अगिनदेहा, खण्ड-1 / रंजन

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रात के साढ़े ग्यारह बज गये थे। सक्सेना श्रीवास्तव के साथ व्हिस्की पर अभी भी जमा था। चौहत्तरवर्षीय श्रीवास्तव की हालत यह थी कि वह तीसरे पैग के बाद ही आउट होना शुरू हो जाता, जबकि सक्सेना बगै़र पाँचवाँ पैग गटके उठता ही नहीं था। उसकी रोज़़ की यही आदत थी।

जगत नारायण श्रीवास्तव के अलावा, रेवतीशरण सक्सेना का और कोई दोस्त था भी नहीं। श्रीवास्तव की आलीशान कोठी 'जानकी कुटीर' के टैरेस गार्डेन पर दोनों की बैठकी सूरज ढल जाने के बाद जो जमती तो देर रात गये तक जमी रहती। उम्र में श्रीवास्तव से वह दो वर्ष बड़ा था, लेकिन ख़ुद को हमेशा 'यंग मैन ऑफ़़ सेवेन्टी सिक्स' कहा करता।

उसकी दो बेटियां थीं, जो ससुराल चली गईं। इकलौता बेटा नौकरी से लगा था। उनकी अपनी गृहस्थी थी, बच्चे थे। प्रशासनिक नौकरी से रिटायर्ड सक्सेना तब तक अकेला न था, जबतक उसकी पत्नी उसके साथ थी। अब पता नहीं, उम्र के इस पायदान पर श्रीमती जी ने क्यों अपने पति को छोड़ बेटे की गृहस्थी सम्हालने की ज़िद पकड़ ली। उससे पूछता भी कौन? बहरहाल 'दी यंग मैन ऑफ़ सेवेन्टी सिक्स' बंगले में अकेला, मौज में अपने दिन काट रहा था।

वैसे अपनी नौकरी में उसने जमकर माल कमाया था। देश की राजधानी में कई बेनामी सम्पत्ति बनाई थी। नेशनल सिक्योरिटी सर्टिफ़िकेट, इंदिरा विकास पत्रा एवं किसान विकास पत्रों के अतिरिक्त शेयर बाज़ार में भी उसने बहुत बड़ी राशि लगाई थी। बैंकों में भी लाखों के फ़िक्ड डिपॉजिट थे। अपने कम्प्यूटर पर उसने समस्त निवेश का विवरण डाल रखा था। लेकिन, कम्प्यूटर के हार्ड डिस्क में कोई डाटा न रखता। हार्ड डिस्क युक्त एक क़लम (पेन ड्राइव) में वह अपना सारे विवरण रखता, ताकि अवांछित हाथों में ये विवरण न आ सकें। जैसा जमाना आ गया था, किसी का क्या भरोसा! इनकम टैक्स वाले का रेड ही हो जाए या फिर और कुछ! इन मामलों में वह कोई रिस्क लेना पसंद न करता।

शेयर बाज़ार का वह उस्ताद निवेशक था। उसने कम्पनियों के जन्मटीपनों का गम्भीर अध्ययन करके कुल बीस कम्पनियां छाँटी थीं। इन कम्पनियों में दो सॉफ्टवेयर, दो मेडिसिन, एक सीमेंट, एक स्टील, एक पेट्रोकेमिकल, एक वित्तीय और शेष बारह कन्ज़्यूमर आइटम की डायवर्सीफ़ाइड मल्टीनेशनल कम्पनियां थीं। वह इन्हीं बीस कम्पनियों में निवेश करता। आज तक उसने एक भी शेयर बेचा नहीं था, बल्कि ऊंची क़ीमत पर ख़रीदे शेयर अगर कभी मंदी की चपेट में आ जाते तो उसे फिर से खरीद कर अपना निवेश एवरेज करता रहता।

डिबेंचरों में भी वह अपना अलग फ़ार्मूला रखता। डिबेंचरों के ब्याज का पैसा वह नये डिबेंचरों में ही लगाता।

