अब शक की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रही। रज्ज़ू के अंदर क्रोध की लहरें उठ रही थीं। उसने चाहा, उठ कर पहले राजेन्दर को पीटे फिर बात करे, लेकिन रज्ज़ू ने किसी प्रकार ख़ुद पर काबू रखते हुए राजेन्दर से पूछा, -'कितने पिं्रट बनाए कोले दा के लिए?'

राजेन्दर समझ गया। भेद खुल चुका है अब वह कुछ भी छुपा नहीं सकता। नौकरी तो गई ही, ऊपर से पिटाई भी होगी।

-'चुप क्यों है? कितने प्रिंट्स बनाये तुमने।'

- 'पांच' राजेन्दर के मुंह से यही एक शब्द निकला।

रज्ज़ू समझ गया। राजेन्दर ने सभी पांचों फ़िल्मों की कान्टैक्ट शीट बना कर कोले दा को सौंपी है।

-'शाबाश!' रज्ज़ू चीख़ा-'कमाल किया राजेन्दर।'

कोले दा अपनी ही तुनक में थे। रज्ज़ू और राजेन्दर की बातों से उनको कुछ लेना-देना नहीं था। यूं भी अपने नशे की ऐसी हालत में उन्हें होश ही कहाँ था कि वे मामले की नज़ाकत को समझ सकते।

अपनी ही धुन में कोले दा ने गंभीर बने मतवाला की बांह पकड़ी-'क्या भाई मतवाला जी! कुछ आएगा कि नहीं खाने-वाने के लिए? पूछिये रज्ज़ू से कुछ मंगवाता है तो रूकें, नहीं तो हम चले।'

-'आपका जाना ही बेहतर है गुरू,' मतवाला ने रूक्ष स्वर में कहा, -'दोस्ती में आग लगाकर हाथ सेंकते हैं, धिक्कार है आप को।'

-'अब आपने भी अपना सुर बदल लिया मतवाला जी? दोस्ती में मैंने आग लगाई है या रज्ज़ू ने?'

दोनों की बातों से रज्ज़ू को व्यवधान होने लगा। उसने दोनों को वहीं बहस करते छोड़ राजेन्दर से, अंदर स्टूडियो में बात करनी शुरू कर दी और सारी बातें खुल गईं।

सारे मामला साफ़ हो गया। यानी कोले दा सच कह रहे थे। उन्होंने ज़रूर श्रीवास्तव साहब को सारे प्रिंट्स भेज दिये हैं। रज्ज़ू को यक़ीन हो गया। उसका सर घूमने लगा। उसने वहीं एक कुर्सी खींची और उस पर ढेर हो गया। उसकी समझ में न आया, अब क्या करे वह। कोले तो ज़हरीला नाग है ही लेकिन इस बेहूदे राजेन्दर ने ऐसा क्यों किया। रज्ज़ू कुर्सी से उठा, तड़ाक...तड़ाक...कई थप्पड़ लगातार मार कर उसने तत्काल राजेन्दर को निकाल बाहर किया।

सारी कहानी ख़त्म हो चुकी थी। कोले दा इस क़दर नशे में तर थे कि उनसे इस समय कुछ भी पूछना-कहना संभव नहीं था। आँखों भर आईं उसकी। बेबी का चेहरा सामने आ गया। काजल भाभी की बात गूँजी-'मैं नहीं चाहती, हमारी बेबी फिर से अवसाद के अंधे कुएँ में डूब जाए' फ़ोटोे सेशन और बेबी की बातें फ्ऱेम दर फ्ऱेम उसकी आँखों के सामने गुज़रने लगे। निढाल और हताश होकर फिर से उसी कुर्सी पर ढह गया वह।

कुछ ही क्षणों में उसने सोच लिया, उसे क्या करना है। उठ कर काऊंटर में आया। कोले दा अपनी जावा मोटर साईकिल पकड़े झूम रहे थे। शायद किक् मारने की असफल कोशिश में व्यस्त थे वह। रज्ज़ू ने उन पर ध्यान नहीं दिया। उसने काऊंटर के दराज़ का ताला खोला। डेवलप की हुई पांचों फ़िल्में निकालीं और वापस स्टूडियो पहुंचा।

