अग्निपथ पर अग्निवीर / हरिशंकर राढ़ी
पता नहीं किस रौ में तुलसीदास जी लिख गए थे कि राम न सकहिं नामगुन गाई। उनका मंतव्य जो भी रहा हो, लेकिन यह बात सच है कि नाम में बहुत कुछ धरा है, बशर्ते नामकरण करने वाले संस्कारी और महाज्ञानी हों। योजना जैसी भी हो, नामकरण सार्थक एवं उच्च स्तरीय होना चाहिए। दूसरे कोने से देखिए, यदि सेना की किसी कमान का नाम ‘शीतल ब्रिगेड’ रख दें तो वह क्या जलवा दिखाएगी? वैयाकरण तथा संस्कारित सरकारें संज्ञाओं का महत्त्व समझती हैं। जहाँ आग ही आग हो, वहाँ किसी और तत्त्च को महत्त्व क्यों देना? अपनी संस्कृत और उसकी बेटी हिन्दी के पास तो अग्नि के दर्जनों पर्याय हैं। एक से बढ़कर एक। जब हमारे पास अग्नि इतने रूपों मंे हो तो हम पानी के बारे में क्यों सोचें?
सही पूछिए तो दुनिया के सभी देशों को अपनी सेनाओं का नाम अग्नि से जोड़कर रखना चाहिए। हमारे पड़ोसी मुल्क को तो अपने मुल्क का ही नाम अग्निस्तान रख लेना चाहिए। सेना की अलग-अलग ब्रिगेड का नाम भी शोला ब्रिगेड, अंगारा ब्रिगेड, बड़वानल ब्रिगेड जैसा होना चाहिए। पहले की सरकारें इस विषय में सोच नहीं पाती थीं। उन्हें जब भी किसी संस्थान, निर्माण या योजना का नामकरण करना होता था, तो बस एक ही परिवार याद आता था। उनका शब्दकोश कितना बकवास था! इधर की सरकारों ने विद्वानों का एक समूह शब्दकोश पर ही लगा रखा है, जो उनकी योजनाओं के लिए अनछुए, कुँवारे, अर्थबोध से युक्त और यथागुण संज्ञाएँ तलाश सकें। उस तलाश के बाद क्या-क्या संज्ञाशून्य होगा, इस पर उन्हें विचार नहीं करना है।
तो एक चारवर्षीय योजना आई है। इसे यदि चतुर्वर्षीय कह दें तो कुछ सांस्कारिक पुट भी आ जाएगा तथा ‘चतुर्’ के व्यंजनात्मक अर्थ से अर्थ में चार चाँद लग जाएगा। इतनी चतुराई से गढ़ी गई योजनाओं में तो ‘चतुर्’ का दावा चार से अधिक बनता है। सेना जैसी जोखिमवाली सेवा में देश के नौजवानों को लंबे समय तक रखना उनके जीवन से खेलना है। कायदे से तो एक साल के लिए ही रखना चाहिए। इधर से गए, उधर से आए। न तो स्थायित्व झेलना और न आगे किसी प्रकार की ऐसी माँग का ख़तरा, जिससे देश के सिकुड़ते-निचुड़ते खजाने पर ख़तरा हो। लंबी-लंबी नौकरी करते हुए यदि सारा माल ये ही मार ले गए तो हम कहाँ जाएँगे? चार-चार साल में आते-जाते रहेंगे तो बेरोजगारी की समस्या भी समाप्त। फिर किसी को यह आरोप लगाने का अवसर नहीं मिलेगा कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं मिली।
चार साल की नौकरी में अग्निवीर भी तनावमुक्त रहेगा। तीन, साढ़े तीन साल की सेवा करने के बाद अगर जंग छिड़ती भी है तो चिंता नहीं। कौन-सी लंबी नौकरी बची है, जिसके लिए सूखी पहाड़ी पर चढ़कर गोलाबारी करने जाए। अपने गाँव निकलो। इससे ताबूतों के खर्चे भी बचेंगे और इक्कीस तोपों की सलामी का भी। जिले के प्रशासनिक अधिकारियों का एक दिन योजनागत कार्यों के लिए बचेगा। जनता को भी ‘फलाँ जी अमर रहें’ के नारे लगाने और रोने से छुटकारा मिलेगा।
लेकिन अच्छी बातें हर सरकार नहीं कर पाती। इसके लिए समर्पित नेतृत्व चाहिए। जिस देश के युवावर्ग में इतनी आग है, उसे पहले अग्निवीर क्यों नहीं बनाया गया? उनके अंदर और बाहर की आग पहले के नेतृत्वों को क्यों नहीं दिखी? यदि नहीं दिखी तो आज भी उनकी बौद्धिक क्षमता पर प्रश्न खड़े किए जाने चाहिए। भले ही उसके लिए नए अख़बार और नए न्यूज चैनल खोलने पड़ें। आप युवावर्ग की सबसे बड़ी विशेषता को किस आधार पर उपेक्षित करते रहे?
