अगिनदेहा, खण्ड-2 / रंजन
ललिता के साथ मिश्रा दम्पती ने ज्यों ही श्रीवास्तव के ऑफ़िस में क़दम रखा, श्रीवास्तव ने उठ कर उनका स्वागत किया, -'प्लीज़ हैव योर सीट्स!' फिर उसने ललिता से कहा, -'प्लीज़ एरेन्ज सम रिफ्रे़शमेंट फ़ार अस।'
पति-पत्नी के बैठते ही मैडम ने तेज़ी से तीन चमक़ते ग्लास, सेन्टर टेबल पर रखकर फ्रि़ज से बीयर के तीन कैन निकाले।
श्रीवास्तव ने मिश्रा से पूछा, -'मैडम लेंगी?'
-'नो थैंक्स!' जवाब मिश्रा की पत्नी ने दिया, 'आई विल बी ओ.के. विद सम सॉफ्ट ड्रिंक।' -'मैडम!' श्रीवास्तव गर्दन घुमाकर ललिता से सॉफ्ट डिंªक के लिए आगे कुछ कहता कि उसने देखा, राधा मिश्रा की बात सुनकर, ललिता ने बीयर का एक कैन वापस फ्रि़ज में रख कर, सॉफ़्ट ड्रिंक का कैन निकाल लिया था।
ललिता ने सोफ़े पर बैठकर एक ग्लास में सॉफ़्ट ड्रिंक भरा, फिर बाक़ी दो गिलासों को तिरछा कर इस कारीगरी से बीयर भरा कि उनमें झाग पैदा न हो।
श्रीवास्तव ने देखा मिश्रा तक़रीबन पैंतालिस वर्षो का स्वस्थ व्यक्ति था। उसकी पत्नी अगर थोड़ी छरहरी होती तो बमुश्किल पचीस से तीस की लगती। लेकिन श्रीवास्तव को वह पैंतीस की लगी। हल्के पीले रंग की साड़ी में बेहद गोरी श्रीमती मिश्रा शालीन और सुसंस्कृत महिला लग रही थी। मिश्रा ने चमकती सफे़द सूती क़मीज पहन रखी थी। श्रीवास्तव को पता था, यह इजिप्सीयन कॉटन की बहुत महँगी क़मीज थी।
उसने नज़र झुकाकर सरसरी निगाह से मिश्रा के जूते देखे। वह अपने क्लायंट्स की कुलीनता की पहचान, उसकी पोशाक और कार से नहीं, उसके ज़ूतों की चमक और सुलझे बालों से करता, जबकि ख़ुद उसके बाल उलझे रहते थे।
उसे ख़ुशी हुई कि मिश्रा के ज़ूतों पर कहीं गर्द और गुबार की कोई परत नहीं थी। वे चमक रहे थे और उसके बाल भी पूरी तरह अनुशासित थे।
मिश्रा व्यावसायिक मुस्कान के साथ अपनी बात पर आया।
-'देन मिॉ श्रीवास्तव, वी शुड कम टू आवर प्वांयट्स।' मिश्रा ने बीयर की एक बड़ा-सा घूंट लेकर कहा, -'हमें हमारे घर में क्या-क्या चाहिए, हमने डिटेल में बता दिया है ऐण्ड नाव इट इज़ अप टू यू, हाव यू प्लान इट।'
-'येस मिॉ मिश्रा, आइ हैव गोन थ्रू आल योर नीड्स। आपने अपने बाथरूम में जकूज़ी की फ़रमाईश की है। एक जिम, एक स्टडी, एक गेम्स रूम और एक स्मॉल स्वीमिंग-पूल भी आप चाहते हैं...मैंने देख लिया है, बट वी हैव टू सिट टूगेदर एगेन। आई विल शो यू डिफ़रेंट आइडियाज़ इन थ्री डाइमेंशनल इमेजेज़ एण्ड देन ऑनली वी विल डिसाइड दी फ़ाइनल प्लान।'
श्रीवास्तव ने बीयर चुसकते हुए ललिता से कहा, -'मेक अवर नेक्स्ट एप्वांयटमेंट आफ़्टर थ्री-फ़ोर डेज़।'
ललिता ने सहमति में सर हिलाया तो मिश्रा की पत्नी पूछ बैठी, -'श्रीवास्तव साहब! मैं चाहती हूँ, हमारा बेडरूम अपार्टमेंट सेन्ट्रली एयर-कन्डीशन्ड हो।'
-'अपार्टमेंट?'