साढ़े छह फ़ुट ऊंचा, गोरा-चिट्टा सक्सेना अपने बालों को बरगंडी कलर से डाई करता। क्लीन शेव्ड चेहरे पर लम्बी-घनी भौंहें सफे़द होने लगी थीं, जिन्हें उसने डाई करना शुरू न किया था। उसकी बड़ी-बड़ी और चमकीली आँखों के नीचे लटके मांस के थक्के उसके पक्के शराबी होने की चुग़ली खाते थे। बाक़ी चेहरा भरा-भरा और चिकना था। लम्बी ऊँची नाक के नीचे उसके पतले-पतले होंठ क़रीने से तराशे लगते थे। सक्सेना के सारे दांत पंक्तिबद्व और सुडौल थे। वह जब मुस्कुराता तो अच्छा लगता। लेकिन जब दिल खोल कर हँसता तो उसके काले मसूढे़ पूरी तरह नुमायां हो जाते।

यूं तो हमेशा वह अपने सूट-टाई और चमकते ज़ूतों की शानदार पैकिंग में ख़ुद को सजाए रहता; लेकिन श्रीवास्तव के साथ जब शाम में व्हिस्की के लिए आता तो कैजुअल डेªस में आता। ब्राइट कलर की टी-शर्ट, फेडेड जीन्स और पैरों में कैनवास के जूते।

बंगले के अंदर वह इस क़दर रिज़र्व था कि उसकी दिनचर्या की कोई भनक पड़ोसियों को नहीं लगती। मुहल्ले के लोग उसे तभी देखते, जब वह श्रीवास्तव से मिलने, देर शाम के बाद, अपनी पुरानी 'ऑस्टीन' पर घर से बाहर निकलता।

दूसरे विश्व युद्ध के जमाने की इस कार को वह आज तक क्यों सम्हाले था, इसकी कहानी तो मैं नहीं जानता, लेकिन आज की तारीख़ में यह इकलौती 'ऑस्टीन' कार थी, जो शहर की सड़कों पर नई दुल्हन की तरह राह चलतों की नज़रों को चुम्बक की तरह खींचती थी।

गज़ब था सक्सेना का रख-रखाव। इसकी बूढ़ी 'ऑस्टीन' में आज भी वह चमक थी, जो किसी नई-नवेली मर्सडीज तक को मयस्सर न थी।

लेकिन...मुग़ालता न हो जाए किसी को कि सक्सेना साहब को बुझ चुके हुक़्क़े गुड़गुड़ाना ही रास आता है, इसीलिए आपकी जानकारी के लिए यह बेहतर है कि शुरू में ही मामला साफ़़ हो जाए कि हमारे सक्सेना साहब की पसंदीदा लिस्ट में किसी गुज़रे जमाने की हुस्न परी का नाम शामिल नहीं। वे तो ताज़ा-ताज़ा जवान हुई...छोड़िए अब! उनके इन तमाम अंदरूनी मामलों से हमें या आपको क्या लेना-देना।

कहना तो इतना भर था कि मुहल्लेवाले उन्हें तभी देखते, जब वे रोज़़ शाम अपने इकलौते दोस्त श्रीवास्तव के 'जानकी कुटीर' के लिए अपनी सदाबहार 'ऑस्टीन' में निकलते।

और अब जगत नारायण श्रीवास्तव!

सिविल इंजिनीयरिंग और आर्किटेक्चर के मामले में श्रीवास्तव का सानी सारे शहर में कोई दूसरा न था। उसने जम कर पैसा कमाया, लेकिन आज तक शादी न की। यह उसके व्यक्तित्व का ऐसा अनजाना पहलू था, जिस पर वह किसी से शेयर न करता। सक्सेना ने जब भी इस बात पर उसे क़ुरेदनेे की कोशिश की, उसने उसे रोक दिया। सक्सेना को पता था, श्रीवास्तव अपनी युवावस्था में किसी अफ़ेयर में इन्वॉल्व था। यह उन दिनों की बात है, जिन दिनों अपनी नौकरी के सिलसिले में वह शहर-दर-शहर घूमता रहा। श्रीवास्तव की ज़िन्दगी का वह हिस्सा उससे हमेशा अनजाना रहा।

अपनी बाद की ज़िन्दगी में, पता नहीं, क्या सोच कर श्रीवास्तव ने तीन वर्ष की एक बच्ची को गोद ले लिया था। आज उसकी गोद ली गई ख़ूबसूरत बेटी वनिता पूरी तरह जवान हो गई है।