युवावर्ग की आपत्ति जायज है। समस्या चार साल को लेकर नहीं है, नाम को लेकर है। जब वह पहले से ही अग्निवीर है तो उसे आप यह नाम अब क्यों दे रहे हैं? उसने ऐसा कब और क्या नहीं किया, जिससे उसकी अग्निवीरता साबित न हुई हो? जब भी कोई मौका हाथ लगा, सरकारी बसों, रेलगाड़ियों, स्टेशनों और इमारतों में आग लगाई। हजारों बसें और गाड़ियाँ धू-धूकर जलाईं, तब भी आपको विश्वास नहीं हुआ कि ये असली अग्निवीर हैं। आपकी याददाश्त कमजोर है, फिर से देख लो कहाँ-कहाँ अग्निवीरता कर रहे हैं। गाड़ियों और बाज़ार ों की आग से आसमान छूती लपटों को देखकर भी आप इन्हें अलग से अग्निवीर बनाना चाहते हैं तो आपकी बुद्धि पर तरस खाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया जा सकता। इससे बेहतर तो यह था कि आप इन्हें ‘अग्निवीर भत्ता’ दे देते। कायदे से तो इनका नाम अगियाबैताल होना चाहिए। यह तो सरकार शिष्ट और संस्कारी है कि उसने एक भद्र नाम रखा- अग्निवीर।
जब भी इन अग्निवीरों को लगा कि उनके अंदर की आग कम हो रही है, चिलम, सिगरेट-शृंखला एवं दूसरे रसायनों से अपनी आग भड़काई है। इश्क़ की आग तो भड़कती ही रहती है। चार साल में तो इश्क़ भी चार-पाँच हो जाता है। पत्थरबाजी भी वक़्त ज़रूरत करते ही रहते हैं। आदमी ने पत्थरों से आग बहुत पहले पैदा कर ली थी। वह प्रस्तर युग था, अब अग्नि युग है।
बड़े और साहसी लोग ही आग से खेल सकते हैं, वही अग्निपथ पर चलते हैं। अग्निपथ के लिए चारो तरफ़ अग्नि का होना ज़रूरी है। इसलिए अग्नि फैलाई जाए। अग्निपथ- अग्निपथ- अग्निपथ! आग सरकारी हो तो वैध होती है। सरकारी इमारत कितनी भी रेतमय हो, उसकी वैधता निजी संगमरमर-सरियामय इमारत से अधिक होती है। हर विभाग, हर समाज हर संस्था में आग होनी चाहिए। हर कलेजे में आग होनी चाहिए। मैं तो कहता हूँ कि अब हर पद के पहले ‘अग्नि’ का उपसर्ग लगा देना चाहिए- अग्निशिक्षक, अग्निप्राचार्य, अग्निलिपिक, अग्निसेवक, अग्निचालक, अग्निविक्रेता, ज़िला अग्न्याधीश, अग्नि सचिव, अग्नि विकास अधिकारी, अग्निकर अधिकारी, अग्नि उपनिरीक्षक, अग्निमंत्री, अग्निपाल आदि। इन सबका कार्यकाल भी चार साल से अधिक न हो। दूसरे चरण में रिश्तों के साथ भी अग्नि जोड़ा जाए - अग्निपुत्र, अग्निपिता, अग्निपुत्री, अग्निवधू, अग्निसास, अग्निससुर, अग्निसाला, अग्निसाली, अग्निप्रमी, अग्निप्रेमिका, अग्निपड़ोसी, अग्निपौत्र वगैरह-वगैरह! मानव तो जबसे शिक्षित हुआ है, तभी से अग्निमानव है। कितना अच्छा दहकता हुआ अग्निमय संसार होगा न !