-'आई मीन दी एरिया ऑफ़ अवर बेड, स्टडी, पर्सनल सीटिंग एण्ड बाथरूम।'
-'आई-सी! वेल, इट कैन वी कवर्ड विद टेन-टू-ट्वेल्व टन ऑफ़ सिंगल यूनिट...नो प्रॉब्लम! बाक़ी जगह स्प्लीट यूनीट्स के प्रोविज़न दे दूंगा। आपने बता कर अच्छा किया, क्योंकि सीलिंग में एडिशनल डक्टिंग स्पेस, प्रोवाईड करना होगा। आई विल डू इट...नो प्रॅाब्लम। एनी थिंग मोर?'
-'येस मिॉ श्रीवास्तव, दो बातें और! पहली तो यह कि मैं सोलर एनर्जी के प्लेट्स अपने टैरेस पर चाहती हूँ।'
श्रीवास्तव ने उसे रोकते हुए कहा, -'व्हाई एट टैरेस? मैं आपके डॉयगनल फ्ऱंट रूफ़-टॉप पर, सोलर प्लेट्स के रिफ़लेक्टर्स प्लान कर दूंगा, व्हाई वी विल वेस्ट दी टैरेस। आप चाहेंगी तो वहाँ टैरेस-गार्डेन कम स्वीमिंग पूल बन सकता है।'
राधा मिश्रा की आँखों चमकीं। उसने कहा, -'ओ. के. दैन, मैं समझ गई. आप हमारे घर को, हमारे अपने सपनों से बेहतर बना सकते हैं। सिर्फ़ एक बात और बताइये-डू यू विलिव इन वास्तु?'
इस बार श्रीवास्तव हँसा और मिश्रा मुस्कुराया। हँसते हुए ही श्रीवास्तव ने कहा, -'येस मैम, आई विलीव इट विद सम रिज़र्वेशन्स और आप यकीन कीजिये, मैं कहीं-कहीं इसे फ़ॉलो भी करता हूँ... एण्ड ऐट दी सेम टाईम आई एम नॉट ए आर्थोडॉक्स। मैं सबसे पहले अपने क्लायंट्स की सुविधा और उनका आराम देखता हूँ। वैसे अगर वास्तु के अनुसार वरूण के प्वांयट पर बोरींग करा दूं और अग्नि कोण पर जेनरेटर्स, तो मेरा क्या जाता है?'
श्रीवास्तव क्षण भर को रुका। ललिता ने दुबारा दोनों ग्लासों में बीयर भर दिया, तो श्रीवास्तव ने पूछा-'आप वास्तुशास्त्रा पर यक़ीन करती हैं?' फिर बगै़र राधा मिश्रा का जवाब सुने उसने कहा, -'इफ़ येस, दैन आई विल कन्सीडर इट इन टोटो।'
-'नॉट एट दी कॉस्ट आफ़ अवर कम्फ़र्ट।' इस बार मिश्रा ने कहा, -'अगर आप वास्तु को फ़ॉलो करने में डिसकम्फ़र्ट फ़ील न करें दैन ओनली फ़ालो इट।'
-'ओ. के.! आइ विल प्लान योर हाऊस एकार्डिंग टू वास्तु, नो प्रॉब्लम।' कहकर श्रीवास्तव ने एक ही बार में अपना बीयर बाटम-अप कर दिया। ललिता समझ गई, उसका बॉस अब अपने क्लायंट्स को विदा करना चाहता है। उसने मिश्रा से कहा-'मैं फ़ोन पर आपसे अगली एप्वांयटमेंट फ़िक्स कर लूंगी।'
मिश्रा दम्पत्ति के जाते ही वह वापस अपने काम में लग गया। मिश्रा के पांच हजार वर्ग फ़ुट के प्लॉट में, उसे दो से ठाई हजार फ़ुट का डुप्लेक्स, प्लान करना था और इस बार उसे पूरी आजादी थी कि बगै़र बजट की परवाह किए अपना काम करे। दरअसल वह ऐसे ही क्लायंट्स से डील करना पसंद करता था जहां उसे अपने काम में समझौता न करना पड़े।
श्रीवास्तव की ज़िन्दगी रोज़़ इसी तरह शुरू होती। शाम चार बजे तक जम कर काम करता। चार बजे के बाद, चेम्बर से निकल कर जब अपने लिविंग-रूम पहुँचता तो उस वक़्त तक पूरी तरह निढाल हो चुका होता। उसके लिविंग-रूम के साथ ही अटैच्ड बाथरूम था। यह उसकी अजीब आदत थी कि ऑफ़िस से आकर अपने मास्टर बेडरूम में फ्रे़श होने की जगह, वह इसी बाथरूम में पूरे पंद्रह मिनट का शावर लेता। मौसम सर्द हो या गर्म, वह हमेशा गुनगुने पानी में स्नान करने का आदी था। इसीलिए ठीक साढ़े तीन बजे, इस बाथरूम का गीज़र ऑन कर दिया जाता।