जवानी के दिनों में श्रीवास्तव शायद आकर्षक रहा हो, लेकिन आज उसको देख कर ऐसा नहीं लगता। सवा पांच फ़ुट के श्रीवास्तव के रंग पर तांबई रंग के चित्ते पड़ गये थे। मोटापा भी वैसा ही। चर्बी की परतें जिस्म पर चढ़ चुकी थीं और सबसे मुख्य चीज़ थी उसकी तोंद, जो बेहद बाहर निकली थी। क़मीज़ पहनता तो पैंट के अंदर डाल कर। ऊपर से चौड़ी बेल्ट कुछ ज़्यादा ही टाईट लगाता, फिर भी तोंद को सम्हालने में उसकी बेल्ट हमेशा नाकाम रहती। सर के बाल आधे से ज़्यादा गायब हो चुके थे। बचे हुए रूखे बाल भी हमेशा कंघी के मोहताज रहते। एक बार सुबह बाल संवारता तो फिर वह इसकी परवाह न करता कि उसके बाल संवरे हैं कि बिखरे। वैसे श्रीवास्तव की सबसे बड़ी ख़ासियत थी-उसके अलग-अलग डेंचर। दांतों के वह तीन सेट रखता। एक लगाए रहता, बाक़ी दो सेरेमिक-वॉटर जार के क्लीनिंग एजेन्ट मिश्रित पानी में पड़े रहते।

वह अपना डेंचर रोज़़ सबेरे-शाम बाथ-रूम में बदल लेता। सवा पांच फ़ुट ऊँचा श्रीवास्तव मोटापे के कारण ही नाटा नज़र आता था। लेकिन सोने के फ्ऱेम वाले बाइ-फ़ोकल चश्मे, अधपके बालों वाली घनी मूंछें और फ्रेंच-कट दाढ़ी, उसे एक अलग व्यक्तित्व प्रदान करते थे। रोज़़ शेव करने के बाद वह पूरी तन्मयता से मूंछें और अपनी फ्ऱेंचकट दाढ़ी छोटी कैंची से संवारता। मोटी नाक पर उग आये बालों को वह याद करके काटता, लेकिन दोनों कानों पर भरे बालों के गुच्छे छोड़ देता।

कोठी के अगले हिस्से में उसका ऑफ़िस था, जहां ब्रेक-फ़ास्ट के बाद आकर जो जमता तो शाम चार बजे तक काम करता रहता। ब्रेकफ़ास्ट भी वह डट कर करता। स्लाइस के चार कड़क टोस्ट पर मक्खन की मोटी परतें होतीं, उस पर अण्डों के स्क्रैम्बल। सैण्डविच बनाकर छुरी से काटता और इसे खाकर पूरे एक लीटर मौसमी फलों का जूस गटक जाता।

जहाँँ दुनिया भर के लोग सुबह के नाश्ते के साथ अख़बार पढ़ते हैं, वहीं श्रीवास्तव सुबह-सबेरे इस नामुराद काम के सख़्त ख़िलाफ था। उसका मानना था कि अख़बारों में केवल मनहूसियत की ख़बरें भरी रहती हैं और वह अपनी सुबह इसमें ख़राब नहीं कर सकता, लिहाज़ा ऑफ़िस से लौट कर ही वह अख़बार उठाता।

श्रीवास्तव के डायटीशियन डॉ। जैन ने उसे बटर और अण्डे की पीली ज़र्दी न खाने की सलाह दी थी, क्योंकि उसके ख़ून में कॉलेस्ट्रोल की मात्रा खतरनाक हद को पार कर रही थी। लेकिन, वह सलाह न मानने के लिए ही सलाह लेने का आदी था। डॉ। जैन की सलाह का हमेशा ज़ोरदार मज़ाक उड़ाना उसके शग़ल में शामिल था। वैसे अपने प्रोफेशन के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को गंभीरता से पूरी करता। अपने कम्प्यूटर के मॉनिटर पर नज़रें गड़ाए सारे दिन काम में व्यस्त रहता।

ऑफ़िस के नाम पर वह एक विशाल हॉल था। दीवारों के साथ खड़े दर्जनों स्टैण्ड पर श्रीवास्तव के बनाये मकानों के एलिवेशन-मैप, पिन-अप करके प्रदर्शित थे। हॉल के मध्य में मोटे सागवान की लकड़ी के बने विशाल सोफ़ा-सेट पूरी शान-बान के साथ सजे थे, जिनपर एक साथ पूरे बारह लोग बैठ सकते थे। क़ीमती मोटी क़ालीन पर सेन्टर टेबुल, जिसका पूरे एक इंच मोटे शीशे का टॉप आगंतुकों पर अपना रौब डालता था। इस सेन्टर टेबुल पर आर्किटेक्चर सम्बंधी दर्जनों देशी-विदेशी पत्रिकाएं रखी रहतीं। श्रीवास्तव ख़ुद सिगरेट न पीता, लेकिन सोफ़ासेट के चारों कोनों पर चार छोटे टेबुल थे, जिनपर एक-एक ऐश-टेª पड़ा रहता।

