अगुआ / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
आप स्वयं अपनी अगुआई करने वाले हैं। मीनारें, जो आपने खड़ी की हैं, वे आपके विशाल व्यक्तित्व की नींव हैं। और वह व्यक्तित्व भी नींव ही है।
मैं स्वयं भी अपना अगुआ आप हूँ। सूर्योदय के समय लम्बा पड़ता मेरा साया दोपहर होने तक मेरे कदमों में आ सिमटता है। फिर दूसरा सूर्योदय दूसरा साया मेरे सामने बिछा देगा और दोपहर होने पर वह भी मेरे कदमों में आ सिमटेगा।
हमेशा ही हम स्वयं अपने अगुआ होते हैं। हमें वैसा ही हमेशा होना भी चाहिए। वह ताकत जो हमने सँजोई है, और वह जो आगे हमें सँजोनी है, अभी तक भी जुत न सके खेतों में डाले गए बीज बननी चाहिए। खेत, किसान, ताकत और ताकत को सँजोने वाला - सब-कुछ हम ही हैं।
घने कोहरे में जब तुम आकांक्षा बनकर घूम रहे थे, मैं भी वहाँ घूम रहा था। तब हमने एक-दूसरे को जाना और अपने उत्कंठित स्वप्नों से बाहर आए थे। हमारे सपने समय की सीमा से परे थे। वे अपार जगह में फैले थे।
और उस समय जब कुछ बोलने को कँपकँपाते जीवन के होंठों पर एक शब्द की तरह ठहरे थे, एक अन्य शब्द के रूप में मैं भी वहाँ था। तब जीवन ने हमें प्रकाशित किया। हम बीते कल की यादों में उतर गए। हम आने वाले कल को गुनगुनाने लगे। बीता कल मृत्यु से हमारी पराजय का था और आने वाला कल जीवन की महक का।
और अब, हम ईश्वर के हाथों में हैं। उसके दाएँ हाथ में तुम सूरज हो और बाएँ हाथ में मैं धरती। लेकिन तुम्हारी चमक उतनी नहीं है जितनी मेरी।
और हम - सूरज और धरती - व्यापक सूरज और धरती बनने की शुरुआत भर हैं। और हमेशा शुरुआत ही बने रहेंगे।
आप स्वयं अपने अगुआ है। आप मेरे प्रफुल्लित हृदयरूपी बाग के द्वार से गुजरते अजनबी हैं।
और मैं भी अपना स्वयं का अगुआ हूँ। लेकिन मैं अपने वृक्षों के साए में बैठा हूँ और स्थिर हूँ।