बाथरूम के ड्रेसिंग कैबिनेट से अपनी सफे़द सिल्क की लुंगी, गंजी और कुरता निकाल कर पहनता और अपने लिविंग रूम में वापस आता, जहां काजल-दी उसके इन्तजार में, उसका रेशमी गाउन, हैंगर में लिए तैयार खड़ी रहती।
सांवली-सलोनी काजल जब 'जानकी कुटीर' आई थी, तब वह श्रीवास्तव की बेटी वनिता की गवर्नेस कम फ्रेंड थी, आज इस कोठी की वह हाऊस-कीपर है। 'जानकी कुटीर' की समस्त देखभाल इसी की ज़िम्मेदारी है। चाहे राशन हो या पर्दे की धुलाई, सारे काम बख़ूबी सम्हाल लिया है-इसने। 'जानकी कुटीर' में श्रीवास्तव के अलावा सारे लोग काजल को आदर से काजल दी कहकर सम्बोधित करते थे। 'जानकी कुटीर' में काम करने वाले लोग, सर्वेंट क्वार्टर में रहते, लेकिन काजल को श्रीवास्तव ने अपने बंगले का एक सेपरेट विंग दे दिया था, जहां वह अपने चित्राकार पति, भारती के साथ रहती थी।
खाने के मामले में काजल दी, मैडम ललिता के सर्वथा विपरीत थी। जमकर भोजन करती और चाट-मसाले की तो वह बेहद शौक़ीन थी ही। नतीजे में, इसका पांच फ़ुट तीन इंच ऊँचा शरीर भरा-पूरा था। गोल-चेहरा, सुतवां नाक, ललाट पर बिंदी, मांग में लम्बा चमकता सिंदूर।
इसके व्यक्तित्व की अलग पहचान, इसकी कमर तक लटके घने-काले और चमकते सुंदर बाल थे, जिसे काजल-दी कभी बाँधती न थी।
श्रीवास्तव जब ऑफ़िस से अपना काम ख़त्म कर, अपने लिविंग में आता तो काजल दी की व्यस्तता बढ़ जाती। बाथ-रूम के गीज़र को ऑन करके वह बाथरूम के ड्रेसिंग-कैबिनेट को चेक करती, श्रीवास्तव के सारे आवश्यक कपड़े और सामान व्यवस्थित करती। श्रीवास्तव के बाथरूम घुसते ही उसके लिए स्ट्रांग-कॉफ़ी का आर्डर दे कर, उसका रेशमी गाउन हैंगर में डाले, श्रीवास्तव के वापस आने के इंतजार में खड़ी रहती।
श्रीवास्तव के बाहर आते ही उसके बदन पर स्प्रे किए हुए बॉडी परफ़्यूम की ख़ुशब़ू पूरे लिविंग रूम में भर जाती। शावर लेने के बाद उसकी आदत थी, वह अपनी बगलों में और गर्दन पर, बॉडी-परफ़्यूम का इस्तेमाल फ़राग़दिली से करता। गाऊन पहन कर वह इत्मीनान से सोफ़े में घंस जाता। फ़ौरन ही उसके पास स्ट्रांग कॉफ़ी का बड़ा मग पहुंच जाता, जिसे वह धीरे-धीरे चुसकता हुआ ख़ुद को रीचार्ज करता। कॉफ़ी पीने के बाद उसके पास कई घंटों का वक़्त, काटने के लिये और बचता, क्योंकि तब तक सक्सेना के आने का समय हो जाता।
पिछले महीने तक वह वक़्त के इस वक्फ़े को कई हिस्सों में बांट देता था। टी.वी., अख़बार और पत्रिकाओं में पहला एक घंटा। इसके बाद सक्सेना के आने तक, अपनी बेटी के साथ या तो टेबल-टेनिस खेलता या बिलियर्ड्स। अगर बिलियर्ड्स खेलता तो पहले बेटी को राज़ी करता कि वह स्नूकर के लिए ज़िद न करे, क्योंकि बिलियर्ड-टेबल पर बेबी हमेशा स्नूकर ही खेलना चाहती। बहरहाल बाप-बेटी की तकरार के बाद आख़िरकार श्रीवास्तव स्नूकर के लिए ख़ुद को राज़ी कर लेता और बेटी के साथ खेलते हुए, दिन भर के तनावों से मुक्त होता।