अपने क्लायंट्स से जब उसे बात करनी होती, वह यहीं आकर बैठता। वैसे अपने काम के लिए उसने आबनूस की लकड़ी का, आठ फ़ुट लम्बा चार फ़ुट चौड़ा टेबुल बनवाया था, जिस पर एक डेस्क-टॉप और एक लैप-टॉप कम्प्यूटर रखा रहता। शेष टेबुल पर फ़ाइलें, शीटपेपर और आधे-अधूरे नक़्शे हमेशा बेतरतीबी से बिखरे रहते।

वर्किंग टेबुल के साथ चमड़ा मढ़ा उसका एक्ज़िक्यूटिव चेयर और उससे थोड़ी दूर दीवार के पास लकड़ी की पॉलिश की हुई शानदार बार-कैबिनेट। गहरे लाल महोगनी लकड़ी से बना यह फ्ऱांसिसी बार-कैबिनेट, फ्ऱांस की तत्कालीन कला का नायाब़ नमूना था, जिसे श्रीवास्तव ने ऊँची क़ीमत देकर कलकत्ते के एक एंटीक-शॉप से खरीदा था। अपने इस बार-कैबिनेट में उसने तरह-तरह के वाइन, स्कॉच-ब्रैण्डी-व्हिस्की और रम की बोतलों के अतिरिक्त सैकड़ों मिनीयेचर्स (शराब की एक पैग वाली शीशियां) क़रीने से सजा रखी थीं।

इसी कैबिनेट के ऊपर दीवार पर श्रीवास्तव की ख़ानदानी दीवार-घड़ी लटकी थी, जिसका बेहद लम्बा पेंडुलम आज तक बिल्क़ुल सही डोल रहा था। बगल में ही एक छोटा फ्रि़ज था, जिससे वह काम करते वक़्त, बीयर निकाल कर चुसकता रहता। पूरे हॉल की दीवारों की उंचाई चौदह फ़ुट थी, जिसकी छत से चार सीलिंग फ़ैन लटके थे। श्रीवास्तव मकान की सजावट में लकड़ी का प्रेमी था। उसने अपने ऑफ़िस की दो दीवारों पर बर्मा-टिक की शहतीरेें लगवाई थीं, जिसपर प्रत्येक वर्ष स्प्रिट-चपड़े की पॉलिश करवाया करता। बाक़ी दो दीवारों पर, उसने मोटे रेशमी परदे टँगवाये थे।

श्रीवास्तव की ख़ुशी या सनक यही थी कि वह अपने ऑफ़िस में अकेला काम करता। उसने सिवाय एक रिशेप्सनिस्ट के और कोई दूसरा स्टाफ़ नहीं रखा था। रिशेप्सनिस्ट मैडम ललिता ने जब श्रीवास्तव को ज्वाइन किया था, उस वक़्त वह ताज़ा-ताज़ा ग्रेजुएट हुई थी। श्रीवास्तव के साथ काम करते उसके पूरे तीस वर्ष गुज़र चुके थे। अब तो उसके बच्चों की भी शादियां हो चुकी थीं।

श्रीवास्तव रोज़़ सबेरे ठीक नौ बजे अपने ऑफ़िस पहुंचता। मैडम इसके पूर्व ही ऑफ़िस तैयार कर देती। ऑफ़िस पहुंचते ही श्रीवास्तव अपने काम में इस क़दर जुट जाता कि उसे बाक़ी देश-दुनिया की कोई ख़बर न रहती। मैडम का लंच तो वहीं अंदर कोठी से आ जाता और श्रीवास्तव केवल स्नैक्स खाता रहता, बीयर चुसकता रहता और पूरी तल्लीनता से अपना काम करता रहता।