-'भोला डार्करूम से एक टेª निकाल।'

नारायण अभी भी निगेटिव के रिट्चिंग में व्यस्त था। ऊँचा सुनने के कारण उसे कुछ पता ही नहीं चला और तभी भोला डार्करूम से एक टेª निकाल कर ले आया। रज्ज़ू ने एक टेबल पर टेª रखा। सीलिंग फ़ैन बंद किया और पांचो फ़िल्मों को टेª में रख कर माचिस दिखा दी।

तभी मतवाला जी अंदर आ गए. शायद कोले दा के विषय में कुछ कहना चाह रहे थे कि अंदर का नज़ारा देखकर उन्होंने आश्चर्य से पूछा-'क्या कर रहे हैं रज्ज़ू जी.'

रज्ज़ू ने अपनी भावहीन सजल निग़ाहें उठा कर मतवाला से खोखली आवाज़ में कहा-'कहानी का अंत कर रहा हूँ।'

ऊपर से गंभीर मतवाला अंदर से मुस्कुराया। उसने सोचा-कैसा भोला है यह। सिर्फ़ निगेटिव्स जला कर कहानी का अंत कर देना चाहता है। परन्तु प्रत्यक्ष में उसने कुछ नहीं कहा।

और अंत में

इस कहानी की क्या यही नियति थी? ...

शायद हाँ...या शायद नहीं भी।

फिर इस अनचाहे मोड़ पर आकर क्यों ठहर गई यह कहानी?

रास्ते तो कई थे।

मसलन कोले दा ने हो सकता है, ब्लफ़ मारा हो और सारे फ़ोटोे-प्रिन्ट्स ख़ुद उनके पास ही हों...ऐसे में बड़ी आसानी से 'हैप्पी मैरेज और द इंड' के रास्ते मज़ेदार अंत संभव था।


अथवा जैसा कि वरिष्ठ रचनाकार और रंगकर्मी डॉ। राधाकृष्ण सहाय ने मुझसे चाहा था कि रज्जू अपने निम्नस्तरीय जीवन-स्तर के कारण मजबूरी में किनारे हो जाए तथा रज्जू के साथ-साथ बेबी तथा श्रीवास्तव की सफ़रिंग्स पर कथानक का समापन हो। उनकी यह भी इच्छा थी कि बेबी के अंतस में, उसके 'एडॉप्टेड चाइल्ड' होने की कुंठा भी दर्शायी जाए.

या फिर थोड़ी देर के लिए मान लें, कोले दा बेबी की तस्वीरों की बिना पर, अपने दिल के हाथों मजबूर होकर, बेबी के शारीरिक शोषण की ठान लें...तो?

फिर तो सर्वनाश!

रचनाकाल से जुड़े मेरे मित्रा, सखा और बुज़ुर्ग, सुरेन्द्र जैन 'राही' से मैंने सिर्फ़ बेबी के त्रासद अंत का ज़िक्र भर ही किया था कि बेबी मूर्त्त हो जा पहुँची उनकी चेतना में और उन्होंने कातर होकर कहा था-'बेबी को बचा लेना...उसे मरने मत देना...देखो! आज वह स्वयं आई थी मेरे पास और मैं व्यथित हो कर, यही कहने आया हूँ।'

यह भी कमाल था कि मेरे पात्रा सजीव हो उठे थे और रचनाकार की परिधि पार कर, जा पहुँचे मित्रो की चेतना में।

अन्य मित्रो ने अलग-अलग प्रतिक्रियायें दीं। आलोचक डॉ। अरविन्द कुमार ने अंत को भावनात्मक क़रार देते हुए इसमें कुछ पंक्तियां जोड़ने की सलाह दी। वे चाहते थे, अंत में आशावादिता की झलक हो, जबकि कथाकार मित्रा पी.एन. जायसवाल ने कहा-इसका दूसरा कोई अंत हो ही नहीं सकता था।