विनीता श्रीवास्तव नाम था उसका लेकिन सभी उसे बेबी ही कहते। श्रीवास्तव ने जब उसे गोद लिया, वह तीन वर्ष की गुड़िया थी। 'जानकी कुटीर' ने उसे हँसते-खेलते-ख़िलख़िलाते और बढ़ते देखा था। देश-दुनिया की न उसे कोई ख़बर थी, न चिन्ता। उसे तो पता ही न चला कि कब उसने अपने बचपन को छोड़ा और कब जवान हो गई. अभी कल तक तो वह अपने पिता और सक्सेना अंकल से लिपट कर प्यार करवाती अन्यथा रूठ कर मुँह फुला लेती थी।
-'इसका क्या होगा सक्सेना?' अक्सर श्रीवास्तव अपने दोस्त से कहता, -'अभी तक इतनी इनोसेन्ट है कि कभी-कभी मुझे डर लगने लगता है?'
-'क्यों...इसमें डर वाली क्या बात है? इनोसेन्सी क्या बुरी चीज़ है? रादर वी शुड प्राऊड ऑफ़ हर। जमाने की हर बुराई से दूर है अपनी बेबी.'
-'यही तो फ़िक्र की बात है।'
और श्रीवास्तव की फ़िक्र पर वह हमेशा खुल कर हँसता।
श्रीवास्तव के ऑफ़िस से लौटते ही वह बिलियर्ड बोर्ड पर स्नूकर के लिए मचल जाती थी और फिर रात नौ बजे तक, अपने पिता और सक्सेना अंकल के साथ टैरेस गार्डेन में बैठ केवल सूप पीती। उसके पिता और सक्सेना व्हिस्की की चुस्कियां लेते हुए बेबी से गप्पें मारते। श्रीवास्तव के साथ सक्सेना की बैठकी तो रात ग्यारह के बाद ही समाप्त होती लेकिन बेबी का समय तय था। वह ठीक नौ बजे उठ जाती। रात का खाना प्रायः अपने कमरे में ही खाती।
लेकिन जाते-जाते वह अपने पिता को हिदायत देना न भूलती-'पापा यह आपका दूसरा ड्रिंक है। मैं जाती हूँ, बट प्लीज़ प्रामिस मी, यू विल टेक नो मोर... इसके बाद डिनर ले लीजिएगा पापा।'
-'येस डार्लिंग,' श्रीवास्तव उसे स्नेह भरी आँखों से विदा करते कहता, -'अपने अंकल को समझाती जाओ...मुझे फ़रदर प्रेस न करे।'
सक्सेना गुस्साता, -'क्या कहा? मैं तुम्हें प्रेस करता हूँ?' फिर वह बेबी से कहता, -'तुम्हारे जाते ही तीसरा ड्रिंक बनाएगा यह,' कहकर वह हँसता फिर मुस्कुराते हुए बेबी से कहता-'प्लीज़ बेटा एलाऊ हिम हिज़ थर्ड ड्रिंक। उसके बाद चौथा नहीं लेगा यह...आई प्रोमिस यूं डार्लिंग। ...हैव स्वीट ड्रीम्स एण्ड डू नॉट बादर...आई विल टेक केयर ऑफ़ हिम।'
उसके पापा और अंकल! दोनों एक जैसे हैं। कोई किसी से कम नहीं। यही कहती, हँसती-खिलखिलाती-चिढ़ती, वह चली जाती।
गोल, भरा-भरा चेहरा, पतली और लम्बी काली भवें। उठी हुई नुकीली नाक। गुलाब की पंखुरियों जैसे होंठ। टूथपेस्ट के विज्ञापन जैसी शुभ्र-सफे़द और सुडौल दंत-पंक्ति। चुम्बकीय आँखों की जोड़ी और कंधों तक क़रीने से कटे घने-सुनहरे-चमकीले बाल।
ऐसे सजे चेहरे पर वह कभी स्नो, क्रीम और पाऊडर नहीं लगाती थी। लिपिस्टिक तक नहीं। ज़्यादा मूड हुआ तो बगै़र लिपिस्टिक के, केवल लिप-ग्लेसियर लगा लेती और चेहरे पर मोश्चराईजर...बस!