मैडम ललिता यूं तो पचास के पेटे में पहुंच गई थी, लेकिन देखने में बमुश्किल तीस की लगती थी। गोरी और गज़ब की गुदाज़़ तो थी ही। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों भी बेहद नशीली थीं। इस उम्र में भी उसने अपने वज़न को बढ़ने न दिया था। पूरी छह फ़ुट ऊँची मैडम ललिता की जिल्द, पापड़ जितनी पतली थी। मैडम ललिता जितनी आकर्षक थी, उतनी ही शालीन भी। उसकी शालीनता, साड़ी बांधने की उसकी कला से लेकर उसके व्यवहार तक से प्रकट होती थी।

अपने कर्तव्य के प्रति भी वह वैसी ही समर्पित थी और समय की पाबंदी पर भी पूरी तरह अनुशासित। घड़ी का कांटा सुबह के आठ तीस पर पहुंचा नहीं कि मैडम हाज़िर। ऑफ़िस खोलना, फाइलों-काग़ज़ों को व्यवस्थित करना और कोठी में कार्यरत नौकरों से साफ़-सफ़ाई करवाना। नौ बजे श्रीवास्तव के पहुंचने तक ऑफ़िस को साफ़-सुथरा कर व्यवस्थित कर देना, उसका रोज़़ का काम था।

क्लायंट्स से सम्पर्क करना, उनके बिल्स बनाना, पेमेंट्स के चेक रिसीव करना और उसे श्रीवास्तव के बैंक एकाऊंट में डिपॉज़िट कराने तक का, सारे काम मैडम के ही ज़िम्मे था।

श्रीवास्तव सुबह नौ से शाम चार बजे तक अपने काम में पागलों की तरह व्यस्त रहता। इन सात घण्टों के दरम्यान वह श्रीवास्तव के वर्किंग टेबल पर कभी स्नैक्स और बफ़र्स रख आती, कभी साल्टेड काजू और कभी चीज़़ के केक्स।

लेकिन सबसे ख़ास बात यह थी कि ऑफ़िस में रोज़़ गुज़रने वाले पूरे सात घंटों के दरम्यान श्रीवास्तव के साथ मैडम की बमुश्किल दर्जन-भर-लफ़्जों से ज़्यादा की बातचीत नहीं होती और कभी-कभी तो दोनों चुप ही रहते और सारे वक़्त काम करते गुज़र जाता। श्रीवास्तव काम करता रहता और मैडम सुरेन्द्र मोहन पाठक का जासूसी नॉवेल पढ़ती रहतीं।

मैडम ललिता वैनिटी बै़ग में रोज़़ एक जासूसी नॉवेल लेकर आती, जिसे ख़ाली वक़्त में, पढ़ती रहती। उसे बचपन से ही जासूसी नॉवेल पढ़ने का ज़बरदस्त शौक़़ था। उस जमाने में उसके तीन प्रिय लेखक थे-अक़रम इलाहाबादी, वेद प्रकाश काम्बोज़ और इब़्ने सफ़ी।

बाद में जब मैडम थोड़ी-थोड़ी जवान होने लगी तो कुशवाहा कांत की दीवानी हो गई. कुशवाहा कांत के सारे नॉवेल उसने उस ताज़ा-ताज़ा उम्र में पढ़ लिए. लेकिन श्रीवास्तव के ऑफ़िस में ज्वाइन करने के बाद उसने फिर से जासूसी नॉवेल पढ़ना शुरू कर दिया। उस वक़्त वह ओमप्रकाश शर्मा की फ़ैन बनी और वर्त्तमान में उसके प्रिय लेखक बने सुरेन्द्र मोहन पाठक, जिसकी जासूसी किताब आजकल अपने वैनिटी बै़ग में रोज़़ लेकर आती है।

मैडम का लंच श्रीवास्तव की कोठी से ही आ जाता, लेकिन लंच के मेन्यु पर वह कभी समझौता नहीं करती। उबली हुई सब्ज़ी, सलाद, दो सादी रोटियां और कटोरी भर दाल। इसके अलावा वह और कुछ नहीं खाती।

इस मामले में वह श्रीवास्तव के पारिवारिक मित्रा और डाइटेशियन डॉ। सुरेन्द्र जैन की पक्की अनुयायी थी। डाक्टर जैन ने उसे भोजन के तीनों प्रकार-तामसी, राजसी और सात्विक की व्याख्या की थी। भोजन के आवश्यक तत्त्व, उनकी मात्रा और उनका आपसी संतुलन समझाया था।