शायर, गीतकार और कथाकार दिनेश तपन ने इसे अद्भुत कहा, लेकिन समालोचक डॉ। अमरेन्द्र तथा वरिष्ठ कथाकार डॉ। देवेन्द्र सिंह ने छोटी-मोटी टिप्पणियों के साथ इसे क़बूल कर लिया।

हरिद्वार की रत्ना मुखर्जी को ऐतराज़ था कि बेबी की इनोसेन्सी बरक़रार नहीं रही। उसे हर्गिज़ भी रज्जू को नहीं बताना था कि लड़कियां 'कन्सीव' कैसे करती हैं।

और उर्दू अदब की जानी-मानी हस्ती, डॉ। मनाज़िर आशिक़ हरगानवी ने तो इसे सीधे बुकर अवार्ड के क़ाबिल घोषित कर दिया और यह कहा कि यह महदूद कैनवस की बड़ी कहानी है।

डिफरेन्स ऑफ़ ओपिनियन की हद यह रही कि जानेमाने आलोचक

डॉ। योगेन्द्र ने मुझसे पूछा, ' आख़िर आपके इस साहित्य की सार्थकता क्या है? ...

क्या यह दुनिया इतनी ही बुरी हो चुकी है कि यहाँ कोई अच्छा न रहा...आपका कोई पात्रा पॉज़िटिव नहीं है, तो क्या यह दुनिया अब रहने के क़ाबिल ही न रही? '

और अंतिम सलाह वरिष्ठ कथाकार मित्रा शिव कुमार शिव की। उसने तो जैसे कील ही ठोंक दी। पूरी कहानी को ख़ारिज करते हुए कहा-'इसे दुबारा लिखो।'

मैंने सुना सब और माना कुछ नहीं-कहा भी कुछ नहीं।

लेकिन अब आपसे कहता हूँ-

' जो लोग सोचते हैं ज़िन्दगी एक मधुर संगीत है या ख़ुशबू है या केवल आनंद है, वे लोग डॉ। योगेन्द्र होते हैं। ज़िन्दगी बाइस्कोप का परदा नहीं, जहां कोई बेसुरा तक नहीं होता, जिसे देखो लता और रफ़ी के स्वर में गीत गा रहा है।

और जो लोग ऐसा सोचते हैं कि ज़िन्दगी को हम दुबारा अपनी तरह से लिख सकते हैं वे वाक़ई बड़े भोले होते हैं...ज़िन्दगी को कोई अपनी मर्ज़ी से दुबारा नहीं लिख सकता।

और साहित्य का यह उद्देश्य तो हर्गिज़ नहीं है कि वह शब्दों से जीवन की ऐसी तस्वीर बनाए, जो ज़िन्दगी से ही अलग हो। यह तो आपकी धड़कनें हैं, संवेदनायें हैं, जीवन के राग और विराग हैं, जो पढ़ते वक्त आपकी शिराओं से गुज़रते हुए, आपके दिल और दिमाग़ तक जा पहुँचती हैं। इसका उद्देश्य न आपको शिक्षा देना है, न मनोरंजन करना।

और जनाब! जब सोचता हूँ, यह ज़िन्दगी आखिर क्या है तो लगता है, यह वह चादर है जिसे हम ताउम्र ओढ़ते और बिछाते हैं। इसमें रोज-ब-रोज सिलवटें पड़ती हैं, दाग और धब्बे लगते हैं। हम रोज इसे झाड़ते-फटकते और धोते हैं। कुछ दाग़ हैं कि धुल जाते हैं-कुछ रह जाते हैं और फिर से हम इसे पहन लेते हैं... और इसी तरह ज़िन्दगी अनवरत चलती रहती है...चलती रहती है।

रज्जू और बेबी की ज़िन्दगी में भी जो सिलवटें पड़ी हैं, उसे ये लोग भी शायद झाड़-पोंछ कर अपनी तरह से खुद, फिर से पहन लें।

और अब बस...आगे कुछ नहीं कहना है मुझे।

08.08.06