गहनों का तो सवाल ही नहीं, गले में उसने कभी चेन तक नहीं पहनी। सिर्फ़ कलाई पर एक सुन्दर घड़ी बांध लेती।
कपड़े में ब्लू फ़ेडेड-जीन्स और इज़िप्सियन कॉटन की चमकती सफे़द क़मीज, पैरों में लेडीज सैण्डल की जगह चमड़े की चप्पल पहनना उसे ख़ास पसंद था।
लम्बे-चौड़े बेडरूम का एक पूरा कोना बेबी का अपना जिम था। वहीं दीवार पर इसकी एक लेमिनेटेड तस्वीर टंगी थी जिसमें वह अपनी बायीं टांगों पर, शरीर का वज़न डाले खड़ी थी। तस्वीर के सफे़द पार्श्व में बेबी ने अपना संक्षिप्त बायोडाटा, ग्लास मार्किंक पेंसिल से ख़ुद लिख दिया था।
विनीता श्रीवास्तव
इक्कीस वर्ष
पांच फ़ुट सात इंच
उनचास किलो
बेबी की पूरी तरह बेतरतीब और बिंदास ज़िन्दगी में एक ही चीज़़ सबसे महत्त्वपूर्ण थी, वह था उसका अपना वज़न। अपने वज़न को लेकर वह बेहद गंभीर थी। रोज़़ उठने के बाद सबसे पहले, वेयिंग मशीन पर खड़ी होना उसकी पहली आदत थी।
नाश्ता हो या खाना, वह प्रायः अपने रूम में ही खाती। सोफ़ा के मध्य लगे सेन्टर टेबल पर, आधा इंच मोटा शीशे का कवर था जिसके नीचे वह कैलोरी-चार्ट रखती थी। नाश्ता और खाने की सामग्री का पहले मुआयना करती, कैलकुलेटर पर उसका कुल कैलोरी और अन्य तत्व जोड़ती, फिर खाती।
ऐसी ही थी वह। एकदम झक्खी और पूरी बिंदास।
अपने बिंदास अंदाज़़ और आलसी मिज़ाज के बावज़ूद, आधे घंटे तक वह जिम में जम कर कसरत करती। उस वक़्त एयर कंडीशनर का कम्प्रेशर सोलह डिग्री सेन्टीग्रेड पर सेट कर देने के बावज़ूद, उसका गोरा बदन पसीने की बूंदों से भर जाता; और वह ओस में नहाये ताजे़ गुलाब की तरह लगने लगती।
काजल जानकी कुटीर में व्यस्त थी और उसका चित्राकार पति भारती अपने स्टूडियो में। इन दिनों ओल्ड-मास्टर्स की पेंटिंग का रिप्लीका बनाने में वह सारे दिन जुटा रहता। विंची और वेनगॉग के कैटलॉग से वह उनकी रिप्लीका (नक़ल) तैयार करता और क़ासिम भाई को बेचता। इसके पूर्व उसने कई बार अपनी पेंटिंग की एकल प्रदर्शनियां लगायी थीं लेकिन पेंटिंग बिकी नहीं। शिवकाशी के कई कैलेण्डर निर्माताओं के लिए उसने हिन्दू देवी-देवताओं की दर्जनों पेंटिंग बनाई लेकिन सिलसिला जमा नहीं। थक-हार कर उसने अपना रास्ता बदला और अब उसकी दुकान चल निकली।
सबसे ज़्यादा मांग थी विंची के 'मोनालिसा' और 'द लास्ट सपर' की। कभी-कभी उसका जी चाहता कि सिर्फ़ यही दो पेंटिंग बनाता रहे।
भारती तब पच्चीस का था जब काजल से उसकी शादी इस शर्त्त पर हुई कि वह काजल के साथ 'जानकी कुटीर' में ही रहेगा और उसे भला क्या एतराज होता। उसके न आगे कोई था न पीछे, ऊपर से बेघर था।