श्रीवास्तव तो डाक्टर जैन की सलाह का हमेशा मज़ाक उड़ाया करता, लेकिन मैडम ललिता प्रारंभ से ही इनकी फ़ैन थी और नतीजा सामने था।

शाम के चार बजे जब श्रीवास्तव की दीवार-घड़ी चार के घण्टे बजाती, मैडम पैक-अप करके तैयार हो जाती और श्रीवास्तव को विदा कर अपने घर चली जाती।

शहर के अभिजात्य वर्ग के लोग कभी-कभी आपस में इस बात की चर्चा करते कि मैडम ललिता से दो बातें कर लेने की तमन्ना ने ही उन्हें अपने बंगले की डिज़ाइन श्रीवास्तव से बनवाने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन, दरअसल यह शहर के एलीट लोगों का मज़ाक था; क्योंकि श्रीवास्तव के मुक़ाबले सारे शहर में कोई दूसरा था ही नहीं। वैसे यह बात सोलह आना सही थी कि मैडम से एक बार मुख़ातिब हो जाने के बाद कोई भी मर्द महीनों उसके हैंग-ओवर को महसूस करता रहता।

मैडम ललिता ने अभी-अभी अपना लंच निपटाया था। दिन के दो बजे थे। वह अपनी केबिन में वापस आकर बैठ चुकी थी। केबिन में बैठकर मैडम ललिता ने सुरेन्द्रमोहन पाठक का जासूसी उपन्यास वैनिटी बैग से निकाला ही था कि श्रीवास्तव का नया क्लायंट रामनिवास मिश्रा अपनी पत्नी राधा मिश्रा के साथ आ पहुंचा।

-'गुड मॉर्निंग सर!' , सीट से उठ कर ललिता ने दोनों का स्वागत किया, 'वेलकम, प्लीज़ हैव सीट।'

मैडम की ख़ूबसूरती से थर्राया रामनिवास अपनी झेंप मिटाने के लिए मुस्कुराया। अपनी पत्नी के साथ बैठ गया तो मैडम ललिता ने वाटर कूलर से शीशे के दो ग्लास में पानी भर कर उन्हें पेश किया और पूछा-'एनी थिंग हॉट ऑर कोल्ड? क्या लेंगे सर?'

मिश्रा को इस बात पर सख़्त अफ़सोस हुआ कि ऐसी हसीना के पास वह अकेला क्यों नहीं आया। लेकिन प्रत्यक्ष में उसने कहा, -'नो थैंक्स! हमें सिर्फ़ यह बताइए-हम दोनों को आपलोगों ने एक साथ क्यों बुलाया है? हमारी डील तो हो ही गई और मैंने आपके जॉब के लिए एड्वांस भी कर ही दिया। देन मैडम! व्हाय यू हैव कॉल्ड अस टुगेदर?'

मिश्रा ने उलझन भरे चेहरे से पूछा तो ललिता मुस्कुराने लगी। उसने कहा, -'किसी भी क्लायंट का जब हम घर बनाते हैं तो पहले उन्हें जानते हैं, पहचानते हैं। उनके दिल-दिमाग़ और मिज़ाज़ से वाक़िफ़ होते हैं। फिर हम उनके लिए घर बनाते हैं। लेकिन लगता है, हमने मैडम के साथ बुलाकर आपको कष्ट दे दिया। वी आर रीयली सॉरी सर...!'

-'ओह नो!' मिश्रा बौखलाया, 'मेरा यह मतलब नहीं था मैडम, रादर इट इज वेरी नाइस टू नो दि फ़ैमिली फ़ार हूम यू आर मेकिंग दी होम।' अपनी बात कहकर वह हँस पड़ा और उसकी पत्नी भी मुस्कुराई.

मैडम ललिता ने कम्प्यूटर ऑन करते हुए कहा-'मेरे बॉस ने एक सेट ऑफ़ क्वेश्चंस बनाया है। मैं आप दोनोें से पूछती जाऊंगी और आपकी बात फ़ीड करती जाऊंगी...एण्ड देयर इज वन गुड न्यूज़ फ़ॉर बोथ ऑफ़ यू. हमारे पास आपके प्लॉट की स्वायल टेस्ट रिपोर्ट आ गई है। दी वेट कैरेयिंग कैपेसिटी ऑफ़ दी स्वायल इज वेरी गुड। आपके फ़ाउंडेशन का कॉस्ट... ऐटलीस्ट ट्वेन्टी परसेन्ट रिड्यूस हो जायेगा।'

मैडम के मॉनिटर पर क्वेश्चन शीट आ गया। मैडम ललिता ने मॉनिटर से निगाह उठाकर मिश्रा की ओर देखा। मिश्रा या उसकी पत्नी के चेहरे पर मैडम के गुड न्यूज़ की कोई प्रतिक्रिया न थी। ललिता समझ गई. ये लोग और कुछ हों, लेकिन कॉस्ट-कांसस नहीं हैं। उसे ख़ुशी हुई, इनके प्रॉजेक्ट में कहीं ख़र्च की कटौती नहीं करनी पडे़गी।

-'येस मैडम।' ललिता राधा मिश्रा की ओर मुख़ातिब हुई, -'आप अपने नाम की स्पेलिंग में क्या लिखती हैं-आर, ए, डी, एच, ए?'

राधा मिश्रा ने सर हिलाकर हामी भर दी तो ललिता ने फिर पूछा-'आपका यही एक नाम है अथवा... मैं जानना चाहती हूँ, मिश्रा साहब इसी नाम से आपको बुलाते हैं या।'

ललिता की बात पूरी होने के पूर्व ही राधा मिश्रा ने कहा-'आप मेरे पुकार का नाम जानना चाहती हैं?'

-'जी.'

-'मेरा एक ही नाम है' राधा'और मैं अपने चेक भी इसी नाम से साइन करती हूँ।'

-'यानी आप राधा मिश्रा नहीं लिखतीं?'

- 'नहीं'

-'फाइन! आपका डेट ऑफ़ बर्थ क्या है? ...ओनली डेट!'

-'सेवन।'

-'गुड।'

-'योर फ़ेवरिट कलर, मैम?'

-'रेड।'

रामनिवास अब तक पूरी तरह उलझ चुका था और इस बार न चाहते हुए भी उसने इंटरप्ट किया, -'मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इन बेकार प्रश्नों से हमारे मकान की डिज़ाइन का क्या सम्बंध है?'

-'सर! डू यू बिलिव इन न्यूमरोलॉजी?'

-'यस, आई नो इट।'

-'दैट्स फाइन। मैं मैडम का मूलांक निकालना चाहती हूँ। जन्म-दिन तो है ही। उसे भी बाद में महीने और वर्ष के नम्बरों से जोड़ कर कम्पाउंड करूंगी। नामों में बड़ा चक्कर होता है। आपका नाम कुछ है, लोग आपको जानते किसी और नाम से हैं और साईन आप किसी और नाम से करते हैं। इसे भी देखना होता है और जब आपका सही और सटीक नम्बर पता चल गया तो बाक़ी बातें आसान हो जाती हैं। हम आपके शौक़़ और आपकी इच्छा-अनिच्छा को काफ़ी हद तक जान जाते हैं। फिर हमारे लिये आपका मकान डिज़ाइन करना, उसके अंदरूनी और बाहरी रंगों का चुनाव करना और बाक़ी साज-सज्जा की प्लानिंग करना सहज हो जाता है।'

रामनिवास आँखों फाड़े ललिता की बातें सुन रहा था। उसने पूछा-'रंगों की प्लानिंग भी आप लोग ही करेंगे?'

-'बेशक़। हमें देखना होगा, आपके लिए कौन से रंग उपयुक्त हैं। इसमें सिर्फ़ आपकी पसंद पर हम डिपेंड नहीं कर सकते।'

मैडम ललिता अब गंभीर हो गई. उसने आगे कहा, -'हो सकता है आप' पीला'पसंद करें और आपकी पत्नी' लाल'... लेकिन हम बतायेंगे, आपके लिविंग रूम, आपके बेडरूम के कलर्स क्या होंगे।'

-'वह कैसे?' रामनिवास ने उत्सुकता से पूछा।

-'हम पहले आप दोनों को जानेंगे-पहचानेंगे। देन ऑनली वी विल डिसाइड दि रिक्वायरमेंट्स ऑफ़ योर कलर्स।'

-'रिक्वायरमेंट्स ऑफ़ कलर?' रामनिवास फिर उलझ गया। उसने उंगलियों से कान के ऊपर बालों को ख़ुजा कर सहलाते हुए कहा, -'रंगों की तो पसंद होती है, आवश्यकता नहीं।'

-'नो सर, ऐसा नहीं है। अगर आपके मिज़ाज गर्म हैं, अशांत हैं तो आपको कोल्ड कलर ग्रूप की ज़रूरत है और अगर आप बेहद शांत...-किस्म के लोग हैं, देन वी विल प्लान वार्म कलर्स फार यू.'