लेकिन भारती की ज़िन्दगानी अभी नहीं, अभी इतना ही बताना ज़रूरी है कि तब वह सांवला सा, दुबला-पतला और जमाने का सताया हुआ, फ़ाईन-आर्ट का एक मामूली डिप्लोमा होल्डर था।
जीवन-संघर्ष ने उसे चाहे कितना ही तोड़ा हो लेकिन उसकी छोटी-छोटी आँखों में बड़े-बड़े सपने, उस वक़्त भी साबुत थे, जब उसने सांवली-सलोनी काजल का हाथ थामा था। दुबले-पतले और सांवले भारती से, उस वक़्त तक किसी लड़की ने दोस्ती तो दूर, मुस्कुरा के बात तक न की थी; जबकि उसके आर्ट-कॉलेज में तब पढ़ाई कम और बातें ज़्यादा होती थीं। यही कारण था कि भारती के अंदर हीन भावना ने अपनी जडें़ ज़मा ली थीं। उसके जीवन में काजल क्या आयी, बहार ही आ गई.
काजल भी इस क़दर टूट कर समर्पित हुई कि भारती की तप्त मरूभूमि में शीतल जल का सोता ही फूट पड़ा।
भारती के कैनवस के सामने कोई सुन्दर-सी लड़की खड़ी हो और वह उसकी पंेंटिंग बनाए, यही सबसे बड़ी इच्छा थी उसकी और यही सपना उसकी आँखों में शुरू से बसा था।
लड़कियां तो कई थीं उसके आर्ट कॉलेज में, लेकिन भारती की हिम्मत ही नहीं थी कि वह किसी से भी अपनी इच्छा ज़ाहिर करे। उसे पता था; उसकी दुबली-पतली और सांवली काया पर बुझी-बुझी बेचारगी भरी निरीह आँखों, किसी की सहानुभूति भले प्राप्त करले...प्यार नहीं।
और इसी बुझी-बुझी-सी बेचारगी भरी निरीह आँखों पर, काजल को प्यार आ गया था जिसने भारती की ज़िन्दगी बदल कर रख दी।
पिछले ही महीने की बात है जब काजल दुल्हन बनी।
नवविवाहित जोड़ा, नयी-ज़िन्दगी, नये-उमंग और नये-सपने, ऊपर से पति चित्राकार।
भारती को पत्नी के रूप में मिली काजल, उसके कैनवस की नायिका बन गई. घने-लम्बे-घुंघराले बालों की छटा में, काली-मदमाती-घटा-सी काजल का सलोना चेहरा, भारती के कैनवास पर सजीव होने लगा।
किसी मॉडल को अपने सामने बैठा कर, उसकी पेंटिंग बनाने का सपना, वह अब पूरा कर रहा था।
भारती के पहले पोर्ट्रेट में काजल एक दुल्हन थी।
घूँघट से झांकती लजीली आँखों वाली।
दूसरे पोर्ट्रेट में घँूघट की जगह, उसके घने खुले बालों ने ले ली।
फिर तीसरे और चौथे पोटर््रेट में क्रमशः वह अनावृत होती गई.
वह घड़ी जिसने बेबी की जीवन-धारा को बदल डाला, उस घड़ी अंगड़ाई लेती सम्पूर्ण अनावृत काजल, भारती के कैनवास के आगे खड़ी मुस्कुरा रही थी और
धड़कनों को सम्हालती हुई बेबी, चुपचाप पर्दों की झरी से इस नजारे को निर्निमेष निहार रही थी। उसके कंठ सूख रहे थे और टांगें थरथरा रही थीं। तभी एकाएक हाथों में स्ट्रेचुला और ब्रश लिए उसका पति कैनवस छोड़ काजल के समीप जा पहुंचा। फिर और समीप... और समीप... फिर दोनों के मध्य पार करने का और फ़ासला ही न बचा।
उसी दिन, उसी क्षण... बेबी सहसा बड़ी हो गई और अपने बचपन को खो दिया उसने... हमेशा के लिए.