-'क्या रंग भी वार्म एण्ड कोल्ड होते हैं?'

-'येस ऑफ़कोर्स! रेड ऐण्ड येलो आर दी कलर्स ऑफ़ वार्म ग्रूप, ग्रीन ऐण्ड ब्लू कम अण्डर कोल्ड ग्रुप ऑफ़ कलर्स।'

रामनिवास और उसकी पत्नी की आँखों चमकीं। इनकी आँखों में प्रशंसा के भाव उत्पन्न हो गये। उसने अपनी पत्नी से कहा, -'दिस इज कॉल्ड प्रोफ़ेशनलिज्म। देखो... छोटी-छोटी बातों में भी ये लोग कितने सीरियस हैं। परफे़क्शनिस्ट इन एवरी आस्पेक्ट ऑफ़ होम डिजाइनिंग।'

-'यू आर वेरी राइट सर! वी विल प्रोवाइड यू एवरी थिंग, राइट फ्ऱॉम दी इंटिरियर डिज़ाइन, कलर्स, इलेक्ट्रिकल वायरिंग, टू दी लैण्डस्केपिंग ऑफ़ योर होम-गार्डेन।' ललिता ने आगे कहा, -'इवन आपको इनडोर प्लांट्स की लिस्ट तक हम ही प्रोवाइड करेंगे।'

-'दैट्स व्हाय यू आर सो एक्सपेंसिव!' कहते ही रामनिवास हँस पड़ा। '

-'ऐसी बात नहीं है सर कि हम बेहद एक्सपेंसिव हैं। यह बात वैसे सही है कि क्वालिटी कम्स विद इट्स कास्ट, बट वी डोंट इन्क्लूड अननेसेसरी आयरन इन अवर स्ट्रक्चर एण्ड दैट सेव्स, लॉट ऑफ़ योर मनी।'

रामनिवास फिर हँस पड़ा, -'डोंट टेक इट अदरवाइज। मैंने सिर्फ़ मज़ाक किया था। मैं समझता हूँ आपकी सर्विसेज किसी भी क़ीमत पर मंहगी नहीं है। एक तो लोग अपने प्लाट का लोड वियरिंग कैपेसिटी जानते ही नहीं। बड़े कॉरपोरेट का कन्सट्रक्शन हो, तभी स्वायल टेस्ंिटग होती है और आप डिजाइनिंग के पहले इसी को टेस्ट करते हैं। दूसरी बात, कोई भी सिविल इंजीनियर आर्किटेक्ट तो होता नहीं और दुर्भाग्य यह है कि वह ताल ठोंक कर आर्किटेक्ट का काम करता है। आपके यहाँ सिस्टम ही अलग है। आप एलिवेशन के साथ-साथ न केवल स्ट्रक्चर डिज़ाइन देते हैं, बल्कि इंटायर इंटीरियर, विद कलर स्कीम...इवन हाऊस गार्डेन का लैण्डस्केपिंग भी प्रोवाइड करते हैं। एवरी थिंग इन वन सिंगल पैकेज। इट इज रीयली वंडरफुल ऐण्ड प्रेजिंग।'

इतनी ढेर सारी बातें वह एक सांस में कह गया। एक बार रुका फिर कहा, -'में वी मीट मिॉ श्रीवास्तव?'

-'येस सर...स्योर, बट लेट मी फिनिश माई जॉब फ़र्स्ट।'

मैडम ललिता फिर से अपने कम्प्यूटर के 'की-बोर्ड' से उलझ गई और शेष प्रश्न पूछने लगी। रामनिवास ग़ौर से मैडम को देखने लगा। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर भी वह कितनी सम्मोहक थी। उसे श्रीवास्तव से जलन होने लगी।

ख़ाहमख़ाह उसने इसके बॉस से मिलने की ख़्वाहिश कर दी। उसका दिल करने लगा, वह सारी उम्र मैडम के ही सामने बैठा बातें करता रहे।